छः जङ्गली पशुओँ को पाततू बनाइए
आपके अन्दर सिँह, बाघ, सर्प, हाथी, वानर तथा मोर की अशुशाला है इन्हेँ अपने अधीन कीजिए । मांस का सौन्दर्य वास्तव मेँ जीवनप्रद प्राण के कारण है । यह सौन्दय्य आत्मा से निकलने वाली ज्योति है । यह मलिन शरीर, जिसमेँ सौ परनालोँ से मल बहता रहता है, पञ्च-तत्त्वोँ से निर्मित जड़ तथा अपवित्र वस्तु है । सदा इस भाव को बनाये रखिट । इस मानसिक अभ्यास से आप काम पर विजय प्राप्त कर लेँगे । यदि आप अपने मेँ एक के सिद्धान्त को समझ लेँगे ; यदि आप जान लेंगे कि एक ही तत्त्व, एक ही शक्ति, एक ही चित, एक ही जीवन तथा एक ही सत् है तथा ऐसे ही विचार को सदा प्रश्रय देँगे ; तो आप क्रोध पर विजय पा सकेँगे । यदि आप इसको याद रखेँ कि आप ईश्वर के हाथोँ मेँ यन्त्र-मात्र है ; ईश्वर ही सब-कुछ है ; ईश्वर ही सब-कुछ करता है ; ईश्वर न्यायी है, तो आप अहङ्कार से मुक्त हो सकेँगे । आप प्रतिपक्ष-भावना से इस द्वेष का उन्मूलन कर सकेँगे । मनुष्योँ के सद्गुणोँ को देखिए, उनके दुर्गुणोँ की उपेक्षा कीजिए ।
भावना ही एञ्जिन के वाष्प की भाँति प्रेरिकाशक्ति का काम करती है । यह आपको उन्नति मेँ सहायता देती है । यदि भावना न रहती तो आप निष्चेष्टता को प्राप्त किये रहते । यह प्राणी को कर्म अथवा गति के लिए प्रवृत्त करती है । यह वरदानस्वरूप है ; परन्तु आपको भावना का गुलाम नहीँ बनना चाहिए । भावना आप पर शासन न करने लगे । उन्हेँ उबलने नहीँ दीजिए । इन उफनती भावनाओँ को शुद्ध तथा शान्त बनाइए । मन-सागर से ये भावनाएँ धीरे-धीरे उठेँ तथा वैसे ही धीरे-धीरे विलीन हो जायेँ । भावना को पूर्णतया नियन्त्रित रखिए । शारीरिक संबेदना को उन्नत भावना समझने की भूल न कर बैठिए । भावनाओँ के प्रवाह मेँ बह न जाइए । कुछ लोग ऐसे हैँ जो नयी सनसनीदार घटनाओँ को सुनना चाहते हैँ जिससे उनकी भावनाएँ जग उठेँ । वे भावनाओँ पर ही आश्रित रहते हैँ । भावनाओँ के बिना वे अनुत्साह अनुभव करते हैँ । यह बड़ी दुर्बलता है । यदि वे शान्त और गम्भीर जीवन चाहते हैँ तो इसका उन्मूलन करना आवश्यक है ।
सारे दुर्गुण क्रोध से उत्पन्न होते हैँ । यदि आप क्रोध को वशीभूत कर लेँ तो सारे दुर्गुण स्वतः विलुप्त हो जायेँगे ।
अहङ्कार, सङ्कल्प, वासना तथा प्राण___इनका मन के साथ गहरा सम्बन्ध है । इन चारोँ के बिना मन का अस्तित्व ही नहीँ रह सकता । प्राण मन का जीवन है । अहङ्कार मन की जड़ है । सङ्कल्प मन-वृक्ष की शाखाएँ हैँ । वासना मन का बीज है । इस दुष्ट अज्ञान-रूपी संसार-वृक्ष की जड़ मन ही है जो गहराई से जमी हुई है । इसकी शाखाएँ विभिन्न दिशाओँ मेँ फैली हुई हैँ । वे फूलोँ, कोँपलोँ, फलोँ आदि से लदी हुई, विकसित हो चली हैँ । यदि इस जड़___मन को नष्ट कर दिया गया तो संसार-वृक्ष, जन्म-मृत्यु का वृक्ष भी विनष्ट हो जायेगा । ब्रह्मज्ञान की कुल्हाड़ी से इस मन-रूपी जड़ को काट डालिए । सङ्कल्प-रूपी शाखाओँ को विवेक-विचार-रूपी छुरी से काट डालिए ।
सदा अशान्त रहने वाला मन सभी प्रकार की कामनाओँ के विलुप्त हो जाने पर शान्त हो जाता है । कामना से सङ्कल्पोँ की उत्पत्ति होती है । मनुष्य इष्ट-वस्तुओँ की प्राप्ति के लिए कर्म करता है । इस प्रकार वह इस संसार-चक्र मेँ फँसा हुआ है । वासनाओँ के विलीन होने पर यह चक्र रुक जाता है ।
जिस तरह किसी मकान मेँ बाह्म तथा आन्तरिक कमरोँ के बीच दरवाजे लगे रहते हैँ उसी तरह निम्न मनस् तथा उन्नत मनस् के बीच भी द्वार हैँ । जब मन कर्मयोग, तप, सदाचार अथवा यम, नियम, जप, ध्यान आदि के अभ्यास से शुद्ध हो जाता है तथा निम्न एवं उच्च मनस् के बीच के द्वार खुल पड़ते हैँ, तब सत्य तथा असत्य के बीच विवेक हो जाता है, अन्तदृष्टि खुलती है तथा अभ्यासी प्रेरणा, अनुभव एवं दिव्य ज्ञा को प्राप्त करता है ।
मन को शान्त तथा शुद्ध रखना बड़ा ही कठिन है ; परन्तु यदि आप चाहते हैँ कि आप ध्यान मेँ उन्नति करेँ अथवा निष्काम कर्मयोग मेँ सफल होँ तो मन का ऐसा होना अनिवार्य है ; तभी आपका उपकरण निर्दोष और आपक मन सुनियन्त्रित होगा । यह साधक के लिए एक प्रमुख गुण है । आपको धैर्य तथा उत्साह के साथ दीर्घकाल तक कठोर संग्राम करना होगा । जिसके पास लौह सङ्कल्पशक्ति तथा दृड़ निश्चय है, उस साधक के लिए कुछ भी असम्भव नहीँ ।
जिस तरह साबुन भौतिक शरीर को साफ करता है, उसी तरह मन्त्र का जप, ध्यान, कीर्त्तन तथा यम का अभ्यास मन की मलिनताओँ को दूर करते हैँ ।
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