नचिकेता-यम-संवाद
[ कठोपनिषद् ]
नचिकेता ने कहा__"जो धर्म तथा अधर्म से पृथक् है, इस कार्य-कारणरूप प्रपञ्च से भी पृथक् है और जो भुत एवं भविष्यत् से भी अन्य है__ऐसा आप जिसे देखते है, वही मुझसे कहिए । भगवन् ! यह आपसे मेरा तीसरा वरदान है ।"
यमराज ने उत्तर दिया__"सारे वेद जिस पद का वर्णन करते हैँ, जिसे तपस्याओँ के द्वारा प्राप्त किया जाता है तथा जिसकी प्राप्ति के लिए साधकजन ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते हैँ, उस लक्ष के विषय मेँ मैँ संक्षेप मेँ कहूँगा । वह 'ओउम् ' है । [ॐ]
"यह अक्षर ही ब्रह्म है ; यह अक्षर ही पर है । जो इस अक्षर को जानता है, वह जो-कुछ भी इच्छा करता है, प्राप्त कर लेता है__वह अमरत्व तथा नित्य सुख को प्राप्त कर लेता है ।
"यह आत्मा अनादि, अनन्त, अज, अमर्त्य, अव्यय, निराकार, निर्गुण तथा अवर्ण है । वह शब्द, स्तर्श, गन्ध तथा रस से रहित है । वह नित्य, अमर, सर्वव्यापक, स्वयंज्योति, अखण्ड तथा अद्वितीय है । वह अव्यक्त से परे है । वह हृदय-गुहा अथवा बुद्धि मेँ निवास करता है । वह सभी भूतोँ की अन्तरात्मा है ।
"जो निष्काम है, जिसका मन समाहित तथा शान्त है, जिसकी इन्द्रियाँ नियन्त्रित हैँ, वही ध्यान तथा अन्तदृष्टि द्वारा अपनी बुद्धि मेँ इस रहस्यमय आत्मा को देखता है तथा अमरत्व एवं शाश्वत सुख तथा शान्ति का उपभोग करता है ।
"यह आत्मा सभी भूतोँ मेँ छिपा हुआ है । सूक्ष्मदर्शीगण नेत्र तथा अन्य इन्द्रियोँ को विषयोँ से हटा कर अपनी सूक्ष्म एवं कुशाग्र बुद्धि द्वारा इसका साक्षात्कार करते हैँ ।
"जब सारी कामनाएँ नष्ट हो जाती हैँ, जब हृदय की तीनोँ ग्रन्थियाँ__अविद्या, काम तथा कर्म विनष्ट हो जाती हैँ, जब पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ मन के साथ शान्त हो जाती हैँ तथा जब बुद्धि कार्य करना बन्द कर देती है, तब तुम अमरत्व तथा परम गति को प्राप्त करोगे ।
"जिस तरह तुम सीँक को मूँज से अलग निकालते हो, उसी तरह तुमको पञ्चकोषोँ से अलग सारबस्तु आत्मा को धैर्यपूर्वक ध्यानाभ्यास, विचार तथा विवेक के द्वारा निकाल लेगा होगा ।"
तीसरे वरदान के द्वारा नचिकेता ने यमराज से ब्रह्म-विद्या के स्पष्ट निर्देश प्राप्त किये, तब उसने ध्यान का अभ्यास कर ब्रह्म को प्राप्त कर लिया अर्थात् वह आत्म-ज्ञान द्वारा अमर हो गया । नचिकेता के समान कोई भी अधिकारी आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर निश्चय ही अमर हो सकता है ।
"ओउम् सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यँ करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ।"
ओउम् शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!
ओउम् वह (परमात्मा) हम दोनोँ (गुरु एवं शिष्य) की रक्षा करेँ । वह हम दोनोँ को मोक्ष-सुख का उपभोग करने देँ । हम दोनोँ मिल कर उपनिषदोँ के वास्तविक अर्थ निकालने मेँ प्रयत्नशील होँ । हमारा अध्ययन सफल हो । हम कदापि एकदूसरे के साथ झगड़ा न करेँ । त्रिविध ताप की शान्ति हो ।
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