रविवार, 5 जुलाई 2020

श्रीमद्भगवद्गीता " अक्षरब्रह्मयोग !!!!!!!


पुरुष: पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।

यस्यान्त: स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।

भगवान् जो सबसे महान है, अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं, यद्यपि वे अपने धाम में विराजमान रहते हैं, तो भी वे सर्वव्यापी है और उनमें सब कुछ स्थित है।

मित्रों, यहाँ यह स्पष्ट बताया गया है कि जिस परमधाम से फिर लौटना नहीं होता वह परमपुरूष श्रीकृष्ण का धाम है, ब्रह्मसंहिता में इस परमधाम को आनन्दचिन्मय रस कहा गया है, जो ऐसा स्थान है जहाँ सभी वस्तुयें परम आनन्द से पूर्ण है, जितनी भी विविधता प्रकट होती है वह सब इसी परमानन्द का गुण है, वहाँ कुछ भी भौतिक नहीं है, यह विविधता भगवान् के विस्तार के साथ ही विस्तृत होती जाती है, क्योंकि वहाँ की सारी अभिव्यक्ति पराशक्ति के कारण है, जैसा कि सातवें अध्याय में बताया जा चुका है।

जहाँ तक इस भौतिक जगत् का प्रश्न है, यद्यपि भगवान् अपने धाम में ही सदैव रहते हैं, तो भी वे अपने भौतिक शक्ति (माया) द्वारा सर्वव्यापत है, इस प्रकार वे अपनी परा तथा अपरा शक्तियों द्वारा सर्वत्र यानी भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ब्रह्माण्डों में उपस्थित रहते हैं, "यस्यान्त: स्थानि" का अर्थ है कि प्रत्येक वस्तु उनमें या उनकी परा या अपरा शक्ति में निहित है, इन्हीं दोनों शक्तियों के द्वारा भगवान् सर्वव्यापी है।

श्रीकृष्ण के परमधाम में या वैकुण्ठ लोक में भक्ति के द्वारा ही प्रवेश सम्भव है, जैसा कि भक्त्या शब्द द्वारा सूचित होता है, किसी अन्य विधि से परमधाम की प्राप्ति सम्भव नहीं है, गोपालतापनी उपनिषद् (3/2) में भी परमधाम तथा भगवान् का वर्णन मिलता है "एको वशी सर्वग: कृष्ण:" उस धाम में केवल एक भगवान् रहते है जिसका नाम श्रीकृष्ण हैं, वे अत्यन्त दयालु विग्रह है और एक रूप में स्थित होकर भी वे अपने को लाखों स्वांशों में विस्तृत करते रहते हैं।

वेदों में भगवान् की उपमा उस शान्त वृक्ष से दी गई है जिसमें नाना प्रकार के फल तथा फूल लगे है, और जिसकी पत्तियाँ निरन्तर बदलती रहती है, वैकुण्ठ लोक की अध्यक्षता करने वाले भगवान् के स्वांश चतुर्भुजी है और विभिन्न नामों से विख्यात है, जैसे पुरूषोत्तम, त्रिविक्रम, केशव, माधव, ह्रषिकेश, संकर्षण, श्रीधर, वासुदेव, दामोदर, जनार्दन, नारायण, वामन, पद्मनाभ आदि।

ब्रह्मसंहिता (5/37) में भी पुष्टि हुई है कि यद्यपि भगवान् निरन्तर परमधाम गोलोक वृन्दावन में रहते है, किन्तु वे सर्वव्यापी है ताकि सब कुछ सुचारू रूप से चलता रहे "गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूत:" श्वेताश्वतर उपनिषद् (6/8) में कहा गया है "परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया " भगवान् की शक्तियाँ इतनी व्यापक है कि वे परमेश्वर के दूरस्थ होते हुए भी दृश्यजगत में बिना किसी त्रुटि के सब कुछ सुचारू रूप से संचालित करती रहती है।

यत्र काले त्वनावत्तिमावृत्तिं चैव योगिन:

प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ।।

हे भरतश्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें उन विभिन्न कालों को बताऊँगा, जिनमें इस संसार से प्रयाण करने के बाद योगी पुन: आता है अथवा नहीं आता।

मित्रों! परमेश्वर के अनन्य, पूर्ण शरणागत भक्तों को इसकी चिन्ता नहीं रहती कि वे कब और किस तरह शरीर को त्यागेंगे, वे सब कुछ श्रीकृष्ण पर छोड़ देते हैं और इस तरह सरलतापूर्वक, प्रसन्नता सहित भगवद्धाम जाते हैं, किन्तु जो अनन्य भक्त नहीं है और कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा हठयोग जैसी आत्म-साक्षात्कार की विधियों पर आश्रित रहते हैं, उन्हें उपयुक्त समय में शरीर त्यागना होता है, जिससे वे आश्वस्त हो सकें कि इस जन्म-मृत्यु वाले संसार में उनको लौटना होगा या नहीं।

यदि योगी सिद्ध होता है तो वह इस जगत् से शरीर छोड़ने का समय तथा स्थान चुन सकता है, किन्तु यदि वह इतना पटु नहीं होता तो उसकी सफलता उसके अचानक शरीर त्याग के संयोग पर निर्भर करती है, भगवान् ने अगले श्लोक में ऐसे उचित अवसरों का वर्णन किया है कि कब मरने से कोई वापस नहीं आता, यहाँ पर संस्कृत के काल शब्द का प्रयोग काल के अधिष्ठाता देव के लिये हुआ है।

अग्निर्ज्योतिरह: शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम्

तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना: ।।

जो परब्रह्म के ज्ञाता है, वे अग्निदेव के प्रभाव में, प्रकाश में, दिन के शुभक्षण में, शुक्लपक्ष में या जब सूर्य उत्तरायण में रहता है, उन छह मासों में इस संसार से शरीर त्याग करने पर उस परब्रह्म को प्राप्त करते हैं।

मित्रों! जब अग्नि, प्रकाश, दिन तथा पक्ष का उल्लेख रहता है तो यह समझना चाहिये कि इस सबों के अधिष्ठाता देव होते हैं जो आत्मा के यात्रा की व्यवस्था करते हैं, मृत्यु के समय मन मनुष्य को नवीन जीवन मार्ग पर ले जाता है, यदि कोई अकस्मात् या योजनापूर्वक उपयुक्त समय पर शरीर त्याग करता है तो उसके लिये निर्विशेष ब्रह्मज्योति प्राप्त कर पाना सम्भव होता है, योग में सिद्ध योगी अपने शरीर को त्यागने के समय तथा स्थान की व्यवस्था कर सकते हैं, अन्यों का इस पर कोई वश नहीं होता।

यदि संयोगवश वे शुभमुहूर्त में शरीर त्यागते है तब तो उनको जन्म-मृत्यु के चक्र में लौटना नहीं पड़ता, अन्यथा उनके पुनरावर्तन की सम्भावना बनी रहती है, किन्तु भगवद्भक्ति में शुद्धभक्त के लिये लौटने का कोई भय नहीं रहता, चाहे वह शुभ मुहूर्त में शरीर त्याग करे या अशुभ क्षण में, चाहे अकस्मात् शरीर त्याग करे या स्वेच्छापूर्वक।

धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम्

तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ।।

जो योगी धुयें, रात्रि, कृष्णपक्ष में या सूर्य के दक्षिणायन रहने के छह महीनों में दिवंगत होता है, वह चन्द्रलोक को जाता है, किन्तु वहाँ से पुन: (पृथ्वी पर) चला आता है।

भागवत् के तृतीय स्कंध में कपिल मुनि उल्लेख करते हैं कि जो लोग कर्मकाण्ड तथा यज्ञकाण्ड में निपुण है, वे मृत्यु होने पर चन्द्रलोक को प्राप्त करते हैं, ये महान आत्मायें चन्द्रमा पर लगभग दस हजार वर्षों तक (देवों की गणना से) रहती है और सोमरस का पान करते हुये जीवन का आनन्द भोगती है, अन्ततोगत्वा वे पृथ्वी पर लौट आती है, इसका अर्थ यह हुआ कि चन्द्रमा में उच्चश्रेणी के प्राणी रहते हैं, भले ही हम अपनी स्थूल इन्द्रियों से उन्हें देख सकें।

 


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