जीवन का उद्देश्य
मनुष्य का जीवन यह परिल क्षित करता है कि उसके परे क्या है तथा वह कौन-सी शक्ति है जो उसके विचारोँ, भावनाओँ तथा कर्मोँ की नियामक है । विशालतर जीवन अदृश्य है तथा दृश्य जीवन उस अदृश्य वास्तविक जीवन की ही छाया मात्र है । छाया से वस्तु को हम समझ सकते हैँ तथा इस छाया को जान कर सकते है । छाया से वस्तु को हम समझ सकते हैँ तथा इस छाया को जान कर हम उस सत्य वस्तु की प्राप्ति का मार्ग अवल्मन कर सकते हैँ । सीमाओँ, अभाव तथा नाना प्रकार की अशान्ति, असन्तोष तथा दुःख आदि से मानव-अस्तित्व आक्रान्त है । इससे यह परिलक्षित होता है कि इसका एक उन्नत अभीप्सित लक्ष है__भले ही वह लक्ष बुद्धि से अतीत हैँ ।
इस पृथ्वी पर जीवन सतत परिवर्त्तनशील है तथा यहाँ की किसि वस्तु मेँ भी सत्य का लक्षण नहीँ पाया जाता और यही कारण है कि कुछ भी मनुष्य को पूर्ण तृप्त नहीँ कर सकता । श्रीमद्भगवद्गीता ने इस जगत् को 'अनित्यम्, असुखम्, दुःखालयम्, अशाश्वतम्' बतलाया है । प्राचीन काल के ऋषियोँ ने स्वानुभव से यह घोषित किया था कि 'सत्य एक है' तथा इस सत्य का साक्षात्कार तथा अनुभव करना ही मानव-जीवन का लक्ष्य है ।
यह जगत् विषम है, यह अस्थायी है । यह जीवोँ के लिए अनुभव-क्षेत्र है, जिससे वे परम सत्य की अनुभूति की ओर प्रगति कर सकेँ । भारतवर्ष के लोगोँ के लिए यह गौरव की बात है कि उनके लिए यह दृश्य जगत् सत्य नहीँ है तथा वह अदृश्य नित्य-वस्तु ही सत्य है । इन्द्रियोँ से ग्राह्य विषयोँ मेँ उनकी जरा भी आस्था नहीँ । उनकी श्रद्धा एकमेव उसी मेँ है जो सभी अनुभवोँ का आधार है, जो इन्द्रियातीत है तथा जो मन से भी परे है ।
सच्चे साधक उन महर्षियोँ की शरण लेते थे जो कि अपनी भव्य उपस्थित से हिमालय के पवित्र प्रदेश को पवित्र वनाते थे तथा इहलौकिक जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटकारा प्राप्त करने तथा परब्रह्म के आनन्द मेँ लीन होने के लिए तपोमय यौगिक जीवन व्यतित करते थे और इसे वे सच्चा जीवन तथा नित्य वस्तु के पूर्त्ति का एकमेव मार्ग समझते थे ।
विधि-नियामक महर्षि मनु घर्म के विविध सिद्धान्तोँ की व्याख्या करते हुए अन्त मेँ कहते हैँ :-"इन सभी धर्मोँ मेँ आत्मज्ञान ही परमोत्कृष्ट है । यही सभी विद्याओँ मेँ श्रेष्ठ है ; क्योँकि इसके द्वारा अमरत्व की प्राप्ति होती है ।" धर्म, अर्थ, काम आदि पुरुषार्थोँ का तात्पर्य मोक्ष ही है जो परम पुरुषार्थ है । धर्म जीवन का आचारिक मूल्य है, अर्थ भौतिक मुल्य है, काम प्राणिक मूल्य है ; परन्तु मोक्ष तो अस्तित्व का असीम मूल्य है जिसमेँ अन्य सभी सम्मिलित हैँ तथा यह स्वतः उन तीनोँ से बहुत ही श्रेष्ठ है । अन्य तीन इस मोक्ष के लिए ही सहायक रूप हैँ । मोक्ष के बिना उनका कोई मूल्य नहीँ तथा उनसे कोई तात्पर्य नहीँ । उनका मूल्य उस असीम के नियम द्वारा परिच्छिन्न है जो कि मोक्ष का ही पर्यायवाची है ।
वेद तथा उपनिषद् ईश्वर के ही प्रश्वास हैँ तथा उनमेँ आध्यात्मिक जीवन की प्रशस्त व्याख्या है । उनमेँ मानव जीवन के उद्देश्य तथा तात्पर्य की व्याख्या दी गयी है तथा वह साधन भी बतलाया गया है जिससे मर्त्य अस्तित्व को अमृतत्व मेँ परिणत किया जा सके । महान् नचिकेता का उदाहरण तथा उनकी सत्य की साहसिक खोज का कथानक सभी मनश्वियोँ एवं विचारको के लिए जाज्वल्यमान आदर्श उपस्थित करता है ।
नचिकेता ने अपने सुस्मरणीय त्याद के द्वारा इस सत्य की शिक्षा दी थी कि इस विषय-जगत् की किसी भी वस्तु का वास्तविक मूल्य नहीँ । सुदीर्घ जीवन तथा अक्षय धन-राशि द्वारा भी वह प्रलोभित नहीँ हुए । वह परम सत्य की खोज मेँ संलग्न रहे तथा अन्ततः उन्हेँ सत्य का साक्षात्कार हुआ ही । इससे कम वह किसी भी वस्तु से सन्तुष्ट न हो सके । ये सच्चे धीर हैँ । सच्चा धीर वह नहीँ जो घनघोर संग्राम मेँ अडिग खड़ा रहे अथवा आपत्तिपूर्ण प्रयासेँ मेँ अपने जीवन को जोखम मेँ डाल दे, युद्ध करे, समुद्र मेँ गोता लगाये और पर्वत के ऊँचे शिखरोँ पर चढ़े ; धीर वह है जो अपनी इन्द्रियोँ का दमन करता है तथा अपने मन पर विजय प्राप्त करता है, जो जीवन की परम एकता का साक्षात्कार कर सारे द्वैत एवं कामनाओँ का परित्याग कर देता है । इसको प्राप्त करना ही मनुष्य का कर्त्तव्य है । यही औपनिषदिक ऋषियोँ का अमर सन्देश है ।
मनुष्य विषयानुभूति के जञ्जाल मेँ फँसा हुआ है । इससे अपने को मुक्त बनाना कठिन है । मनुष्य वस्तुओँ के तथाकथित बाह्य सम्बन्धोँ को सत्य मन कर विमोहित हो रहा है तथा इसके फलस्वरूप वह शोक मेँ निमग्न होता है ! महाभारत कहता है :-
यदा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ ।
समेत्य च व्यपेयातां तद्वद्भूतसमागमः ॥ (शान्तिपर्व)
:-इस जगत् मेँ प्राणियोँ का मिलन नदी मेँ काष्ठोँ के मिलन के समान ही अनित्य एवं अस्थिर है । फिर भी इन्द्रियग्राह्य वस्तुओँ के साथ आसक्ति इतनी दृढ़ है कि कल्पनाओँ को तथ्य, अशुद्ध वस्तु को शुद्ध, दुःख को सुख तथा अनात्मा को आत्मा मान बैठने की भूल करते हैँ ।
प्राचीन ऋषियोँ का यह सन्देश है कि मनुष्य विषय-जगत् मेँ जो जीवन जीता है, वह भ्रामक है ; क्योँकि यह सार्वभौम आत्मिक सत्ता को आवृत्त कर इन्द्रिय-गोचर, नाम-रूपात्मक विषयोँ को ही स्तय दिखलाता है । मूर्ख जन ही बाह्य सुखोँ के पीछे दौड़ते हैँ तथा सुविस्तृत मृत्यु-जाल मेँ जा फँसते हैँ ; परन्तु धीर जन अमृतत्व को जान कर अनित्य वस्तुओँ मेँ उस नित्य वस्तु की खीज नहीँ करते :-ऐसा उपनिषद् कहती है । प्राचीन ऋषियोँ का मनुष्य के लिए यह सन्देश है :-"हे अमृत पुत्र ! स्वयं को असीम जानो, सब बन जाओ । यही परम कल्याण है । यही परमानन्द है ।" यही मनुष्य के लिए अमर सन्देश है ।
ऋषियोँ ने बारम्बार इस बात पर बल दिया है :-"यदि मनुष्य उस अमृत को यहाँ जान ले तो उसकी सारी इच्छाओँ की समाप्ति हो जाये । यदि वह उसे यहाँ न जाने तो उसके लिए महान् हानि है" (केनोपनिषद्) । ऋषि याज्ञवल्क्य कहते हैँ कि उस अक्षय सुख के ज्ञान के बिना इस संसार मेँ किये गये सारे महान् कार्य कुछ भी मूल्य नहीँ रखते । परोपकार-कर्म, उपवास तथा दान और राजनैतिक, राष्ट्रीय, सामाजिक तथा वैयक्तिक जीवन :-यह सब विश्वबन्धुत्व-भावना पर आधारित होने चाहिए ; क्योँकि विश्वबन्धुत्व, सार्वभौमिक आत्मानुभव की बाह्य अभिव्यक्ति है ।
मानव-जाति तभी शान्ति की आशा कर सकती है जब ऋषियोँ के खोज निकाले तथा बतलाये हुए दिव्य नियमोँ का वह अनुसरण करे । दिव्य नियमोँ को जीवन मेँ जितना अधिक उतारा जायेगा, उतनी ही अधिक शान्ति की प्राप्ति होगी । शरीर के प्रति प्रेम, अहं तथा इसका उस विश्व के साथ सम्बन्ध जिसमेँ मानवता प्रायः पड़ी हुई है, जितनी मात्रा मेँ कम होगा उतनी मात्रा मेँ शान्ति अधिक होगी । इस जगत् के प्रति आसक्ति जितनी मिटती जायेगी, उतना ही शान्ति का उदय होता जायेगा । उन्नत चैतन्य के जागरण की आवश्यकता है । जिससे वैषम्य एवं असन्तोष को दूर किया जा सके ।
विश्व-शान्ति के लिए मानव-जाति को ठीक दिशा मै शिक्षित करना एक पूर्वापेक्षा है । भौतिकवाद, नास्तिकवाद, संशयवाद तथा अज्ञेयवाद :-इनका आज बोलबाला है और इनके कारण मनुष्य परमात्मा मेँ विश्वास न रख कर, विश्व को उद्वेलित करने वाले स्वार्थ, तृष्णा, मोह, हिँसा तथा मन के विक्षेपोँ मेँ अधिकाधिक निमग्न होता जा रहा है । मनुष्य को यह सीखना चाहिए कि पदार्थ-जगत्, नानात्व, अनित्यत्व तथा सन्दिग्धता के पीछे आध्यात्मिक एकता, असीमता तथा सुरक्षा है ।
इस सत्य के साक्षात्कार के बिना यह जीवन जीवन नहीँ रह जाता । वह पोला, निरर्थक, उद्देश्यहीन तथा मृतवत् बन जाता है । ईश्वर मेँ जीवन-यापन का अर्थ है इन्द्रिय-जगत् के सङ्कीर्ण जीवन के मृत बनाना । इन्द्रिय-जगत् मेँ ही निमग्न रहना 'आत्म-हनन' है । आधुनिक जिवन-प्रणाली का रूपान्तरण करना होगा तथा उसमेँ नैतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक चेतना का पुनर्जागरण करना होगा । यह परिवर्त्तन केवल बाह्म रूप मेँ ही न हो, वरन् जीवन के आन्तरिक गठन मेँ भी प्रवेश करे ।
यह तभी सम्भव है जब मनुष्य अपने आदर्शोँ को आत्मा की एकता पर आधारित करे तथा अन्धविश्वास, भौतिकता एवं नानात्व-बुद्धि से ऊपर उठे । यदि मनुष्य ने यह प्राप्त कर लिया तो उसका इहलौकिक परम कर्त्तव्य पूर्ण हो गया । जलहीन सांसारिकता के मरुस्थल मेँ झुलसते हुए मनुष्योँ के लिए औपनिषदिक ऋषियोँ के सर्वोच्च अनुभवोँ से निस्सृत ज्ञानगङ्गा ही एकमेव आशा है । इस शाश्वत प्रवाह से जल पीजिए तथा अपने को स्फूर्त बनाइए ।
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