शनिवार, 23 मई 2020

अहंकार से बचने के लिए क्या कहती है गीता


दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोध: पारुष्यमेव
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ।। (गीता १६।४)

गीता (१६।४) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैंहे पार्थ ! दम्भ, घमण्ड, अभिमान, क्रोध, कठोरता और अज्ञानये सब आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं

भगवान श्रीकृष्ण ने इन दुर्गुणों को आसुरी सम्पदा कहा है आसुरी सम्पदाका अर्थ है तमोगुण से युक्त अहंकार, दम्भ, घमण्ड, अभिमान, क्रोध तथा कठोरता आदि दुर्गुणों और बुराइयों का समुदाय जो मनुष्य के अंदर विद्यमान रहते हैं ये ही दुर्गुण मनुष्य को संसार में फंसाने वाले और अधोगति में ले जाने वाले हैं

अहंकार व्यक्ति के अज्ञान और मूर्खता का परिचायक

मनुष्य में अपने धन, बल, यौवन, जाति, कुल, सौन्दर्य, कला, विद्वता, सद्गुणों और सत्ता का नशा होता है; इसे ही अहंकार, दर्प, दम्भ, अभिमान, घमण्ड या गर्व कहते हैं दूसरों की तुलना में खुद को ऊंचा, श्रेष्ठ पूज्य समझना; मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा और पूजा  करवाने की भावना रखना और इन सबके प्राप्त होने पर प्रसन्न होना और दूसरों को तुच्छ समझकर उनकी अवहेलना करनाये सब अहंकार के ही लक्षण हैं अहंकारी व्यक्ति सदैव अपनी ही प्रशंसा करता है दूसरे लोग चाहे कितने ही बड़े क्यों हों, उसे अपने से बौने ही लगा करते हैं इस तरह अहंकार व्यक्ति के अज्ञान और मूर्खता का परिचायक है

गीता (३।२७) में भगवान ने इन्हीं आसुरी सम्पदा से युक्त लोगों को अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते कहा है

अर्थात्ऐसा अहंकारी मनुष्य अज्ञानवश मैं यह हूँ’, ‘मैं वो हूँ’, ‘यह तू है’, ‘यह तेरा है’, ‘मैं कर्ता हूँऐसा मानकर हरेक कार्य को अपने द्वारा किया हुआ समझता है; इसलिए कर्म के बंधन में बंध जाता है और कर्मों का फल भोगने के लिए बार-बार संसारचक्र में घूमता रहता है यही उसके दु: पतन का कारण है

मनुष्य की अच्छाइयों लक्ष्मी के नाश का कारण है अहंकार

संतों का कहना है कि बकरीमैं-मैंकरती है इसलिए काटी जाती है और मैनामैं-ना’, ‘मै-नाकहती है इसलिए लोग उसे पालते हैं

तुलसीदासजी ने इसी बात को माया का स्वरूप बताते हुए कहा है

मैं अरु मोर तोर तैं माया
जेहिं बस कीन्हें जीव निकाया ।। (मानस ३।१५।१)

अर्थात्—‘मैं-मेराही संसार में माया का स्वरूप है

गीता में कर्म, ज्ञान और भक्तिइन तीनों योगों में अहंकार को त्यागने पर विशेष जोर दिया गया है

·         कर्मयोग (२।७१) में निर्मम-निरहंकार होने से मनुष्य को परम शान्ति की प्राप्ति हो जाती है

·         ज्ञानयोग (१८।५३)  में निर्मम-निरहंकार होने से मनुष्य को ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है

·         भक्तियोग (१२।१३-१४) में निर्मम-निरहंकार होने से मनुष्य को परम प्रेम की प्राप्ति हो जाती है 

निर्मम-निरहंकार का अर्थ है जो अपने-पराये, मैं-मेरापन की भेदबुद्धि से ऊपर उठकर सबके साथ अपने जैसा व्यवहार करता है

अभिमान भगवान से अलग कर देता है

भक्ति में अहंकार भक्ति को तामसी कर देता है। जो लोग यह हठ करते हैं कि हम ही सही हैं, ईश्वर उनको छोड़ देता है क्योंकि भगवान को गर्व-अहंकार बिल्कुल भी नहीं सुहाता है।

तब तक ही हरिवास है, जब तक दूर गरूर
आवत पास गरुर के, प्रभु हो जावें दूर ।।

भगवान स्वयं अपने भक्तों का अभिमान दूर करते हैं फिर वह चाहे उनकी अर्धागिनी सत्यभाभा हों, प्रिय गोपियां हों, अभिन्न मित्र अर्जुन हो, वाहन गरुड़ हो या भक्त नारद हो

भगवान अकिंचन (दीन) को ही प्राप्त होते हैं अभिमानी को नहीं

अर्जुन के अभिमान-भंग की कई कथा हमें महाभारत आदि ग्रंथों में देखने को मिलती हैं अर्जुन को लगता था कि भगवान श्रीकृष्ण का सबसे लाड़ला मैं ही हूँ उन्होंने मेरे प्रेम के वश ही अपनी बहिन सुभद्रा को मुझे सौंप दिया है, इसीलिए युद्धक्षेत्र में वे मेरे सारथि बने, यहां तक कि रणभूमि में स्वयं अपने हाथों से मेरे घोड़ों के घाव तक भी धोते रहे यद्यपि मैं उनको प्रसन्न करने के लिए कुछ नहीं करता फिर भी मुझे सुखी करने में उन्हें बड़ा सुख मिलता है साथ ही अर्जुन को अपनी बाण-विद्या पर बहुत घमण्ड था

एक दिन अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहारामावतार के समय आपने समुद्र पर सेतु बनाने के लिए वानर-भालुओं को बेकार में ही कष्ट दिया आपने क्यों नहीं समुद्र के ऊपर अपने बाणों से पुल बना लिया, वानर सेना सहज ही उस पर से होकर निकल जाती ?’

प्रभु को ताड़ते देर लगी कि अभिमान की मदिरा ने अर्जुन के मन को मतवाला बना दिया है श्रीकृष्ण ने कहा—‘क्या तुम अपने बाणों से समुद्र पर पुल बना सकते हो ?

अर्जुन के हां कहने पर श्रीकृष्ण उन्हें समुद्र तट पर ले गए और बोले—‘पहले तुम समुद्र के एक छोटे से अंश पर ही बाणों से पुल बनाकर दिखाओ; बाद में मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूंगा

यह सुनकर अर्जुन ने तुरन्त ही समुद्र के एक भाग पर बाणों का पुल तैयार कर दिया तब श्रीकृष्ण ने हनुमानजी का स्मरण किया और हनुमानजी तुरन्त ही वहां उपस्थित हो गए श्रीकृष्ण ने हनुमानजी से कहा—‘तुम इस पुल पर चलकर दिखाओ

अर्जुन का अभिमान-भंग

जो आज्ञाकहकर हनुमानजी जैसे ही उस पुल पर चढ़े वह चरमराकर टूट गया तभी अर्जुन ने देखा कि श्रीकृष्ण की पीठ से रक्त बह रहा है घबराते हुए अर्जुन ने पूछा—‘प्रभो ! आपकी पीठ से रक्त क्यों बह रहा है ?

श्रीकृष्ण ने उत्तर दियाहनुमान के पांव रखते ही तुम्हारा बनाया पुल समुद्र में धंस जाता, इससे तुम्हारी बड़ी बदनामी होती तुम्हारे सम्मान की रक्षा के लिए मैं कच्छप रूप धारण कर समुद्र के नीचे आधार बन कर टिक गया मैंने पुल को डूबने से तो बचा लिया किन्तु पुल के टूटे भाग से बाण निकल कर मेरी पीठ में जा धंसे जिससे मुझे पीठ में से रक्त बह रहा है वानर सेना में तो हनुमान जैसे बलशाली असंख्य वानर थे अब तुम्हीं बताओ क्या उनके भार को बाणों का पुल सहन कर सकता था ?’

अर्जुन को सारा रहस्य समझ गया और उनका अहंकार भी नष्ट हो गया

श्रीचैतन्य महाप्रभुजी ने मनुष्य को भगवान का प्रिय बनने के लिए अपने ग्रंथ शिक्षाष्टक में लिखा है

तृण से भी अधिक नम्र होकर, वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु बनकर, स्वयं मान की अभिलाषा से रहित होकर तथा दूसरों को मान देते हुए सदा श्रीहरि के कीर्तन में रत रहें

 


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