कर्मयोग का प्रशिक्षण
नया अनजान साधक यह समझता है कि मेरे गुरु मुझसे नौकर अथवा चपरासी जैसा बरताव करते हैँ । वे मुझसे छोटे-छोटे कार्य कराते हैँ । जिसने कर्मयोग के तात्पर्य को समझ लिया है, वह हर कार्य को योगिक कार्य अथवा ईश्वर की उपासना समझता है । उसकी दृष्टि मेँ कोई भी कर्म तुच्छ नहीँ है । हर कर्म नारायण की पूजा है । कर्मयोग की दृष्टि मेँ सारे कर्म पवित्र हैँ । जिन कार्यो को सांसारिक लोग तुच्छ समझते हैँ, उन कर्मोँ के करने मेँ भी जो साधक बहुत आनन्द का अनुभव करता है तथा उनको स्वेच्छा से करता है, वही योगी बन सकता है । वह अभिमान तथा अहङ्कार से पूर्णतः मुक्त होता है । उसके लिए पतन नहीँ है । अभिमान का कीटाणु उसे स्पर्श नहीँ कर सकता ।
महात्मा गान्धी जी की आत्म-कथा पढ़िए । वे शारीरिक श्रमपूर्ण सेवा तथा सम्मानपूर्ण कर्म मेँ कोई भेद नहीँ रखते थे । मेहतर का काम, पाखना साफ करना भी उनके लिए परम योग था । यही उनके लिए परम पूजा थी । उन्होँने स्वयं पाखाने साफ किये थे । विभिन्न प्रकार की सेवा के द्वारा उन्होँने इस क्षुद्र अहं को विनष्ट कर दिया था । बहुत से सुशिक्षित व्यक्ति भी उनके पास योग सीखने जाते थे । वे समझते थे कि गान्धी जी उन्हेँ विशेष रूप से एकान्त कमरे मेँ प्राणायाम, ध्यान, प्रत्याहार तथा कुण्डलिनी-जागरण की शिक्षा देँगे । पाखाना साफ करने का आदेश पा कर वे निराश हो जाते थे । वे शीघ्र ही आश्रम छोड़ कर चले जाते थे । गान्धी जी अपने जूतोँ की मरम्मत स्वयं कर लेते थे । वे स्वयं आटा पीसते थे तथा जो लोख अपने हिस्से का काम न कर पाते, उनके काम को भी वे स्वयं कर लेते थे । जब कोई शिक्षित व्यक्ति या आश्रमवासी आटा पीसने मेँ लज्जा अनुभव करता तो गान्धी जी स्वयं उसके सामने काम को करते थे । इसके फलस्वरूप वह व्यक्ति भी दूसरे दिन से प्रसन्नतापूर्वक काम मेँ लग जाता था ।
पाश्चात्य देशोँ मेँ चमार तथा किसान लोगोँ ने समज मे बहुत बड़ा स्थान प्राप्त कर लिया है । उनके लिए सब कर्म सम्मानपूर्ण हैँ । लन्दन की गलियोँ मेँ एक पेनी ले कर एक लड़का जूते की पालिश करता है, दोपहर को वह समाचारपत्र बेचता है तथा रात्रि मेँ अवकाश के समय किसी पत्रकार के अधीन शिक्षा प्राप्त करता है । वह पुस्तकेँ पढ़ता है, कठिन श्रम करता है, एक मिनट भी व्यर्थ नहीँ खोता और कुछ ही वर्षोँ बह अन्ताराष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त पत्रकार बन जाता है । पञ्जाब मेँ कुछ बी॰ ए॰ पास व्यक्ति 'सैलन' का काम करते हैँ । उन लोगोँ ने श्रम के महत्त्व को समझ लिया है ।
वास्तविक योगी तुच्छ कर्म तथा सम्मानपूर्ण कर्म मेँ कोई भेद नहीँ करता । अज्ञानी व्यक्ति ही ऐसा भेद करते हैँ । कुछ साधक अपनी आध्यात्मिक साधना के प्रारम्भ मेँ नम्र रहते हैँ । जब उनका नाम-यश फैल जाता है, उनके कुछ भक्त, शिष्य तथा अनुयारी बन जात है, तब अभिमान के शिकार बन जाते हैँ । वे सेवा नहीँ कर सकते । वे कोई भी वस्तु शिर पर नहीँ ले जा सकते । वह योगी जो बहुत से प्रशंसकोँ, शिष्योँ तथा भक्तोँ के बीच हीन भावना मन मेँ लाये बिना विनम्रता के दम्भ से रहित हो कर रेलवे प्लेटफर्म पर अपने शिर पर ट्रङ्क उठा कर चलता है, वह पूजने योग्य है ।
ज्ञानी जड़भरत ने बिना असन्तोष प्रकट किये ही राजा रहूगण की पालकी अपने कन्धोँ पर उठायी थी । भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने नाई भक्त की अनुपस्थिति मेँ एक राजा के पैर दबाये थे । श्रीराम अपने किसी भक्त के शौच के लिए जल भर लाये थे । श्रीकृष्ण जी ने नौकर बिट्ठू का रूप धर अपने भक्त दामा जी की ओर से नवाब को रुपये अदा किये थे ।
यदि आप वास्तव मेँ आध्यात्मिक उन्नति करना चाहते हैँ तो आजीवन सभी प्रकार की सेवा करते जाइए । तभी आप सुरक्षित हैँ । सेवा-भाव आपकी रग-रग मेँ तथा अस्थि और मज्जा मेँ प्रवेश कर जाना चाहिए । यह आपके अन्दर घुस कर आपका स्वभाव बन जाना चाहिए । तभी आप वास्तविक पूर्ण-व्यवहारिक वेदान्तीँ बनेंगे ।
क्या कोई भगवान् बुद्ध से बढ़ कर वेदान्ती अथवा कर्मयोगी है ? वे अभी भी हमारे हृदयोँ मेँ बस रहे हैँ, क्योँकि सेवा उनका स्वभाव हो गया था तथा विविध प्रकार से दूसरोँ की सेवा मेँ ही उन्होँने अपना जीवन बिताया । कितने महान् थे वे ! अद्वितीय ! यदि आप भी ठीक भाव के साथ निष्काम्य कर्म मेँ बुद्धिपूर्वक रत हो जायेँ तो आप भी बुद्ध बन सकते हैँ ।
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