वेदान्त
बेद शब्द की उत्त्ति संस्कृत 'विद्' धातु से हुई है । विद् का अर्थ है जानना, अन्त का अर्थ है समाप्ति । इस तरह वेदान्त शब्द का अर्थ हुआ ज्ञान का अन्त । दर्शन को वेदान्त कहते हैँ ; क्योँकि यह जीवन के लक्ष्य के विषय मेँ बतलाता है तथा उसकी प्राप्ति के लिए मार्ग-दर्शन करता है । वेदान्त वेदोँ अथवा उपनिषदोँ का धर्म है । एकमात्र यही सार्वभौम तथा सनातन-धर्म है । यह श्रुतियोँ के उपदेश का सारांश है ।
वेदान्त वह महान् दर्शन है जो जीवन की एकता अथवा चैतन्य की एकता की शिक्षा देता है । यह वह परम दर्शन है जो अधिकारपूर्वक ओजपूर्ण तथा प्रभावशाली शब्दोँ मेँ यह घोषणा करता है कि यह परिच्छिन्न जीव वास्तव मेँ अरमात्मा अथवा ब्रह्म से एक ही है । यह स्वर्गिक दर्शन है जो मन को तत्क्षण ही ब्राह्मीभूमि, दिव्य ज्योति तथा महिमा की महान् चोटी की ओर अग्रसर करता है । यह आपको पूर्ण अभय बनाता है तथा मनुष्य और मनुष्य के बीच के प्रतिबन्धोँ को ध्वस्त कर डालता है । यह पीड़ित मानव-जाति के लिए समता तथा परम शान्ति के पथ को प्रशस्त करता है । यही एकमात्र दर्शन है जो सबमेँ एक ही आत्मा के आधार पर हिन्दू तथा मुस्लिम, कैथोलिक तथा प्रोटेस्टैण्ट, वैष्णव तथा शैव, आइरिश तथा अँगरेज, योरोप तथा अमेरिकावासियोँ मेँ हार्दिक एकता उत्पन्न कर सकता है । यही एकमात्र दर्शन है जिसको भली-भाँति समझ लेने तथा व्यवहार मेँ उतारने से विश्व-युद्ध, सङ्घर्ष, तनाव, साम्प्रदारिक दङ्गे आदि का सर्वत्र, सभी देशोँ मेँ निच्यय ही अन्त हो जायेगा ।
इस भयङ्कर संसार के घनघोर संग्राम मेँ घायल एवं पीड़ित जनोँ के लिए वेदान्त ही महौषधि है । यह दिव्याञ्जन है जो अविद्या-रूपी चक्षु-व्याधि का निवारण करके दिव्य दृष्टि अथवा अपरोक्षानुभूति प्रदान करता है । विशुद्ध सुख तथा अमृतत्व के परम धाम को प्राप्त करने के लिए यह सीधा प्रशस्त मार्ग है ।
यह अज्ञान का, जो मानव-क्लेशोँ का मूल कारण है, उन्मूलन करता है तथा सतत परिभ्रमणशील जन्म-मृत्यु के चक्र को रोक कर अमृतत्व, असीम ज्ञान तथा आनन्द प्रदान करता है । यह निराशोँ को आशा, शक्तिहीनोँ को शक्ति, दुर्बलोँ को बल तथा दुःखियोँ को सुख प्रदान करता है । वेदान्त आत्मा का प्रतिपादन करता है जो अनादि, अनन्त, देशकाल-रहित, अमर, स्वयं-प्रकाश, अखण्ड तथा सर्वव्यापक है, जो सच्चिदानन्द है ।
वेदान्त सभी के लिए मुक्ति प्रदान करता है । यह सभी को गले लगाता है, सभी को ग्रहण करता है । वेदान्त मत-मतान्तरोँ के खण्डन-मण्डन के लिए अथवा वाद-विवाद के लिए शुष्क दर्शन नहीँ है । यह तो ब्रह्म अथवा सत्य मेँ शाश्वत आनन्दमय वास्तविक जीवन ही है । साधन-चतुष्टय से सम्पन्न बन जाइए । विचार कीजिए__"मैँ कौन हूँ ?" ब्रह्म का ध्यान कीजिए । जान लीजिए, "तू वही है ।" हे वीर साधक ! कहिए, "ओउम् तत्सत्, ओउम् सच्चिदानन्दरूपो शिवोऽहम्, शिवोऽहम् । सच्चिदान्दस्वरूपोऽहम् ।"
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