याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी-संवाद
[ बृहदारण्यकोपनिषद्]
सबसे महान् ऋषि ज्ञानी याज्ञवल्क्य ने कहा, "हे मैत्रेयी, मैँ निश्चय ही संन्यास-जीवन मेँ प्रवेश करने के लिए इस गृह से बाहर अरण्य मेँ जा रहा हूँ ; अतः मैँ सम्पत्ति को तुम्हारे और कात्यायनी के बीच मेँ बाँट देना चाहता हूँ ।"
मैत्रेयी ने कहा__"मेरे पूज्य प्रभु ! सच बतलाइए कि यदि समस्त जगत् का धन मुझे प्राप्त हो तो क्या मैँ अमरत्व प्राप्त कर लूँगी ?"
"नही", याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया__"धनी लोगोँ के समान ही तुम्हारा जीवन व्यतीत होगा ; परन्तु धन से अमरत्व की आशा नहीँ ।"
मैत्रेयी ने कहा__"जिस धन से मैँ अमर नहीँ बनती, उस धन से मुझे क्या लाभ ? हे आदरणीय प्रभु ! अमरत्व के लिए कौन-सा साधन है, जो आप जानते हैँ, मुझे बताइए ।"
याज्ञवल्क्य ने कहा__"हे प्रिय मैत्रेयी, आओ बैठ जाओ । मै तुम्हेँ बतलाऊँगा । जो-कुछ भी कहूँ, उसे अच्छी तरह समझ लो ।"
याज्ञवल्क्य ने पुनः कहा__"वास्तव मेँ पति के लिए पति प्रिय नहीँ होता, परन्तु स्वयं के लिए ही पति प्रिय होता है । वास्तव मेँ स्त्री के लिए ही स्री भी प्रिय नहीँ होती, परन्तु स्वयं के लिए ही स्त्री प्रिय होती है . पुत्र के लिए पुत्र प्रिय नहीँ होता, परन्तु स्वयं के लिए ही पुत्र प्रिय होता है । हे मैत्रेयी निश्चय ही यह अमर सर्वव्यापक आत्मा अथवा ब्रह्म ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय तथा निदिध्यासनीय है ; आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः, श्रोतव्यो, मन्तव्यो, निदिध्यासितव्यो ।
"हे मैत्रेयी ! जहाँ द्वैत है, वहीँ मनुष्य अन्य को देखता है, अन्य को सूँघता है, अन्य को चखता है, अन्य को अभिवादन करता है, अन्य से बोलता है, अन्य को स्पर्श करता है, अन्य को जानता है ; परन्तु जब उसके लिए यह सब आत्मा ही हो गया हो तब वह अन्य को कैसे देख सकता है, अन्य को कैसे सूँघ सकता है, कैसे स्तर्श कर सकता है, कैसे जान सकता है ? जिसके द्वारा यह जाना जाता है, उसे किसके द्वारा जाने ? वह आत्मा 'नेति-नेति' शब्द से व्यक्त की जाती है । आत्मा अक्षय है । वह मुक्त तथा असङ्ग है । वह दुःख तथा विनाश से अलिप्त है । मनुष्य विज्ञाता को कैसे जान सकता है ? इस प्रकार हे मैत्रेयी, तुमको शिक्षा मिल चुकी ।"
इतना कह कर याज्ञवल्क्य ने बन को प्रस्थान किया ।
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