रविवार, 21 जून 2020

इक्यावन शक्तिपीठ जहां सती के अंग गिरे


या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मी:
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धि:
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वां नता: स्म परिपालय देवि विश्वम्।। (श्रीदुर्गासप्तशती)

अर्थात्–’जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मीरूप से, पापियों के यहां दरिद्रतारूप से, शुद्ध अंत:करण वाले पुरुषों के हृदयों में बुद्धिरूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धारूप से तथा कुलीन मनुष्यों में लज्जारूप से निवास करती हैं, उन आप भगवती को हम लोग नमस्कार करते हैं। देवि! विश्व का पालन कीजिए।

शक्तिपीठ का अर्थ

शक्तिपीठ, देवीपीठ या सिद्धपीठ से उन स्थानों का ज्ञान होता है, जहां शक्तिरूपा देवी का अधिष्ठान (निवास) है। ऐसा माना जाता है कि ये शक्तिपीठ मनुष्य को समस्त सौभाग्य देने वाले हैं। मनुष्यों के कल्याण के लिए जिस प्रकार भगवान शंकर विभिन्न तीर्थों में पाषाणलिंग रूप में आविर्भूत हुए, उसी प्रकार करुणामयी देवी भी भक्तों पर कृपा करने के लिए विभिन्न तीर्थों में पाषाणरूप से शक्तिपीठों के रूप में विराजमान हैं।

दक्षप्रजापति के मन में शिव के प्रति दुर्भावना का कारण

दक्षप्रजापति ने सहस्त्रों वर्षों तक तपस्या करके पराम्बा जगदम्बिका को प्रसन्न किया और उनसे अपने यहां पुत्रीरूप में जन्म लेने का वरदान मांगा। पराशक्ति के वरदान से दक्षप्रजापति के घर में दाक्षायणी का जन्म हुआ और उस कन्या का नामसतीपड़ा। उनका विवाह भगवान शिव के साथ हुआ।

एक बार ऋषि दुर्वासा ने पराशक्ति जगदम्बा की आराधना की। देवी ने वरदान के रूप में अपनी दिव्यमाला ऋषि को प्रदान की। उस माला की असाधारण सुगन्ध से मोहित होकर दक्षप्रजापति ने वह हार ऋषि से मांग लिया। दक्षप्रजापति ने वह दिव्यमाला अपने पर्यंक (पलंग) पर रख दी और रात्रि में वहां पत्नी के साथ शयन किया। फलत: दिव्यमाला के तिरस्कार के कारण दक्ष के मन में शिव के प्रति दुर्भाव जागा। इसी कारण दक्षप्रजापति ने अपने यज्ञ में सब देवों को तो निमन्त्रित किया, किन्तु शिव को आमन्त्रित नहीं किया।

सती इस मानसिक पीड़ा के कारण पिता को उचित सलाह देना चाहती थीं, किन्तु निमन्त्रण मिलने के कारण शिव उन्हें पिता के घर जाने की आज्ञा नहीं दे रहे थे। किसी तरह पति को मनाकर सती यज्ञस्थल पहुंचीं और पिता को समझाने लगीं। पर दक्ष ने दो टूक कहाशिव अमंगलस्वरूप हैं। उनके सांनिध्य में तुम भी अमंगला हो गयी हो।

मया कृतो देवयाग: प्रेतयागो चैव हि।
देवानां गमनं यत्र तत्र प्रेतविवर्जित:।। (शिवपुराण)

अर्थात्मैंने देवयज्ञ किया है, प्रेतयज्ञ नहीं। जहां देवताओं का आवागमन हो वहां प्रेत नहीं जा सकते। तुम्हारे पति भूत, प्रेत, पिशाचों के स्वामी हैं, अत: मैंने उन्हें नहीं बुलाया है।

महामाया सती ने पिता द्वारा पति का अपमान होने पर उस पिता से सम्बद्ध शरीर को त्याग देना ही उचित समझा। प्राणी की तपस्या एवं आराधना से ही उसे शक्ति को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त होता है किन्तु यदि बीच में अहंकार और प्रमाद उत्पन्न हो जाए तो शक्ति उससे सम्बन्ध तोड़ लेती है। फिर उसकी वही स्थिति होती है जो दक्षप्रजापति की हुई।

पिता के तिरस्कार से क्रोध में सती ने अपने ही समान रूप वाली छायासती को प्रादुर्भूत (प्रकट) किया और अपने चिन्मयस्वरूप को यज्ञ की प्रखर ज्वाला में दग्ध कर दिया। शिवगणों नारदजी के द्वारा सती के यज्ञाग्नि में प्रवेश के समाचार को जानकर भगवान शंकर कुपित हो गए। उन्होंने अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और पर्वत पर दे मारी जिससे उसके दो टुकड़े हो गए। एक भाग से भद्रकाली और दूसरे से वीरभद्र प्रकट हुए। उनके द्वारा यज्ञ का विध्वंस कर दिया गया। सभी देवताओं ने शिव के पास जाकर स्तुति की। आशुतोष शिव स्वयं यज्ञस्थल (कनखल-हरिद्वार) पहुंचे। सारे अमंगलों को दूर कर शिव ने यज्ञ को तो सम्पन्न करा दिया, किन्तु सती के पार्थिव शरीर को देखकर वे उसके मोह में पड़ गए। सती का शरीर यद्यपि मृत हो गया था, किन्तु वह महाशक्ति का निवासस्थान था। अर्धनारीश्वर भगवान शंकर उसी के द्वारा उस महाशक्ति में रत थे। अत: मोहित होने के कारण उस शवशरीर को छोड़ सके।

सती के शवशरीर के साथ भगवान शंकर का प्रलयंकारी तांडव नृत्य करना

भगवान शंकर छायासती के शवशरीर को कभी सिर पर, कभी दांये हाथ में, कभी बांये हाथ में तो कभी कन्धे पर और कभी प्रेम से हृदय से लगाकर अपने चरणों के प्रहार से पृथ्वी को कम्पित करते हुए नृत्य करने लगेननर्त चरणाघातै: कम्पयन् धरणीतलम्। भगवान शंकर उन्मत्त होकर नृत्य कर रहे थे। शिव के चरणप्रहारों से पीड़ित होकर कच्छप और शेषनाग धरती छोड़ने लगे। शिव के नृत्य करने से प्रचण्ड वायु बहने लगी जिससे वृक्ष पर्वत कांपने लगे। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। ब्रह्माजी की आज्ञा से ऋषिगण स्वस्तिवाचन करने लगे। देवताओं को चिन्ता हुई कि यह कैसी विपत्ति गयी। ये जगत्संहारक रुद्र कैसे शान्त होंगे?

भगवान शंकर द्वारा विष्णुजी को शाप

संसार का चक्का जाम जानकर देवताओं और भगवान विष्णु ने महाशक्ति सती के देह को शिव से वियुक्त करना चाहा। भगवान विष्णु ने शिव के मोह की शान्ति एवं अनन्त शक्तियों के निवासस्थान सती के देह के अंगों से लोक का कल्याण होयह सोचकर सुदर्शन चक्र  द्वारा छायासती के शरीर के खण्ड-खण्ड कर दिए।

भगवान शंकर ने विष्णुजी को शाप देते हुए कहा–‘त्रेतायुग में विष्णु को पृथ्वी पर सूर्यवंश में जन्म लेना पड़ेगा। जिस प्रकार मुझे छायापत्नी का वियोगी बनना पड़ा, उसी प्रकार राक्षसराज रावण विष्णु की छायापत्नी का हरण करके उन्हें भी वियोगी बनायेगा। विष्णु मेरी ही भांति शोक से व्याकुल होंगे।

शक्तिपीठों का प्रादुर्भाव

सती के मृत शरीर के विभिन्न अंग और उनमें पहने आभूषण ५१ स्थलों पर गिरे जिससे वे स्थल शक्तिपीठों के रूप में जाने जाते हैं। सती के शरीर के हृदय से ऊपर के भाग के अंग जहां गिरे वहां वैदिक एवं दक्षिणमार्ग की और हृदय से नीचे भाग के अंगों के पतनस्थलों में वाममार्ग की सिद्धि होती है।

शक्तिपीठों की संख्या और विदेशों में शक्तिपीठ

देवीभागवत में १०८ शक्तिपीठों का वर्णन है। तन्त्रचूडामणि में शक्तिपीठों की संख्या ५२ बतायी गयी है। परन्तु ज्यादातर पुराणों में उनके ५१ शक्तिपीठों की ही मान्यता है। श्रीललितासहस्त्रनाम में उनका एक नाम पंचाशत्पीठरूपिणी है। इससे स्पष्ट है कि पराम्बा जगदम्बा के ५१ शक्तिपीठ ही हैं। इन ५१ शक्तिपीठों में से भारत विभाजन के पश्चात् और कम हो गए।  इन ५१ शक्तिपीठों में से पीठ पाकिस्तान में, बंगलादेश में, श्रीलंका में, तिब्बत में और नेपाल में है। वर्तमान में भारत में ४२ शक्तिपीठ हैं।

इक्वावन शक्तिपीठों के नाम, अंगनाम, उनकी शक्ति और भैरव का परिचय

इन शक्तिपीठों का स्थान, वहां की अधिष्ठात्री शक्ति एवं भैरव (शिव) का नाम तथा सती के किस अंग और आभूषण का कहां पतन हुआ और कौन-कौन-से पीठ बने, इसका विवरण इस प्रकार है

. किरीटयहां सती के सिर का आभूषण किरीट गिरा था। यहां कि शक्ति विमला, भुवनेशी कहलाती है और भैरव (शिव) संवर्त नाम से जाने जाते हैं। (. बंगाल)

. वृन्दावनयहां सती के केश गिरे थे। यहां सती उमा और शंकर भूतेश नाम से जाने जाते हैं। (उत्तर प्रदेश, वृन्दावन)

. करवीरयहां सती के त्रिनेत्र गिरे थे। यहां सती महिषमर्दिनी और शिव क्रोधीश कहे जाते हैं। (महाराष्ट्र, कोल्हापुर स्थित महालक्ष्मी मन्दिर)

. श्रीपर्वतयहां सती की दक्षिण कनपटी गिरी थी। सती यहां श्रीसुन्दरी तथा शिव सुन्दरानन्द कहलाते हैं। (लद्दाख, कश्मीर)

. वाराणसीयहां सती की कान की मणिगिरी थी। यहां सती विशालाक्षी तथा शिव कालभैरव कहलाते हैं। (वाराणसी में मीरघाट पर विशालाक्षी मन्दिर)

. गोदावरीतटयहां सती का वामगण्ड (बायां गाल)गिरा था। यहां सती को विश्वेशी, रुक्मिणी तथा शिव को दण्डपाणि, वत्सनाभ कहते हैं। (आन्ध्रप्रदेश)

. शुचियहां सती के ऊपर के दांतगिरे थे। यहां सती को नारायणी और शंकर को संहार कहते हैं। (तमिलनाडु, शुचीन्द्रम्)

. पंचसागर—-यहां सती के नीचे के दांतगिरे थे। यहां सती वाराही और शंकर महारुद्र नाम से जाने जाते हैं। इस पीठ के स्थान के बारे में निश्चित पता नहीं है।

. ज्वालामुखीयहां सती की जिह्वा गिरी थी। यहां सती सिद्धिदा और शिव उन्मत्त रूप में विराजित हैं। (हिमाचल प्रदेश, कांगड़ा स्थित ज्वालामुखी मन्दिर)

१०. भैरवपर्वतयहां सती का ऊपर का होंठगिरा था। यहां सती अवन्ती और शिव लम्बकर्ण कहलाते हैं। (मध्यप्रदेश)

११. अट्टहासयहां सती का नीचे का होंठगिरा था। यहां सती फुल्लरादेवी और शिव विश्वेश कहलाते हैं। (बर्दवान, . बंगाल)

१२. जनस्थानयहां सती की ठुड्डी गिरी थी। यहां सती भ्रामरी और शिव विकृताक्ष कहलाते हैं। (महाराष्ट्र, नासिक के पास पंचवटी में भद्रकाली मन्दिर)

१३. कश्मीरयहां सती का कण्ठ गिरा था। यहां सती महामाया तथा शिव त्रिसंध्येश्वर कहलाते हैं। (कश्मीर में अमरनाथ गुफा के भीतरहिमशक्तिपीठ है।)

१४. नन्दीपुरयहां सती का कण्ठहार गिरा था। यहां सती नन्दिनी और शिव नन्दिकेश्वर कहलाते हैं। (. बंगाल)

१५. श्रीशैलयहां सती की ग्रीवा गिरी थी। यहां सती को महालक्ष्मी तथा शिव को संवरानन्द’, ‘ईश्वरानन्द कहते हैं। (आन्ध्रप्रदेश के मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के प्रांगण में यह शक्तिपीठ है।)

१६. नलहटीयहां सती की उदरनली गिरी थी। यहां सती कालिका और शिव योगीश कहे जाते हैं। (. बंगाल)

१७. मिथिलायहां सती का वाम स्कन्धगिरा था। यहां शक्ति उमा  महादेवी और शिव महोदर कहलाते हैं। (मिथिला, जनकपुर (नेपाल) और समस्तीपुर तीनों ही स्थानों पर यह शक्तिपीठ माना जाता है। इस सम्बन्ध में एकमत नहीं है।)

१८. रत्नावलीयहां सती का दक्षिण स्कन्धगिरा था। यहा शक्ति कुमारी तथा भगवान शंकर शिव कहलाते हैं। (मद्रास)

१९. प्रभासयहां सती का उदर गिरा था। यहां सती चन्द्रभागा और शिव वक्रतुण्ड के नाम से जाने जाते हैं। (गुजरात में गिरनार पर्वत पर अम्बाजी का मन्दिर)

२०. जालन्धरयहां सती का बायां स्तनगिरा था। यहां सती त्रिपुरमालिनी और शिव भीषण नाम से जाने जाते है। (जालन्धर, पंजाब)

२१. रामगिरियहां सती का दायां स्तन गिरा था। यहां सती शिवानी और शिव का रूप चण्ड है। (कुछ विद्वान चित्रकूट के शारदा मन्दिर को और कुछ मैहर के शारदा मन्दिर को यह शक्तिपीठ मानते हैं)

२२. वैद्यनाथयहां सती का हृदय गिरा था। इसलिए इसे हृदयपीठ या हार्दपीठ भी कहते हैं। पद्मपुराण में कहा गया हैहृदयपीठ के समान शक्तिपीठ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कहीं नहीं है। यहां सती का नाम जयदुर्गा और शिव का वैद्यनाथ है। (बिहार, वैद्यनाथधाम)

२३. वक्त्रेश्वरयहां सती का मन गिरा था। यहां सती को महिषमर्दिनी और शिव को वक्त्रनाथ कहा जाता है। (. बंगाल)

२४. कन्यकाश्रमयहां सती की पीठ गिरी थी। सती को यहां शर्वाणी तथा शिव को निमिष कहा जाता है। (तमिलनाडु में तीन सागरों के संगम-स्थल पर कन्याकुमारी मन्दिर स्थित भद्रकाली मन्दिर ही यह शक्तिपीठ है।)

२५. बहुलायहां सती का बायां हाथगिरा था। यहां सती को बहुला तथा शिव को भीरुक कहा जाता है। (. बंगाल)

२६. उज्जयिनीयहां सती की कुहनी गिरी थी। यहां सती का नाम मंगलचण्डिका और शिव का मांगल्यकपिलाम्बर है। (मध्य प्रदेश, उज्जैन, हरसिद्धि मन्दिर)

२७. मणिवेदिकयहां सती की दोनों कलाइयांगिरी थी। यहां पर शक्ति गायत्री एवं शिव सर्वानन्द कहलाते हैं। (राजस्थान, पुष्कर के पास गायत्री मन्दिर)

२८. प्रयागयहां सती के हाथ की अंगुलीगिरी थी।  यहां सती को ललितादेवी एवं शिव को भव कहा जाता है। (तीर्थराज प्रयाग में अक्षयवट के निकट ललितादेवी का मन्दिर तो कुछ विद्वान अलोपी माता के मन्दिर को शक्तिपीठ कहते हैं।)

२९. उत्कलयहां सती की नाभि गिरी थी। यहां शक्ति विमला और शिव का जगत’, जगन्नाथरूप है। (कुछ विद्वान उड़ीसा में जगन्नाथपुरी मन्दिर में विमलादेवी मन्दिर को और दूसरी मान्यता के अनुसार उड़ीसा में ही याजपुर में विरजादेवी मन्दिर को शक्तिपीठ माना जाता है।)

३०. कांचीयहां सती का कंकाल गिरा था। सती यहां देवगर्भा और शिव का रुरु रूप है। (तमिलनाडु, कांची स्थित काली मन्दिर)

३१. कालमाधवयहां सती का बायां नितम्बगिरा था। यहां सती को काली तथा शिव को असितांग कहा जाता है। इस शक्तिपीठ के स्थान के बारे में कुछ उल्लेख नहीं है।

३२. शोणयहां सती का दक्षिण नितम्बगिरा था। यहां देवी नर्मदा और शोणाक्षी कहलाती है तथा शिव भद्रसेन कहे जाते हैं। (कुछ विद्वान बिहार के सासाराम में और कुछ अमरकण्टक के नर्मदा मन्दिर को शोण शक्तिपीठ कहते हैं।)

३३. कामगिरियहां सती की योनि गिरी थी। यहां सती कामाख्या और शिव उमानाथ या उमानन्दकहलाते हैं। देवीपुराण में सिद्धपीठों में कामरूप को सर्वोत्तम कहा गया है। (असम, कामरूप में नीलाचल पर्वत पर।)

३४. जयन्तीयहां सती की बांयी जंघा गिरी थी। यहां सती जयन्ती और शिव क्रमदीश्वर कहे जाते हैं। (मेघालय, जयन्तिया पर्वत)

३५. मगधयहां सती की दक्षिण जंघा गिरी थी। यहां शक्ति सर्वानन्दकरी और शिव व्योमकेश कहलाते हैं। (बिहार, पटना स्थित बड़ी पटनेश्वरी देवी मन्दिर)

३६. त्रिस्रोतायहां सती का बायां पैर गिरा था। यहां सती का नाम भ्रामरी एवं शिव का नाम ईश्वर है। (. बंगाल)

३७. त्रिपुरायहां सती का दायां पैर गिरा था। यहां देवी त्रिपुरसुन्दरी और शिव त्रिपुरेश कहे जाते हैं। (त्रिपुरा)

३८. विभाषयहां सती का बायां टखना गिरा था। सती यहां कपालिनी और भीमरूपा और शिव सर्वानन्द और कपाली कहे जाते हैं। (. बंगाल)

३९. कुरुक्षेत्रयहां सती का दायां टखना गिरा था। यहां सती सावित्री और शिव स्थाणु कहलाते हैं। (हरियाणा)

४०. युगाद्यायहां सती के दांये पैर का अंगूठा गिरा था। देवी यहां भूतधात्री और शिव क्षीरकण्टक, युगाद्यकहलाते हैं। (. बंगाल)

४१. विराटयहां सती के दांये पांव की अंगुलियां गिरी थीं। यहां सती को अम्बिका तथा शिव को अमृत कहा जाता है। (राजस्थान)

४२. कालीपीठसती की शेष ऊंगलियां यहां गिरी थी। सती यहां कालिका और शिव नकुलीश कहे जाते हैं। (कलकत्ता, कालीपीठ)

ये ४२ शक्तिपीठ भारत में हैं। इन शक्तिपीठों के अतिरिक्त एक और शक्तिपीठ कर्नाटक में माना जाता है। यहां सती के दोनों कर्णगिरे थे। यहां सती को जयदुर्गा और शिव को अभीरु कहा जाता है।

विदेशों में शक्तिपीठ

४३. मानसयहां सती की दायीं हथेली गिरी थी। यहां सती दाक्षायणी और शिव अमर कहलाते हैं। (तिब्बत, मानसरोवर के तट पर)

४४. लंकायहां सती का नूपुर गिरा था। सती यहां इन्द्राक्षी और शिव राक्षसेश्वर कहलाते हैं। (श्रीलंका)

४५. गण्डकीयहां सती का दाहिना गालगिरा था। यहां सती गण्डकी तथा शिव चक्रपाणि कहलाते हैं। (नेपाल)

४६. नेपालयहां सती के दोनों घुटने गिरे थे। यहां सती को महामाया तथा शिव को कपाल कहा जाता है। (नेपाल, गुह्येश्वरीदेवी मन्दिर)

४७. हिंगुलायहां सती का ब्रह्मरन्ध्र गिरा था। यहां सती भैरवी, ‘कोट्टरी और शिव भीमलोचन कहे जाते हैं। (पाकिस्तान, बलूचिस्तान के हिंगलाज में)

४८. सुगन्धायहां सती की नासिका गिरी थी। यहां देवी सुनन्दा तथा शंकर त्र्यम्बक कहलाते हैं। (बंगलादेश)

४९. करतोयातटयहां सती का वाम तल्प गिरा था। सती यहां अपर्णा तथा शिव वामन रूप हैं। (बंगलादेश)

५०. चट्टलयहां सती की दायीं भुजा गिरी थी। यहां सती को भवानी और शिव को चन्द्रशेखर कहते हैं। (बंगलादेश)

५१. यशोरयहां सती की बांयी हथेली गिरी थी। यहां सती को यशोरेश्वरी तथा शिव को चन्द्र कहते हैं। (बंगलादेश)

शक्तितत्त्व के द्वारा ही यह समूचा ब्रह्माण्ड संचालित होता है। शक्ति के अभाव में शिव में भी स्पन्दन सम्भव नहीं; क्योंकि शिव का रूप ही अर्धनारीश्वर है। कोई यह नहीं कहता कि वह ब्रह्महीन है या विष्णुहीन है या शिवहीन है अपितु यही कहा जाता है कि शक्तिहीन है। अत: सभी का अस्तित्व सर्वाराध्या, सर्वमंगलकारिणी एवं अविनाशिनी शक्ति के कारण ही है।

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।


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