योगवासिष्ट का सार
यदि मोक्ष-द्वार के चार द्वार पालोँ से मित्रता कर ली गयी तो मोक्ष-प्राप्ति मेँ बाधा नहीँ रह जायेगी । वे चार द्वारपाल ये हैँ__शान्ति, विचार, सन्तोष तथा सत्सङ्ग । यदि इनमेँ से एक से भी आपकी मैत्री हो गयी तो वह अपने अन्य साथियोँ से भी आपका परिचय करा देगा ।
ब्रह्मज्ञान प्रप्त कर लेने पर आप जन्म-मृत्यु के झमेले से मुक्त हो जायेँगे, सारी शङ्काएँ दूर हो जायेंगी तथा सारे कर्म विनष्ट हो जायेंगे । मनुष्य निजी पुरुषार्थ से ही अमर सुखमय ब्रह्मपद को प्राप्त कर सकता है ।
मन ही आत्मा का हनन करने वाला है । मन का स्वरूप सङ्कल्प ही है । मन का स्वभाव वासना है । मन के कर्म ही वास्तव मेँ कर्म कहे जाते हैँ । यह जगत् ब्रह्म की मायाशक्ति के द्वारा मन का ही विकास है । शरीर का चिन्तन करने से मन शरीर ही बन जाता है तथा शरीर के बन्धन मेँ पड़ कर क्लेशोँ से सन्तप्त हो उठता है ।
सुख तथा दुःख के रूप मेँ मन ही बाह्य जगत् के रूप मेँ व्यक्त होता है । स्वरूपतः मन चैतन्य है, बाह्यतः यह जगत् है । मन अपने शत्रु विवेक की सहायता से परब्रह्म की शान्त अवस्था को प्राप्त कर लेता है । नित्य ज्ञान के द्वारा मन से सारी कामनाओँ के हट जाने तथा उसके सूक्ष्म रू के विनष्ट हो जाने पर वास्तविक सुख का उदय होता है । आपसे उत्पन्न संस्कार तथा वासना ही आपको फन्दे मेँ डाल देते हैँ । परब्रह्म की स्वयं-ज्योति ही मन अथवा जगत् के रूप मेँ व्यक्त हो रही है ।
आत्म-विचार से रहित व्यक्ति इस जगत् को, जो वास्तव मेँ सङ्कल्प मात्र है, सत्य मनता है । मन का विकास ही सङ्कल्प है । भेद-शक्ति के द्वारा सङ्कल्प ही जगत् का निर्माण करता है । सङ्कल्पोँ का विनाश ही मोक्ष है ।
आत्मा का शत्रु मन है जो अत्यधिक मोह तथा सांसारिक विचार-समूह से भरा हुआ है । इस शत्रु मन पर विजय के अतिरिक्त अन्य कोई नौका नहीँ है जिससे पुनर्जन्म के सागर को पार किया जाये ।
दुःखद अहङ्कार के अंकुर से पुनर्जन्म के कोमल तने निकल आते हैँ जो समय पा कर चतुर्दिक् फैल जाते हैँ ; उनमेँ 'मेरा', 'तेरा' की लम्बी शाखाएँ लग जाती हैँ तथा मृत्यु, रोग, जरा, दुःख और शोक के अपरिपक्व फल लगते हैँ । ज्ञानाग्नि से ही यह वृक्ष आमूल नष्ट किया जा सकता है ।
ये सारे नानात्वपूर्ण दृश्य जो इन्द्रियोँ से गृहीत होते हैँ, सब मिथ्या हैँ । परब्रह्म ही एकमेव सत्य है ।
यदि ये सारे मनमोहक विषय-पदार्थ आँखोँ के काँटे बन जायेँ, उनके प्रति अनुराग की पहली भावना बदल जाये, तब मन नष्ट हो जाता है । आपकी सारी सम्पत्तियाँ व्यर्थ हैँ । सारे धन आपको खतरे मेँ ले जायेँगे । निष्कामता ही आपको नित्य सुख के धाम को ले जायेगी ।
वासनाओँ तथा सङ्कल्पोँ को विनष्ट कीजिए । अभिमान को मारिए । मन को नष्ट कीजिए । साधन-चतुष्टय से सम्तन्न बनिए । शुद्ध, अमर, सर्वव्यापक आत्मा का ध्यान कीजिए । आत्म-ज्ञान प्राप्त कर अमरत्व, शाश्वत शान्ति, नित्य सुख, मुक्ति तथा परिपूर्णता प्राप्त कीजिए ।
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