याज्ञवल्क्य-गार्गी-संवाद
[ बृहदारण्यकोपनिषद् ]
वचक्नु की पुत्री गार्गी ने कहा :-"मैँ आपसे दो प्रश्न पूछूँगी । हे पूजनीय ऋषि ! क्य आप मुझे बतलायेँगे ? "
याज्ञवल्क्य ने कहा :-"हे गार्गी ! पूछ ।"
गार्गी ने कहा :-"हे याज्ञवल्क्य, जिसके विषय मेँ लोग कहते हैँ कि वह ध्युलोक से ऊपर, पृथ्वी से नीचे है, द्युलोक तथा पृथ्वी को ओतप्रोत किये हुए है, भूत, वर्त्तमान तथा भविष्य जिसमेँ निहित हैँ, वह किस तानेबाने मेँ ओतप्रोत है ?"
याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया :-"आकाश मेँ ।"
गार्गी ने कहा :-"हे याज्ञवल्क्य जी, मैँ आपको नमस्कार करती हूँ । अब दूसरे प्रश्न के लिए तैयार हो जाइए ।"
याज्ञवल्क्य ने कहा :-"हे गार्गी ! पूच ।"
गार्गी ने कहा :-"आकाश किस तानेबाने मेँ ओतप्रोत है ?"
याज्ञवल्क्य ने कहा :-"हे गार्गी, ब्रह्म मेँ ही यह आकाश ओतप्रोत है । ऋषि उसे अक्षर कहते हैँ । वह न तो स्थूल है न सूक्ष्म, न तो छोटा है और न बड़ा, न लाल है न श्वेत, न छाया है न अन्धकार । वह श्रोत्र, नेत्र, मन तथा प्राण से रहित है । वह वाणी, नासिका, मुख आदि से रहित है । उसमेँ अन्तर्बाह्य नहीँ है ।
"उस अक्षर के ही आदेश से सूर्य तथा चन्द्र, द्यूलोक तथा पृथ्वी अपने-अपने स्थान पर स्थित हैँ । हे गार्गी, इस अक्षर के ही आदेश से निमेष, घण्टे, दिन, सप्ताह, मास, ऋतुएँ तथा वर्ष अलग-अलग स्थित हैँ ।
"हे गार्गी, जो कोई भी इस अक्षर को जाने बिना मर जाता है वह कृपण है ; परन्तु जो इस अक्षर को जान कर मरता है वह सच्चा ब्रह्म है । वह मुक्त है ।
"हे गार्गी ! वह ब्रह्म, यद्यपि अदृश्य है फिर भी द्रष्टा है, यद्यपि अश्रुत है फिर भी श्रोता है, यद्यपि अचिन्त्य है फिर भी विचारता है, यद्यपि अज्ञान है फिर भी जानता है । उसके अतिरिक्त कोई देखता नहीँ, कोई सुनता नहीँ, कोई सोचता नहीँ, कोई जानता नहीँ । हे गार्गी, उसी अक्षर मेँ यह आकाश तानेबाने की तरह ओतप्रोत है ।"
इन ज्ञानपूर्ण शब्दोँ को याज्ञवल्क्य के मुख से सुन कर गार्गी शान्त हो गयी ।
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