कुण्डलिनीयोग
कुण्डलिनी-शक्ति वह आवेष्टित, प्रसुप्क विश्वात्म-शक्ति है जो सभी जड़ तथा चेतन वस्तुओँ का आधार है । यह वह आधार-शक्ति है जो मूलाधार-चक्र मेँ प्रसुप्त-अवस्था मेँ रहती है । कुण्डलिनीयोग वह योग है जो कुण्डलिनी-शक्ति, सातोँ चक्र, प्रसुप्त कुण्डलिनी-शक्ति को जाग्रत करने तथा उसका शिर मेँ स्थित सहस्रार-चक्र मेँ भगवान् शिव के साथ योग का विचार करता है । कुण्डलिनी-शक्ति सात चक्रोँ का भेदन करती हुई सहस्रार मेँ शिव के साथ जा मिलती है ।
ये सात चक्र हैँ__मूलाधार (गुदा मेँ), स्वाधिष्ठान (जननेन्द्रिय की जड़ मेँ), मणिपूर (नाभि भेँ), अनाहत (हृदय मेँ), विशुद्ध (कण्ठ मेँ), आज्ञा (दोनोँ भौँहोँ के बीच) तथा सहस्रार (शिर के ऊपरी भाग मेँ) ।
नाड़िया सूक्ष्म नलिकाएँ है जिनसे हो कर प्राण का सञ्चार होता है । उन्हेँ चर्मचक्षुओँ द्वारा देख नहीँ सकते हैँ । वे मामूली स्नायु, धमनी अथवा शिराएँ नहीँ हैँ । बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैँ । उनमेँ तीन प्रसिद्ध हैँ । वे हैँ__इड़ा, पिङ्गला तथा सुषुम्ना । सुषुम्ना सबसे प्रमुख है; क्योँकि कुण्डलिनी इसी नाड़ी से हो कर गुजरती है । कुण्डलिनीयोग मेँ प्रथम चरण है नाड़ियोँ की शुद्धि । सुषुम्ना के शुद्ध होने पर ही कुण्डलिनी इससे हो कर गुजरती है । प्राणायाम के अभ्यास द्वारा नाड़ियोँ की शुद्धि की जाती है ।
प्राणायाम, बन्ध तथा मुद्रा के द्वारा योगी सुषुम्ना-नाड़ी के मुख को खोलता है । वह सुप्त कुण्डलिनी को जगा कर उसको निम्नस्थित षट्-चक्रोँ से हो कर सहस्रार मेँ ले जाता है । कुण्डलिनी साढ़े तीन आवेष्टनोँ मेँ मूलाधार मेँ सुप्त रहती है । तीन आवेष्टन तीन गुणोँ के प्रतीक हैँ तथा आधा आवेष्टन विकृतियोँ का ।
हठयोगी प्राणायाम, आसन तथा मुद्रा के द्वारा, राजयोगी धारणा के द्वार, भक्तियोगी भक्ति तथा पूर्ण आत्मसमर्पण के द्वारा तथा ज्ञानयोगी विवेक-बुद्धि के द्वारा कुण्डलिनी को जगाते हैँ । मन्त्र ओर गुरु की कृपा के द्वारा भी कुण्डलिनी जगायी जाती है ।
यदि आप शुद्ध तथा सभी कामनाओँ से मुक्त हैँ तो आपको कुण्डलिनी श्वयमेव ही जाग्रत हो जायगी और इससे आप लाभान्वित होँगे । यदि आप उस समय बलपूर्वक अपनी कुण्डलिनी को जगायेँ जिस समय आपका हृदय मलिन है, जब आपके मन मेँ कामनाएँ छिपी हुई हैँ, तो आपको विविध प्रकार के प्रलोभनोँ का सामना करना पड़ेगा । जब आप एक स्तर से दूसरे उन्नत स्तर को जायेँगे तो आपका पतन होगा । उन प्रलोभनोँ का संवरण करने के लिए आपमेँ सङ्कल्प-शक्ति नहीँ रह जायेगी ।
जिस साधक मेँ योग-शास्त्रोँ के प्रति प्रबल निष्ठा है, जो साहसी, भक्त, विनम्र, उदार, कारुणिक, शुद्ध तथा वैराग्यवान् है, वह सुगमतापूर्वक कुण्डलिनी को जगा कर समाधि को प्राप्त कर सकता है । उसे सदाचार तथा संयम से भी सम्पन्न होना चाहिए । उसको चाहिए कि वह सदा ही अपने गुरु की सेवा मेँ लगा रहे तथा काम, क्रोध, मोह, लोभ तथा अभिमान से मुक्त रहे ।
जब कुण्डलिनी को सहस्रार मेँ ले जा कर उसको भगवान् शिव के साथ मिलाते हैँ तो पूर्ण समाधि की प्राप्ति होती है । योगी अमृत का पान करता है ।
माता कुण्डलिनी आप सबको योगाभ्यास मेँ पथ-प्रदर्शन करेँ ! उनका आशीर्वाद आप सबको प्राप्त हो !
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