कर्मयोग KARMYOG
अधूरे मन से की हुई सेवा कोई सेवा नहीँ । सेवा करते समय आप अपना पूरा हृदय, मन तथा आत्मा को लगा दीजिए । कर्मयोग के अभ्यास मेँ यह बहुत ही आवश्यक है ।
कुछ लोग अपने शरी को एक स्थान मेँ, मन को दूसरे स्थान मेँ मेँ तथा आत्मा को तीसरे स्थान मेँ रखते हैँ । यही कारण है कि उन्हेँ इस मार्ग मेँ ठोस उन्नति नहीँ मिल पाती ।
स्वार्थपूर्ण कर्मोँ मेँ पड़ कर जीवन के लक्ष को न भूलिए । जिवन का लक्ष्य आत्म-साक्षात्काठ है । क्या आप जीवन के लक्ष्य कथा उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हैँ ? क्या आप जप, प्राणायाम तथा ध्यान करते हैँ ? क्या आपने अपने मनःचक्षु के सामने आदर्श को रखा है ? जिस दिन आप आध्यात्मिक साधना का अभ्यास नहीँ करते, वह दिन व्यर्थ ही जाता है । मन को ईश्वर पर अर्पित कीजिए तथा हाथोँ से काम कीजिए । आपको अपनी प्रवृत्तियोँ का निरीक्षण एवं परिक्षण करना होगा । कर्म मनुष्य को संसार-बन्धन मेँ नहीँ डालता, स्वार्थ-वृत्ति ही उसे बन्धन मेँ डालती है । मन को कर्मयोग के लायक बनाइए । स्वार्थपूर्ण कर्म को योग नहीँ कहा जा सकता । मन का निर्माण इस तरह हुआ है कि वह सदा छोटे-छोटे कामोँ मेँ भी फल की आशा रखता है । यदि आप मुसकराते हैँ तो इसके लिए भी आप मित्र से फदले मेँ मुसकराहट की अपेक्षा रखते हैँ । हाथ जोड़ कर प्रणाम करते समय आप दूसरोँ से भी प्रणाम पाने की अपेक्षा रखते हैँ । एक प्याला पानी भी अगर आप किसी को देते हैँ तो इसके लिए उसके आभार-प्रदर्शन की आशा रखते हैँ । ऐसी हालत रही तो आप निष्काम्य कर्मयोग का अभ्यास कैसे कर सकते हैँ ?
जीवन बहुमूल्य है । गीता के उपदेश को जीवन मेँ उतारिए । अहङ्कार तथा फल की कामना से रहित हो कर कर्म कीजिए । ऐसा सोचिए कि आप भगवान् नारायण के हाथ मेँ निमित्त मात्र हैँ । यदि इस मानसिक भाव को रख कर कर्म करेँगे तो आप शीघ्र ही योगी बन जायेँगे । कर्म से मनुष्य कभी पतित नहीँ बनता । निःस्वार्थ कर्म नारायण की पूजा ही है । सारे कर्म पवित्र हैँ । पारमार्थित दृष्टि मेँ, कर्मयोग की दृष्टि मेँ कोई भी कर्म निम्न नहीँ है । पाखाना साफ करने का कर्म भी यदि उचित भाव और मनोवृत्ति से किया जाये तो योग ही है । मेहतर अपने वर्ण-धर्म मेँ रह कर भी अपने कर्त्तव्य-कर्म द्वारा ईश्वर-साक्षात्कार कर सकता है । महाभारत मेँ धर्मव्याध की कहानी है । उसने मांस-विक्रय करते हुए भी अपने माता-पिता की सेवा द्वार ईश्वर-साक्षात्कार कर लिया था । आपते अन्दर ज्ञान के लिए पर्याप्त सामग्री है । आपके अन्दर ज्ञान तथा शक्ति का अक्षय स्रोत है । उसे जगाने की आवश्यकता है । हे सौम्य ! अब जग उठो !
जब आप कर्त्तपन के भाव से रहित हो कर अपने कर्मो तथा फलोँ को ईश्वरार्पण कर निष्काम्य भाव से कर्म करेँगे तो सारे कर्म योगिक क्रिया बन जायेँगे । टहलना, खाना, सोना, शौच, बातेँ करना आदि__ये सब ईश्वर के प्रति अर्चना बन जायेँगे । हर प्रकार का कार्य आपके लिए योग ही है । ऐसा विचार कीजिए कि भगवान् शिव आपके हाथोँ से काम कर रहे हैँ तथा आपके मुँह से खा रहे हैँ । प्रारम्भ मेँ आपके कुछ कार्य स्वार्थपूर्ण हो सकते हैँ तथा कुछ स्वार्थरहित ; परन्तु कालान्तर मेँ आप सारे कर्म निष्काम भाव से करने लगेँगे । सदा अपनी प्रवृत्ति का निरीक्षण करते रहिए । यही निष्काम कर्मयोग की कुञ्जी है । भाव के शुद्ध होने पर हर कर्म को आध्यात्मिक बनाया जा सकता है । कर्म ध्यान है । गम्भीर प्रेम के साथ, कर्त्ताभाव से रहित हो कर, फल की कामना न रख कर हर व्यक्ति की सेवा कीजिए । यदि आप ज्ञान-मार्ग का अनुगमन करते हैँ तो अनुभव किजिए कि आप मूक साक्षी हैँ तथा प्रकृति ही सब-कुछ करती है ।
स्वार्थ ने ही आपके हृदय को खेदपूर्ण रूप से संकुचित कर डाला है । स्वार्थ तो समाज के लिए अभिशाप ही है । स्वार्थ बुद्धि पर परदा डाल देता है । स्वार्थ बुद्धि की सङ्कीर्णता है । भोग से स्वार्थ तथा स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियाँ बढ़ती हैँ । यह मानवदुःखोँ का मूल है । निष्काम सेवा से ही वास्तविक आध्यात्मिक उन्नति का समारम्भ होता है । भाव, प्रेम तथा भक्ति के साथ साधुओँ, संन्यासियोँ, भक्तोँ गरीब बीमारोँ की सेवा कीजिए । ईश्वर सभी हृदयोँ मेँ आसीन है ।
सेवा-भाव आपकी हड्डी-हड्डी मे, आपके कोषाणुओँ, रक्त और आपकी नस-नस मेँ गम्भीरता से प्रवेश कर जाना चाहिए । इसका फल अनमोल है । अभ्यास कीजिए तथा विश्वात्म-विकास एवं असीम आनन्द का अनुभव कीजिए । मित्रो ! लम्बी बातेँ तथा व्यर्थ बकवास से कुछ नहीँ होगा । कर्म मेँ उत्साह तथा लगन लाइए । सेवा-भाव से तेजस्वी बनिए ।
बहुरूपिये के समान ही__जो पुरुष की निष्ठा रखता है ; परन्तु स्त्री की चेष्टा करता है__ईश्वर मेँ निष्ठा रखेँ, हाथ से चेष्टा करेँ । आप भी अभ्यास के द्वारा ये दोनोँ बातेँ एक साथ कर सकते हैँ । शारीरिक कर्म सहज, यन्त्रवत् अथवा अनायास होने लगेँगे । आपके दो मन होँगे । मन का एक भाग काम करता होगा तथा तीन चौथाई भाग ईश्वर की सेवा, ध्यान तथा जप मेँ संलग्न होगा । साधारणतः कर्मयोग को भक्तियोग से सँयुक्त रखते हैँ । कर्मयोगी अपनी कर्मोन्द्रियोँ से जो-कुछ भी करता है, उसे ईश्वर के प्रति अर्पित कर देता है । यही ईश्वर-प्रणिधान है ।
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