उद्दालक-श्वेतकेतु-संवाद
[ छान्दोग्योपनिषद्]
उद्दालक ने पूछा :-"श्वेतकेतु ! क्य तुमने कभी अपने आचार्य से उस उपदेश के विषय मेँ पूछा है जिसके द्वारा अश्रुत श्रुत, अमत मत तथा अविज्ञात विशेष रूप से ज्ञात हो जाता है ?"
श्वेतकेतु ने कहा :-"भगवन् ! वह आदेश क्या है ?"
पिता ने उत्तर दिया :-"हे प्रिय ! जिस तरह एक ही मिट्टी के पिण्ड से मिट्टी की बनी हुई वस्तुऔँ का ज्ञान हो जाता है, सारे विकार नाममात्र हैँ तथा वे शब्दोँ पर ही अवलम्बित हैँ ; परन्तु सत्य तो मिट्टी ही है । ऐसा है वह उपदेश ।"
"कृपया, मुझे और समझाए" :- श्वेतकेतु ने पुछा ।
उद्दालक :-"उस न्यग्रोध (वटवृक्ष) का एक फल लाओ ।"
श्वेतकेतु :-"यह है भगवन् ।"
उद्दलाक :-"इसे तोड़ो ।"
श्वेतकेतु :-"तोड़ दिया भगवन् ।"
उद्दालक :-"तुम वहाँ क्या देख रहे हो ?"
श्वेतकेतु :-"अत्यन्त सूक्ष्म बीजोँ को देख रहा हूँ ।"
उद्दालक :-"उनमेँ से एक को तोड़ो ।"
श्वेतकेतु :-"तोड़ दिया भगवन् ।"
उद्दालक :-"तुम क्या देख रहे हो ?"
श्वेतकेतु :-"कुछ नहीँ भगवन् ।"
पिता ने कहा :-"हे सोम्य ! इस अणु-तत्त्व को जिसे तुम देख नहीँ सकते, उसी का यह महान् वटवृक्ष स्थित है । मुझ पर विश्वास करो सोम्य ।
"यह जो अणिमा है, एतद् रूप ही यह सब है, वह आत्मा है ; वह सत् है, और हे श्वेतकेतु वही तू है ।"
"कृपया मुझे समझाइए" :- पुत्र ने कहा ।
"अच्छा" :-पिता ने कहा
उद्दालक :-"उस नमक को पानी मेँ डाल दो और कल मेये पास आना ।"
पुत्र ने वैसा ही किया ।
पिता ने उससे कहा :-"उस नमक को निकाल लाओ जिसे गत रात्रि को तुमने पानी मेँ रखा था ।"
पुत्र ने नमक खोजा, परन्तु वह तो गल चुका था ।
पिता ने कहा :-"इस जल को ऊपर से आचमन करो । कैसा स्वाद है इसका ?"
पुत्र ने उत्तर दिया :-"यह नमकीन है ।"
उद्दालक :-"मध्य से आचमन करो । अब कैसा है ?"
पुत्र ने उत्रर दिया :-"यह भी नमकीन है ।"
उद्दालक :-"तल से आचमन करो । अब कैसा है ?"
पुत्र ने उत्तर दिया :-"यह भी नमकीन है ।"
पिता ने कहा :-"इस जल को फेँक कर मेरे पास आ जाओ ।"
पुत्र ने वैसा ही किया और कहा :-"इस जल मेँ नमक सदा ही विद्यमान है ।"
तब पिता ने उससे कहा :-"इस शरीर मेँ भी वस्तुतः सत् है ; परन्तु उसे देखते नहीँ, मेरे पुत्र, किन्तु वह वास्तव मेँ स्थित है ।"
पिता ने कहा :-"यह जो अणिमा है, एतद्रूप ही यह सब है । वह आत्मा है ; वह सत् है ; हे श्वेतकेतु ! वही तू है ।"
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