चित्त
अर्द्धचेतन मन को वेदान्त मेँ चित्त कहते हैँ । आपके चित्त का अधिकांश भाग उन डूबे हुए अनुभवोँ तथा स्मृतियोँ से बना है जो मन के पीछे फेँक दिये गये हैँ, परन्तु जिन्हेँ पुनः बाहर निकाला जा सकता है ।
वृद्ध होने पर जब आपकी स्मृति कमजोर होने लगती है तब इसका लक्षण यह है कि लोगोँ के नाम को याद रखना आपके लिए कठिन जान पड़ता है । इसका कारण ढ़ूँढ़ने के लिए कहीँ दूर जाने की आवश्यकता नहीँ है । ये सभी नाम स्वच्छन्दता से रखे गये हैँ । वे सब नाम-पत्र के समान हैँ । इन नामोँ से मनुष्य का कोई सम्बन्ध नहीँ है । मन साधारणतः सम्बन्ध के द्वारा याद रखता है ; क्योँकि इससे संस्कार गम्भीर हो जाते हैँ । वृद्धवस्था मेँ भी आप स्कूल तथा कालेज मेँ पढ़े हुए कुछ सन्दर्भोँ को याद कर सकते हैँ ; परन्तु प्रातः की पढ़ी हुई वस्तु को आप शाम तक ही भूल जाते हैँ । जो अति-मानसिक कार्य करते हैँ ; ब्रह्मचर्य के नियमोँ का पालन नहीँ करते तथा जो चिन्ता, शोक आदि से पीड़ित रहते हैँ, वे शीघ्र ही स्मृति खो बैडते हैँ । वृद्धावस्था मेँ भी आप पुरानी गटनाओँ को याद रख सकते हैँ ; क्योँकि उन घटनाओँ के लिए साहचर्य सम्बन्ध है ।
मानसिक क्रियाएँ सचेतन मन के क्षेत्र तक ही सीमित होती है ; परन्तु चित्त का कार्य सचेतन मन से अधिक व्यापक है । जब सन्देश तैयार हो जाते हैँ तो वे चित्त से बिजली की भाँति दमक उठते हैँ । अन्तःकरण के कार्योँ का दश प्रतिशत ही सचेतन मन के क्षेत्र मेँ आता है । हमारे मानसिक जीवन का कम-से-कम नब्बे प्रतिशत भाग अर्द्ध-चेतन मन मेँ छिपा रहता है । हम बैठ कर कोई समस्या सुलझाना चाहते हैँ ; किन्तु विफल हो जाते हैँ । हम चारोँ ओर देखते हैँ ; बारम्बार प्रयास करते हैँ ; फिर भी विफल हो जाते हैँ । अचानक एक विचार प्रकट हो जाता है जिससे उस समस्या का समाधान मिल जाता है । चित्त काम कर रहा था ।
कभी-कभी रात्रि मेँ आप इस विचार को ले कर सोने जाते हैँ, 'मुझे ट्रेन पकड़ने के लिए सबेरे जगना है ।' चित्त इस सन्देश को ग्रहण कर लेता है तथा वह बिना किसी भूल के आपको ठीक समय पर उठा देता है । चित्त आपका चिरसङ्गी तथा सच्चा मित्र है । रात्रि के समय किसी गणित अथवा ज्यामिति के प्रश्न का उत्तर पाने मेँ बार-बार असफल रहते हैँ; परन्तु प्रतःकाल उठते ही आपको उसका स्पष्ट उत्तर मिल जाता है । यह उत्तर चित्त से एकाएक दमक उठता है । सुप्त अवस्था मेँ यह (चित्त) अविराम अनवरत काम करता रहता है । यह सजाता है, वर्गीकरण करता है, सारी बातोँ को चुनता है तथा सन्तोषजनक समाधान प्राप्त तर लेता है । यह सब अर्द्धचेतन मन का ही कार्य है ।
अर्द्धचेतन मन के सहारे आप अवाञ्छनीय दुर्गुणोँ के विरोधी स्वस्थ, सद्गुणोँ के अर्जन द्वारा अपनी निम्न प्रकृति को बदल सकते हैँ । यदि आप भय पर विजय पाना चाहते हैँ तो मन-ही-मन इसका निषेध कीजिए । कहिए, 'मुझे भय नहीँ है ।' तथा अपने मन को इसके प्रतिपक्ष गुण 'साहस' पर एकाग्र कीजिए । इसके विकसित होने पर भय स्वतः ही लुप्त हो जाता है ; धनात्मक के द्वारा ऋणात्मक का दमन हो जाता है । यह प्रकृति का अचूक नियम है । यही राजयोगियोँ की प्रितिपक्ष-भावना है । नीरस कार्यो तथा कर्त्तव्योँ के प्रति रुचि तथा इच्छा का विकास कर आप उनके प्रति भी अपने मन मेँ चाह उत्पन्न कर सकते हैँ । आप पुराने संस्कारोँ को बदल कर चित्त मेँ नयी आदतेँ, नये आदर्श, नये विचार, नयी रुचि तथा नये चरित्र का निर्माण कर सकते हैँ ।
चित्त के कार्य हैँ स्मृति या स्मरण, धारणा तथा अनुसन्धान । मन्त्र-जप करते समय चित्त ही स्मरण करता है । यह बहुत से कार्योँ को करता है । यह बुद्धि से भी अधिक अच्छा कार्य करता है ।
सारे कर्म, भोग तथा अनुभव अपने संस्कार चित्त मेँ सूक्ष्म चिह्नोँ के रूप मेँ छोड़ जाते हैँ । ये संस्कार ही जड़ हैँ जिनसे पुनः जाति, आयु तथा सुख-दुःख-रूपी भोगोँ की प्राप्ति होती है । संस्कारोँ के पुनर्जागरण से स्मृति होती है । योगी अन्दर गम्भीर प्रवेश कर इन संस्कारोँ के सीधे सम्पर्क मेँ आता है । वह आन्तरिक योगिक दृष्टि से इन्हेँ देखता है । इन संस्कारोँ पर संयम के द्वारा वह पूर्व-जन्मोँ के ज्ञान को प्राप्त कर लेता है । दूसरोँ के संस्कार पर संयम करने से वह उनके भी पूर्व-जन्मोँ का ज्ञान प्राप्त कर लेता है ।
यदि आप किसी वस्तु को याद करना चाहते हैँ तो आपको मानस प्रयास करना होगा । आपको अर्द्धचेतन मन अथवा चित्त के विभिन्न स्तरोँ की गहराइयोँ ऊपर-नीचे जाना होगा तथा इष्ट-वस्तु को विभिन्न अद्भुत असङ्गत वस्तुओँ के समूह से पहचात कर निकाल लेना होगा । जिस तरह रेलवे डाक मेँ सेँ डाक छाँटने वाला अपना हाथ ऊपर-नीचे हिलाता हुआ विभिन्न दरबोँ मेँ से ठीक पत्र को निकाल लेता है, उसी तरह विचार का अनुसन्धान करने वाला भी चित्त के दरबोँ मेँ ऊपर-नीचे जा कर इष्ट-वस्तु को सामान्य चेतन मन के ऊपर ला देता है । चित्त बहुत से पदार्थोँ के ढेर मेँ से ठीक वस्तु को चुन कर निकाल सकता है ।
ज्योँ-ही मन किसी वस्तु का अनुभव करता है त्योँ-ही चित्त मेँ अनुभव के संस्कार का निर्माण हो जाता है । वर्त्तमान अनुभव तथा चित्त मेँ संस्कार-निर्माण के बीच कोई व्यतारेक नहीँ होता ।
स्मृति चित्त का कार्य है । वेदान्त मेँ एक अलग तत्त्व है । कभी-कभी यह मन के अन्तर्गत आता है । सांख्य-दर्शन मेँ यह बुद्धि अथवा महत् तत्त्व के अन्दर आ जाता है । पतञ्जलि ऋषि के राजयोग-दर्शन मेँ जो चित्त है, वह वेदान्त के अन्तःकरण का समवर्ती है ।
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