शान्ति का सन्देश
शान्ति का साम्राज्य वाणी विचारोँ से परे है । शोरगुल, सङ्घर्ष, युद्ध, वाद-विवाद, खण्डन-मण्डन आदि के अभाव मात्र को ही शान्ति नहीँ कहते । यह उस अवस्था अथवा वातावरण का भी नाम नहीँ है जिसमेँ सभी अनिष्ट वस्तुओँ का निराकरण कर दिया गया हो । यह शान्ति निश्चेष्ट जड़-अवस्था भी नहीँ है । यह सम्मोहन की अवस्था नहीँ है । यह शरीर की आलस्यावस्था नहीँ है । यह आध्यात्मिक उन्नति की अवस्था है । यह आपका केन्द्र, आदर्श तथा लक्ष है । यह पूर्ण बोध की अवस्था है । यह वह विशाल अवर्णनीय अवस्था है जिसमेँ शुद्ध आत्मा सर्वोच्च ईश्वरीय आनन्द तथा सर्वातीत दिव्य ज्ञान का उपभोग करता है । शान्ति की इस दिव्य सुधा का पान कर आप निर्भय तथा निष्काम बन जायेँगेँ । शान्ति को प्राप्त कर आप परमात्मा से एक बन जायेँगे । इस शान्ति की अवस्था मेँ भूत अथवा भविष्यत् नहीँ, सूर्यास्त अथवा सूर्योदय नहीँ, शाश्वत प्रकाश का ही साम्राज्य है । बाह्य साधनोँ के द्वारा इसको प्राप्त नहीँ किया जा सकता । धैर्यपूर्वक आध्यात्मिक अभ्यास के द्वारा ही इसकी प्राप्ति सम्भव है ।
आप प्रतिकूल परिस्थितियोँ मेँ हो सकते हैँ । यदि आप इन्द्रियोँ को समेट कर, मन को षान्त बना कर तथा इसकी मलिनताओँ का उन्मूलन कर ईश्वर मेँ निवास करते हैँ तो विपत्तियोँ, कष्टोँ, क्लेशोँ, दुःखोँ तथा शोकोँ के बीच रह कर भी आन्तरिक समता तथा शान्ति का आनन्द उठा सकते हैँ । प्रभु जीसस को विविध प्रकार से प्रताड़ित किया गया । उन्हेँ 'क्राँस' पर चढ़ा कर मार डाला गया । फिर भी उन्होँने क्य कहा ? उन्होँने कहा, "हे प्रभु, उन्हेँ क्षमा कर । वे नहीँ जानते कि वे क्या कर रहे हैँ ।" उस जीवनान्तक अवस्था मेँ भी वे कितने शान्त थे ! वे आन्तरिक शान्ति का उपभोग कर रहे थे ।
आत्मसाक्षात्कार अथवा ईश्वर-चैतन्य की प्राप्ति ही जिवन का लक्ष्य है । एक परम, अक्षय, चैतन्य सत्ता अथवा आत्मा अथवा ब्रह्म है जो आपते हृदय के अन्तरतम प्रकोष्ट मेँ निवास करता है । वह भूत, वर्त्तमान भविष्य मेँ एक समान रहता है । वह परम अस्तित्व, परम ज्ञान तथा परम आनन्द__सच्चिदानन्द है । अज्ञानी जन व्यर्थ ही बाह्य नश्वर विषय-पदार्थोँ मेँ सुख की खोज करते हैँ । ये विषय-पदार्थ देश, काल तथा वस्तु से परिच्छिन्न हैँ । ऐसे अज्ञानी मनुष्य को मन की शान्ति नहीँ होती है । उसकी कामनाएँ तृप्त नहीँ होतीँ । वह धन का संग्रह करता है, सन्तानोत्पादन करता है, उपाधियाँ प्राप्त करता है तथा नाम, यश और सम्मान का अर्जन करता है, फिर भी उसका मन अशान्त ही बना रहता है । उसे शाश्वत सुख और आनन्द नहीँ मिलता । वह अभी भी अभाव का भान करता है । अपने मेँ पूर्णता का अनुभव, आत्म-संयम, शुद्धता तथा ध्यान के द्वारा अपने आत्मा का साक्षात्कार करके ही मनुष्य पूर्णता तथा नित्य तृप्ति का अनुभव कर सकता है ।
आप कव तक द्वैत, अशान्ति, असन्तोष तथा अतृप्ति का जीवन बिताना चाहते हैँ ? आप कब तक अज्ञान, कटुता, घृणा तथा भेद का जीवन बिताना चाहते हैँ ? आप कब तक अपने स्वार्थमय प्रयासोँ को बनाये रखना चाहते हैँ ? आप कब तक विभिन्नता तथा विभेदोँ के दर्शन की लालसा बनाये रखना चाहते हैँ ? आप कब तक मनुष्य तथा मनुष्य के बीच प्रतिबन्ध को बनाये रखना चाहते हैँ ?
आप शान्ति के लिए पुकारते हैँ ; परन्तु उसको कहाँ तथा किसके द्वारा प्राप्त किया जाये ? ज्ञानियोँ की सङ्गति तथा ध्यान के द्वारा ही आप अपने हृदय मेँ शान्ति का साक्षात्कार कर सकते हैँ । मन की स्तब्धता मेँ ही आप शान्ति को प्राप्त कर सकते हैँ । अन्तःकरण मेँ ही शान्ति को प्राप्त किया जा सकता है । निश्चय ही बाह्य विषयोँ मेँ तो आप कदापि शान्ति प्राप्त नहीँ कर सकते । अन्दर देखिए । किसी एकान्त कमरे मेँ एक या दो घण्टे के लिए मौन हो कर बैठ जाइए । अपनी आँखेँ बन्द कर लीजिए । दोनोँ भौँहोँ के बीच के बिन्दु पर मन को एकाग्र कीजिए । बाह्य विषय-पदार्थोँ से इन्द्रियोँ तथा मन को समेट लीजिए । शान्त बनिए । उफनते आवेगोँ तथा बुलबुलाते विचारोँ को शान्त बनाइए । शरीर तथा जगत् को भूल जाइए । गम्भीर निस्तब्धता मेँ प्रवेश कीजिए । अपने हृदय के अन्तरतम प्रकोष्ट मेँ गहरा गोता लगाइए । शान्ति के महासागर मेँ निमग्न हो जाइए । उस एक परमात्मा के साथ अपनी एकता का साक्षात्कार कीजिए, जो आपके हृदय का अन्तर्वासी है । शीत ऋतु मेँ ध्यान के लिए चार बार तथा ग्रीष्मकाल मेँ दो बार बैठिए । अपने अभ्यास मेँ नियमित बनिए । नियमितता परम आवश्यक है ।
जब तक आप क्षुद्र ईर्ष्या तथा स्वार्थपूर्ण घृणा से परिपूर्ण है, तब कत युद्ध को बन्द करने की बात व्यर्थ है । सर्वप्रथम विषम और असामञ्जस्यपूर्ण स्तन्दनोँ को दूर कीजिए । राष्ट्र के बीच तब युद्ध नहीँ होगा । व्यक्तियोँ से ही राष्ट्र का निर्माण होता है । शान्ति का आदर्शमय जीवन व्यतीत कीजिए । सन्देह, सङ्कीर्ण बुद्धि, द्वेष, स्वार्थ, शक्ति तथा सम्पत्ति के लिए लोभ__इन सबको निर्मूल कीजिए । सरल जीवन बिताइए । नित्य-प्रति ध्यान का अभ्यास कर अपने हृदय मेँ शान्ति की स्थापना कीजिए । अपने पड़ोसियोँ मेँ तथा जो भी आपके सम्पर्क मेँ आयेँ, उनमेँ उस शान्ति को विकीर्ण कीजिए । सर्वत्र उसको प्रसारित कीजिए ।
यह शान्ति रहस्यमरी है । यदि आप स्वयं शान्ति का अनुभव करेँगे तो विश्व-शान्ति मेँ भी अपना योगदान कर सकेँगे । इस शान्ति का साक्षात्कार कीजिए जो कल्पनातीत है तथा मुक्त हो जाइए । यह शान्ति आपका पथ-प्रदर्शन करे ! यह शान्ति आपका केन्द्र, आदर्श तथा लक्ष्य बने !
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