मन तथा उसके रहस्य
जिस तरह कार्य-व्यस्त अफिसर सारे दरवाजोँ को बन्द कर कमरे मेँ अकेले काम करता है, उसी तरह कार्य-व्यस्त मन स्वप्न मेँ सारे इन्द्रिय-द्वारोँ को बन्द कर अकेले कार्य करता है ।
मन आत्मा से उत्पन्न शक्ति है । मन के द्वारा ही ईश्वर इस वैचित्र्यपूर्ण विषयोँ से सम्पन्न नानात्व जगत् के रूप मेँ व्यक्त होता है ।
मन विचारोँ का गट्ठर मात्र है । सारे विचारोँ मेँ 'अहं भावना' ही मूल है । अतः इस अहं विचार ही वास्तव मेँ मन है ।
मन संस्कारोँ का समुच्चय है । यह आदतोँ का गट्ठर है । यह विभिन्न वस्तुओँ के सम्पर्क से उत्पन्न कामनाओँ का संग्रह मात्र है । सांसारिक विक्षेपोँ से उत्पन्न भावनाओँ का संग्रह भी यही है । विभिन्न वस्तुओँ से प्राप्त विचारोँ का यह सङ्गठन है । ये कामनाएँ, विचार तथा भावनाएँ सतत परिवर्त्तनसील हैँ । मन के भण्डार-गृह से पुरानी कामनाएँ सदा निकलती रहती हैँ तथा नयी कामनाएँ उनके स्थान को ग्रहण कर लेती हैँ ।
जाग्रत-अवस्था मेँ मन का स्थान मस्तिष्क, स्वप्न मे सेरिबेलम (निम्न-मस्तिष्क) अथवा कण्ठ तथा सुषुप्ति मेँ हृदय है ।
मन सदा ही किसी-न-किसी विधायक पदार्थ के साथ अपने को नियोजित किये रहता है । यह स्वयं मेँ स्थित नहीँ रह सकता । यह मन ही अपने को इस शरीर मेँ 'अहं', 'मै' मानता है ।
चो वस्तुएँ आप अपने चतुर्दिक् देखते हैँ, वे साकार रूप मेँ मन ही हैँ । मनोमात्र जगत्__मनोकल्पित जगत् । मन सृजन करता है ; मन ही लय करता है ।
मानसिक जगत् मेँ जो रहस्यमय अनुभव हौते हैँ, वे सब वैज्ञानिक नियम पर आधारित हैँ । रहस्यवादियोँ तथा राज योगियोँ को इन नियमोँ का पूर्णतय स्पष्ट ज्ञन होना चाहिए । तभी वे मन की शक्तियोँ का सुगमतया नियन्त्रण कर सकेँगे ।
दूर-श्रवण, विचार-पठन, मेस्मेरिज़्म, हिप्नोटिज़्म, दूर से उपचार, मनःशक्ति से उपचार आदि के अभ्यास से यह स्पष्टतः प्रमाणित हो जाता है कि मन है तथा उन्नत विकसित मन निम्न मन को प्रभावित कर सकता है और उसे अपने अधीन कर सकता है । हिप्नोटिज़्म द्वारा सम्मोहित व्यक्ति के अनायास लेख तथा अनुभव से हम अर्द्धचेतन मन अथवा चित्त के अस्ति त्व का अनुमान कर सकते हैँ जो चौबीसोँ घण्टे काम करता रहता है ।
यदि मन मेँ किसी विचार को बो दिया गया तो वह रात्रि मेँ चित्त के सहारे वृद्धि को प्राप्त करता है । चित्त कदापि आराम नहीँ करता । यह अग्रतापूर्वक चौबीसोँ घण्टे काम करता रहता है । जो चित्त से काम लेना जानते हैँ, वे बहुत परिमाण मेँ मानसिक कार्य कर सकेँगे । सभी मेधावी व्यक्तियोँ का चित्त के ऊपर अपना नियन्त्रण रहता है । आपको चित्त से काम लेने की कला जाननी चाहिए । चित्त एक अद्भुत आन्तरभौम मानसिक कर्मशाला है ।
मन इस पृथ्वी पर सबसे बड़ी शक्ति है । जो मन को वश मेँ कर लेता है ; वह शक्तियोँ से पूर्ण हो जाता है । वह सारे मनोँ को अपने अधीन ला सकता है । मन द्वारा सारे प्रकार की व्याधियोँ का उपचार किया जा सकता है । मनुष्य के मन की विचित्र शक्ति को देख कर बड़ा ही आश्चर्य तथा विस्यय होता है । इस रहस्यमय मन का स्रोत, आधार अथवा धाम ब्रह्म अथवा आत्मा है ।
इस भौतिक शरीय से किया हुआ कोई भी कर्म मन के किसी पूर्व-चिन्तित विचार से ही सम्भव है । मन पहले विचारता तथा योजना एवं उपक्रम बना लेता है । तदनन्तर वह क्रिया के रूप मेँ अभिव्यक्त होता है । जिसने सर्वप्रथम घड़ी का आविष्कार किया, उसके मन मेँ लीवर, विभिन्न पहिए, मिनट की सूई, सेकेण्ड की सूई, घण्टे की सूई आदि सम्बन्धी सारे विचार थे । ये विचार ही बाद मेँ कार्य मेँ उतर आये ।
यदि किसी अलात को जोरोँ से घुमाया जाये तो अलात चक्र बन जाता है । उसी तरह यद्यपि मन एक समय मेँ एक ही वस्तु पर ध्यान देता है, या तो सुनता है आतवा सूँघता है ; यद्यपि वह एक समय मेँ एक ही संवेदन को ग्रहण करता है, फिर भी हम ऐसा समझ लेते हैँ कि मन एक ही समय मेँ कई कर्मोँ को कर रहा है ; क्योँकि यह बड़ी ही त्वरिक गति से एक वस्तु से दूसरी पर जाता है__इतनी तेजी से जाता है कि क्रमबद्ध अवधान तथा संवेदन एक साथ मिल कर युगपत् कार्य के रूप मेँ दृष्टिगत होते हैँ ।
ऋषि तथा प्रकाण्ड दार्शनिक लोग इस बात पर एक मत हैँ कि मन वस्तुतः एक ही समय मेँ एक से अधिक वस्तुओँ पर ध्यान नहीँ दे सकता ; परन्तु जब वह आश्चर्यजनक तीव्रगति से आगे-पीछे एक वस्तु से दूषरी वस्तु को जाता है तो ऐसा मालूम पड़ता है कि वह एक समय मेँ एक से अधिक कार्योँ को कर रहा है ।
विचार का परिवर्त्तन, सुखद वस्तुओँ के चिन्तन द्वारा मन का शिथिलीकरण, प्रसन्नता, सात्त्विक आहार तथा सात्त्विक मनोरञ्जन__ये मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैँ ।
मन जिस वस्तु का ध्यानपूर्वक चिन्तन करता है, उसी वस्तु के आकार को धारण कर लेता है । यदि यह नारङ्गी के विषय मेँ सोचता है तो यह नारङ्गी के आकार का हो जाता है । यदि यह शूली पर चढ़े हुए प्रभु जीसस का चिन्तन करता है तो यह वैसा ही रूप धारण करता है । आपको मन को उचित रूप से प्रशिक्षण देना होगा तथा उसे आत्म-विचार अथवा मानसिक चित्र की दिव्य पृष्ठभूमि बनाये रखिए ।
यदि सारे विचारोँ को नस्ट कर दिया जाये तो मन जैसी कोई वस्तु नहीँ रह जाती । अतः ये विचार ही मन विचारोँ से स्वतन्त्र तथा पृथक् हो । दो विचारोँ का परस्पर का कितना ही निकट-सम्बन्ध क्योँ न हो, वे एक समय मेँ नहीँ रह सकते ।
यह एक अमिट मनोवैज्ञानिक नियम है कि मन जिस वस्तु का चिन्तन करता है, वह वैसा ही बन जाता है । यदि आप किसी व्यक्ति के दोष का चिन्तन करने लगेँ तो आपका मन कम-से-कम उस समय तो दुर्गुणोँ मेँ निवास करेगा ही और उन दोषोँ से पूर्ण हो जायेगा भले ही उस मनुष्य मेँ वे दोष होँ या न होँ । यह आपके गलत विचारोँ, बुरे संस्कारोँ अथवा मन की बुरी आदतोँ के कारण कोरी कल्पना ही हो सकती है ।
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