मंगलवार, 17 मई 2022

चतुःश्लोकी भागवत

चतुःश्लोकी भागवत

                 

अहमेबासमेबाग्रे नान्यत्‌ यत्‌  सदसत्‌ । 
पश्चादहं यदेतच्च योऽबशिष्येत सोऽस्म्यहम्‌ ॥ 

ऋतेऽर्थँ यत्‌ प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि । 
तद्‌बिद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः ॥ 

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चाबचेष्वनु । 
प्रबिष्टान्यप्रबिष्टनि तथा तेषु न तेष्वहम्‌ ॥ 

एतावदेब जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽत्मनः । 
अन्वयब्यतिरेकाभ्यां यत्‌ स्यात्‌ सर्वत्र सर्वदा ॥

                     (श्रीमद्‌भागवत, 2/9/32-35)



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

एक खतरनाक साजिश की सच्चाई

  🔸“संयुक्त परिवार को तोड़कर उपभोक्ता बनाया गया भारत: एक खतरनाक साजिश की सच्चाई* ⚡“जब परिवार टूटते हैं, तभी बाजार फलते हैं” — ये सिर्फ विच...