देवराज इंद्र ने एक बार राज-मद में आकर देव-गुरु बृहस्पति के प्रति घोर अशिष्टता कर दी। वृहस्पति
स्वर्ग छोड़कर अंतर्ध्यान हो गए। देवताओं की शक्ति
घटने लगी। तब ब्रह्मा की सलाह पर ऋषि त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप को देव-गुरु के पद पर प्रतिष्ठित किया गया, जिससे देवता पुनः सामर्थ्यवान हो गये।...
अब देवराज के मन में कुविचार उठने लगे कि विश्वरूप की माता असुर कुल की है; क्या ऐसा नहीं हो सकता कि भविष्य में वे असुरों का साथ दे दें। यह सोचकर, देवराज ने ऋषि विश्वरूप की हत्या कर दी।
पुत्र की हत्या का समाचार पाकर ऋषि त्वष्टा ने क्रोध में मंत्र पढ़कर होमाग्नि में आहुति दी और 'वृत्रासुर' नाम के असुर की सृष्टि की तथा उसे आदेश दिया कि वह इंद्र को समाप्त कर दे।...
त्वष्टा के आदेशानुसार वृत्रासुर इंद्र को मारने निकल पड़ा। दोनों में भारी युद्ध हुआ। यह संघर्ष निरंतर चलता रहा। इस निरंतर चलने वाले युद्ध से ऋषि-मुनि और देवगण परेशान होकर भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे।उन्होंने अभय देकर कहा--"डरो मत। इंद्र के वज्र में मैं प्रवेश करूंगा, जिससे अंत में देवराज की जीत होगी।"
भगवान विष्णु से आश्वस्ति पाकर ऋषि-मुनि और देवता वृत्रासुर के पास पहुंचे और उससे युद्ध को बंद करने का आग्रह किया।...
वृत्रासुर ने उनकी बात मान ली। पर कहा--"मुझे इंद्र का कोई भरोसा नहीं अतः आप लोग मुझे ऐसा वरदान दे कि मैं पत्थर,काष्ठ,या धातु से बने, किसी सूखे/गीले हथियार से न मारा जाऊं ;और न दिन में या रात में मारा जाऊँ।"..
ऋषियों ने तथास्तु कहकर वरदान दिया और विदा हुए।..
इस बार फिर इंद्र ने धोखा दिया।
एक दिन संध्या के समय, समुद्र तट पर इंद्र की वृत्र के साथ भेंट हो गई।इसे सुअवसर जानकर देवराज ने उस पर आक्रमण कर दिया। घोर संग्राम छिड़ गया। अंत में वृत्र ने कहा--"अरे अधम ! अपने वज्र का प्रहार मुझ पर क्यों नहीं करता? जिसका वार कभी खाली नहीं जाता। सुना है तेरे उस शस्त्र में स्वयं हरि ने प्रवेश किया है।
उसी का वार मुझ पर कर ,जिससे मैं भी सद्गति को प्राप्त करूं।" यह कहकर वृत्र ने हरि का ध्यान किया और स्तुति करने लगा।...
तभी देवराज ने उसका दाहिना ,फिर बाँया हाथ, काट दिया।जब वृत्र ने मुंह खोलकर इंद्र को निगल लिया तब इंद्र उसका पेट चीरकर बाहर निकल आये और समुद्र के 'फेन' को हाथ में लेकर,उसी में वज्र का आवाहन किया और वही 'फेन' वृत्रासुर पर चला दिया। ठीक उसी समय भगवान विष्णु ने उस फेन में प्रवेश किया और वृत्रासुर मृत होकर ,पृथ्वी पर गिर पड़ा।
सारा संसार जो इस लगातार होने वाले युद्ध से पीड़ित था वृत्रासुर के मारे जाने से बड़ा खुश हुआ। पर इंद्र के मन में शांति नहीं थी। एक ब्रह्म-हत्या का पाप उस पर पहले से ही था ,दूसरा ,प्रतिज्ञा भंग करके उसने वृत्र को मारा था; उससे वह तेजविहीन हो गया।
किसी को मुंह दिखाने योग्य न रहने और बहुत लज्जा का अनुभव करके ,वे अदृश्य होकर ,वे छिपे-छिपे रहने लगे।
इधर देवराज की अनुपस्थिति से स्वर्ग में अव्यवस्था फैलने लगी। देवता और ऋषि-मुनि उदास हो गये।तब उन्होंने मर्त्यलोक के राजा 'नहुष', जो बड़े प्रतापी रण- कुशल और शीलवान थे ,के पास जाकर प्रार्थना की
कि वे इस समय इंद्र का पद स्वीकार करें और हमारे'
अधीश' हो जायें।...
राजा नहुष स्वभाव से बड़े नम्र थे। उनके संकोच करने पर देवताओं ने उनसे कहा --"आप चिंता न करें, हमारी सारी तपस्या का फल आपको प्राप्त हो जाएगा। आपकी जिधर भी दृष्टि पड़ेगी उसी का तेज आपको मिल जाएगा। आप बड़े शक्ति-संपन्न हो जाएंगे।आप स्वर्ग में पधारिए और देवराज के पद को सुशोभित कीजिए।...
इस पर राजा नहुष ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। तात्पर्य यह कि क्रांति कोई नई बात नहीं है।महाभारत
के इस पौराणिक आख्यान में यह बताया गया है कि
देवलोक में भी क्रांति हुई थी और देवताओं ने इंद्र को सिहासनच्युत करके, 'नहुष' को देवराज बना दिया था।..
ॐ,
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