मंगलवार, 17 मई 2022

राम-वसिष्ठ-संवाद [ योगवासिष्ठ ]

 राम-वसिष्ठ-संवाद


[ योगवासिष्ठ ] 


 श्रीराम ने पूछा__"पूज्य गुरुदेव ! संसक्ति क्या है ? असंसक्ति क्या है ? वह कौन-सी संसक्ति है जो बन्धन की ओर ले जाती है ? वह कौन-सी असंसक्ति है जिससे मुक्ति की प्राप्ति होती है ? मैँ इस बन्धन को किस प्रकार विनस्ट कर सकता हूँ ? इन प्रश्नोँ पर कृपया प्रकाश डालिए ।"


 श्रीवसिष्ठ जी ने उत्तर दिया__"यदि कोई व्यक्ति इस शरीर को ही नित्य समझ ले, यदि वह देह तथा इसके अन्तर्वासी या अन्तरात्मा या अध्यक्ष नित्य चेतन के बीच विवेक न कर सके, यदि वह सदा शरीर का ही चिन्तन करता रहे तो वह संसक्ति का दास बन जाता है । ऐसी संसक्ति ही राग है । उससे निश्चय ही बन्धन की प्राप्ति होती है । उसके लिए यह विश्वास कि सब-कुछ ब्रह्म अथवा आत्मा ही है, इस जगत्‌ मेँ राग-द्वेष कुछ भी नहीँ__यह असंसक्ति है यह असंसक्ति मोक्ष अथवा मुक्ति की ओर उन्मुख करती है ।"


 "जीवन्मुक्तोँ मेँ असंसक्ति रहती है । जहाँ असंसक्ति है वहाँ मन संसार के विषय-सुखोँ का परित्याग करता है, अहङ्कार विलीन हो जाता है तथा किसी भी वस्तु के लिए आसक्ति नहीँ रह जाती । यह असंसक्ति मोक्ष की ओर ले जाती है । जिन्हेँ असंसक्ति की अवस्था प्राप्त है, वे कर्मोँ के फल का परित्याग करते हैँ । वे कर्म तथा अकर्म के पीछे नहीँ पड़ते । आसक्ति से पुनर्जन्म की प्राप्ति होती है ।"


 " यह आसक्ति दो प्रकार की है__बन्ध्य तथा अबन्ध्य । पूर्वोक्त अज्ञानियोँ के पास रहती है तथा उत्तरोक्त आत्म-साक्षात्कार-प्राप्त ज्ञानियोँ का आभूषण है । पूर्वोक्त सङ्गदोष के कारण पुनर्जन्म का कारण बनती है ; परन्तु उत्तरोक्त विवेक तथा आत्मज्ञान को उत्पन्न करती है । भगवान्‌ विष्णु तथा सिद्धगण अबन्ध्य आसक्ति से अपने कर्मोँ द्वारा इस जगत्‌ की रक्षा करते हैँ ।"


 "जीवन्मुक्त विश्व-कल्याण के लिए विविध कार्योँ को करते हुए भी कर्मोँ मेँ आसक्त नहीँ होता । विषयोँ के सम्पर्क मेँ रहते हुए भी वह पूर्णतः उदासीन बना रहता है । उसमेँ विषयोँ के प्रति राग नहीँ होता । उसका मन सदा परमात्मा मेँ स्थिर रहता है । वह जगत्‌ को मिथ्या मानता है । वह न तो भविष्य की आशा करता है और न वर्त्तमान सम्पत्ति पर ही निर्भर रहता है । वह भूत की स्मृतियोँ मेँ भी सुखी नहीँ रहता । वह सोते हुए भी उस परम ज्योति के दर्शन से युक्त हो कर जाग्रत ही है ; वह जाग्रत रहते हुए भी निर्विकल्प-समाधि की निद्रा मेँ निमग्न रहता है । वह कर्म करती है, फिर भी ऐसा शान्त रहता है मानो उसने कुछ किया ही नहीँ । कर्त्तापन की भावना लाने की भूल किये बिना वह सारे कर्मोँ को करता है । वह किसी भी वस्तु के लिए न हर्ष करता है, न शोक । वह बच्चोँ के साथ बच्चे जैसा, बूढ़ोँ के साथ बूढ़े जैसा ही व्यवहार करता है । युवकोँ के साथ युवक जैसा तथा ज्ञानियोँ के साथ वह गम्भीर रहता है । वह दूसरोँ के सुख से आनन्दित होता है । वह उन लोँगोँ से सहानुभूति रखता है जो विपत्ति मेँ हैँ । हे राम ! राज्य पर शासन करते हुए अपना व्यवहार भी इसी प्रकार रखिए । सत्य आपको दृष्टि से कदापि ओझल नहीँ होगा ।"


 

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