रविवार, 28 जून 2020

आध्यात्मिक प्रश्नोत्तर

                    आध्यात्मिक प्रश्नोत्तर

          सभी को कपड़ा उतारकर भोजन करना चाहिये। तीन बार गंगाजी में स्नान करना चाहिये, शास्त्रों के विचार से कपड़ा पहने भोजन करना निषिद्ध है। वस्त्र नित्य धोना चाहिये। रेशमी, ऊनी कपड़े दूसरे परमाणुओं को फेंक देते हैं, इसलिये उन्हें कई दिन के लिये पवित्र माना गया है। शास्त्र का नियम है, धोती के अतिरिक्त एक उत्तरीय पवित्र वस्त्र भी भोजन के समय रखना चाहिये।

          #प्रश्न- मृगचर्म को उत्तम क्यों माना है ?

          #उत्तर- रोओं के सहित जो मृगचर्म होता है वह दूसरे परमाणुओं को ग्रहण नहीं करता है, इसलिये वह पवित्र होता है। ऋषियों ने जिसे पवित्र माना है, हम भी उसे पवित्र मानते हैं।

          #प्रश्न- यदि धर्म में अधर्म और अधर्म में धर्म मान लें ?

          #उत्तर- दान लेने वाला कुपात्र हो तो देने वाला और लेने वाला दोनों पाप के भागी होते हैं। यहाँ दाता पुण्य करते हुए भी पाप का भागी होता है। यदि कोई राजा हिंसक जीवों को मारता है तो वह धर्म होता है। भगवान् अर्जुन से कहते हैं - जैसा युद्ध तुझे मिला है, वैसा हर एक को नहीं मिलता है। युद्ध करना दुर्योधन के लिये पाप और अर्जुन के लिये पुण्य है। दुर्योधन के लिये पाप इसलिये कि वह दूसरे का हक हड़पकर युद्ध करना चाहता था। यदि वह युधिष्ठिर को राज्य देकर युद्ध करता तो वह उचित हो सकता था।
          एक सत्यनिष्ठ धर्मात्मा थे। जंगल में एक कुटिया में रहते थे। एक दिन कुछ बनिये डाकुओं से भयभीत होकर कुटिया के पीछे वन में छिप गये। डाकुओं के पूछने पर उन धर्मात्मा ने बनियों का पता बता दिया। इसलिये वे मुनि नरक को गये। सत्य बोलना दूसरों का गला काटने में हेतु बना इसलिये अधर्म हुआ।
          एक घोर वन में एक पशु था, उसने ब्रह्मा से वर माँगा कि मैं वन के सभी जीवों को खा जाऊँ। ब्रह्मा ने ऐसा वर देकर उसे अन्धा कर दिया। एक व्याघ्र ने उस अन्धे पशु को मार डाला। यहाँ उस हिंसक को मारने से धर्म हुआ।

          #प्रश्न- याज्ञवल्क्य ऋषि ने जीवन्मुक्ति का आनन्द लेते हुए भी गृहस्थाश्रम क्यों त्यागा?

          #उत्तर- आश्रम से आश्रम को जाना चाहिये, यह न्याय है। दूसरों के शिक्षार्थ उन्होंने गृहस्थाश्रम को छोड़कर संन्यास लिया, यह ठीक ही किया। जीवन्मुक्त होकर उनका सारे संसार को जीवन्मुक्त बनाना लक्ष्य था। राजा जनक के लिये कोई कर्तव्य नहीं था। वे सभी काम करते थे। याज्ञवल्क्य महात्मा थे, आदर्श के लिये वे एक आश्रम से दूसरे आश्रम को गये। राजा जनक दूसरे आश्रम में नहीं गये। वे भी संन्यास लेने के लिये तैयार हुए थे। तैयारी के समय उनकी स्त्री ने कहा कि यदि आपको कुछ प्राप्त करना है, तब तो संन्यास ले लें और यदि दूसरों के लाभार्थ संन्यास लेते हैं तो आप मेरे लाभ के लिये गृहस्थ में ही रहिये।
          यदि याज्ञवल्क्य कुछ अनुचित करते तब तो ऐसी शंका ठीक थी, परन्तु उन्होंने आदर्श के लिये ऐसा किया था इसलिये ऐसा ठीक था। जनक का गृहस्थाश्रम में रहना और याज्ञवल्क्य का संन्यास लेना उचित था।

          #प्रश्न- संन्यास लेने में अधिक आनन्द था?

          #उत्तर- ऐसी बात नहीं है। शिवजी गरुड को उपदेश दे सकते थे, परन्तु उन्होंने पक्षी जाति के काकभुशुण्डिजी के यहाँ उन्हें भेजा। संन्यासियों के लिये उन्होंने संन्यास लिया।
          राजा अश्वपति के पास छः ऋषि जिनके दस-दस हजार शिष्य थे, गये। राजा ने आदर-सत्कार किया, उन्हें बहुत रुपया दिया गया। इस पर उन्होंने इनकार किया। राजा ने कहा- यदि आप मेरे धन को निषिद्ध समझते हैं तो यह ऐसा नहीं है, मेरा धन न्यायोचित है। मेरे राज्य में चोरी, व्यभिचार, मदिरापान आदि न होने से यह पाप का पैसा नहीं है, यह पवित्र धन है, आप स्वीकार कीजिये ऋषियों ने कहा- हम इस छोटे धन के लिये नहीं आये हैं। हम ब्रह्मविद्या, ब्रह्मतत्त्व को जानने के लिये आये हैं। राजा ने कहा- मैं क्षत्रिय हूँ, मैं दान रूप में आप ब्राह्मणों को दे सकता हूँ। राजा ने उन्हें उच्चासन पर बैठाकर ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया, स्वयं नीचे बैठे। इस प्रकार ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया।
          मेरा अधिकार उपदेश देने का नहीं है, क्योंकि मैं वैश्य हूँ और गृहस्थ हूँ। इसलिये आपकी सेवा में प्रार्थना रूप में यह बातें कही जाती हैं। यदि आप कोई अच्छी बात समझें तो ले लें। विक्षेप साधक को होता है, सिद्ध को नहीं, यदि सिद्ध को हो तो वह सिद्ध नहीं है। राजा जनक के लिये कोई कर्तव्य नहीं था, परन्तु वे लोकसंग्रह के लिये सब काम करते थे।

          #प्रश्न- काम, क्रोध प्रारब्धवश होते हैं या लीला से।

          #उत्तर- महापुरुषों की जानकारी में ये होते हैं। पुलिस का अधिकारी सिपाहियों को अपराधियों को लाने के लिये भेजता है, वह सिपाही अधिकारी के सामने हाथ जोड़ता है और साधारण आदमियों के यहाँ रोब दिखाता है। उसी प्रकार काम-क्रोधादि ब्रह्म को प्राप्त पुरुषों के यहाँ चाकर की तरह रहते हैं और साधारण आदमियों के यहाँ शासक की तरह। 
          ज्ञानवान् सारी दुनिया को अपने स्वरूप में देखता है। शीत-उष्ण, सुख-दुःख, अनुकूलता-प्रतिकूलता ज्ञानी सभी को समान भाव से देखते हैं। ज्ञानी सुखमें सुखी और दु:खमें दु:खी नहीं होता। निन्दा-स्तुति में भी ज्ञानी समान भाव वाला रहता है। ऐसी समता जिसमें है, वही ज्ञानी है। सुख-दुःख का फल है हर्ष-शोक। संसार के पदार्थों का फल हर्ष- शोक है। अगर समझो, मेरा पुत्र मर गया, पर मुझे दुःख नहीं हुआ तो फिर दुःख का ज्ञान ही होने से क्या आपत्ति है। समता का मतलब है कि न दु:ख का असर न सुख का असर, किसी प्रकार का विकार नहीं होता।

          यं  लब्ध्वा  चापरं  लाभं  मन्यते नाधिकं ततः।
          यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥
                                                   (गीता ६। २२)

          परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्म प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता।
          दुःख-सुख प्रतीत हो तो कोई बात नहीं, पर उसका विकार नहीं आना चाहिये। असर न आवे तो ज्ञानी ही है। हर्ष-शोक न हो तो फिर कोई आपत्ति नहीं, चाहे जितने दुःख के निमित्त आयें। परमात्मा में स्थिति होने पर ज्ञानी उनसे रहित हो जाता है और वह हर्ष-शोक नहीं पाता। सम रहना बड़ा मूल्यवान् है, मिट्टी-पत्थर सब समान हो जाय तो फिर कोई आपत्ति नहीं।

          #प्रश्न- दूसरों के दुःख को ज्ञानी कैसे दूर करे, जब उसके लिये सब सम है।

          #उत्तर- भगवान् कहते हैं कि मुझे सब समदर्शी कहते हैं, पर मैं भजने वाले को भजता हूँ न भजने वाले को नहीं भजता, यह भगवान् की विषमता नहीं मानी जाती है।
          ज्ञानी की सारी क्रिया का त्याग और ग्रहण न्याययुक्त है। जब समझता है कि न्याययुक्त है तो वह करता है। अपने शरीर की बीमारी को ठीक करने की कोशिश करने पर भी यदि प्रतीकार न हो तो भी वह न्याय है। दुःख आता है तो उपचार भी न्याय है। अज्ञानी की चेष्टा अन्याययुक्त होती है। ज्ञानी का कर्म न्याययुक्त है। जनकादि ने भी न्याययुक्त किया।
          महात्मा की अपने और दूसरे के शरीर में समबुद्धि रहती है। पर उनको व्यवहार वैसे ही करना चाहिये जिससे दूसरों को शिक्षा मिले। दुनिया में मान सभी चाहते हैं, पर ज्ञानी को दुनिया को सिखाना है कि ये सब त्याज्य हैं, भोग सिखाने की तो कोई आवश्यकता ही नहीं है। जिसकी आवश्यकता नहीं उसका त्याग करना, सिखाना ज्ञानी का कार्य है। ज्ञानी को चाहिये कि यह बताये कि इत्र आदि पेशाब के तुल्य हैं। साधक के लिये जो उपयोगी बात हो वह दुनिया को सिखाये। जिससे दुनिया को ज्ञान हो वही बात सिखाये। वे फँसे तो पड़े ही हैं, उन्हें तो छुटकारे का उपाय ही सिखाना है।
          राजा को प्रजा का, भर्ता को स्त्री का, गुरु को शिष्य का पाप भोगना पड़ता है। वास्तव में पाप का भागी वह होता है जो दूसरे को शिष्य बनाकर सेवा कराता है और शिष्य अपात्र रहता है तो उस गुरु को पाप लगता है। स्त्री को भर्ता का , प्रजा को राजा का , पुत्र को पिता का, शिष्य को गुरु का पाप नहीं लगता, क्योंकि स्त्री प्रजा, पुत्रादि दूसरे के आधीन हैं। यदि स्त्री आज्ञा न माने तो ऐसी स्त्री को छोड़ देना चाहिये। ऐसे प्रजा, शिष्यादि जो आज्ञापालन न करें तो उन्हें त्याग देना चाहिये। स्त्री-पुत्रादि यदि अपने पति, पिता को कुमार्ग में जाते देखें तो उन्हें सुमार्ग में लाने की चेष्टा करनी चाहिये।

          #प्रश्न- गीता को वेद से श्रेष्ठ मानने पर शूद्र और स्त्री का पढ़ने का, सुनने का अधिकार है या नहीं?

          #उत्तर- वेद ब्रह्मा के श्वास हैं। इतिहास और पुराण बनाये गये हैं। महाभारत इतिहास है। गीता महाभारत के अन्तर्गत है। कोई कहता है कि उनका सुनने का अधिकार है और कोई पढ़ना और सुनना दोनों का अधिकार मानते हैं।
          कुछ वर्ष पहले ऋषिकेश में करपात्रीजी महाराज में और मालवीयजी में सभी को पढ़ने-सुनने और केवल सुनने के अधिकार में बहुत शास्त्रार्थ हुआ। दोनों आदमियों ने शास्त्रोक्त बहुत प्रमाण दिये। मुझे मध्यस्थ बनकर इसका निर्णय करने के लिये पूछा गया। मैंने बहुत इनकार किया। मुझे करपात्रीजी ने हृदय की बात कहने के लिये शपथ दी। मैंने कहा, मालवीयजी का कहना शास्त्रोक्त है और करपात्रीजी का भी कहना शास्त्रोक्त है, इसलिये जो जैसा माने उसके लिये वही ठीक है। कोई शूद्र कहता है कि मेरा पढ़ने, सुनने में अधिकार है तो उसका कहना ठीक है, मैं कहूँगा कि तुम्हारा अधिकार है और यदि वह कहेगा कि मेरा केवल सुनने का अधिकार है तो मैं कह दूँगा, ठीक है।
          मैं तो ऐसा मानता हूँ कि जो गीता का भक्त है, उसका पढ़ने-सुनने का अधिकार है। अर्जुन को निमित्त बनाकर सबके लिये यह गीता बनायी गयी है।

           स्त्रियों वैश्यास्तथा शुद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।

          यहाँ स्त्री और वैश्य को उच्च बतलाकर शूद्र को उससे नीचाबतलाया गया है 'तथा' शब्दसे अर्थ अलग हो जाता है।
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