मंगलवार, 17 मई 2022

निर्लिप्त अवस्था प्राप्त कीजिए

 निर्लिप्त अवस्था प्राप्त कीजिए 


 भगवान्‌ कृष्ण गीता मेँ कहते हैँ, 'तस्मात्‌ सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च'__अतः सदा मेरा चिन्तन करो और युद्ध करो । मन को ईश्वरार्पित कीजिए तथा हाथोँ से कर्म कीजिए । मुद्रालेखक (टाइपिस्ट) मशीन पर कर्म करता है तथा अपने मित्र से बातेँ भी करता जाता है । हारमोनियम बजाने वाला हारमोनियम बजाते हुए अपने मित्र से बातेँ तथा हाश्य भी करता है । स्त्री बुनाई का काम भी करती है तथ सहेलियोँ से बातेँ भी । शिर पर घड़ा रख कर लड़की अपने मन को घड़े पर लगाये रख कर भी अपनी सखियोँ से बातचीत तथा हँसी-ठट्‌ठा करती रहती है । दाई दूसरे के शिशु को दूध पिलाते समय भी अपना मन अपने ही बच्चे पर लगाये रखती है । चरवाहा दूसरोँ की गौवोँ को चराते समय भी अपने मन को अपनी गौ पर ही लगाये रखता है । उसी प्रकार आप भी अपने घर अथवा आफिस का काम करते समय अपने मन को ईश्वर के चरण-कमलोँ मेँ लगाये रखिए । इससे आप शीघ्र ही आत्म-चैतन्य को प्राप्त कर लेँगे । जिस तरह पद्म-पत्र जल से निर्लिप्त रहता है, जिस तरह तेल जल के तल पर निर्लिप्त रह कर तैरता है, उसी तरह कठिनाइयोँ, भोगोँ तथा कष्टोँ के बीच भी संसार मेँ निर्लिप्त रहिए । 


 जिस तरह घी खाने पर जिह्वा घी से निर्लिप्त रहती है, उसी तरह आपको भी सांसारिक कार्योँ तथा कठिनाइयोँ के बीच निर्लिप्त रहना चाहिए । आपको निर्लिप्त अबस्था बनाये रखनी चाहिए । यही ज्ञान है । यही समता है । निर्लिप्त अवस्था तथा समता बनाये रखने मेँ आपको हजारोँ बार बिफलता मिल सकती है ; किन्तु यदि आप ठीक प्रकार से निरन्तर अभ्यास करते रहेँ तथा मन के अनुशासन को बनाये रखेँ तो आप अन्ततोगत्वा अवश्य ही सफल होँगे । इस बात को अच्छी तरह स्मरण रखिए कि हर विफलता भावी सफलता के लिए स्तम्भ है । 


 कर्मयोगी जिसकी सेवा करे उससे फदले मेँ प्रेम, प्रशंसा, कृतज्ञता, स्तुति आदि की भी अपेक्षा न रखे । 


 वही व्यक्ति कर्मयोग कर सकता है, जिसने अपनी आवश्यकतायोँ को कम कर लिया है तथा इन्द्रियोँ का दमन कर लिया है । विलासी व्यक्ति, जिसकी इन्द्रियाँ उपद्रवी हैँ, दूसरोँ की सेवा कैसे कर सकता है ?  वह सब-कुछ अपने लिए ही चाहता है । वह दूसरोँ से अनुचित लाभ उठाना तथा उन पर प्रभुत्व जमाना चाहता है ।


 दूसरा गुण यह होना चाहिए कि आप सफलता-विफलता, लाभ-हानि, जय-पराजय मेँ समत्व-बुद्धि रखेँ  । आपको राग-द्वेष से मुक्त होना चाहिए । "जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्त्तापन के अभिमान से रहित, फल को न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष से किया हुआ है, वह कर्म सात्त्विक कहा जाता है "



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