गीता का सन्देश
यह आत्मा कभी जन्मता नहीँ, न कभी मरता ही है । यह अज, नित्य, अव्यय, पुराण तथा अक्षय है । शरीर के मारे जाने पर भी यह आत्मा मारा नहीँ जाता । न तो यह किसी को मारता है, न मारा जाता है ।
स्थितप्रज्ञ अथवा जीवन्मुक्त कामना, तृष्णा, भय, ममता, अहन्ता तथा सङ्ग से मुक्त रहता है । वह अपनी आत्मा मेँ ही तृप्त रहता है । वह विषय-सुखोँ के बीच रहते हुए भी उनसे उदासीन रहता है । इष्ट-वस्तुओँ की प्राप्ति होने पर वह हर्षित नहीँ होता । वह सदा सभी परिस्थितियोँ मेँ समत्वबुद्धि रखता है । वह अपनी आत्मा मेँ ही स्थित रहता है ।
अहङ्कार-रहित हो कर फलोँ की कामना का परित्याग कर सतत कर्म कीजिए । सफलता एवं विफलता मेँ समत्वबुद्धि बनाये रखिए । इससे आप कर्मोँ के बन्धन मेँ नहीँ पड़ेँगे ।
इन्द्रियाँ विषय-पदार्थोँ मेँ रमण करती हैँ । देखना, सुनना, छूना, सूँघना, खाना, जाना, सोना, श्वास लेना, बोलना, छीँकना, आँखेँ तथा बन्द करना__ये सब इन्दियोँ के ही धर्म हैँ । वास्तव मेँ तू तो इन इन्द्रियोँ के धर्मोँ तथा मन के व्यापारोँ का मूक साक्षी है । प्रकृति अथवा श्वभाव ही इन सभी कर्मोँ को करता है । आत्मा तो निष्क्रिय है । स्वरूपतः तू वही आत्मा है ।
योग द्वारा समत्वबुद्धि को प्राप्त कर जो सभी भूतोँ मेँ आत्मा को तथा आत्मा मेँ सभी भूतोँ को देखता है, वह जीवन्मुक्त है ।
जो किसी प्राणी से घृणा नहीँ करता, जो सभी के प्रति मित्रवत् तथा कारुणिक है, जो आसक्ति तथा अभिमान से मुक्त है, जो दुःख-सुख मेँ सम-बुद्धि रखता है, जो क्षमाशील, सदा तृप्त, ध्यान मेँ स्थिर, आत्म-संयमी तथा पूर्ण निश्चय से युक्त है तथा जो मन-बुद्धि को ईश्वरार्पित रखता है, जो न तो आनन्दित होता है और न विद्वेष ही करता है, जो न तो शोक करता है और न इच्छा ही करता है, जो भक्ति से पूर्ण है, जो शत्रु तथा मित्र, मान तथा अपमान मेँ समान रहता है, जो शीत तथा उष्ण, सुख तथा दुःख मेँ समत्व रखता है, जो स्तुति तथा निन्दा मेँ समत्वबुद्धि बनाये रखता है, वही महान भगवद्भक्त अथवा गुणातीत है । वह ईश्वर को बहुत ही प्रिय है ।
निस्सन्देह मन वायु के समान चञ्चल, दुर्गाह्य तथ अशान्त है । इसको नियन्त्रित करना कठिन है ; परन्तु अभ्यास तथा वैराग्य के द्वारा इसका निरोध सम्भव है ।
ईश्वर पर मन को स्थिर कीजिए । उसके भक्त बनिए । ईश्वर के प्रति सब-कुछ अर्पित कर दीजिए । उसे नमस्कार कीजिए । आप उसे निश्चय ही प्राप्त कर लेँगे । सारे कर्मोँ के फल का परित्याग कीजिए । ईश्वर की ही शरण मेँ जाइए । वह आपको सारे पापोँ से मुक्त कर देगा ।
जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैँ, जहाँ धनुर्धर पार्थ हैँ, वहीँ सम्तत्ति, विजय, सुख तथा नीति का निवास है ।
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