देव-यक्ष-संवाद
[ केनोपनिषद् ]
देवासुर-संग्राम मेँ देव विजयी हुए । देवोँ ने सोचा कि विजय उनके ही सामर्थ्य से प्राप्त हुई तथा वे इस बात को भूल गये कि ईश्वरीय शक्ति से ही उन्हेँ विजय प्राप्त हुई थी । परब्रह्म परमात्मा उन्हेँ पाठ पढ़ाना चाहते थे । वे उनके अभिमान को जानते थे । वह उनके समक्ष यक्ष के रूप मेँ प्रकट हुए । उस यक्ष का आदि तथा अन्त दृष्टिगत नहीँ होता था । वे उसे (यक्ष को) न जान सके । उन्होँने अग्नि से कहा__"हे जातवेद ! पता लगाइए कि यह यक्ष कौन है ? " उसने कहा, "अच्छा ।" अग्नि ब्रह्म के पास गया । ब्रह्म ने पूछा, "तू कौन है ?" उसने उत्तर दिया, "मैँ वास्तव मेँ अग्नि हूँ । मेँ निश्चिय ही जातवेद हूँ ।" फिय ब्रह्म ने अग्नि से पूछा, "तुममेँ क्य सामर्थ्य है ? " अग्नि ने कहा, "पृथ्वी मेँ यह जो-कुछ है, मैँ इस सभी को जला सकता हूँ ।" ब्रह्म ने अग्नि के समक्ष एक तृण रख दिया तथा कहा, "इसे जलाओ तो ।" अग्नि सम्पूर्ण वेग से उस तृण के समीप गया ; परन्तु वह उसे जला न सका । तदनन्तर वायुदेव आये । ब्रह्म ने वायु से पूछा, "तुममेँ क्या सामर्थ्य है ?" वायुदेव ने उत्तर दिया, "मैँ समस्त जगत् को उसके अन्तर्गत समस्त वस्तुओँ के साथ उड़ा सकता हूँ ।" ब्रह्म ने उसके सम्मुख तृण रख कर वायु से कहा, "इसे उड़ा दो ।" वायु अपने सारे सामर्थ्य के साथ उसे उड़ाने लगा, परन्तु उसे रञ्चमात्र भी डिगा न सका । अन्त मेँ स्वयं इन्द्र आये ; परन्तु उनके आते ही ब्रह्म अन्तर्धान हो गये । इन्द्र अचम्भित तथा विमूढ़ हो चले थे । जब वे अपनी पराजय पर आश्चर्य तथा लज्जा का अनुभव करते हुए खड़े थे, हिमवान् की पुत्री तथा भगवान् शिव की पत्नी उमा उनके समक्ष प्रकट हुई तथा यक्ष का रहस्य बतलाया । तभी इन्द्र ने जाना कि वह यक्ष तो ब्रह्म ही थे । माता उमा की कृपा से वे अन्य देवताओँ से वास्तव मेँ श्रेष्ट हो गये ।
अहङ्कार के कारण आप सोचते हैँ कि आप ही सब-कुछ करते हैँ तथा इस तरह आप बन्धन मेँ पड़ जाते हैँ । ऐसा अनुभव कीजिए कि आप भगवान् के हाथोँ मेँ निमित्त मात्र हैँ । ईश्वर आपके हाथोँ से काम करता है, आपकी आँखोँ से देखता है, आपके कानोँ से सुनता है, आपकी नासिका से सूँघता है । आप अहङ्कार तथा कर्म के बन्धन से मुक्त हो जायेँगे । आप शान्ति तथा ईश्वरैक्य प्राप्त करेँगे । यही कर्मयोग तथा भक्तियोग का रहस्य है ।
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