मंगलवार, 17 मई 2022

नादयोग

 नादयोग  


 पद्मासन, सिद्धासन या सुखासन मेँ बैठ जाइए । कानोँ को अँगूठोँ से बन्द कर लीजिए । इसे षण्मुखी या वैष्णवीमुद्रा कहते हैँ । अनाहत-ध्वनि के सङ्गीत को सुनिए । आप ध्यानमग्न हो जायेँगे । 


 श्वास के साथ सोऽहम्‌ (अजपाजप) अथवा अन्य किसी मन्त्र का जप कीजिए । एक या दो महीने के लिए प्राणायाम का अभ्यास कीजिए । आप दशोँ नादोँ को ठीक-ठीक सुनेँगे तथा आत्म-सङ्गीत के सुख का उपभोग करेगे । इस नाद के श्रवण से आप अन्य सभी ध्वनियोँ को भूल जायेँगे । 


 सारे सांसारिक विचारोँ को त्याग दीजिए । अपने आवेग को वश मेँ कीजिए । सभी विषयोँ के प्रति उदासीन बनिए । यम अथवा सदाचार का अभ्यास कीजिए । मन को नाद पर एकाग्र कीजिए । इससे मनोनाश हो जाता है । 


 नाद ऐन्द्रिक विषयोँ मेँ विचरण करने वाले मन-रूपी हाथी को वश मेँ करने के लिए अंकुश का काम करता है । यह चित्त-मृग को बाँधने के लिए जाल का काम करता है । जिस तरह मधु का पान करने वाली मधुमक्खी गन्ध की परवाह नहीँ करती, उसी तरह नाद मेँ विलीन मन विषय-वस्तुओँ की कामना नहीँ करता । 


 प्रथम ध्वनि है चिनि । दूसरी ध्वनि है चिनिचिनि । तीसरी ध्वनि है घण्टी के समान, चौथी है शङ्ख-ध्वनि, पाँचवीँ है एक सितार की ध्वनि, छठी है ताल की ध्वनि, सातवीँ है बाँसुरी की ध्वनि, आठवीँ है ढोल की ध्वनि, नवीँ है मृदङ्ग की तथा दशवीँ दशवीँ है घनघोष की ध्वनि । दाहिने कान से आन्तरिक ध्वनि का श्रवण कीजिए । स्थूल ध्वनि से मन को सूक्ष्म ध्वनि पर लगाइए । मन शीघ्र ही ध्वनि मेँ विलीन हो जायेगा ।


 सातवीँ ध्वनि के श्रवण करने पर आप गुप्त वस्तुओँ का ज्ञान प्राप्त कर लेँगे । आठवीँ मेँ आप परा-वाक्‌ सुनेँगे । नवीँ मेँ आपको दिव्य चक्षु प्राप्त होँगे तथा दशवीँ मेँ आप परब्रह्म को प्राप्त कर लेँगे ।


 ध्वनि मन को मोहित कर लेती है । मन ध्वनि के साथ दुध-पानी की तरह एक बन जाता है । यह ब्रह्म मेँ विलीन हो जाता है । तब आप नित्य-सुख के धाम को प्राप्त करेँगे ।



मनोनिग्रह

 मनोनिग्रह   


मन आत्म-शक्ति है । मन के द्वारा ही ब्रह्म अथवा परमात्मा विभिन्न वस्तुओँ से पूर्ण इस नानात्व जगत्‌ के रूप मेँ व्यक्त होता है । 


मन संस्कारोँ का संग्रह मात्र ही है । यह आदतोँ का गट्‌ठर मात्र है । मन का सच्चा स्वभाव वासनाओँ से ही निर्मत है । मैँ अथवा अहङ्कार ही मन-रूपी वृक्ष का बीज है । इस बीज से बुद्धि अंकुरित होती है । इस अंकुर से अनेक शाखाओँ के रूप मेँ सङ्कल्प उत्पन्न होते हैँ । 


 मन सूक्ष्म सात्त्विक पदार्थ से निर्मित है । छान्दोग्यपनिषद के अनुसार मन अन्न के सूक्ष्मतम भाग से निर्मित है । 


 मन दो प्रकार का है__अशुद्ध मन तथ शुद्ध मन । पूर्वक्त बन्धन का कारण है ओर उत्तरोक्त मुक्ति का । ध्येय वस्तु मेँ मनोलय__कुछ समय के लिय मनलय हो जाना__आपकी मुक्ति मेँ सहायक नहीँ हो सकता । मनोनाश से ही मोक्ष-प्राप्ति सम्भव है । 


 विषयोँ की तृष्णा न रखिए । अपनी आवश्यकताओँ को कम कीजिए । वैराग्य को बढ़ाइए । वैराग्य से मन सूक्ष्म हो जाता है ।


 अधित न मिलिए । अधिक न बोलिए । अधिक न चलिए । अधिक न खाइए । अधिक न सोइए । 


 अपने आवेगोँ पर नियन्त्रण रखिए । कामनाओँ तथा वासनाओँ का परित्याग कीजिए । काम तथा क्रोध का दमन कीजिए । शुद्ध मन के द्वारा अशुद्ध मन को नष्ट कर डालिए तथा ध्यान के द्वारा शुद्ध मन का अतिक्रमण कीजिए । पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन कीजाए । आध्यात्मिक मार्ग मेँ अधूरी साधना का कोई स्थान नहीँ है ।


 मन के साथ युद्ध न कीजिए । धारणा के लिए बल का प्रयोग न कीजिए । जब मन अधिक उछलता अथरवा भटकता होतो मन के साथ जबरदस्ती न किजिए, उसे कुछ समय के लिए चलने दीजिए जब तक कि वह थक न जाये । पहले तो वह अवसर से लाभ उठा कर उच्छृङ्खल बन्दर की भाँति उछलना शुरू करेगा । तदुपरान्त धीरे-धीरे वह शान्त हो जायेगा एवं आपके आदेशोँ की प्रतीक्षा करने लगेगा ।


 जब बुरे विचार मन मेँ आयेँ तो उन्हेँ दूर करने के लिए सङ्कल्प-शक्ति का प्रयोग न कीजिए । आपकी शक्ति का अपव्यय होगा । अन्यथा सङ्कल्प-शक्ति पर अनावश्यक दबाव पड़ेगा । आप थक जायेँगे । जित7अ अधिक आप बल-प्रयोग करेंगे, उतना ही आधिक बुरे विचार आयेँगे । वे और जल्दी ही लौटेँगे । वृत्ति आधिक बलवती बन जायेगी । उदासीन एवं शान्त बने रहिए । उन विचारोँ के मूक साक्षी बनिए । उनके साथ तादात्म्य-सम्बन्ध स्थापित न कीजिए । वे शीघ्र ही विलुप्त हो जायेँगे । उनके बदले अच्छे विचारोँ को स्थान दीजिए । ईश्वर के नाम का भजन तथा कीर्त्तन कीजिए ।


 एक दिन के लिए भी ध्यान को न छोड़िए । नियमबद्धता अत्यन्त आवश्यक है । मन थका हुआ हो तो धारणा का अभ्यास न कीजिए । थोड़ा आराम कर लीजिए । रात्रि मेँ भारी भोजन न कीजिए । इससे प्रातः ध्यान मेँ बाधा पहुँचेगी । 


 जप, कीर्त्तन, प्राणायाम, सत्सङ्ग, शम, यम, सात्त्विक आहार, स्वाध्याय, ध्यान, विचार__इन सबसे मनोनिग्रह मेँ सहायता मिलेगी तथा आप नित्य-सुख एवं अमरत्व को प्राप्त तरेँगे ।



राजयोग

 राजयोग   


 राजयोग वास्तविक विज्ञान है । सारी वृत्तियोँ का निरोध ही उसका लक्ष्य है । इसका सम्बन्ध मन, उसकी शुद्धि तथा उसके निरोध से है । अतः इसे राजयोग__सभी योगोँ का राजा__कहते हैँ । इसे अष्टङ्गयोग भी कहते हैँ । 


 इसके आड अङ्ग ये हैँ__यम, नियम, आसन,प्राणायाम, प्रत्याहार (इन्द्रियोँ को समेटना), धारणा, ध्यान तथ समाधि । अहिँसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह का मनसा-वाचा-कर्मणा अभ्यास ही यम है । यह योग का आधार है । शौच (अन्तर्वाह्य), सन्तोष, तप, स्वाध्याय (धार्मिक पुस्तकोँ का पठन तथा मन्त्र-जप) तथा ईश्वर-प्रणिधान (ईश्वर की पूजा तथा आत्मार्पण)__ये नियम हैँ । मैत्री (बराबरी वाले के साथ), करुणा (छोटोँ के साथ), मुदित (बड़ोँ के साथ) तथा उपेक्षा (दुष्टोँ के साथ) - इन गुणोँ का विकास कीजिए । इससे आप ईर्ष्या तथा घृणा का उन्मूलन कर सकते हैँ तथा मनःशान्ति प्राप्त कर सकते हैँ । धैर्यपूर्वक योग की सीड़ी के एक-एक सोपान पर क्रमशः चढ़ते जाइए तथा अन्त मेँ परम पद अर्थात्‌ असम्प्रज्ञात -समाधि को प्राप्त किजिए जहाँ जन्म-मृत्यु के चक्र को प्राप्त कराने वाले सारे संस्कार पूर्णतः भस्मीभूत हो जाते हैँ ।

 

 यदि आप वास्तव मेँ अपने भीतर निहित ईश्वरत्व को प्रस्फुटित करना चाहते हैँ, यदि आप वास्तव मेँ संसार-जाल से मुक्त होना चाहते हैँ तो आपको राजयोग मेँ सन्निविष्ट वृत्ति-निरोध की क्रिया को जानना चाहिए । आपको सम्यक्‌ जीवन, सम्यक्‌ विचार, सम्यक्‌ वाणी तथा सम्यक्‌ कर्म के नियमोँ से अवगत होना चाहिए । आपको यम अथवा सदाचार के पाँच नियमोँ का अभ्यास करना चाहिए । आपको यह जानना चाहिए कि मन को वाह्य विषयोँ तथा वस्तुओँ से लौटा कर उसे एक बिन्दु पर कैसे एकाग्र करते हैँ । आपको धारणा तथा ध्यान की ठीक विधि जाननी चाहिए । तभी आप सुखी होगेँ ; तभी शक्ति, स्वतन्त्रता तथा एकाधिपत्य प्राप्त करेँगे ; तभी आप अमृतत्व, मुक्ति तथा कैवल्य प्राप्त करेंगे । यदि आप सच्चा सुख एवं अनुद्विग्न शाश्वत शान्ति प्राप्त करना चाहते हैँ तो आपको मन की चालोँ तथा आदतोँ, उसके कार्य-वतयापारोँ, मनोनिग्रह के साधनोँ तथा मन के अनुशासन का ज्ञान वहृत ही आवश्यक है । 

  

 राजयोग का अभ्यास कीजिए । विचार को वशीभूत कीजिए । मन को नियन्त्रित कीजिए । नियमित ध्यान कीजिए तथा अमरत्व, स्वतन्त्रता एवं पूर्णता को प्राप्त कीजिए  ।



कुण्डलिनीयोग

 कुण्डलिनीयोग 


 कुण्डलिनी-शक्ति वह आवेष्टित, प्रसुप्क विश्वात्म-शक्ति है जो सभी जड़ तथा चेतन वस्तुओँ का आधार है । यह वह आधार-शक्ति है जो मूलाधार-चक्र मेँ प्रसुप्त-अवस्था मेँ रहती है । कुण्डलिनीयोग वह योग है जो कुण्डलिनी-शक्ति, सातोँ चक्र, प्रसुप्त कुण्डलिनी-शक्ति को जाग्रत करने तथा उसका शिर मेँ स्थित सहस्रार-चक्र मेँ भगवान्‌ शिव के साथ योग का विचार करता है । कुण्डलिनी-शक्ति सात चक्रोँ का भेदन करती हुई सहस्रार मेँ शिव के साथ जा मिलती है । 


 ये सात चक्र हैँ__मूलाधार (गुदा मेँ), स्वाधिष्ठान (जननेन्द्रिय की जड़ मेँ), मणिपूर (नाभि भेँ), अनाहत (हृदय मेँ), विशुद्ध (कण्ठ मेँ), आज्ञा (दोनोँ भौँहोँ के बीच) तथा सहस्रार (शिर के ऊपरी भाग मेँ) । 


 नाड़िया सूक्ष्म नलिकाएँ है जिनसे हो कर प्राण का सञ्चार होता है । उन्हेँ चर्मचक्षुओँ द्वारा देख नहीँ सकते हैँ । वे मामूली स्नायु, धमनी अथवा शिराएँ नहीँ हैँ । बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैँ । उनमेँ तीन प्रसिद्ध हैँ । वे हैँ__इड़ा, पिङ्गला तथा सुषुम्ना । सुषुम्ना सबसे प्रमुख है; क्योँकि कुण्डलिनी इसी नाड़ी से हो कर गुजरती है । कुण्डलिनीयोग मेँ प्रथम चरण है नाड़ियोँ की शुद्धि । सुषुम्ना के शुद्ध होने पर ही कुण्डलिनी इससे हो कर गुजरती है । प्राणायाम के अभ्यास द्वारा नाड़ियोँ की शुद्धि की जाती है । 


 प्राणायाम, बन्ध तथा मुद्रा के द्वारा योगी सुषुम्ना-नाड़ी के मुख को खोलता है । वह सुप्त कुण्डलिनी को जगा कर उसको निम्नस्थित षट्‌-चक्रोँ से हो कर सहस्रार मेँ ले जाता है । कुण्डलिनी साढ़े तीन आवेष्टनोँ मेँ मूलाधार मेँ सुप्त रहती है । तीन आवेष्टन तीन गुणोँ के प्रतीक हैँ तथा आधा आवेष्टन विकृतियोँ का । 


 हठयोगी प्राणायाम, आसन तथा मुद्रा के द्वारा, राजयोगी धारणा के द्वार, भक्तियोगी भक्ति तथा पूर्ण आत्मसमर्पण के द्वारा तथा ज्ञानयोगी विवेक-बुद्धि के द्वारा कुण्डलिनी को जगाते हैँ । मन्त्र ओर गुरु की कृपा के द्वारा भी कुण्डलिनी जगायी जाती है । 


 यदि आप शुद्ध तथा सभी कामनाओँ से मुक्त हैँ तो आपको कुण्डलिनी श्वयमेव ही जाग्रत हो जायगी और इससे आप लाभान्वित होँगे । यदि आप उस समय बलपूर्वक अपनी कुण्डलिनी को जगायेँ जिस समय आपका हृदय मलिन है, जब आपके मन मेँ कामनाएँ छिपी हुई हैँ, तो आपको विविध प्रकार के प्रलोभनोँ का सामना करना पड़ेगा । जब आप एक स्तर से दूसरे उन्नत स्तर को जायेँगे तो आपका पतन होगा । उन प्रलोभनोँ का संवरण करने के लिए आपमेँ सङ्कल्प-शक्ति नहीँ रह जायेगी । 


 जिस साधक मेँ योग-शास्त्रोँ के प्रति प्रबल निष्ठा है, जो साहसी, भक्त, विनम्र, उदार, कारुणिक, शुद्ध तथा वैराग्यवान्‌ है, वह सुगमतापूर्वक कुण्डलिनी को जगा कर समाधि को प्राप्त कर सकता है । उसे सदाचार तथा संयम से भी सम्पन्न होना चाहिए । उसको चाहिए कि वह सदा ही अपने गुरु की सेवा मेँ लगा रहे तथा काम, क्रोध, मोह, लोभ तथा अभिमान से मुक्त रहे ।


 जब कुण्डलिनी को सहस्रार मेँ ले जा कर उसको भगवान्‌ शिव के साथ मिलाते हैँ तो पूर्ण समाधि की प्राप्ति होती है । योगी अमृत का पान करता है । 


 माता कुण्डलिनी आप सबको योगाभ्यास मेँ पथ-प्रदर्शन करेँ !  उनका आशीर्वाद आप सबको प्राप्त हो !



प्राणायाम

 प्राणायाम  


 प्राणायाम वास्तविक विज्ञान है । यह अष्टाङ्गयोग का चौथा अङ्ग है । यह प्राण का निरोध तथा श्वास का नियमन है । 


 प्राणायाम मन को स्थिर करता, जठराग्नि को प्रदीप्त करता, पाचन-शक्ति को बढ़ाता, स्नायुओँ को सबल बनाता, रजस्‌ को विनष्ट करता, सभी रोगोँ को दूर करता, सभी प्रकार के आलस्योँ को दूर कर शरीर को हलका तथा स्वस्थ बनाता और कुण्डलिनी को जाग्रत करता है । 


 प्रणायाम का अभ्यास उस समय ही करना चाहिए जबति पेट खाली हो । अपने अभ्यास मेँ सदा नियमित रहिए । अभ्यास के तुरन्त बाद ही स्नान न कीजिए । प्रारम्भ मेँ कुम्भक का अभ्यास न कीजिए । हलके पूरक तथा रेचक का धीरे-धीरे अभ्यास करना चाहिए । शक्ति से अधिक अपने स्वास पर तनाव न डालिए । पूरक, कुम्भक तथा रेचा के बीच 1 : 4 : 2 का अनुपात रखिए । बहुत धीरे-धीरे श्वास छोड़िए । 


 पद्म, सिद्ध या सुखासन मेँ बैठजाइए । शिर, ग्रीवा तथा धड़ को एक सीध मेँ ही रखिए । बायीँ नासिका से धीरे-धीरे श्वास लीजिए । श्वास को पूर्वोक्त अनुपात के अनुसार रोकिए तथा तब दायीँ नासिका के द्वारा धीरे-धीरे श्वास को छोड़िए । यह प्राणायाम की आधी क्रिया है । तब दायीँ नासिका के द्वारा श्वास खीँचिए, रोकिए तथा बायीँ नासिका के द्वारा धीरे-धीरे श्वास को छोड़िए । एक या दो मिनट से अधिक समय तक श्वास को न रोकिए । 


 अपनी शक्ति क अनुसार ही दश या बीस बार प्रणायाम कीजिए । अपने को थका न डालिए । धीरे-धीरे संख्य बढ़ाते जाइए । आप 16 : 64 : 32 तक संख्या को बढ़ा सकते हैँ । यही सुखपूर्वक-प्राणायाम है ।


 गरमी मेँ शीतली का अभ्यास किजिए । इसके द्वारा आपका खून साफ होगा तथा शरीर मेँ शीतलता आयेगी । शीतकाल मेँ भस्त्रिका का अभ्यास किजिए । इसके द्वारा दमा तथा यक्ष्मा रोग दूर होँगे । अभ्यास के समय ओउम्‌ (ॐ) अतवा राम का मानसिक जप कीजिए । ब्रह्मचर्य-पालन तथा आहार-संयम कीजिए । आपको अधिकतम लाभ प्राप्त होगा तथा आपकी नाड़ी-शुद्धि भी शीघ्र हो जायेगी । 


 प्राण तथा मन एक-दूसरे से निकट-सम्बन्ध रखते हैँ । यदि आप प्राण को वश मेँ कर लेते हैँ तो आपका मन भी नियन्त्रित हो जायेगा और यदि आप मन को वश मेँ कर लेते हैँ तो प्राण स्वतः ही वशीभूत हो जायेगा । प्राण का सम्बन्ध मन से है, मन के द्वारा इसका सम्बन्ध सङ्कल्प से और सङ्कल्प के द्वारा जीवात्मा से तथा जीवात्मा के द्वारा परमात्मा से है । 


 इसका अभ्यास अभी से ही आरम्भ कर दीजिए । सच्चाई-पूर्वक अभ्यास किजिए । श्वास को वशीभूत तथा शान्त बनाइए । श्वास को स्थिर कर समाधि मेँ प्रवेश कीजिए । श्वास का दमन कर आयु की वृद्धि कीजिए । प्राणायाम के द्वारा योगी बनिए__शान्ति, शक्ति, आनन्द तथा सुख का अक्षय स्रोत बनिए । 



योगासन

 योगासन  


 स्वास्थ्य ही धन है । स्वास्थ्य निश्चय ही स्पृहणीय वस्तु है । सुन्दर स्वास्थ्य सबते लिए वरदान ही है । योगासनोँ के नियमित अभ्यास द्वारा यह प्राप्त किया जा सकता है । 


 आसनोँ के अभ्यास से आवेगोँ पर नियन्त्रण होता है तथा मानसिक शान्ति की प्राप्पि होती है । यह समस्त शरीरप्रणाली मेँ प्राण को सम-रूप से वितरित करता है, भीतरी अङ्गोँ के स्वस्थ कार्य-सञ्चालन मेँ सहायता देता है तथा उदर-सम्बन्धी विभिन्न अङ्गोँ के लिए मालिश का काम करता है । शारीरिक व्यायामोँ के कारण प्राण बाहर की और आते हैँ; परन्तु आसनोँ के द्वारा प्राण भीतर की ओर आते हैँ । आसनोँ का अभ्यास आपके बहुत से रोगोँ का निवारण कर डालता है । यह कुण्डलिनी-शक्ति को जाग्रत करता है । योगाभ्यास के ये प्रधान लाभ हैँ, जो अन्य प्रणालियोँ मेँ नहीँ पाये जाते ।


 प्रतिदिन कम-से-कम पन्दरह मिनट तक कुछ आसन किया किजिए । इसके द्वारा आपको सुन्दर स्वास्थ्य की प्राप्ति होगी । अभ्यास मेँ सदा आपको नियमित रहना चाहिए । नियमितता परम आवश्यक है । भुजङ्ग, शलभ, धनुः, सर्वाङ्ग, हल तथा पश्चिमोत्तानासन का अभ्यास कीजिए । भुजङ्ग, शलभ तथा धनुरासन कोष्ठवद्धता तथा कमर के दर्द को दूर कर देँगे । शीर्ष, सर्वाङ्ग तथा हलासन ब्रह्मचर्य-पालन, रिढ़ को लचकीला रखने तथा सभी रोगोँ के निवारण मेँ सहायक हैँ । पश्चिमोत्तानासन के द्वारा आपके पेट की चर्बी कम होगी तथा आपकी पाचन-शक्ति का विकास होगा । योगासनोँ के अभ्यास के अन्त मेँ सवासन के द्वारा अपने शरीर के सभी अङ्गोँ को आराम दीजिए । 


 आसन सदा प्रातःकाल खाली पेट या भोजन करने के तीन घण्टे बाद करने चाहिए । प्रातःकाल का समय आसन करने के लिए सर्बोत्तम है । आसन करते समय ऐनक न पहनिए । लङ्गोटी अथवा कौपीन को धारण कीजिए । मिताहाय कीजिए । योगासनोँ मेँ सफलता के लिए ब्रह्मचर्य का पालन बहुत ही आवश्यक है । आरम्भ मेँ प्रत्येक आसन के लिए कम-से-कम समय दीजिए; तब धीरे-धीरे समय की वृद्धि कीजिए । अभ्यास आरम्भ करने से पहले शौचादि से आप निवृत्त हो जाइए । दश वर्ष से ऊपर के सभी लड़के, लड़कियाँ तथा स्त्रियाँ भी आसनोँ का अभ्यास कर सकते हैँ ।


 संसार को सुन्दर स्वस्थ लड़के तथा लड़कियोँ की आवश्यकता है । आज हम भारत मेँ क्या देख रहे हैँ ? ऋषियोँ तथा ज्ञानियोँ का देश भारत, जहाँ भीष्म, भीम, अर्जुन, द्रोण, अश्वत्थामा, कूपा, परशुराम, तथा सुवाष बोष, भगत सिँह अन्य वीर योद्धा पैदा हुए थे, वह देश जो अदम्य शौर्य तथा अद्वितीय शक्तिशाली अनेकानेक राजपूत सेनानायकोँ सेनानायकोँ से सम्पन्न था, आज दुर्बल तथा कायर व्यक्तियोँ से भरा हुआ है । बच्चे ही बच्चे उत्पन्न करते हैँ । स्वास्थ्य के नियमोँ की उपेक्षा तथा अवहेलना की जा रही है । राष्ट्र दुःख भोग रहा तथा मृतप्राय हो रहा है । आज जगत्‌ को ऐसे असंख्य वीर, नैतिक तथा आध्यात्मिक सैनिकोँ की आवश्यकता है जो अहिँसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह__इन पाँच यमोँ से सम्पन्न होँ ।

 



हठयोग

 हठयोग  


 हठयोग क सम्बन्ध आसन, प्राणायाम, बन्ध तथा मुद्रा से है । 'ह' तथा 'ठ' का अर्थ है सूर्य तथा चन्द्र का योग__प्रण तथा अपान वायु का योग । जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये तब तक हठपूर्वक कार्य करते रहना भी 'हठ' है । त्राटक, एक पैर पर खड़े रहना तथा ऐसी ही अन्य मुद्राएँ हठयोग मेँ ही सम्मिलित हैँ । हठयोग को राजयोग से कभी भी अलग नहीँ किया जा सकता है । हठयोग की समाप्ति पर राजयोग का आरम्भ होता है । राजयोग तथा हठयोग एक-दूसरे पर अवलम्बित हैँ । राजयोग तथा हठयोग एक दूसरे के आवश्यक पूरक हैँ । इन दोनोँ योगोँ के अभ्यास तथा ज्ञान के बिना कोई भी व्यत्ति पूर्ण योगी नहीँ बन सकता है । हठयोग साधक को राजयोग के लिए तैयार करता है । 


 हठयोगी प्राण तथा प्राण से अपनी साधना को आरम्भ करता है । राजयोगी मन से तथा ज्ञानयोगी बुद्धि एवं सङ्कल्प से अपनी साधना आर्म्भ करते हैँ ।


 हठयोगी प्राण तथा अपान को संयुक्त कर, उसे सुषुम्ना के षट्‌-चक्रोँ से सहस्रार को ले जाता है । इस तरह से वह सिद्धियाँ प्राप्त करता है । राजयोगी संयम के द्वारा (धारणा, ध्यान तथ समाधि के सम्मिलित अभ्यस के द्वारा) सिद्धियाँ प्राप्त करता है । ज्ञानयोगी सत्सङ्कल्प के द्वारा सिद्धियोँ का प्रदर्शन करता है । भक्त अत्मसमर्पण तथा एतद्‌द्वारा प्राप्त कृपा से सिद्धियोँ को प्राप्त करता है ।


नेति, धौति, नौलि, बस्ति, त्राटक तथा कपालभाति हठयोग का क्रियाएँ हैँ । इनका अभ्यास सभी व्यक्तियोँ के लिए आवस्यक नहीँ हैँ । जिनके शरीय मेँ अधिक कफ है, उनको इन क्रियाओँ का अभ्यास करना चाहिए । किसी निपुण हठयोगी से इनको सीख लीजिए । हठयोग ही लक्ष्य नहीँ है, यह तो लक्ष्य-प्राप्ति का साधनमात्र है । सुन्दर स्वास्थ्य को प्राप्त कर राजयोग का अवलम्बन कीजिए । 


 आसन, कुम्भक-प्राणायाम और मुद्रा कीजिए तथा कुण्डलिनी को उद्‌बुद्ध कर उसे सुषुम्ना के षट्‌-चक्रोँ से हो कर सहस्रार को ले जाइए । हे च्योतिपुत्रो ! क्य आप अमृतत्वप्रदायक सुधा का पान नहीँ करेँगे ?


 प्रिय बन्धु ! सुन्दर स्वास्थ्य प्राप्त कर लीजिए । स्वास्थ्य के बिना आप कैसे जीवन का निर्वाह कर सकेँगे ? स्वास्थ्य के बिना आप जीविकोपार्जन कैसे कर सकेँगे ? स्वास्थ्य के बिना आप योग अथवा किसी भी कार्य मेँ कैसे सफलता प्राप्त कर सकते हैँ ? हठयोग के अभ्यास के द्वारा सुन्दर स्वास्थ्य को प्राप्त कर लिजिए, सहस्रार के अमृत का पान कीजिए तथा शिव के अमर धाम मेँ निवास कीजिए !



कर्मयोग का सार

 कर्मयोग का सार    


 मानव जाति की निष्काम्य सेवा ही कर्मयोग है । ''अनवरत कम करना ही आपका कर्त्तव्य है, उसके फल की आशा रखना नहीँ''__यही गीता का केन्द्रीय उपदेश है । 


 कार्यालय मेँ काम करते समय भी आप अपने इष्ट-मत्र का मानसिक जप कीजिए । ईश्वर अन्तर्यामी है । वह शरीर, मन तथा इन्द्रियोँ को काम करने के लिए प्रेरित करता है । ईश्वर के हाथोँ मेँ निमित्त-मात्र बनिए । अपने कर्म के बदले मेँ धन्यबाद अथवा प्रशंसा की अपेक्षा न कीजिए । कर्मोँ को अपने कर्त्तव्य के रूप मेँ कीजिए तथा उनको और उनके फलोँ को ईश्वर पर अर्पित कीजिए । आप कर्म के बन्धन से मुक्त हो जायेँगे । कर्म नहीँ वरन्‌ मनुष्य की स्वार्थ-वृत्ति ही ही उसके बन्धन का कारण है । 

 

 कदापि ऐसा न कहिए, ''मैँने उस मनुष्य की सहायता की है ।'' भावना कीजिए तथा सोचिए__''उस मनुष्य ने मुझे सेवा का अवसर प्रदान किया । इस सेवा के द्वारा मुझे अपने चित्त की शुद्धि मेँ सहायता मिली है । अतः मैँ उसका अत्यन्त आभारी हूँ ।'' यदि आप अपने द्वार पर किसी निर्धन व्यक्ति को चिथड़ोँ मेँ देखेँ तो भावना कीजिए कि 'भगवान्‌ ही इस निर्धन व्यक्ति के रूप मेँ मेरे सामने आये हैँ ।' नारायणभाव के साथ उसकी सेवा कीजिए । 


 दूसरोँ की सेवा करते समय कभी भी झुँझलाइए नहीँ । सेवा मेँ सुख का अनुभव कीजिए । सेवा के लिए सुअवसरोँ की ताक मेँ रहिए । एक भी सुअवसर को हाथ से न जाने दीजिए । कर्म ईश्वर की उपासना है ।


 कर्मयोगी का स्वभाव मिलनसार, प्रिय तथा मधुर होना चाहिए । उसमेँ सहानुभूति, यथाव्यवस्था का गुण, आत्मसंयम, सहनशीलता, प्रेम तथा करुणा होनी चाहिए । उसको चाहिए कि वह दूसरोँ के स्वभाव तथा रुचि के अनुसार ही अपने-आपको ढाल ले । उसमेँ अपमान, कटुवचन, आलोचना, सुख-दुःख तथा शीतोष्ण को सहन करने की शक्ति होनी चाहिए । 

 

 आप अपनी क्षमता तथा परिस्थितियोँ के अनुकूल निष्काम्य कर्म कर सकते हैँ । वकील बिना फीस लिये ही गरीबोँ की ओर से वकालत कर सकता है । डाक्टर बिना फीस लिये ही गरीबोँ का इलाज कर सकता है । अध्यापक अथवा प्राध्यापक गरीब लड़कोँ को निःशुल्क पढ़ा सकता है । वह उनके पढ़ने के लिए मुफ्त पुस्तकेँ दे सकता है । अपने पास दवाइयोँ की एक पेटी रखिए जिसमेँ बारह या कुछ एलोपैथिक, आयुर्वेदिक या होमियोपैथिक औषधियाँ रख लीजिए । आत्मभाव के साथ गरीबोँ तथा रोगियोँ की सेवा कीजिए । अपनी आय का दशांश दान मेँ दीजिए । यही सबसे बड़ा योग है ।

 

 निम्न-श्रेणी के कार्य तथा सम्मानपूर्ण कार्य मेँ कोई भी भेद न रखिए । यदि कोई व्यक्ति किसी दर्द से पीड़ित हो तो तुरन्त उस स्थान की मालिश कीजिए । ऐसा अनुभव कीजिए कि उस रोगी के शरीर मेँ आप नारायण की सेवा कर रहे हैँ । अपने इष्ट-मन्त्र का जप भी करते रहिए । यदि आप सड़क पर किसी मनुष्य या जानवर के शरीर से रुधिर निकलता देखते हैँ और आपके पास कोई पट्‌टी नहीँ है तो अपना वस्त्र फाड़ कर उसके घाव पर बाँधने मेँ जरा भी सङ्कोच न कीजिए । रेलवे-स्टेशन पर गरीब कुलियोँ के साथ पैसोँ के लिए झगड़ा न किजिए । विशाल-हृदयी तथा उदार बनिए । अपनी जेब मेँ सदा कुछ पैसे रखिए तथा उनको गरीबोँ तथा लाचारोँ मेँ बाँटिए ।


 कर्मयोग मन को ज्योति तथा ज्ञन के ग्रहण के लिए तैयार करता है । यह हृदय को विस्तृत करता तथा एकता के मार्ग मेँ आने वाली सारी बाधाओँ को दूर करता है । चित्त की शुद्धि के लिए यह एक प्रभावशाली साधन है । अतःसतत निष्काम्य कर्म कीजिए ।



योग

 योग  


योग आत्म-संस्कृति की पूर्ण व्यावहारिक प्रणाली है । 


 यह वास्तविक विज्ञान ही है । शरीर, मन तथा आत्मा का सन्तुलित विकास ही इसका लक्ष्य है । विषय-जगत्‌ से ईन्द्रियोँ को हटाना तथा मन को अन्दर की ओर एकाग्र करना ही योग है । योग आत्मा मेँ अमर जीवन है । मन तथा इसकी वृत्तियोँ का निरोध ही योग है । योग-मार्ग आन्तरिक पथ है जिसका प्रवेश-द्वार आपका हृदय ही है ।


मन, ईन्द्रिय तथा शरीय का संयम योग है । शरीर मेँ स्थित सुक्ष्म शक्तियोँ का समन्वय तथा उन पर नियन्त्रण करने मेँ योग सहायता देता है । योग पूर्णता, शान्ति तथा नित्य-सुख को प्रदान करता है । योग आपके व्यपार तथा आपके दैनिक जीवन मेँ भी आपकी सहायता कर सकता है । योगाभ्यास के द्वारा आप सदा मन की शान्ति को बनाये रख सकते हैँ । आपको निश्चिन्त नीँद आयेगी । आपको अधिक शक्ति, वीर्य, आयु तथा उन्नत स्वास्थ्य की प्राप्ति होगी । योग पाशवी प्रकृति को दिव्य प्रकृति मेँ रूपान्तरित करता है तथा आपको दिव्य महिमा और ज्योति की चोटी पर बैठा देता है । 


 योगाभ्यास के द्वारा आप अपने आवेगोँ तथा उत्तेजनाओँ पर नियन्त्रण रख सकते हैँ । इससे प्रलोभनोँ का प्रतिरोध करने तथा मन के रजस्‌ के विनाश के लिए शक्ति प्राप्त होती है । इसके द्वारा आप सदा मन को सन्तुलित बनाये रख सकेँगे तथा तकावट से सदा बचे रहेँगे । यह आपको गाम्भीर्य, शान्ति तथा अनोखी धारण-शक्ति प्रदान करेगा । इससे आप ईश्वर का साक्षात्कार करने मेँ समर्थ बनेँगे । आप जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे ।


 यदि आप योग मेँ सफलता प्राप्त करना चाहते हैँ तो आपको सभी प्रकार के सांसारिक सुखोँ का परित्याग कर तप तथा ब्रह्मचर्य का अभ्यास करना होगा । आपको युक्ति और कुशलता के साथ मन को वशीभुत करना होगा । इसको नियन्त्रित करने के लाए आपको बौद्धिक तथा विवेकपूर्ण साधनोँ का प्रयोग करना होगा । यदि आप बल का प्रयोग करेंगे तो मन ओर भी उपद्रवी तथा विप्लवकारी बन जायेगा । इसको बल के द्वार हम वशीभूत नहीँ कर सकते । यह अधिकाधिक कूदना तथा उछलना आरम्भ कर देगा और दूर भाग जायेगा । जो लोग बलपूर्वक मन को अपने वश मेँ करने का प्रयास करते हैँ, वे उनके समान हैँ जो पतले रेशमी धागे से मदमत्त हाथी को बाँधने का प्रयास कर रहे होँ ।


 योगाभ्यास के लिए गुरु अनिवार्य है । योग-मार्ग के साधक को नम्र, सरल, सुशील, शिष्ट, सहनशील, दयालु तथा कारुणिक होना चाहिए । यदि आपको सिद्धियोँ की प्राप्ति के लिए कुतूहल है तो आप योग मेँ सफलता प्राप्त नहीँ कर सकते । छः घण्टोँ तक पलथी मार कर किसी एक आसन मेँ बैटे रहना, हृदय अथवा नाड़ी की गति को रोके रखना, जमीन के भितर एक सप्ताह अथवा एक महीने ता गड़े रहना__यह योग नहीँ है । 


 अलंबुद्धि, अशिष्टता, अभिमान, विलासिता, नाम, यश, अहङ्कार, स्वेच्छाचारिता, बड़प्पन का भाव, विषय-कामनाएँ, कुसङ्गति, आलस्य, अत्याहार, अति-श्रम, अति-संसर्ग तथ अति-भाषण__ये योग-पथ के कुछ विघ्न हैँ । अपने दोषोँ को बिना किसी सङ्कोच के मान लीजिए । इन दुर्गुणोँ से मुक्त हो जाने पर आपको स्वतः ही समाधि की प्राप्ति हो जायेगी । 


 यम तथा नियम का अभ्यास कीजिए । पद्म या सिद्धासन पर आरम के साथ बैठ जाइए । प्राणायाम कीजिए । अपनी इन्द्रियोँ को समेट लीजिए । वृत्तियोँ का दमन कीजिए । धारणा कीजिए । ध्यान कीजिए तथा असम्प्रज्ञात अथवा निर्विकल्प-समाधि को प्राप्त कर लीजिए । 


 योगाभ्यास के द्वारा आप योगी के रूप मेँ विभासित बनेँ ! आप शाश्वत आनन्द की प्रप्ति करेँ ! 



सिद्धियाँ


सिद्धियाँ 


 शक्तिशाली जादूगर सारे दर्शकोँ को अपनी धारणा तथा सङ्कल्प-शक्ति के द्वारा सम्मोहित कर 'रस्सी के जातू का खेल' दिखलाता है । वह लाल रस्सी को वायु मेँ फेँकता है तथा दर्शकोँ को यह सङ्केत देता है कि वह रस्सी के सहारे वायु मेँ जायेगा और पलक मारते ही मञ्च पर से अदृश्य हो जाता है ; परन्तु छायाचित्र (Photograph) लेने पर कुछ भी चित्रित नहीँ होता ।


 प्राचीनकाल के योगी जैसे श्री ज्ञानदेव, भर्तृहरि, पतञ्चलि महर्षि आदि मन से दूर-श्रवण (Telepathy) तथा मानसिक संक्रमण के द्वारा सुदूर व्यक्तियोँ को सन्देश भेजते तथा उनसे सन्देश प्राप्त करते थे । दूर-श्रवण (Telepathx) मेँ कुशल हैँ । विचार प्रबल गति के द्वारा आकाश मेँ भ्रमण करता है । विचार गतिशील है । विचार उतना ही ठोस पदार्थ है जितना कि यह पत्थर । इसे फेँक कर किसी व्यक्ति को चोट पहुँचा सकते हैँ ।


 मन की शक्तियोँ को समझिए तथा उनका साक्षात्कार कीजिए । छिपी शक्तियोँ अथवा अलौकिक मनःशक्तियोँ को व्यक्त कीजिए । आँखेँ बन्द कर लीजिए । धारणा कीजिए । मन के उन्नत क्षेत्रोँ का अनुभव कीजिए । आप दूर की वस्तुओँ को देख सकते हैँ, दूर के शब्दोँ को सुन सकते हैँ, दूर प्रदेशोँ मेँ सन्देश भेज सकते हैँ, दूर-स्थित व्यक्तियोँ का उपचार कर सकते हैँ और पल-मात्र मेँ दूर-स्थान को जा सकते हैँ । मन की शक्ति मेँ विश्वास रखिए । यदि आपमेँ मनोयोग, अवधान, इच्छाशक्ति तथा श्रद्धा हैँ तो आप निश्चय ही सफल होँगेँ । मन का मूल है आत्मा । मन आत्मा से ही प्रभु की माया के द्वारा उत्पन्न है । हिरण्यगर्भ वैश्व मन है । हिरण्यगर्भ समष्टि मन है । यह ईश्वर अथवा कार्य-ब्रह्म है । मनुष्य का मन समष्टि मन का ही एक क्षुद्र अंश है । राजयोगी समष्टि मन से एक बन जाता है । तथा सभी मनोँ के कार्य-व्यापार को जान लेता है । योगी हिरण्यगर्भ के द्वारा सर्वज्ञाता को प्रात्प कर लेता है । योगी समष्टि मन के द्वारा ही विश्वात्म-चैतन्य का अनुभव करता है । 


 विश्वात्म मन से शक्ति प्राप्त कीजिए । आप उन्नत अतीन्द्रिय ज्ञान प्राप्त करेँगे । आप विश्वात्म-चैतन्य का अनुभव करेँगे । आप भूत, वर्त्तमान तथा भविष्य का ज्ञान प्राप्त कर लेँगे । आप तन्मात्रा तथा मानसिक जगत्‌ का ज्ञान प्राप्त कर लेँगे । आप दूर-दृष्टि तथा दूर-श्रुति का अनुभव करेगे । आप दूसरोँ के मन की बात जान लेँगे । आप दिव्य ऐश्वर्य अथवा ईश्वरीय विभूत्तियोँ को प्राप्त कर लेँगे । इस विश्वात्म मन से सिद्धियोँ को प्राप्त करने के लिए वैज्ञानिक साधन हैँ । शुद्धता, धारणा, वैराग्य, सात्त्विक जीवन, सद्विचार, सदाचार, सत्कर्म, भक्ति, भोजन तथा निद्रा मेँ मध्यम पथ, सात्त्विक आहार, सत्य, ब्रह्मचर्य, अहिँसा, तपस्या आदि का दीर्घकाल तक नियमित अभ्यास करना होगा । 


 मन के चमत्कारोँ को तो देखिए ! जब मनुष्य किसी सम्मोहित (हिप्नोटाइज़्ड) व्यक्ति को देखता तथा उसकी बातोँ को सुनता है, तब वह आश्चर्यचकित रह जाता है । सम्मोहित व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति के जीवन की घटनाओँ का वर्णन करता है जिसे उसने अपने जीवन मेँ कभी नहीँ देखा । 


 एक यहूदी परिचारिका किसी हिब्रू पुरोहित की सेवा करती थी । सेवा करते समय वह हिब्रू गीतोँ को सुना करती थी । जब वह अस्पताल मेँ बीमार पड़ी तफ उसमेँ अचानक द्विविध व्यक्तित्व पाया गया । वह हिब्रू गीत गाने लगी । वह हिब्रू भाषा नहीँ जानती थी । सारे संस्कार उसके चित्त मेँ थे तथा वह सङ्गीतोँ को दोहराने लगी । कोई भी संस्कार नष्ट नहीँ होता । सभी संस्कार चित्त-रूपी Computer मेँ अमिट रूप से सेव हो जाते हैँ ।


 एक पुरोहित अपने पुराने व्यत्तित्व को भूल कर छः महीने के लिए नया व्यक्तित्व, नया नाम तथा नया व्यवसाय अपना लेता था । द्वितीय व्यक्तित्व के विकसित होने पर वह अपने घर को छोड़ देता तथा अपने पुराने जीवन को पूर्णतः भूल जाता था और छः महीने के बाद अपने स्थान को लौट आता था । तब वह अपने पिछले छः महीने के व्यक्तित्व को पूर्णतः भूल जाता था ।  





मन का नियन्त्रण

 मन का नियन्त्रण 


 इस भौतिक जगत्‌ का जीवन शाश्वत सुख और आनन्द के नित्य जीवन के लिए तैयारी मात्र है । मन को शुद्ध बना कर गम्भीर सतत ध्यान के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति से ही यह प्राप्त किया जा सकता है । परमानन्द के इस अमर जीवन को बाइबिल मेँ श्वर्ग का साम्राज्य बतलाया गया है जो कि आपके भीतर है, आपके हृदय मेँ है । हे सुशील ! मन को वशीभूत कर इस अमर जीवन का साक्षात्कार कीजिए और आत्मा के परमानन्द का उपयोग कीजिए । 


 योगशास्त्र के रहस्य को उसी साधक के प्रति प्रकट किया जा सकता है, जो जितेन्द्रिय तथा अभ्यास-शूर है, जिसमेँ गुरुभक्ति, वैराग्य तथा विवेक है, जिसका सङ्कल्प अडिग है तथा जिसमेँ ईश्वर के अस्तित्व के प्रति सुदृढ़ विश्वास है । 


 मन एक ही है; परन्तु स्वप्नावस्था मेँ वह मायाशक्ति के द्वारा द्रष्टा और दृश्य का रूप धारण करता है । मन ही गुलाब, पर्वत, हाथी, सरिता, सागर, शत्रु आदि के रूप को धारण करता है । जिस से अपृतक्करणीय है । इससे मन अशान्त रहता है । वृत्ति रजस्‌ की शक्ति से होती है । वृत्ति ही मन की अशान्ति का कारण है । भक्त इस विक्षेप को जप, उपासना तथा इष्टदेवता की पूजा द्वारा दूर करते हैँ । 


 मन वृत्ति की शक्ति ही है । यह तरङ्गित मन ही जगत्‌ है । तरङ्गोँ के न रहने पर मन मन नहीँ रहता । तरङ्गोँ के अभाव मेँ मन का अस्तित्व नहीँ रहता । मन की इस तरङ्ग-शक्ति को ही माया कहते हैँ । तरङ्ग-शक्ति द्वारा ही मन ऊधम मचाता है । तरङ्ग ही मार या शेतान या वासना या एषणा या तृष्णा है । इस तरङ्ग ने ही विश्वामित्र को प्रलोभित किया था । यह तरङ्ग ही प्रयत्नशील साधक को गिरा डालती है । प्रवल विवेक, सतत ध्यान तथा अनवरत ब्रह्म-विचार के द्वारा इस तरङ्ग को नष्ट कर डालिए । 


 तरङ्ग के प्रकट हो विभिन्न प्रकार के विकल्प उत्पन्न हो जाते हैँ । तरङ्ग तथा विकल्प दोनोँ का यह अस्तित्व है । विकल्प तरङ्ग के समान ही भयङ्कर है । तरङ्ग मन को गतिशील करती है । कल्पना मन को स्थूल बनाती है । तरङ्ग तथा कल्पना से रहित मन शून्य ही है । तरङ्ग तथा कल्पना मनरूपी पक्षी के दो डैने हैँ । आत्मविचार द्वारा दाहिने डैने को तथा निर्विचार के अभ्यास द्वारा बायेँ डैने को काट डालिए । यह महान्‌__मन तत्क्षण मर कर गिर जायेगा । 

 

 मन ही आत्मा तथा शरीर के बीच विभाजक दीवार है । यदि अनवरत विचार के द्वारा इस दीवार को तोड़ देँ तो जीव परमात्मा मेँ उसी तरह मिल जाता है जिस तरह नदी समुद्र मेँ मिल जाती है । 


 अपनी आखेँ बन्द कर लीजिए । ध्यान कीजिए । अदृश्य शक्ति के अन्तर्प्रवाह के लिए हृदय को खोल दीजिए । इञ्जील मेँ उल्लेख है, 'स्वयं को खाली कर ; मैँ तुझे भर दूँगा ।" तब आपको प्रचुर परम अतीन्द्रिय ज्ञान प्राप्त होगा जो बुद्धि की पहुँच से परे है । जिस तरह नल खोल देने से पानी अबाध गति से बहने लगता है, उसी तरह ज्ञान-मार्ग मेँ आने वाले अज्ञान के प्रतिबन्धोँ के निवारण करते ही दिव्य ज्ञान प्रवाहित होने लगता है । आप दिव्य प्रेरणा, उद्‌धाटन तथा अतीन्द्रिय ज्ञान की झलक तथा दमक पायेँगे । सारे उफनते विचारोँ तथा भावनाओँ को शान्त कर मन को विषय-पदार्थोँ से हटा कर शान्त अवस्था मेँ उसे आत्मा से उसी प्रकार सम्बद्ध करना होगा जिस प्रकार आप दूरभाष (Mobile phone) मेँ डायल (Dial) कर उन दो व्यक्तियोँ को, जो आपस मेँ बातचित करना चाहते हैँ, सम्बन्धित करते हैँ ।


 सारे द्वैत मन के हैँ । सारा द्वेत मन की कल्पना से उत्पन्न है । यदि विवेक, वैराग्य, शम, दम तथा समाधान के सतत अभ्यास से आप सारी कल्पनाओँ को अपने मन मेँ समेट लेँ, तब आपको इस द्वन्द्वात्मक जगत्‌ का अनुभव नहीँ होगा मन अमन हो जायेगा । विषय-वस्तु के अभाव मेँ वह अपने मूलस्रोत आत्मा मेँ स्थित हो जायेगा । 


 'मेरा मन दूसरी जगह था, मैँने देखा नहीँ', 'मेरा मन दूसरी जगह था, मैँने सुना नहीँ'__ऐसा इसलिए कहते हैँ क्योँकी मनुष्य अपने मन से ही देखता है तथा अपने मन से ही सुनता है । 


 विषयोँ के आकर्षण तथा विभिन्न प्रकार के बन्धनोँ से मनुष्य इस संसार मेँ बँध जाता है । सारे विषयोँ के प्रति रागोँ का त्याग तथा सारे बन्धनोँ का तोड़ना ही सच्चा संन्यास है । जो संन्यासी अथवा योगी राग तथा बन्धनोँ से मुक्त है, वह असीम शान्ति, परम सुख तथा शाश्वत आनन्द का अनुभव करता है । 


 मन को ॐ (प्रणव) मेँ विलीन कर देना चाहिए । जिस योगी अथवा ज्ञानी का मन ॐ मेँ विलीन है, उसके लिए भय नहीँ ; वह जीवन के लक्ष्य को पा चुका है । 


 ध्यान की अग्नि सारे दोषोँ तथा पापोँ को शीघ्र ही जला डालती है, तब उस सत्य का ज्ञान होता है जो पूर्णता, नित्य शान्ति तथा अमृतत्वप्रदायक है । 


 सतत स्थिर अभ्यास के द्वारा वृत्तियोँ को रोकिए । मन अमन हो जायेगा । आप योगारूढ़-अवस्था प्राप्त करेँगे । समाधि मेँ मन सत्य मेँ स्थित होता है तब अविद्या के बीज, जो चित्त मेँ संस्कार-रूप से गड़े हुए हैँ, विदग्ध हो जाते हैँ । यह अविद्या के बीज को जलाने वाली अग्नि ज्ञान-अग्नि अथवा योग-अग्नि है ।


 जब योगी ध्यान की अन्तिम अवस्था को प्राप्त कर लेता है, जब वह असम्प्रज्ञात-समाधि मेँ प्रवेश करता है तो इसी जन्म मेँ जीवन्मुक्त हो जाता है । योगिक समाधि की अग्नि सभी संस्कारोँ को पूर्णतः जला डालती है । तब पुनर्जन्म के बीज नहीँ रह जाते । 



मन तथा उसके रहस्य

 मन तथा उसके रहस्य  


 जिस तरह कार्य-व्यस्त अफिसर सारे दरवाजोँ को बन्द कर कमरे मेँ अकेले काम करता है, उसी तरह कार्य-व्यस्त मन स्वप्न मेँ सारे इन्द्रिय-द्वारोँ को बन्द कर अकेले कार्य करता है । 


 मन आत्मा से उत्पन्न शक्ति है । मन के द्वारा ही ईश्वर इस वैचित्र्यपूर्ण विषयोँ से सम्पन्न नानात्व जगत्‌ के रूप मेँ व्यक्त होता है । 


 मन विचारोँ का गट्‌ठर मात्र है । सारे विचारोँ मेँ 'अहं भावना' ही मूल है । अतः इस अहं विचार ही वास्तव मेँ मन है । 


 मन संस्कारोँ का समुच्चय है । यह आदतोँ का गट्‌ठर है । यह विभिन्न वस्तुओँ के सम्पर्क से उत्पन्न कामनाओँ का संग्रह मात्र है । सांसारिक विक्षेपोँ से उत्पन्न भावनाओँ का संग्रह भी यही है । विभिन्न वस्तुओँ से प्राप्त विचारोँ का यह सङ्गठन है । ये कामनाएँ, विचार तथा भावनाएँ सतत परिवर्त्तनसील हैँ । मन के भण्डार-गृह से पुरानी कामनाएँ सदा निकलती रहती हैँ तथा नयी कामनाएँ उनके स्थान को ग्रहण कर लेती हैँ । 


 जाग्रत-अवस्था मेँ मन का स्थान मस्तिष्क, स्वप्न मे सेरिबेलम (निम्न-मस्तिष्क) अथवा कण्ठ तथा सुषुप्ति मेँ हृदय है । 


 मन सदा ही किसी-न-किसी विधायक पदार्थ के साथ अपने को नियोजित किये रहता है । यह स्वयं मेँ स्थित नहीँ रह सकता । यह मन ही अपने को इस शरीर मेँ 'अहं', 'मै' मानता है । 


 चो वस्तुएँ आप अपने चतुर्दिक्‌ देखते हैँ, वे साकार रूप मेँ मन ही हैँ । मनोमात्र जगत्‌__मनोकल्पित जगत्‌ । मन सृजन करता है ; मन ही लय करता है । 


 मानसिक जगत्‌ मेँ जो रहस्यमय अनुभव हौते हैँ, वे सब वैज्ञानिक नियम पर आधारित हैँ । रहस्यवादियोँ तथा राज योगियोँ को इन नियमोँ का पूर्णतय स्पष्ट ज्ञन होना चाहिए । तभी वे मन की शक्तियोँ का सुगमतया नियन्त्रण कर सकेँगे ।


 दूर-श्रवण, विचार-पठन, मेस्मेरिज़्म, हिप्नोटिज़्म, दूर से उपचार, मनःशक्ति से उपचार आदि के अभ्यास से यह स्पष्टतः प्रमाणित हो जाता है कि मन है तथा उन्नत विकसित मन निम्न मन को प्रभावित कर सकता है और उसे अपने अधीन कर सकता है । हिप्नोटिज़्म द्वारा सम्मोहित व्यक्ति के अनायास लेख तथा अनुभव से हम अर्द्धचेतन मन अथवा चित्त के अस्ति त्व का अनुमान कर सकते हैँ जो चौबीसोँ घण्टे काम करता रहता है । 


 यदि मन मेँ किसी विचार को बो दिया गया तो वह रात्रि मेँ चित्त के सहारे वृद्धि को प्राप्त करता है । चित्त कदापि आराम नहीँ करता । यह अग्रतापूर्वक चौबीसोँ घण्टे काम करता रहता है । जो चित्त से काम लेना जानते हैँ, वे बहुत परिमाण मेँ मानसिक कार्य कर सकेँगे । सभी मेधावी व्यक्तियोँ का चित्त के ऊपर अपना नियन्त्रण रहता है । आपको चित्त से काम लेने की कला जाननी चाहिए । चित्त एक अद्‌भुत आन्तरभौम मानसिक कर्मशाला है । 


 मन इस पृथ्वी पर सबसे बड़ी शक्ति है । जो मन को वश मेँ कर लेता है ; वह शक्तियोँ से पूर्ण हो जाता है । वह सारे मनोँ को अपने अधीन ला सकता है । मन द्वारा सारे प्रकार की व्याधियोँ का उपचार किया जा सकता है । मनुष्य के मन की विचित्र शक्ति को देख कर बड़ा ही आश्चर्य तथा विस्यय होता है । इस रहस्यमय मन का स्रोत, आधार अथवा धाम ब्रह्म अथवा आत्मा है । 


 इस भौतिक शरीय से किया हुआ कोई भी कर्म मन के किसी पूर्व-चिन्तित विचार से ही सम्भव है । मन पहले विचारता तथा योजना एवं उपक्रम बना लेता है । तदनन्तर वह क्रिया के रूप मेँ अभिव्यक्त होता है । जिसने सर्वप्रथम घड़ी का आविष्कार किया, उसके मन मेँ लीवर, विभिन्न पहिए, मिनट की सूई, सेकेण्ड की सूई, घण्टे की सूई आदि सम्बन्धी सारे विचार थे । ये विचार ही बाद मेँ कार्य मेँ उतर आये । 


 यदि किसी अलात को जोरोँ से घुमाया जाये तो अलात चक्र बन जाता है । उसी तरह यद्यपि मन एक समय मेँ एक ही वस्तु पर ध्यान देता है, या तो सुनता है आतवा सूँघता है ; यद्यपि वह एक समय मेँ एक ही संवेदन को ग्रहण करता है, फिर भी हम ऐसा समझ लेते हैँ कि मन एक ही समय मेँ कई कर्मोँ को कर रहा है ; क्योँकि यह बड़ी ही त्वरिक गति से एक वस्तु से दूसरी पर जाता है__इतनी तेजी से जाता है कि क्रमबद्ध अवधान तथा संवेदन एक साथ मिल कर युगपत्‌ कार्य के रूप मेँ दृष्टिगत होते हैँ । 

 

 ऋषि तथा प्रकाण्ड दार्शनिक लोग इस बात पर एक मत हैँ कि मन वस्तुतः एक ही समय मेँ एक से अधिक वस्तुओँ पर ध्यान नहीँ दे सकता ; परन्तु जब वह आश्चर्यजनक तीव्रगति से आगे-पीछे एक वस्तु से दूषरी वस्तु को जाता है तो ऐसा मालूम पड़ता है कि वह एक समय मेँ एक से अधिक कार्योँ को कर रहा है । 


 विचार का परिवर्त्तन, सुखद वस्तुओँ के चिन्तन द्वारा मन का शिथिलीकरण, प्रसन्नता, सात्त्विक आहार तथा सात्त्विक मनोरञ्जन__ये मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैँ ।


 मन जिस वस्तु का ध्यानपूर्वक चिन्तन करता है, उसी वस्तु के आकार को धारण कर लेता है । यदि यह नारङ्गी के विषय मेँ सोचता है तो यह नारङ्गी के आकार का हो जाता है । यदि यह शूली पर चढ़े हुए प्रभु जीसस का चिन्तन करता है तो यह वैसा ही रूप धारण करता है । आपको मन को उचित रूप से प्रशिक्षण देना होगा तथा उसे आत्म-विचार अथवा मानसिक चित्र की दिव्य पृष्ठभूमि बनाये रखिए । 


 यदि सारे विचारोँ को नस्ट कर दिया जाये तो मन जैसी कोई वस्तु नहीँ रह जाती । अतः ये विचार ही मन विचारोँ से स्वतन्त्र तथा पृथक्‌ हो । दो विचारोँ का परस्पर का कितना ही निकट-सम्बन्ध क्योँ न हो, वे एक समय मेँ नहीँ रह सकते । 


 यह एक अमिट मनोवैज्ञानिक नियम है कि मन जिस वस्तु का चिन्तन करता है, वह वैसा ही बन जाता है । यदि आप किसी व्यक्ति के दोष का चिन्तन करने लगेँ तो आपका मन कम-से-कम उस समय तो दुर्गुणोँ मेँ निवास करेगा ही और उन दोषोँ से पूर्ण हो जायेगा भले ही उस मनुष्य मेँ वे दोष होँ या न होँ । यह आपके गलत विचारोँ, बुरे संस्कारोँ अथवा मन की बुरी आदतोँ के कारण कोरी कल्पना ही हो सकती है । 


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चित्त

 चित्त 


 अर्द्धचेतन मन को वेदान्त मेँ चित्त कहते हैँ । आपके चित्त का अधिकांश भाग उन डूबे हुए अनुभवोँ तथा स्मृतियोँ से बना है जो मन के पीछे फेँक दिये गये हैँ, परन्तु जिन्हेँ पुनः बाहर निकाला जा सकता है ।


 वृद्ध होने पर जब आपकी स्मृति कमजोर होने लगती है तब इसका लक्षण यह है कि लोगोँ के नाम को याद रखना आपके लिए कठिन जान पड़ता है । इसका कारण ढ़ूँढ़ने के लिए कहीँ दूर जाने की आवश्यकता नहीँ है । ये सभी नाम स्वच्छन्दता से रखे गये हैँ । वे सब नाम-पत्र के समान हैँ । इन नामोँ से मनुष्य का कोई सम्बन्ध नहीँ है । मन साधारणतः सम्बन्ध के द्वारा याद रखता है ; क्योँकि इससे संस्कार गम्भीर हो जाते हैँ । वृद्धवस्था मेँ भी आप स्कूल तथा कालेज मेँ पढ़े हुए कुछ सन्दर्भोँ को याद कर सकते हैँ ; परन्तु प्रातः की पढ़ी हुई वस्तु को आप शाम तक ही भूल जाते हैँ । जो अति-मानसिक कार्य करते हैँ ; ब्रह्मचर्य के नियमोँ का पालन नहीँ करते तथा जो चिन्ता, शोक आदि से पीड़ित रहते हैँ, वे शीघ्र ही स्मृति खो बैडते हैँ । वृद्धावस्था मेँ भी आप पुरानी गटनाओँ को याद रख सकते हैँ ; क्योँकि उन घटनाओँ के लिए साहचर्य सम्बन्ध है । 


 मानसिक क्रियाएँ सचेतन मन के क्षेत्र तक ही सीमित होती है ; परन्तु चित्त का कार्य सचेतन मन से अधिक व्यापक है । जब सन्देश तैयार हो जाते हैँ तो वे चित्त से बिजली की भाँति दमक उठते हैँ । अन्तःकरण के कार्योँ का दश प्रतिशत ही सचेतन मन के क्षेत्र मेँ आता है । हमारे मानसिक जीवन का कम-से-कम नब्बे प्रतिशत भाग अर्द्ध-चेतन मन मेँ छिपा रहता है । हम बैठ कर कोई समस्या सुलझाना चाहते हैँ ; किन्तु विफल हो जाते हैँ । हम चारोँ ओर देखते हैँ ; बारम्बार प्रयास करते हैँ ; फिर भी विफल हो जाते हैँ । अचानक एक विचार प्रकट हो जाता है जिससे उस समस्या का समाधान मिल जाता है । चित्त काम कर रहा था ।


 कभी-कभी रात्रि मेँ आप इस विचार को ले कर सोने जाते हैँ, 'मुझे ट्रेन पकड़ने के लिए सबेरे जगना है ।' चित्त इस सन्देश को ग्रहण कर लेता है तथा वह बिना किसी भूल के आपको ठीक समय पर उठा देता है । चित्त आपका चिरसङ्गी तथा सच्चा मित्र है । रात्रि के समय किसी गणित अथवा ज्यामिति के प्रश्न का उत्तर पाने मेँ बार-बार असफल रहते हैँ; परन्तु प्रतःकाल उठते ही आपको उसका स्पष्ट उत्तर मिल जाता है । यह उत्तर चित्त से एकाएक दमक उठता है । सुप्त अवस्था मेँ यह (चित्त) अविराम अनवरत काम करता रहता है । यह सजाता है, वर्गीकरण करता है, सारी बातोँ को चुनता है तथा सन्तोषजनक समाधान प्राप्त तर लेता है । यह सब अर्द्धचेतन मन का ही कार्य है । 


अर्द्धचेतन मन के सहारे आप अवाञ्छनीय दुर्गुणोँ के विरोधी स्वस्थ, सद्‌गुणोँ के अर्जन द्वारा अपनी निम्न प्रकृति को बदल सकते हैँ । यदि आप भय पर विजय पाना चाहते हैँ तो मन-ही-मन इसका निषेध कीजिए । कहिए, 'मुझे भय नहीँ है ।' तथा अपने मन को इसके प्रतिपक्ष गुण 'साहस' पर एकाग्र कीजिए । इसके विकसित होने पर भय स्वतः ही लुप्त हो जाता है ; धनात्मक के द्वारा ऋणात्मक का दमन हो जाता है । यह प्रकृति का अचूक नियम है । यही राजयोगियोँ की प्रितिपक्ष-भावना है । नीरस कार्यो तथा कर्त्तव्योँ के प्रति रुचि तथा इच्छा का विकास कर आप उनके प्रति भी अपने मन मेँ चाह उत्पन्न कर सकते हैँ । आप पुराने संस्कारोँ को बदल कर चित्त मेँ नयी आदतेँ, नये आदर्श, नये विचार, नयी रुचि तथा नये चरित्र का निर्माण कर सकते हैँ । 


 चित्त के कार्य हैँ स्मृति या स्मरण, धारणा तथा अनुसन्धान । मन्त्र-जप करते समय चित्त ही स्मरण करता है । यह बहुत से कार्योँ को करता है । यह बुद्धि से भी अधिक अच्छा कार्य करता है । 


 सारे कर्म, भोग तथा अनुभव अपने संस्कार चित्त मेँ सूक्ष्म चिह्नोँ के रूप मेँ छोड़ जाते हैँ । ये संस्कार ही जड़ हैँ जिनसे पुनः जाति, आयु तथा सुख-दुःख-रूपी भोगोँ की प्राप्ति होती है । संस्कारोँ के पुनर्जागरण से स्मृति होती है । योगी अन्दर गम्भीर प्रवेश कर इन संस्कारोँ के सीधे सम्पर्क मेँ आता है । वह आन्तरिक योगिक दृष्टि से इन्हेँ देखता है । इन संस्कारोँ पर संयम के द्वारा वह पूर्व-जन्मोँ के ज्ञान को प्राप्त कर लेता है । दूसरोँ के संस्कार पर संयम करने से वह उनके भी पूर्व-जन्मोँ का ज्ञान प्राप्त कर लेता है ।


 यदि आप किसी वस्तु को याद करना चाहते हैँ तो आपको मानस प्रयास करना होगा । आपको अर्द्धचेतन मन अथवा चित्त के विभिन्न स्तरोँ की गहराइयोँ ऊपर-नीचे जाना होगा तथा इष्ट-वस्तु को विभिन्न अद्‌भुत असङ्गत वस्तुओँ के समूह से पहचात कर निकाल लेना होगा । जिस तरह रेलवे डाक मेँ सेँ डाक छाँटने वाला अपना हाथ ऊपर-नीचे हिलाता हुआ विभिन्न दरबोँ मेँ से ठीक पत्र को निकाल लेता है, उसी तरह विचार का अनुसन्धान करने वाला भी चित्त के दरबोँ मेँ ऊपर-नीचे जा कर इष्ट-वस्तु को सामान्य चेतन मन के ऊपर ला देता है । चित्त बहुत से पदार्थोँ के ढेर मेँ से ठीक वस्तु को चुन कर निकाल सकता है । 


 ज्योँ-ही मन किसी वस्तु का अनुभव करता है त्योँ-ही चित्त मेँ अनुभव के संस्कार का निर्माण हो जाता है । वर्त्तमान अनुभव तथा चित्त मेँ संस्कार-निर्माण के बीच कोई व्यतारेक नहीँ होता । 


 स्मृति चित्त का कार्य है । वेदान्त मेँ एक अलग तत्त्व है । कभी-कभी यह मन के अन्तर्गत आता है । सांख्य-दर्शन मेँ यह बुद्धि अथवा महत्‌ तत्त्व के अन्दर आ जाता है । पतञ्जलि ऋषि के राजयोग-दर्शन मेँ जो चित्त है, वह वेदान्त के अन्तःकरण का समवर्ती है ।


 

छः जङ्गली पशुओँ को पाततू बनाइए

 छः जङ्गली पशुओँ को पाततू बनाइए 


 आपके अन्दर सिँह, बाघ, सर्प, हाथी, वानर तथा मोर की अशुशाला है इन्हेँ अपने अधीन कीजिए । मांस का सौन्दर्य वास्तव मेँ जीवनप्रद प्राण के कारण है । यह सौन्दय्य आत्मा से निकलने वाली ज्योति है । यह मलिन शरीर, जिसमेँ सौ परनालोँ से मल बहता रहता है, पञ्च-तत्त्वोँ से निर्मित जड़ तथा अपवित्र वस्तु है । सदा इस भाव को बनाये रखिट । इस मानसिक अभ्यास से आप काम पर विजय प्राप्त कर लेँगे । यदि आप अपने मेँ एक के सिद्धान्त को समझ लेँगे ; यदि आप जान लेंगे कि एक ही तत्त्व, एक ही शक्ति, एक ही चित, एक ही जीवन तथा एक ही सत्‌ है तथा ऐसे ही विचार को सदा प्रश्रय देँगे ; तो आप क्रोध पर विजय पा सकेँगे । यदि आप इसको याद रखेँ कि आप ईश्वर के हाथोँ मेँ यन्त्र-मात्र है ; ईश्वर ही सब-कुछ है ; ईश्वर ही सब-कुछ करता है ; ईश्वर न्यायी है, तो आप अहङ्कार से मुक्त हो सकेँगे । आप प्रतिपक्ष-भावना से इस द्वेष का उन्मूलन कर सकेँगे । मनुष्योँ के सद्‌गुणोँ को देखिए, उनके दुर्गुणोँ की उपेक्षा कीजिए । 


 भावना ही एञ्जिन के वाष्प की भाँति प्रेरिकाशक्ति का काम करती है । यह आपको उन्नति मेँ सहायता देती है । यदि भावना न रहती तो आप निष्चेष्टता को प्राप्त किये रहते । यह प्राणी को कर्म अथवा गति के लिए प्रवृत्त करती है । यह वरदानस्वरूप है ; परन्तु आपको भावना का गुलाम नहीँ बनना चाहिए । भावना आप पर शासन न करने लगे । उन्हेँ उबलने नहीँ दीजिए । इन उफनती भावनाओँ को शुद्ध तथा शान्त बनाइए । मन-सागर से ये भावनाएँ धीरे-धीरे उठेँ तथा वैसे ही धीरे-धीरे विलीन हो जायेँ । भावना को पूर्णतया नियन्त्रित रखिए । शारीरिक संबेदना को उन्नत भावना समझने की भूल न कर बैठिए । भावनाओँ के प्रवाह मेँ बह न जाइए । कुछ लोग ऐसे हैँ जो नयी सनसनीदार घटनाओँ को  सुनना चाहते हैँ जिससे उनकी भावनाएँ जग उठेँ । वे भावनाओँ पर ही आश्रित रहते हैँ । भावनाओँ के बिना वे अनुत्साह अनुभव करते हैँ । यह बड़ी दुर्बलता है । यदि वे शान्त और गम्भीर जीवन चाहते हैँ तो इसका उन्मूलन करना आवश्यक है ।


 सारे दुर्गुण क्रोध से उत्पन्न होते हैँ । यदि आप क्रोध को वशीभूत कर लेँ तो सारे दुर्गुण स्वतः विलुप्त हो जायेँगे ।

 

 अहङ्कार, सङ्कल्प, वासना तथा प्राण___इनका मन के साथ गहरा सम्बन्ध है । इन चारोँ के बिना मन का अस्तित्व ही नहीँ रह सकता । प्राण मन का जीवन है । अहङ्कार मन की जड़ है । सङ्कल्प मन-वृक्ष की शाखाएँ हैँ । वासना मन का बीज है । इस दुष्ट अज्ञान-रूपी संसार-वृक्ष की जड़ मन ही है जो गहराई से जमी हुई है । इसकी शाखाएँ विभिन्न दिशाओँ मेँ फैली हुई हैँ । वे फूलोँ, कोँपलोँ, फलोँ आदि से लदी हुई, विकसित हो चली हैँ । यदि इस जड़___मन को नष्ट कर दिया गया तो संसार-वृक्ष, जन्म-मृत्यु का वृक्ष भी विनष्ट हो जायेगा । ब्रह्मज्ञान की कुल्हाड़ी से इस मन-रूपी जड़ को काट डालिए । सङ्कल्प-रूपी शाखाओँ को विवेक-विचार-रूपी छुरी से काट डालिए ।


 सदा अशान्त रहने वाला मन सभी प्रकार की कामनाओँ के विलुप्त हो जाने पर शान्त हो जाता है । कामना से सङ्कल्पोँ की उत्पत्ति होती है । मनुष्य इष्ट-वस्तुओँ की प्राप्ति के लिए कर्म करता है । इस प्रकार वह इस संसार-चक्र मेँ फँसा हुआ है । वासनाओँ के विलीन होने पर यह चक्र रुक जाता है । 


 जिस तरह किसी मकान मेँ बाह्म तथा आन्तरिक कमरोँ के बीच दरवाजे लगे रहते हैँ उसी तरह निम्न मनस्‌ तथा उन्नत मनस्‌ के बीच भी द्वार हैँ । जब मन कर्मयोग, तप, सदाचार अथवा यम, नियम, जप, ध्यान आदि के अभ्यास से शुद्ध हो जाता है तथा निम्न एवं उच्च मनस्‌ के बीच के द्वार खुल पड़ते हैँ, तब सत्य तथा असत्य के बीच विवेक हो जाता है, अन्तदृष्टि खुलती है तथा अभ्यासी प्रेरणा, अनुभव एवं दिव्य ज्ञा को प्राप्त करता है ।


 मन को शान्त तथा शुद्ध रखना बड़ा ही कठिन है ; परन्तु यदि आप चाहते हैँ कि आप ध्यान मेँ उन्नति करेँ अथवा निष्काम कर्मयोग मेँ सफल होँ तो मन का ऐसा होना अनिवार्य है ; तभी आपका उपकरण निर्दोष और आपक मन सुनियन्त्रित होगा । यह साधक के लिए एक प्रमुख गुण है । आपको धैर्य तथा उत्साह के साथ दीर्घकाल तक कठोर संग्राम करना होगा । जिसके पास लौह सङ्कल्पशक्ति तथा दृड़ निश्चय है, उस साधक के लिए कुछ भी असम्भव नहीँ । 


 जिस तरह साबुन भौतिक शरीर को साफ करता है, उसी तरह मन्त्र का जप, ध्यान, कीर्त्तन तथा यम का अभ्यास मन की मलिनताओँ को दूर करते हैँ ।

 



आन्तरिक मनुष्य का दार्शनिक विश्लेषण

 आन्तरिक मनुष्य का दार्शनिक विश्लेषण 


 भौतिक शरीर, सूक्ष्म शरीर, प्राण, बुद्धि, नैसर्गिक मन, आध्यात्मिक मन तथा आत्मा___ये मनुष्य के सात तत्त्व हैँ । बुद्धि शुद्ध विवेक है । बुद्धि का स्थान शिर की चोटी से ठीक नीचे मस्तिष्क के पिनियल ग्लाण्ड (Pineal Gland) मेँ है । जिन लोगोँ मेँ विवेक का विकास हुआ है, उन्हीँ मेँ बुद्धि व्यक्त होती है । सांसारिक लोगोँ की साधारण बुद्धि को व्यावहारिक बुद्धि कहते हैँ ; यह तमसाच्छन्न तथा सीमित तोती है ।


 प्राण जीवनशक्ति अथवा जीवशक्ति है । यह ब्रह्म का नित्य प्रतीक है । यह हिरण्यगर्भ है । यह सूक्ष्म तथा स्थूल शरीर के मध्य का सम्बन्ध-सूत्र है । प्राण को भौतिक प्राण तथा सूक्ष्म प्रण___दो भागोँ बाँटा गया है । श्वास-क्रिया भौतिक प्राण की बाह्य अभिव्यक्ति है । सारे विचार चित्त स्थित सूक्ष्म-प्राण के स्पन्दन से उत्पन्न होते हैँ ।


 कारण शरीर ही स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरोँ का आधार है । बुद्धिशक्ति पराशक्ति है । इस शक्ति को प्राप्त कीजिए । इससे आप सत्‌ को प्राप्त कर लेँगे ।


 चित्त अर्द्ध-चेतन मन है । इसकी दो परतेँ हैँ । एक परत है आवेग के लिए तथा दूसरी है निश्चेष्ट-स्मृति के लिए । नैसर्गिक मन मनुष्य की निम्न-प्रकृति है । यह काम-मनस्‌ है । आध्यात्मिक मन उच्चतर मन है । मन का स्थान हृदय है । सोमचक्र मस्तिष्क के निचले तल का सबसे निचला भाग है, उससे सम्बन्धित मन को बुद्धीन्द्रिय कहते हैँ । मनोनाश से तात्पर्य है निम्न-प्रकृति अथवा काम-मनस्‌ का विनाश । सांख्य-बुद्धि अथवा सांख्य-दर्शन के अनुसार सङ्कल्पशक्ति तथा बुद्धि के समन्वय को बुद्धि कहते हैँ । मन ही पिण्डाण्ड है । मन ही माया है । मन प्रकृति तथा पुरुष, पदार्थ तथा आत्मा का मध्य स्थानीय है ।


  


पारमार्थिक सत्य तथा दृष्य जगत्‌

 पारमार्थिक सत्य तथा दृष्य जगत्‌ 


 आत्मा या चैतन्य __         ब्रह्म-

            |           

 अपरोक्षानुभव    __         लोक 

            |            

    बुद्धिशक्ति  

            | 

          मन 

            |

         प्राण         __  सापेक्ष दृश्य जगत्‌ 

           |

         भूत 


           .


भूतपदार्थ, प्राण तथा मन - ये ब्रह्म की तीन सापेक्ष अभिव्यक्तियाँ हैँ । प्राण वास्तव मेँ मन का ही विकार अथवा अभिव्यक्ति है । प्राण क्रियाशक्ति है । प्राण से ही भौतिक पदार्थ की उत्पत्ति होती है । प्राण मन से उत्पन्न होता है । भौतिक पदार्थ प्राण से निम्न है । प्राण पदार्थ से ऊपर तथा मन से नीचे है । प्राण पदार्थ के लिए धनात्मक तथा मन के लिए ऋणात्मक है । मन प्राण तथा पदार्थ दोनोँ के लिए धनात्मक है ; परन्तु वह बुद्धिशक्ति की अपेक्षा ऋणात्मक है । बुद्धिशक्ति अहङ्कार का केन्द्र है । बुद्धिशक्ति सेनापति है जो मन तथा प्राण को शरीर के सारे भागोँ मेँ तथा सभी दिशायोँ मेँ प्रेरित करती है । अपरोक्षानुभव बुद्धि से परे है तथा मनुष्य एवं चैतन्य के बीच का माध्यम है । स्वतः सङ्केत द्वारा बुद्धिशक्ति का विकास ही राजयोग अथवा वेदान्त का मौलिक सिद्धान्त है । अतिचेतन मन जीवन का धाम अथवा आत्मा है । 



राजयोग

 राजयोग 


 मन वह रहस्यमय पदार्थ है जो बास्तव मेँ तो कुछ भी नहीँ है ; परन्तु सब-कुछ करता है ।


 यह माया से उत्पन्न है । यह अज्ञान की उपज है । यह वासना तथा सङ्कल्प का योग है । यह चिन्ता तथा भय का मिश्रण है । यह अहङ्कार का घोल है । यह एक प्रकार का पाक है । 



कर्मयोगी की प्रर्थना

 कर्मयोगी की प्रर्थना 


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इस श्लोक को ध्यान के अन्त मेँ कहिए :


आत्मा त्वं गीरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं,

 

पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः ।


सञ्चारा पदयोः प्रदक्षिण विधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरा,


यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्‌  ॥ 


तु मेरी आत्मा है । बुद्धि तेरी पत्नी पार्वती है । प्राण तेरे सहचर हैँ । यह शरीर तेरा घर है । विषयोपभोग तेरी पूजा है । सुषुप्ति समाधि है । पैरोँ से मेरा चलना ही तेरी प्रदक्षिणा है । मेरी सारी वाणी तेरी स्तुति ही है । जो भी कर्म मैँ करता हूँ ; हे शम्भो ! वह सब तेरी आराधना ही है ।



आन्तरिक वाणी

 आन्तरिक वाणी 


 जब आत्मा के विभिन्न कोश साधना के द्वारा विलीन हो जाते हैँ, जब मानसिक अनुशासन द्वारा मन की विविध वृर्त्तयोँ का दमन हो जाता है जब चेतन-मन कार्य नहीँ करता, तब आप आध्यात्मिक जीवन, अतिचेतन-मन के साम्राज्य मेँ घुसते हैँ, जहाँ बुद्धि तथा अपरोक्षानुभूति का प्रकटीकरण होता है । आप शान्ति के साम्राज्य मेँ प्रवेश करते हैँ, जहाँ कोई है नहीँ जिससे बात की जाये । आप ईश्वर की वाणी सुनेँगे, जो बहुत ही शुद्ध तथा स्पष्ट होगी तथा जिससे आप प्रेरणा प्राप्त करेँगे । सावधानी तथा रुचिपूर्वक उस वाणी को सुनिए । यह आपका पथ-प्रदर्शन करेगी । यह ईश्वर की वाणी है ।



भले-बुरे कर्म का विचार कैसे हो ?

 भले-बुरे कर्म का विचार कैसे हो ?  


 सद्विचार कीजिए । अपनी सहज बुद्धि तथा विवेक का प्रयोग कीजिए । शास्त्रोँ के उपदेश का पालन कीजिए । जहाँकहीँ शङ्का हो तो मनु अथवा याज्ञवल्क्य की स्मृति देखिए । आपको पता लग जायेगा कि आप ठीक कर रहे हैँ अथवा गलत । यदि आप कहते हैँ__'शास्त्र तो अनन्त हैँ । वे सागर के समान हैँ । मैँ तो उनके सत्योँ को समझ भी नहीँ सकता । मैँ उनकी गहराई माप नहीँ सकता । उनमेँ बहुत विरोधाभास भी हैँ । मैँ तो भ्रमित तथा किङ्कर्त्तव्यविमूढ़ हो जाता हूँ ।' तब जिनके प्रति आपमेँ पूर्ण श्रद्धा तथा विश्वास है, उन अपने गुरु के शब्दोँ का अक्षरशः पालन कीजिए । तीसरी विधि यह है कि ईश्वर का भय रखिए । अपने अन्तःकरण से पूछिए । अन्तःकरण की तीखी वाणी आपका मार्ग-प्रदर्शन करेगी वाणी सुनते ही एक क्षण भी विलम्ब न कीजिए । बिना किसी से राय पूछे श्रमपूर्वक कर्म करना प्रारम्भ कर दीजिए । चार बजे प्रातः आन्तलिक वाणी सुनने का अभ्यास कीजिए । यदि भय, लज्जा, शङ्का तथा अन्तःकरण मेँ खेद का अनुभव हो तो जान लीजिए कि कर्म बुरा है । यदि आनन्द, अनुभव हर्ष तथा तृप्ति हो तो जान लीजिए कि कर्म भला है ।


 


कर्म क्या है ?

 कर्म क्या है ?  


कर्म का अर्थ कार्य करना है । जैमिनि के अनुसार आग्निहोत्र, यज्ञ आदि कर्मकाण्ड कर्म कहलाते । कर्म मेँ एक गुप्त शक्ति है जीसे अदृष्ट कहते हैँ । यही जीव को कर्म-फल प्राप्त कराता है । जैमिनि के लिए कर्म ही सब-कुछ है । मीमांसा-दर्शन की विचार-धारा के मानने वालेँ के लिए कर्म ही सब-कुछ है । जैमनि पूर्वमीमांसा-दर्शन के प्रवर्तक हैँ । वे उत्तर मीमांसा अथवा वेदान्त के संस्थापक महर्षि व्यास के शिष्य थे । मीमांसा-दर्शन मेँ कर्म-फर-दाता ईश्वर के अस्तित्व का निषेध किया जाता है । 


 गीता के अनुसार कोई भी कार्य कर्म है । दान, त्याग, तप___ये सब कर्म हैँ । श्वास लेना, देखना, सुनना, स्वाद लेना, अनुभव करना, सूँघना, टहलना, बोलना आदि दार्शनिक रूप से कर्म ही हैँ । विचारना या सोचना वास्तविक कर्म है । राग-द्वेष ही वास्तविक कर्म हैँ ।



निर्लिप्त अवस्था प्राप्त कीजिए

 निर्लिप्त अवस्था प्राप्त कीजिए 


 भगवान्‌ कृष्ण गीता मेँ कहते हैँ, 'तस्मात्‌ सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च'__अतः सदा मेरा चिन्तन करो और युद्ध करो । मन को ईश्वरार्पित कीजिए तथा हाथोँ से कर्म कीजिए । मुद्रालेखक (टाइपिस्ट) मशीन पर कर्म करता है तथा अपने मित्र से बातेँ भी करता जाता है । हारमोनियम बजाने वाला हारमोनियम बजाते हुए अपने मित्र से बातेँ तथा हाश्य भी करता है । स्त्री बुनाई का काम भी करती है तथ सहेलियोँ से बातेँ भी । शिर पर घड़ा रख कर लड़की अपने मन को घड़े पर लगाये रख कर भी अपनी सखियोँ से बातचीत तथा हँसी-ठट्‌ठा करती रहती है । दाई दूसरे के शिशु को दूध पिलाते समय भी अपना मन अपने ही बच्चे पर लगाये रखती है । चरवाहा दूसरोँ की गौवोँ को चराते समय भी अपने मन को अपनी गौ पर ही लगाये रखता है । उसी प्रकार आप भी अपने घर अथवा आफिस का काम करते समय अपने मन को ईश्वर के चरण-कमलोँ मेँ लगाये रखिए । इससे आप शीघ्र ही आत्म-चैतन्य को प्राप्त कर लेँगे । जिस तरह पद्म-पत्र जल से निर्लिप्त रहता है, जिस तरह तेल जल के तल पर निर्लिप्त रह कर तैरता है, उसी तरह कठिनाइयोँ, भोगोँ तथा कष्टोँ के बीच भी संसार मेँ निर्लिप्त रहिए । 


 जिस तरह घी खाने पर जिह्वा घी से निर्लिप्त रहती है, उसी तरह आपको भी सांसारिक कार्योँ तथा कठिनाइयोँ के बीच निर्लिप्त रहना चाहिए । आपको निर्लिप्त अबस्था बनाये रखनी चाहिए । यही ज्ञान है । यही समता है । निर्लिप्त अवस्था तथा समता बनाये रखने मेँ आपको हजारोँ बार बिफलता मिल सकती है ; किन्तु यदि आप ठीक प्रकार से निरन्तर अभ्यास करते रहेँ तथा मन के अनुशासन को बनाये रखेँ तो आप अन्ततोगत्वा अवश्य ही सफल होँगे । इस बात को अच्छी तरह स्मरण रखिए कि हर विफलता भावी सफलता के लिए स्तम्भ है । 


 कर्मयोगी जिसकी सेवा करे उससे फदले मेँ प्रेम, प्रशंसा, कृतज्ञता, स्तुति आदि की भी अपेक्षा न रखे । 


 वही व्यक्ति कर्मयोग कर सकता है, जिसने अपनी आवश्यकतायोँ को कम कर लिया है तथा इन्द्रियोँ का दमन कर लिया है । विलासी व्यक्ति, जिसकी इन्द्रियाँ उपद्रवी हैँ, दूसरोँ की सेवा कैसे कर सकता है ?  वह सब-कुछ अपने लिए ही चाहता है । वह दूसरोँ से अनुचित लाभ उठाना तथा उन पर प्रभुत्व जमाना चाहता है ।


 दूसरा गुण यह होना चाहिए कि आप सफलता-विफलता, लाभ-हानि, जय-पराजय मेँ समत्व-बुद्धि रखेँ  । आपको राग-द्वेष से मुक्त होना चाहिए । "जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्त्तापन के अभिमान से रहित, फल को न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष से किया हुआ है, वह कर्म सात्त्विक कहा जाता है "



कर्मयोग का प्रशिक्षण

 कर्मयोग का प्रशिक्षण 


 नया अनजान साधक यह समझता है कि मेरे गुरु मुझसे नौकर अथवा चपरासी जैसा बरताव करते हैँ । वे मुझसे छोटे-छोटे कार्य कराते हैँ । जिसने कर्मयोग के तात्पर्य को समझ लिया है, वह हर कार्य को योगिक कार्य अथवा ईश्वर की उपासना समझता है । उसकी दृष्टि मेँ कोई भी कर्म तुच्छ नहीँ है । हर कर्म नारायण की पूजा है । कर्मयोग की दृष्टि मेँ सारे कर्म पवित्र हैँ । जिन कार्यो को सांसारिक लोग तुच्छ समझते हैँ, उन कर्मोँ के करने मेँ भी जो साधक बहुत आनन्द का अनुभव करता है तथा उनको स्वेच्छा से करता है, वही योगी बन सकता है । वह अभिमान तथा अहङ्कार से पूर्णतः मुक्त होता है । उसके लिए पतन नहीँ है । अभिमान का कीटाणु उसे स्पर्श नहीँ कर सकता । 


 महात्मा गान्धी जी की आत्म-कथा पढ़िए । वे शारीरिक श्रमपूर्ण सेवा तथा सम्मानपूर्ण कर्म मेँ कोई भेद नहीँ रखते थे । मेहतर का काम, पाखना साफ करना भी उनके लिए परम योग था । यही उनके लिए परम पूजा थी । उन्होँने स्वयं पाखाने साफ किये थे । विभिन्न प्रकार की सेवा के द्वारा उन्होँने इस क्षुद्र अहं को विनष्ट कर दिया था । बहुत से सुशिक्षित व्यक्ति भी उनके पास योग सीखने जाते थे । वे समझते थे कि गान्धी जी उन्हेँ विशेष रूप से एकान्त कमरे मेँ प्राणायाम, ध्यान, प्रत्याहार तथा कुण्डलिनी-जागरण की शिक्षा देँगे । पाखाना साफ करने का आदेश पा कर वे निराश हो जाते थे । वे शीघ्र ही आश्रम छोड़ कर चले जाते थे । गान्धी जी अपने जूतोँ की मरम्मत स्वयं कर लेते थे । वे स्वयं आटा पीसते थे तथा जो लोख अपने हिस्से का काम न कर पाते, उनके काम को भी वे स्वयं कर लेते थे । जब कोई शिक्षित व्यक्ति या आश्रमवासी आटा पीसने मेँ लज्जा अनुभव करता तो गान्धी जी स्वयं उसके सामने काम को करते थे । इसके फलस्वरूप वह व्यक्ति भी दूसरे दिन से प्रसन्नतापूर्वक काम मेँ लग जाता था ।


 पाश्चात्य देशोँ मेँ चमार तथा किसान लोगोँ ने समज मे बहुत बड़ा स्थान प्राप्त कर लिया है । उनके लिए सब कर्म सम्मानपूर्ण हैँ । लन्दन की गलियोँ मेँ एक पेनी ले कर एक लड़का जूते की पालिश करता है, दोपहर को वह समाचारपत्र बेचता है तथा रात्रि मेँ अवकाश के समय किसी पत्रकार के अधीन शिक्षा प्राप्त करता है । वह पुस्तकेँ पढ़ता है, कठिन श्रम करता है, एक मिनट भी व्यर्थ नहीँ खोता और कुछ ही वर्षोँ बह अन्ताराष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त पत्रकार बन जाता है । पञ्जाब मेँ कुछ बी॰ ए॰ पास व्यक्ति 'सैलन' का काम करते हैँ । उन लोगोँ ने श्रम के महत्त्व को समझ लिया है । 


 वास्तविक योगी तुच्छ कर्म तथा सम्मानपूर्ण कर्म मेँ कोई भेद नहीँ करता । अज्ञानी व्यक्ति ही ऐसा भेद करते हैँ । कुछ साधक अपनी आध्यात्मिक साधना के प्रारम्भ मेँ नम्र रहते हैँ । जब उनका नाम-यश फैल जाता है, उनके कुछ भक्त, शिष्य तथा अनुयारी बन जात है, तब अभिमान के शिकार बन जाते हैँ । वे सेवा नहीँ कर सकते । वे कोई भी वस्तु शिर पर नहीँ ले जा सकते । वह योगी जो बहुत से प्रशंसकोँ, शिष्योँ तथा भक्तोँ के बीच हीन भावना मन मेँ लाये बिना विनम्रता के दम्भ से रहित हो कर रेलवे प्लेटफर्म पर अपने शिर पर ट्रङ्क उठा कर चलता है, वह पूजने योग्य है । 


 ज्ञानी जड़भरत ने बिना असन्तोष प्रकट किये ही राजा रहूगण की पालकी अपने कन्धोँ पर उठायी थी । भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने अपने नाई भक्त की अनुपस्थिति मेँ एक राजा के पैर दबाये थे । श्रीराम अपने किसी भक्त के शौच के लिए जल भर लाये थे । श्रीकृष्ण जी ने नौकर बिट्‌ठू का रूप धर अपने भक्त दामा जी की ओर से नवाब को रुपये अदा किये थे ।


 यदि आप वास्तव मेँ आध्यात्मिक उन्नति करना चाहते हैँ तो आजीवन सभी प्रकार की सेवा करते जाइए । तभी आप सुरक्षित हैँ । सेवा-भाव आपकी रग-रग मेँ तथा अस्थि और मज्जा मेँ प्रवेश कर जाना चाहिए । यह आपके अन्दर घुस कर आपका स्वभाव बन जाना चाहिए । तभी आप वास्तविक पूर्ण-व्यवहारिक वेदान्तीँ बनेंगे ।


 क्या कोई भगवान्‌ बुद्ध से बढ़ कर वेदान्ती अथवा कर्मयोगी है ? वे अभी भी हमारे हृदयोँ मेँ बस रहे हैँ, क्योँकि सेवा उनका स्वभाव हो गया था तथा विविध प्रकार से दूसरोँ की सेवा मेँ ही उन्होँने अपना जीवन बिताया । कितने महान्‌ थे वे ! अद्वितीय ! यदि आप भी ठीक भाव के साथ निष्काम्य कर्म मेँ बुद्धिपूर्वक रत हो जायेँ तो आप भी बुद्ध बन सकते हैँ ।



कर्मयोग

 कर्मयोग KARMYOG 


 अधूरे मन से की हुई सेवा कोई सेवा नहीँ । सेवा करते समय आप अपना पूरा हृदय, मन तथा आत्मा को लगा दीजिए । कर्मयोग के अभ्यास मेँ यह बहुत ही आवश्यक है । 


 कुछ लोग अपने शरी को एक स्थान मेँ, मन को दूसरे स्थान मेँ मेँ तथा आत्मा को तीसरे स्थान मेँ रखते हैँ । यही कारण है कि उन्हेँ इस मार्ग मेँ ठोस उन्नति नहीँ मिल पाती । 


 स्वार्थपूर्ण कर्मोँ मेँ पड़ कर जीवन के लक्ष को न भूलिए । जिवन का लक्ष्य आत्म-साक्षात्काठ है । क्या आप जीवन के लक्ष्य कथा उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हैँ ? क्या आप जप, प्राणायाम तथा ध्यान करते हैँ ? क्या आपने अपने मनःचक्षु के सामने आदर्श को रखा है ? जिस दिन आप आध्यात्मिक साधना का अभ्यास नहीँ करते, वह दिन व्यर्थ ही जाता है । मन को ईश्वर पर अर्पित कीजिए तथा हाथोँ से काम कीजिए । आपको अपनी प्रवृत्तियोँ का निरीक्षण एवं परिक्षण करना होगा । कर्म मनुष्य को संसार-बन्धन मेँ नहीँ डालता, स्वार्थ-वृत्ति ही उसे बन्धन मेँ डालती है । मन को कर्मयोग के लायक बनाइए । स्वार्थपूर्ण कर्म को योग नहीँ कहा जा सकता । मन का निर्माण इस तरह हुआ है कि वह सदा छोटे-छोटे कामोँ मेँ भी फल की आशा रखता है । यदि आप मुसकराते हैँ तो इसके लिए भी आप मित्र से फदले मेँ मुसकराहट की अपेक्षा रखते हैँ । हाथ जोड़ कर प्रणाम करते समय आप दूसरोँ से भी प्रणाम पाने की अपेक्षा रखते हैँ । एक प्याला पानी भी अगर आप किसी को देते हैँ तो इसके लिए उसके आभार-प्रदर्शन की आशा रखते हैँ । ऐसी हालत रही तो आप निष्काम्य कर्मयोग का अभ्यास कैसे कर सकते हैँ ? 


 जीवन बहुमूल्य है । गीता के उपदेश को जीवन मेँ उतारिए । अहङ्कार तथा फल की कामना से रहित हो कर कर्म कीजिए । ऐसा सोचिए कि आप भगवान्‌ नारायण के हाथ मेँ निमित्त मात्र हैँ । यदि इस मानसिक भाव को रख कर कर्म करेँगे तो आप शीघ्र ही योगी बन जायेँगे । कर्म से मनुष्य कभी पतित नहीँ बनता । निःस्वार्थ कर्म नारायण की पूजा ही है । सारे कर्म पवित्र हैँ । पारमार्थित दृष्टि मेँ, कर्मयोग की दृष्टि मेँ कोई भी कर्म निम्न नहीँ है । पाखाना साफ करने का कर्म भी यदि उचित भाव और मनोवृत्ति से किया जाये तो योग ही है । मेहतर अपने वर्ण-धर्म मेँ रह कर भी अपने कर्त्तव्य-कर्म द्वारा ईश्वर-साक्षात्कार कर सकता है । महाभारत मेँ धर्मव्याध की कहानी है । उसने मांस-विक्रय करते हुए भी अपने माता-पिता की सेवा द्वार ईश्वर-साक्षात्कार कर लिया था । आपते अन्दर ज्ञान के लिए पर्याप्त सामग्री है । आपके अन्दर ज्ञान तथा शक्ति का अक्षय स्रोत है । उसे जगाने की आवश्यकता है । हे सौम्य ! अब जग उठो !


 जब आप कर्त्तपन के भाव से रहित हो कर अपने कर्मो तथा फलोँ को ईश्वरार्पण कर निष्काम्य भाव से कर्म करेँगे तो सारे कर्म योगिक क्रिया बन जायेँगे । टहलना, खाना, सोना, शौच, बातेँ करना आदि__ये सब ईश्वर के प्रति अर्चना बन जायेँगे । हर प्रकार का कार्य आपके लिए योग ही है । ऐसा विचार कीजिए कि भगवान्‌ शिव आपके हाथोँ से काम कर रहे हैँ तथा आपके मुँह से खा रहे हैँ । प्रारम्भ मेँ आपके कुछ कार्य स्वार्थपूर्ण हो सकते हैँ तथा कुछ स्वार्थरहित ; परन्तु कालान्तर मेँ आप सारे कर्म निष्काम भाव से करने लगेँगे । सदा अपनी प्रवृत्ति का निरीक्षण करते रहिए । यही निष्काम कर्मयोग की कुञ्जी है । भाव के शुद्ध होने पर हर कर्म को आध्यात्मिक बनाया जा सकता है । कर्म ध्यान है । गम्भीर प्रेम के साथ, कर्त्ताभाव से रहित हो कर, फल की कामना न रख कर हर व्यक्ति की सेवा कीजिए । यदि आप ज्ञान-मार्ग का अनुगमन करते हैँ तो अनुभव किजिए कि आप मूक साक्षी हैँ तथा प्रकृति ही सब-कुछ करती है ।

 

 स्वार्थ ने ही आपके हृदय को खेदपूर्ण रूप से संकुचित कर डाला है । स्वार्थ तो समाज के लिए अभिशाप ही है । स्वार्थ बुद्धि पर परदा डाल देता है । स्वार्थ बुद्धि की सङ्कीर्णता है । भोग से स्वार्थ तथा स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियाँ बढ़ती हैँ । यह मानवदुःखोँ का मूल है । निष्काम सेवा से ही वास्तविक आध्यात्मिक उन्नति का समारम्भ होता है । भाव, प्रेम तथा भक्ति के साथ साधुओँ, संन्यासियोँ, भक्तोँ गरीब बीमारोँ की सेवा कीजिए । ईश्वर सभी हृदयोँ मेँ आसीन है ।


 सेवा-भाव आपकी हड्डी-हड्डी मे, आपके कोषाणुओँ, रक्त और आपकी नस-नस मेँ गम्भीरता से प्रवेश कर जाना चाहिए । इसका फल अनमोल है । अभ्यास कीजिए तथा विश्वात्म-विकास एवं असीम आनन्द का अनुभव कीजिए । मित्रो !  लम्बी बातेँ तथा व्यर्थ बकवास से कुछ नहीँ होगा । कर्म मेँ उत्साह तथा लगन लाइए । सेवा-भाव से तेजस्वी बनिए ।


 बहुरूपिये के समान ही__जो पुरुष की निष्ठा रखता है ; परन्तु स्त्री की चेष्टा करता है__ईश्वर मेँ निष्ठा रखेँ, हाथ से चेष्टा करेँ । आप भी अभ्यास के द्वारा ये दोनोँ बातेँ एक साथ कर सकते हैँ । शारीरिक कर्म सहज, यन्त्रवत्‌ अथवा अनायास होने लगेँगे । आपके दो मन होँगे । मन का एक भाग काम करता होगा तथा तीन चौथाई भाग ईश्वर की सेवा, ध्यान तथा जप मेँ संलग्न होगा । साधारणतः कर्मयोग को भक्तियोग से सँयुक्त रखते हैँ । कर्मयोगी अपनी कर्मोन्द्रियोँ से जो-कुछ भी करता है, उसे ईश्वर के प्रति अर्पित कर देता है । यही ईश्वर-प्रणिधान है ।



कलिसन्तरणोपनिषद्‌

 कलिसन्तरणोपनिषद्‌ 


  द्वापर-युग के अन्त मेँ नारद ऋषि ब्रह्मा जी के पास गये तथा बोले___"हे प्रभु ! मैँ कलियुग का सुगमता कैसे सन्तरण करूँ ?" ब्रह्मा ने कहा___"तुमने अच्छा प्रश्न किया । उसे सुनो जो सभी वेदोँ मेँ गुप्त है, जिससे मनुष्य संसार को पार कर सकता है । 'नारायण' के नाम के उच्चारण से ही भगवान्‌ कलि के सारे बुरे प्रभावोँ को नष्ट कर देते हैँ ।" 


 नारद ऋषि ने पूछा___"हे भगवन्‌ ! नाम क्या है ? " ब्रह्मा जी ने कहा___"नाम ये हैँ : 


हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥


"ये सोलह नाम कलि के बुरे प्रभावोँ को नष्ट कर देते है । सारे वेदोँ मेँ इससे बढ़ कय अन्य कोई साधन नहीँ है । ये सोलह नाम उन आवरणोँ को दूर करते है जिन्होँने जीवोँ को आवृत कर रखा है । बादलोँ के हट जाने पर जिस तरह सूर्य विभासित हो जाता है, उसी तरह आवरण के दूर हो जाने पर परमात्मा अपनी महिमा मेँ चमक उठता है ।"


नारद जी ने कहा___"हे प्रभु, इस नाम-जप के साथ कौन-कौन-से नियमोँ का पालन करना चाहिए ?" ब्रह्मा जी ने कहा___"हे नारद, इसके लिए कोई नियम नहीँ है । जो भी व्यक्ति इन मन्त्रोँ का साढ़े तीन करोड़ (तीन सौ पचास लाख) बार जप करेगा, वह सारे पापोँ से मुक्त हो जायेगा ; वह सभी बन्धनोँ से स्वतन्त्र हो जायेगा ; वह भगवान्‌ मेँ विलीन हो जायेगा तथा नित्य सुख एवं अमृतत्व को प्राप्त कर लेगा ।"


 जीव की सोलह कलाएँ है, उनके अनुसार ही इस महामन्त्र मेँ सोलह नाम हैँ । आखण्ड-कीर्त्तन के लिए यह उत्तम है । यदि प्रतिदिन आप बीस हजार बार इस मन्त्र का जप करेँ तो आप पाँच वर्षोँ मेँ साढ़े तीन करोड़ जप पूरा कर लेगे । आप इस मन्त्र का कीर्त्तन तथा जप भी कर सकते हैँ । आप नोट-पुस्तिका मेँ इसका लिखित जप भी कर सकते हैँ । 


 परमात्मा का भजन किसी भी अवस्था मेँ, किसी भी शुद्ध अथवा अशुद्ध, जाने अथवा अनजाने मेँ, सावधानीपूर्वक अथवा असावधानीपूर्वक, किसी भी तरह किया जाये, वह अवश्य ही वाञ्छित फल प्रदान करता है । परमात्मा के नाम की महिमा तर्क-वितर्क अथवा बुद्धि से स्थापित नहीँ की जा सकती । इसे केवल भक्ति, श्रद्धा तथा जप से ही अनुभव किया जा सकता है । प्रत्येक नाम मेँ अनगिनत शक्तियाँ निहित हैँ । नाम की शक्ति अमोघ है । इसकी महिमा अवर्णनीय है । भगवन्नाम का प्रभाव तथा इसकी गुप्त शक्ति अथाह है । 


 उपर्युक्त विधि से ईश्वर के नामोँ के जप द्वारा आप ईश्वर-चैतन्य प्राप्त करेँ ! ईश्वर के नामोँ के लिए आपमेँ सच्ची प्रीति उत्पन्न हो !


 

सङ्कीर्त्तनयोग

 सङ्कीर्त्तनयोग   SANKIRTAN YOG


भाव, प्रेम तथा श्रद्धा के साथ भगवान्‌ के नाम का गायन करना सङ्कीर्त्तन है । सङ्कीर्त्तन मेँ लोग एकसाथ मिल कर सामूहिक रूप से किसी सार्वजनिक स्थान पर ईश्वर के नाम का कीर्त्तन करते है । नवधा-भक्ति मेँ कीर्त्तन भी एक है । आप केल कीर्त्तन के द्वारा भी भगवान्‌ का साक्षात्कार कर सकते हैँ । कलियुग मेँ ईश्वर-चैतन्य की प्राप्ति का यह सबसे सुगम उपाय है__'कलौ केशव-कीर्त्तनात्‌ ।' 


 जब कई मनुष्य मील कर कीर्त्तन करते हैँ तो प्रबल आध्यात्मिक तरङ्ग अथवा महाशक्ति का निर्माण होता है । इससे साधक का हृदय शुद्ध होता है तथा वह समाधि की ऊँचाई को प्राप्त कर लेता है । शक्तिशाली स्पन्दन सुदूर स्थानोँ को जाते हैँ । वे मन की उन्नति, सान्त्वना तथा बल का सभी लोगोँ मेँ सञ्चार करते हैँ तथा शान्ति, समता ओर एकरसता का सन्देश देते हैँ । वे विबम शक्तियोँ को विनष्ट कर समस्त संसार मेँ अविलम्ब शान्ति तथा सुख लाते हैँ । 

     भगवान्‌ हरि नारद से कहते हैँ :--

"नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च ।

मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ॥

___हे नारद न तो मैँ वैकुण्ठ मेँ और न योगियोँ के हृदय मेँ ही निवास करता हूँ । मेरे भक्त जहाँ मेरे नाम का गायन करते हैँ, वहाँ मैँ निवास करता हूँ ।" 


 कीर्त्तन पाप, वासना तथा संस्कारोँ को विनष्ट करता है तथा हृदय को प्रेम तथा भक्ति से परिपूर्ण कर भक्त को ईश्वर-साक्षात्कार प्रदान करता है । 


 अखण्ड-कीर्त्तन बड़ा ही प्रभावशाली है । यह हृदय को शुद्ध बनाता है । महामन्त्र___"हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे । हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण , हरे हरे ॥" अथवा 'ॐ नमः शिवाय' का कीर्त्तन तीन घण्टे या चौबीस घण्टे या तीन दिन या एक सप्ताह करते हैँ । आपको इसके लिए दल बनाने पड़ेँगे । एक दल पहले बोलता है, दूसरे उसे दोहराते हैँ । 


 रविवार अथवा छुटि्‌टयोँ मेँ अखण्ड-किर्त्तन कीजिए । प्रातः समय गलियोँ मेँ प्रभातफेरी, कीर्त्तन कीजिए । प्रातः- कालीन किर्त्तन रात्रि-कालीन किर्त्तन से अधिक प्रभावशाली है । 


 रात्रि मेँ भगवान्‌ के चित्र के समक्ष अपने बच्चोँ, परिवार तथा नौकरोँ के साथ बैठ जाइए । एक या दो घण्टे कीर्त्तन कीजिए । अभ्यास मेँ नियमित बनिए । आप महान्‌ शान्ति तथा बल प्राप्त करेँगे ।


अपने हृदय के अन्तरतम से भगवन्नाम का गायन कीजिए । उसके प्रति पूर्ण तथा अनन्य भाव रखिए । ईश्वर-साक्षात्कार मेँ विलम्ब करना बड़ा ही दुःखद है । उनमेँ विलीन हो जाइए । उन्हीँ मेँ निवास कीजिए । उनमेँ स्थित हो जाइए । 


      आप सभी शान्ति तथा समृद्धि प्राप्त करेँ ! 


  लोकाः समस्ता सुखिनो भवन्तु !



जपयोग

 जपयोग   JAP YOG 


किसी मन्त्र अथवा भगवान्‌ के नाम का जप करना ही जपयोग है । इस कलियुग मेँ ईश्वर-साक्षात्कार के लिए जप सरल साधन है । तुकाराम, प्रह्लाद, वाल्मीकि, धृव तथा बहुत से अन्य लोगोँ ने जप के द्वारा ही मुक्ति प्राप्त की । भगवान्‌ श्रीकृष्ण गीता (10-25) मेँ कहते हैँ__"यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि"  __यज्ञोँ मेँ जप-यज्ञ हूँ । 


 जप तीन प्रकार के हैँ__वैखरी (जोरोँ से), उपांशु (गुन-गुनाहटपूर्वक ) तथा मानसिक (मन के द्वारा मूक जप) । मानसिक जप अधिक शक्तिशाली है । वैखरी जप की अपेक्षा मानसिक जप से सहस्रगुना अधिक लाभ होता है । जब मन निरुद्देश्य विचरण करे तो वैखरी जप का अभ्यास कीजिए । 


जप स्वाभाविक हो जाना चाहिए । इसे सात्त्विक भाव अथवा शुद्धता, प्रेम तथा श्रद्धा के साथ करना चाहिए । ईश्वर के नाम अथवा मन्त्र मेँ अचिन्त्य शक्ति है । हर नाम मेँ अनन्त शक्ति है ।


 जिस भाँति साबुन/डिटरजेन्ट कपड़े के मल को दूर करता है, उसी भाँति जप का अभ्यास मन के मल को दूर करता है । जप मेँ नियमित रहिए । जप पापोँ को दूर करता तथा भक्त को ईश्वर का साक्षात्कार कराता है । 


 गलत अथवा सही तरीके से, जाने अथवा अनजाने, सावधानीपूर्वक अथवा लापरवाही के साथ, भाव-सहित अथवा भाव-रहित कैसे भी जप क्योँ न किया जाये, इससे वाञ्छित फल प्राप्त होना निश्चित है । कुछ समय के अनन्तर भाव स्वयं उत्पन्न होगा । चार बजे प्रातः उठिए । दो घण्टे तक जप कीजिए । इससे आप अधिकतम लाभ प्राप्त करेँगे । 


 तर्क अथवा बुद्धि के द्वारा ईश्वर के नाम की महिमा स्थापित नहीँ की जा सकती । भक्ति, श्रद्धा तथा सतत नाम-जप के द्वारा निश्चय ही इसका साक्षात्कार किया जा सकता है । ईश्व के नाम के प्रति आदर तथा श्रद्धा रखिए । बहस न कीजिए । 


 भगवान्‌ हरि के भक्त 'हरि ओउम्‌' अथवा 'ॐ नमो नारायणाय'-मन्त्र का, श्रीराम के भक्त 'श्रीराम' अथवा 'सीताराम' अथवा गं गणपतये नमः अथवा 'ओउम्‌ श्रीराम' जय राम, जय-जय राम' का, श्रीकृष्ण के भक्त 'ओउम्‌ नमो भगवते वासुदेवाय'-मन्त्र तथा भगवान्‌ शिव के भक्त 'ओउम्‌ नमः शिवाय'-मन्त्र का जप कर सकते हैँ । नित्य-प्रति दो सौ माला जप कीजिए । अपने गले मेँ माला पहनिए । मन को ईश्वर की ओर प्रवृत्त करने के लिए माला कोड़े का काम करती है । 


 हे नर ! नाम मेँ आश्रय ग्रहण कीजिए । नाम तथा नामी अभिन्न हैँ । इस कलियुग मेँ जप ही ईश्वर तक पहुँचने तथा अमरत्व एवं शाश्वत सुख को प्राप्त करने का सबसे आसान, सबसे सुगम, सबसे निश्चित तथा सबसे सुरक्षित मार्ग है । भगवान्‌ की जय ! उसके नाम की जय !

 



भक्ति

 भक्ति   BHAKTI 


 भक्ति शब्द मूल 'भज्‌' धातु से निकला हुआ है जिसका अर्थ है 'ईश्वर के प्रति अनुराग होना ।' ईश्र के प्रति परम प्रेम ही भक्ति है । यह प्रेम है प्रेम के लिए । भक्त एकमात्र ईश्वर को ही चाहता है । यहाँ स्वार्थपूर्ण आशा नहीँ । भक्ति अमृत-स्वरूपा है । ईश्वर के प्रति प्रेम का सहज प्रवाह ही भक्ति है । यह शुद्ध प्रेम है । उत्कृष्ट रस से युक्त शुद्ध उन्नत भाव ही भक्त को ईश्वर से मिलाता है । यह भक्तोँ के अनुभव की वस्तु है ।  


 भक्ति सभी प्रकार के धार्मिक जीवन का आधार है । भक्ति वासनाओँ तथा अहङ्कार को विनष्ट करती है । भक्ति मन को उच्चतम शिखर तक उन्नत करती है । ज्ञान के प्रकोष्ठोँ को खोलने के लिए भक्ति ही एकमात्र कुञ्जी है । भक्ति की परिसमाप्ति ज्ञान मेँ होती है । भक्ति दो से प्रारम्भ होती तथा एक मेँ समाप्त होती है । परा-भक्ति तथा ज्ञान एक ही हैँ ।


 प्रेम से बढ़ कर कोई सद्‌गुण नहीँ । प्रेम से बढ़ कर कोई सम्पत्ति नहीँ । प्रेम से बढ़ कर कोई धर्म नहीँ ; क्योँकि प्रेम सत्य है तथा प्रेम ईश्वर है । प्रेम तथा भक्ति पर्यायवाची शब्द हैँ । यह जगत्‌ प्रेम से उत्पन्न होता है, प्रेम मेँ ही स्थित है तथा अन्ततः यह प्रेम मेँ ही विलीन हो जाता है । ईश्वर प्रेमस्वरूप है । सृष्टि के हर कण मेँ आप उसके प्रेम को परख सकते हैँ । 


 प्रेम, श्रद्धा तथा भक्ति के बिना जीवन निस्सार है । यह वास्तव मेँ मृत्यु ही है । प्रेम दिव्य है । प्रेम जगत्‌ की सबसे बड़ी शक्ति है । यह अदम्य है । प्रेम ही वास्तव मेँ मनुष्य के हृदय को जीत सकता है । प्रेम शत्रु को पराजित करता है । प्रेम जङ्गली, भयानक, हिँस्र पशुओँ को पालतु बना सकता है । इसकी शक्ति असीम है । इसकी गहराई अथाह है । इसका स्वभाव अमिट है । इसकी महिमा अनिर्वचनीय है । धर्म का सार प्रेम है । अतः शुद्ध प्रेम को विकसित कीजिए ।


 क्या आप वास्तव मेँ ईश्वर को चाहते हैँ ? क्या आप वास्तव मेँ उसके दर्शन के लिए लालायिक हैँ ? क्या आपमेँ सच्ची आध्यात्मिक भूख है ? जो ईश्वर के दर्शन के लिए लालायित है, वही प्रेम का विकास कर सकता है । उसके लिए ही ईश्वर प्रकट होता है । ईश्वर तो माँग तथा माँग-पूर्ति का विषय है । यदि ईश्वर की सच्ची माँग है तो तुरन्त माँग-पूर्ति होगी ही ।


 नवधा भक्ति का शनैः-शनैः विकास किजिए । भगवान्‌ की लीला का श्रवण कीजिए___यह श्रवण है । उनकी स्तुति का गायन कीजिए ___यह कीर्त्तन है । उनके नामोँ का स्मरण कीजिए___यह स्मरण है । उनके चरण-कमलोँ की पूजा कीजिए___यह पाद-सेवन है । फूल चढ़ाइए___यह अर्चन है । साष्टाङ्ग नमस्कार कीजिए___यह वन्दन है । उनकी सेवा कीजिए___यह दास्य-भाव है । उनसे मित्रता स्थापित कीजिए___यह सख्य-भाव है । उनके प्रति पूर्ण अशेष आत्मार्पण कीजिए___यही आत्मनिवेदन है ।


 ईश्वर से अपनी सहायत के लिए प्रार्थना करते हुए आलसी बन कर बैठे न रहिए । उठिए, काम मेँ लग जाइए ; क्योँकि ईश्वर उन्हीँ की सहायता करते हैँ जो अपनी सहायता स्वयं करते हैँ । यथाशक्ति प्रयास कीजिए और शेष ईश्वर पर छोड़ दीजिए । भक्तोँ की सेवा कीजिए । उनकी सङ्गति मेँ रहिए । जप तथा कीर्त्तन कीजिए । रामायण तथा भागवत का स्वाध्याय कीजिए । वृन्दावन अथवा अयोध्या मेँ कुछ काल निवास कीजिए । इससे आप शीघ्र ही भक्ति का विकास करेँगे । 


 प्रह्लाद के समान हार्दिक प्रार्थना कीजिए । राधा के समान भजन कीजिए । वाल्मीकि, तुकाराम तथा तुलसी के समान उनके नाम का जप कीजिए । गौराङ्ग के समान कीर्त्तन कीजिए । ईश्वर के विरह मेँ मीरा के समान एकन्त मेँ रुदन कीजिए । आप इसी क्षण भगवान्‌ के दर्शन प्राप्त करेँगे ।

 

 अपने हृदय मेँ ईश्वर की ज्योति जलाइए । सवसे प्रेम कीजिए । विश्व-प्रेम का विकास कीजिए । प्रेम रहस्यमय ईश्वरीय श्लोष है, जो सभी हृदयोँ को बाँध देता है । यह महान्‌ शक्तिशाली ईश्वरीय चमत्कारिक औषधि है । प्रत्येक कार्य को शुद्ध प्रेम से परिपूरित कीजिए । धूर्त्तता, लोभ, सङ्कीर्णता तथा स्वार्थ को विनष्ट कर डालिए । उदार कर्मोँ को सतत करते रहने से ही अमृतत्व की प्राप्ति होती है । घृणा, क्रोध तथा ईर्ष्या को प्रेमपूर्वक सतत सेवा के द्वार दूर किया जाता है । उदार कर्मोँ के करने से आप अधिक वल, अधिक आनन्द तथा अधिक तृप्ति प्राप्त करेँगे । करुणा, उदारता तथा सदय सेवा के अभ्यास से हृदय शुद्ध तथा कोमल वनत है, हृदय का पद्म ऊपर की ओर खिल उठता है तथा साधक ईश्वरीय ज्योति के ग्रहण करने के लिए तैयार हो जाता है ।


 शास्त्र अनन्त हैँ । जानने को बहुत-कुछ है । समय अल्प है । बाधाएँ बहुत हैँ । जिस तरह हंस जल तथा दूध के मिश्रण से दूध को ही ग्रहण करता है, उसी भाँति आपको सारतत्त्व ही ग्रहण करना चाहिए । वह सारवस्तु प्रेम अथवा भक्ति है । इस सारवस्तु का पान कीजिए तथा शान्ति एवं अमृतत्व के शाश्वत धाम को प्राप्त कीजिए । 


 प्रेम मेँ निवास कीजिए । प्रेम मेँ श्वास लीजिए । प्रेम मेँ खाइए । प्रेम मेँ पीजिए । प्रेम मेँ टहलिए । प्रेम मेँ बोलिए । प्रेम मेँ प्रार्थना कीजिए । प्रेम मेँ गाइए । प्रेम मेँ ध्यान कीजिए । प्रेम मेँ विचार कीजिए । प्रेम मेँ घूमिए । प्रेम मेँ लिखिए । प्रेम मेँ ही प्राण-त्याग कीजिए । ईश्वरीय प्रेम-मधु का आस्वादन कीजिए । तथा प्रेम-विग्रह या प्रेम-मूर्त्ति बन जाइए ।


 आप सबमेँ भक्ति की ज्वाला अधिकाधिक प्रखर बने ! आपका हृदय भक्ति से परिप्लावित बने ! आप सभी प्रबुद्ध स्थिति मेँ प्रेम-सागर मेँ निमज्जित होँ ! आप सबको भागवतोँ के आशीर्वाद प्राप्त होँ ! आप सबको शान्ति मिले ! 



प्रार्थना की शक्ति

 प्रार्थना की शक्ति


 प्रार्थना मन को उन्नत करती तथा उसे सात्त्विकता से भर देती है । प्रार्थना के साथ ईश्वर की स्तुति भी सम्बन्धित है । यह मन को ईश्वर के साथ सम्बद्ध रखती है । प्रार्थना की पहुँच उस धाम तक है जहाँ तर्क को जाने का साहस नहीँ । प्रार्थना पर्वतोँ को चलायमान कर सकती है । यह चमत्कार कर सकती है । यह भक्त को मृत्यु के भय से मुक्त बनाती, उसे ईश्वर के निकट लाती तथा उसकी सत्ता का सर्वत्र अनुभव कराती है । यह उसमेँ ईश्वरीय चैतन्य को जाग्रत करती तथा उसे उसके अमर सुखमय सत्‌ स्वरूप का ज्ञान कराती है ।


 प्रह्लाद की प्रार्थना ने खौलते तेल को भी शीतल बना डाला । भीरा की प्रार्थना ने काँटोँ की शय्या को गुलाब की शय्या मेँ तथा सर्प को पुष्प-माल मेँ बदल डाला ।


 प्रार्थना मेँ प्रबल प्रभाव है । महात्मा गान्धी प्रार्थना के बड़े हिमायती थे । यदि प्रार्थना सच्ची है तथा यह आपके हृदय के अन्तरतम से निकलती है तो इससे ईश्वर का हृदय तुरन्त ही पिघल जायेगा । द्रौपदी की आर्त प्रार्थना सुन कर भगवान्‌ कृष्ण को द्वारका से नङ्गे पाँव ही दौड़ना पड़ा था । आप सभी इसे जानते हैँ । प्रह्लाद की प्रार्थना के समय विलम्ब करके आने के लिए  इस जगत्‌ के परम शासक भगवान्‌ हरि ने उससे क्षमा-याचना की थी । भगवान्‌ कितने कारूणिक तथा प्रेमी हैँ !


 एक बार भी तो अपने हृदय के अन्तरतम से कहिए : "हे प्रभु, मैँ आपका हूँ । आपकी ही इच्छा पूर्ण हो । मेरे ऊपर कृपा कीजिए । मैँ आपका सेवक तथा भक्त हूँ । क्षमा करिए । पथ-प्रदर्शन कीजिए । रक्षा कीजिए । ज्ञान दीजिए । त्राहि माम्‌ । प्रचोदयात्‌ ।" मन की विनम्रता तथा ग्राहकता की स्वाभाविक भावना को वनाये रखिए । अपने हृदय मेँ भाव रखिए । प्रार्थना तत्क्षण सुन ली जाती है तथा उसका प्रत्युत्तर भी मिल जाता है । अपने दैनिक जीवन-संग्राम मेँ ऐसा कीजिए तथा प्रार्थना के उन्नत प्रभाव का श्वयं अनुभव कीजिए । आपमेँ प्रबल आस्तित्य बुद्धि होनी चाहिए ।


 ईश्वर से विविध प्रकार के उपहार तथा प्रसाद प्राप्त करने के लिए ईसाइयोँ की प्रार्थनाएँ विभिन्न प्रकार की हैँ । मुसलमान तथा अन्य सभी धर्मावलम्बी दिन मेँ कई बार___सूर्योदय, मध्याह्न, सूर्यास्त, सोने तथा भोजन करने से पूर्व प्रार्थना करते हैँ । प्रार्थना योग का आरम्भ है । प्रार्थना योग का प्रथम आवश्यक अङ्ग है । प्रारम्भिक आध्यात्मिक साधना तो प्रार्थना ही है ।


 प्रार्थना करने पर ईश्वर डाकु की भी सहायता करता है । ईश्वर से शुद्धता, भक्ति, ज्योति तथा ज्ञान के लिए प्रार्थना किजिए । आप इन्हेँ प्राप्त करेँगे । प्रातः उठिए तथा मानसिक एवं शारीरिक ब्रह्मचर्य के पालन करने के लिए कुछ प्रार्थना कीजिए । आप अपने इच्छानुसार प्रर्थना कर सकते हैँ । शिशुवत्‌ सरल बनिए । अपने हृदय के प्रकोष्ठोँ को खोल कर रख दीजिए । सच्चे भक्त प्रार्थना की महती शक्ति को भली-भाँति जानते हैँ । नारद मुनि अभी भी प्रार्थना करते हैँ । नामदेव ने प्रार्थना की तथा विट्‌ठल भगवान्‌ अर्पित किये हुए भोग को श्वीकार करने के लिए प्रकट हो गये । एकनाथ ने प्रार्थना की, भगवान्‌ हरि ने अपना चतुर्भुज-रूप दिखाया । दामा जी प्रार्थना पर श्रीकृष्ण जी उनके सेवक बन गये तथा बादशाह को दामा जी का शुल्क अदा करने के लिए एक नौकर का काम किया । इससे अधिक आप क्या चाहते हैँ ? इसी क्षण से भाव के साथ प्रार्थना कीजिए । हे मित्र ! विलम्ब न कीजिए । वह 'कल' कदापि न आयेगा ।


 प्रार्थना की शक्ति अनिर्वचनीय है । इसकी महिमा अमोघ है । सच्चे भक्त ही उसकी उपयोगिता तथा महिमा का अनुभव करते हैँ । आदर, श्रद्धा, निष्काम भाव तथा भक्तिस्नात हृदय से प्रार्थना करनी चाहिए । हे मूढ़मते ! प्रार्थना के प्रभाव के विषय मेँ तर्क-वितर्क न कीजिए । आप भ्रम मेँ पड़ जायेँगे । आध्यात्मिक बातोँ मेँ तर्क-वितर्क से काम नहीँ चलता । बुद्धि सीमित तथा निर्बल साधन है । इस पर निर्भर न रहिए । प्रार्थना की ज्योति से अज्ञानान्धकार को दूर कीजिए ।

 



मुक्ति क सन्देश

 मुक्ति क सन्देश 


 ॐ, हे अमरत्व की सन्तान ! ईश्वर आपके अन्दर है । बह सभी भूतोँ के हृदय मेँ स्थित है । जो-कुछ भी आप दैखते, सुनते, छूते अथवा अनुभव करते हैँ वह ईश्वर है ; अतः किसी से घृणा न कीजिए, किसी को ठगिट नहीँ, किसी को हानि मत पहुँचाए । सबसे प्रेम कीजिए तथा सबके साथ एक बन जाइए । आप शीघ्र ही नित्य सुख तथा अजस्र आनन्द प्राप्त करेँगे । आत्म-संयमी बनिए । विचार, भावना, आहार तथ वस्त्र मेँ सरल तथा सामञ्जस्यपूर्ण बनिए । सबसे प्रेम कीजिए । किसी का भय न कीजिए । निद्रा, आलस्य तथा भय का परित्याग कीजिए । दिव्य जीवन बिताइए । सत्य के अन्वेषक बनिए । धर्म के नियम को समझिए । सतर्क तथा सावधान बनिए । विचार तथा मनन के द्वारा शोक एवं सङ्घर्ष पर विचय पाइए । प्रत्येक क्षण मुक्ति, पूर्णता तथा नित्य सुख की ओर बढ़ते जाइए । 


 क्या आपमेँ से कोई ऐसा है जो बलपूर्वक कह सके, "मैँ अधिकारी साधक हूँ । मुझमे मुमुक्षुत्व है । मैँने स्वयं को साधन-चतुष्टय से सम्पन्न बनाया है । निष्काम सेवा, कीर्त्तन तथा जप के द्वारा मैँने अपने हृदय को शुद्ध बना लिया है । मैँमेँ श्रद्धा तथा भक्ति के द्वारा गुरु की सेवा की है तथा उनकी कृपा और आशीर्वाद प्राप्त कर लिया है ।" वह मनुष्य इस जगत्‌ की रक्षा कर सकता है । वह शीघ्र ही जगत्‌ के लिए प्रकाश-स्तम्भ, ज्ञान का अपूर्व पथप्रदर्शक तथा सक्रिय योगी बन जायेगा । हे मानव ! अब स्वयं तैयार हो जा । यह बहुत ही लज्जा की बात है कि अब तक तुमने खाने, पीने, सोने, बात करने तथा व्यर्थ कर्मोँ मेँ जीवन व्यतीत किया है । तुमने कोई भी पुण्य कर्म नहीँ किया । अन्तिम समय निकट आता जा रहा है । अभी भी अधिक विलम्ब नहीँ हुआ है । इसी क्षण से नामस्मरण प्रारम्भ करो । सच्चे तथा अभीप्सु बनो । सबसे प्रेम करो । तुम भगवत्कृपा की प्राप्ति के अधिकारी बन जाओगे । तुम जन्म-मृत्यु के भयङ्कर सागर का सन्तरण कर नित्य सुख तथा अमरत्व को प्राप्त करोगे । एक दिन के लिए भी ध्यान का अभ्यास न छोड़ो । नियमितता परम आवश्यक है । जब मन थका होतो धारणा का अभ्यास न करो । उसे थोड़ा विश्राम दो । रात्रि को भारी आहार न करो । इससे तुम्हारे प्रातःकाल के ध्यान मेँ बाधा पहुँचेगी । जप, कीर्त्तन, प्राणायाम, सत्सङ्ग, शम, दम, यम, सात्त्विक आहार, स्वाध्याय, ध्यान, विचार :-इन सबके अभ्यास से तुम्हेँ मन के निग्रह मेँ सहायता मिलेगी तथा तुम नित्य सुख और अमरत्व को प्राप्त कर लोगे । यदि बुरे विचार तुम्हारे मन मेँ प्रवेश करेँ तो तुम अपनी सङ्कल्प-शक्ति के द्वारा बल-पूर्वक उन्हेँ न भगाओ । इससे तुम अपनी शक्ति की हानि करोगे । ओउम्‌ ।


॥ॐ॥


   

दीपावली का सन्देश

                     दीपावली का सन्देश 


दीपावली दीपोँ का त्योहार है । भारत के प्रायः सभी भागोँ मेँ यह पर्व बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है । हिन्दुओँ के लिए यह समय पूजा तथा आनन्द मनाने के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है तथा दो दिन मनाया जाता है । लक्ष्मी देवी के सम्मान मेँ हिन्दू व्यावसायिक वर्ष के प्रथम दिवस को यह त्योहार मनाया जाता है । 


इसी दिन श्रीराम रावण को पराजित कर अयोध्या लौटे थे । इसी दिन श्रीकृष्ण ने नरकासुर का संहार किया था ।


दक्षिण भारत मेँ इस दिन प्रातःकाल सभी तैल-स्नान करते हैँ तथा नये वस्त्र धारण करते हैँ । इस त्योहार के दिन उत्तर भारत के व्यवसायीजन अपने नये बहीखाते आरम्भ करते हैँ तथा आगामी वर्ष मेँ सफलता एवं सम्पत्ति के लिए प्रार्थना करते हैँ । हिन्दुओँ के घर दिन मेँ साफ-सुथरे किये तथा सजाये जाते हैँ और रात्रि को मिट्‌टी के दीपक जलाये जाते हैँ । मुम्बई तथा अमृतसर मेँ दीपोँ की सजावट सबसे अच्छी होती है । अमृतसर का विख्यात स्वर्ण-मन्दिर हजारोँ प्रदीपोँ से, जो कि विशाल सरोवर के चारोँ ओर की सभी सीढ़ियोँ पर रखे जाते हैँ, सन्ध्या को जगमगा उठता है । अयोध्या के गंगा किनारे 25 लाख प्रदीपोँ से सुशोभित किया गया है । वैष्णवजन गोवर्द्धन-पूजा करते हैँ तथा बहुत बड़े पैमाने पर अन्नकूट अथवा समष्टि भण्डारा कराते हैँ । 


(30 October,2024) अयोध्या में हुआ भव्य दीपोत्सव!🪔🪔🪔

25 लाख से ज्यादा दीयों से रामनगरी हुई जगमग!

500 साल बाद अयोध्या में पहली बार ऐसा हुआ कि जब रामलला की मौजूदगी में अयोध्यावासी दीवाली मनाएंगे।

प्रभु राम की नगरी अयोध्या अपने अराध्य राम के स्वागत के लिए सज-धज कर तैयार हो गई है।

इस बार भगवान राम के विराजमान होने के बाद पहली बार 25,12,585 लाख दीयों से राम की पैड़ी जगमग हुई।

इतना ही नहीं 1100 संत-धर्माचार्य सरयू की महाआरती की।🪔🪔



हे राम ! आपके हृदय के प्रकोष्ठ मेँ ज्योतियोँ की ज्योति, स्वयं-प्रकाश आन्तरिक आत्म-ज्योति सदा स्थिर गति से प्रदीप्त है । शान्त बैठ जाईए । आँखे बन्द कर लीजिए । इन्द्रियोँ को समेट लीजिए । मन को इस परम ज्योति पर स्थिर कीजिए तथा आत्मिक ज्योति की प्राप्ति द्वारा वास्तविक दीपावली का आनन्द लूठिए । 


अहङ्कार ही वास्तविक नरकासुर है । इस अहङ्कार को आत्मज्ञान के खड्‌ग द्वारा मारिए । इस जगत्‌ की परम ज्योति श्रीकृष्ण मेँ विलीन हो जाइए तथा आन्तरिक ज्योतिर्मय आध्यात्मिक दीपावली का आनन्द लूटिए । 


जो स्वयं सबको देखता है, जिसको कोई देखता नहीँ, जो बुद्धि, सूर्य, चन्द्र तथा नक्षत्रोँ एवं समस्त जगत्‌ को आलोकित करता है ; परन्तु जिसे ये सब आलोकित नहीँ कर पाते :-वही ब्रह्म है । वही आत्मा है । ब्रह्म मेँ जीवन यापन कर तथा नित्य आत्म-सुख को प्राप्त कर वास्तविक दिपावली मनाइए ।


वहाँ सूय्य प्रकाशित नहीँ होता और न चन्द्रमा अथवा नक्षत्र ही विभासित होते हैँ, न वहाँ ये विद्युत ही कैँधती है, फिर इस अग्नि की बिसात ही क्या ? आत्मा की आन्तरिक ज्योति की एक किरण से संसार की सारी ज्योतियोँ की भी तुलना नहीँ की जा सकती । इस ज्योतियोँ की ज्योति मेँ विलीन हो कर परम दीपावली का लाभ उठाइए ।


बहुत से दिपावली के त्योहार आये तथा जले गये ; फिर भी अधिकांश मनुष्योँ के हृदय मेँ अमा का अन्धार ही जाया हुआ है । गृह तो ज्योतियोँ से प्रदीप्त होता है ; परन्तु हृदय अज्ञान के अन्धकार से पूर्ण रहता है । हे मानव ! अज्ञान की निद्रा से जग जा । ध्यान तथा विचार के द्वारा आत्मा की उस नित्य निरन्तर ज्योति का साक्षात्कार कर ले जिसका उदय तथा अस्त नहीँ होता और अज्ञान की तमिस्रा निवारण कर ।


आप सभी पूर्ण आन्तरिक ज्योति को प्राप्त करेँ । वह ज्योतियोँ की ज्योति आपकी बुद्धि को आलोकित करे ! आप सभी आत्मा के अक्षय आध्यात्मिक धन को प्राप्त करेँ ! आप सभी भौतिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र मेँ पूर्ण उन्नति प्राप्त तरेँ ! 




ଜଗତ ଜନନୀ ଜଗଦମ୍ବାଙ୍କ ଆରତୀ

https://youtu.be/VEortGAysCs?feature=shared



दशहरे का सन्देश

https://ashutoshamruta.blogspot.com/2022/05/blog-post_34.html



दिवाली की संपूर्ण पूजा विधि मंत्र सहित, ऐसे करें दिवली पर लक्ष्मी पूजन

https://ashutoshamruta.blogspot.com/2024/10/blog-post_29.html



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दशहरे का सन्देश


ॐ अब्याज करुणा मूर्तये नमः 

दिव्य जननी श्री दुर्गा जी को नमस्कार जो सभी भूतोँ मेँ बुद्धि, करुणा तथा सौन्दर्य के रूप मेँ स्थित हैँ, जो भगवान्‌ शिव की अर्द्धाङ्गिनी हैँ, जो विश्व की सृष्टि, पालन तथा संहार का कार्य करती हैँ । 


माता के रूप मेँ ईश्वर की उपासना के लिए दशहरा हिन्दुओँ की सबसे बड़ा त्योहार है । दुर्गा देवी ईश्वरीय माता का प्रतीक हैँ । वे भगवान्‌ की शक्ति हैँ । दुर्गा के बिना शिव मेँ कोई अभिव्यक्ति नहीँ तथा शिव के बिना दुर्गा की कोई सत्त नहीँ । शिव दुर्गा की आत्मा ही हैँ । दुर्गा तथा शिव एक हैँ । भगवान्‌ शिव साक्षीमात्र हैँ, वे निष्क्रिय तथा परम कूटस्थ हैँ । वे विश्व-लीला से प्रभावित नहीँ होते । दुर्गा ही सब-कुछ करती हैँ । 


श्री माता के रूप मेँ ईश्वर की पूजा ही मातृ-पूजा है । शक्ति भगवान्‌ की शक्ति है । दुर्गा के रूप मेँ श्री माता के दश हाथ हैँ तथा दशोँ मेँ विविध आयुध हैँ । उनका वाहन सिंह है । वे सत्त्व, रजस्‌ तथा तमस्‌__इन तीनोँ गुणोँ के द्वारा ईश्वर की लिला का सञ्चालन करती हैँ । विद्या, शान्ति, काम, क्रोध, लोभ, अहङ्कार, अभिमान ये सब उन्हीँ के रूप हैँ । 


देवी अथवा जगन्माता की उपासना के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है । यक्ष-प्रश्न के नाम से प्रसिद्ध केनोपनिषद्‌ की कहानी इस सिद्धान्त की पोषक है । उमा ने देवताओँ को सत्य की शिक्षा दी । शक्ति देवी अपने उपासकोँ को ज्ञान प्रदान करती हैँ । 


शिशु पिता की अपेक्षा माता से अधिक हिलमिल कर रहता है ; क्योँकि माता बहुत ही दयालु, प्रिय, कोमल और कारुणिक होती है तथा वह अपने बच्चे की आवश्यकताओँ को पूर्ण करती है । आध्यात्मिक क्षेत्र मेँ भी साधक अथवा भक्त__आध्यात्मिक शिशु__माता दुर्गा से पिता शिव की अपेक्षा अधिक निकट-सम्बन्ध रखता है ; अतः पहले माता के पास जाना ही साधक के लिए उचित है तथा माता अपने आध्यात्मिक शिशु को परम पिता से परिचित करायेँगे । फलतः उसे आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति होगी ।


माता की कृपा असीम है । उनकी करुणा अथाह है । उनका ज्ञान अनन्त है । उनकी शक्ति अपरिमित है । उनकी महिमा अमित है । उनकी ज्योति अवर्णनीय है । वे भुक्ति तथा मुक्ति दोनोँ प्रदान करती हैँ ।


हृदय खोल कर उनके निकट जाइए । सरलता तथा नम्रता के साथ अपने हृदय को खोल कर रख दीजिए । शिशुवत्‌ सरल बनिए । अभिमान, धूर्त्तता, स्वार्थ तथा सङ्कीर्णता को नष्ट कर डालिए । उनके प्रति पूर्ण अशेष आत्मार्पण कीजिए । उनकी स्तुति कीजिए । उनके नाम का जप तीजिए । श्रद्धा तथा अनन्य भक्ति के साथ उनकी उपासना कीजिए । नवरात्रि के दिनोँ मेँ विशेष पूजा का आयोजन कीजिए । उग्र साधना के लिए नवरात्रि अथवा दशहरे का समय बहुत ही उपयुक्त है । ये नौ दिन देवी के लिए बहुत ही पवित्र हैँ । उनकी पूजा मेँ तल्लीन हो जाइए । अनुष्ठान कीजिए । देवी ने भण्डासुर तथा उसकी सेना के साथ नौ दिन तथा नौ रात्रि तक संग्राम किया था । दशवेँ दिन शाम के समय संग्राम की समाप्ति हुई । इसे विजयदशमी कहते हैँ । इस दिन साधकोँ को दीक्षा दी जाती है । विजयदशमी के दिन बच्चोँ को अक्षर-अभ्यास कराया जाता है । इसी शुभ दिवस को किसी भी विज्ञान के अध्ययन का श्रीगणेश करते हैँ । इसी दिन अर्जुन ने कुरुक्षेत्र मेँ कौरवोँ के विरुद्ध संग्राम करने के लिए युद्ध करने से पहले देवी की उपासना की थी ।


वह भगवती दुर्गा अपने बच्चोँ को दिव्य ज्ञान का दृग्ध प्रदान करेँ तथा उन्हेँ ईश्वरीय ज्योति एवं महिमा के अक्षय धाम, कैवल्य की ऊँचाइयोँ की ओर उठ ले जायेँ !

 

ॐ अब्याज करुणा मूर्तये नमः 




ମହାମାୟା ଜଗଦମ୍ବା ମାଁ ଦୂର୍ଗାଙ୍କ ଆରତୀ

https://youtu.be/VEortGAysCs?feature=shared




दीपावली का सन्देश 

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ॐ अब्याज करुणा मूर्तये नमः 




 

गुरुपूर्णिमा-सन्देश

 गुरुपूर्णिमा-सन्देश 


 उग्र योगाभ्यास के लिए तथा आध्यात्मिक साधना का श्रीगणेश करने के लिए भी गुरुपूर्णिमा वहुत ही शुभ दिवस है । यह आषाढ़-पुर्णिमा-दिवस है । इसे व्यास-पूजा-दिवस भी कहते हैँ । इस दिन श्री व्यास तथा अन्य गुरुओँ की पूजा की जाती है ।


 श्री व्यास जी ने, जो चिरञ्जीवियोँ मेँ से एक हैँ तथा जो भगवान्‌ विष्णु के अवतार हैँ, इसी चिरस्मरणीय दिवस को वेदान्त-सूत्र एवं महाभारत का लेखन प्रारम्भ किया । इसी दिन से संन्यासियोँ का चातुर्मास प्रारम्भ होता है । वर्षा के दिनोँ मेँ संन्यासीगण चार महिने के लिए एक ही स्थान पर रह कर ब्रह्मसूत्र का अध्ययन तथा निदिध्यासन करते हैँ । 


 इस दिन दूध तथा फल का आहार कीजिए, जप एवं ध्यान का गम्भीर अभ्यास कीजिए, अपने गुरु की पूजा कीजिए तथा महात्माओँ, साधुओँ एवं गरीबोँ को भोजन खिलाइए । ब्रह्म-सूत्र का अध्ययन कीजिए तथा गुरुमन्त्र अथवा इष्टमन्त्र का चातुर्मास के दिनोँ मेँ कुछ लाख जप (अनुष्ठान अथवा पुरश्चरण) कीजिए । आप बहुत ही लाभान्वित होँगे ।


 गुरु स्वयं ब्रह्म अथवा ईश्वर है । गुरु ही आपका सच्चा पिता, माता, मित्र, पथ-प्रदर्शक तथा संरक्षक है । साधकोँ की आध्यात्मिक उन्नति के लिए गुरु की कृपा अनिवार्य है । श्रुति कहती है, "जिस महात्मा साधक मेँ ईश्वर के प्रति परम भक्ति है तथा गुरु के प्रति उतनी ही भक्ति है जितनी ईश्वर के प्रति, उसी के लिए यह (उपनिषद्‌ के) गुप्त रहस्य प्रकट हो सकते हैँ ।" 


 ब्रह्म ही एकमेव सत्य है । वह सबकी आत्मा है । वह सर्वोपरि है । वह इस जगत्‌ का सारतत्त्व है । वह 'एकमेवा द्वितीयम्‌' है तथा सभी नाम-रूपोँ एवं विभेदोँ का अधिष्ठान है । तू ही वह अमर, सर्वव्यापक, सुखमय ब्रह्म है । 'तत्त्व-मसि' :-तू वही है । इसका साक्षात्कार कर मुक्त बन जा ।


 ब्रह्म-सूत्र के इन चार मुख्य सूत्रोँ को याद रखिए । (1) 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' :-अथ अतः ब्रह्म के विषय मेँ ही जिज्ञासा की जाती है । (2) 'जन्माद्यस्य यतः' :-जिससे जन्म आदि का प्रारम्भ होता है । (3) 'शास्त्रयोनित्वात्‌' :-शास्त्र ही ज्ञान के साधन हैँ । (4) 'तत्‌ तु समन्वयात्‌' :-परन्तु वही, क्योँकि वह सभी ग्रन्थोँ का एकमेव आधार है । 


   अब कीर्त्तन कीजिए  : 


जय गुरु शिव गुरु हरि गुरु राम । 

जगद्‌गुरु परमगुरु सत्‌गुरु श्याम ॥ 


 श्री व्यास तथा ब्रह्मविद्या-गुरुओँ का स्मरण कीजिए और उनकी पूजा कीजिए । उनके आशीर्वाद आप सभी को प्राप्त होँ ! 


  

एक खतरनाक साजिश की सच्चाई

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