शनिवार, 30 सितंबर 2023

पितृकार्य का विशेष महत्व

 ॐ  देवताभ्य: पितृभ्यश्च  महायोगिभ्य एव च ,

 नम: स्वाहायै  स्वधायै  नित्यमेव नमो नम:  .. ॐ अर्यमा न त्रिप्यताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा  नमः ...ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय .. 

 पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है .. अर्यमा पितरों के देव हैं.. अर्यमा को प्रणाम , हे पिता, पितामह और प्रपितामह तथा हे माता, मातामह और प्रमातामह, आपको भी बारम्बार प्रणाम .. 

आप हमें मृत्यु से अमृतत्व  की ओर ले चलें .. 

 .. अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।

पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्   .. श्री गीता में श्री भगवान ने कहा है .. हे धनंजय !  नागों में मैं शेषनाग और जलचरों में वरुण हूं;

पितरों में "अर्यमा" तथा नियमन करने वालों में यमराज हूं .. 

अर्यमा : आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की किरण (अर्यमा) और किरण के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर  व्याप्त रहता है ..  पितरों में श्रेष्ठ है अर्यमा .. अर्यमा पितरों के देव  हैं ..ये महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति के पुत्र हैं और इंद्रादि देवताओं के भाई .. पुराण के अनुसार उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास लोक है ..  इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती है..  जड़-चेतनमयी सृष्टि में शरीर का निर्माण नित्य पितर  ही करते हैं  .. इनके प्रसन्न होने पर पितरों की तृप्ति होती है . श्राद्ध के समय इनके नाम से जलदान दिया जाता है,  यज्ञ में मित्र (सूर्य) तथा वरुण (जल) देवता के साथ स्वाहा का 'हव्य' और श्राद्ध में स्वधा का 'कव्य' दोनों स्वीकार करते हैं.. 

।।श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छ्राद्धम्।। .. जो पितरों के निमित्त श्रद्धा पूर्वक दिया जाता है  वह श्राद्ध है .. 

गरूड़ पुराण के अनुसार पितर ऋण मुक्ति हेतु , श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध करना ही चाहिये ..  कल्पदेव कुर्वीत समये श्राद्धं  कुले कश्चिन्न सीदति .. 

आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं  कीर्तिं   पुष्टिं   बलं श्रियम् .. 

पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात्  पितृपूजनात् 

 देवकार्यादपि सदा सपितृकार्यं  विशिष्यते .. 

देवताभ्यः पितृणां हि पूर्वमाप्यायनं शुभम् .. 

अर्थात,  समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुखी नहीं  रहता..   

पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशु, सुख और धन-धान्य प्राप्त करता है.. 

उत्तरायण में देवताओं का दिन और पितरों की रात्रि  कही गई है .. दक्षिणायन  में श्रावण के पश्चात् पितरों का दिन प्रारम्भ माना जाता है ..  अश्विन कृष्ण पक्ष में पितरों को भोजन कराने का समय नियत है .. 

देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्व है..  देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी है .. 

 श्री स्कन्दमहापुराण  में कहा गया है कि सूर्यदेव के कन्या राशि पर स्थित होनै के पश्चात  आश्विन कृष्णपक्ष (श्राद्धपक्ष या महालय) में पितर अपने वंशजों द्वारा किए जाने वाले श्राद्ध व तर्पण से तृप्ति की इच्छा रखते हैं ..  जो मनुष्य पितरों की मृत्यु तिथि पर श्राद्ध -तर्पण करेंगे, उनके उस श्राद्ध से पितरों को एक वर्ष तक तृप्ति  बनी रहेगी तथा पितरों का आशीर्वाद मिलता है .. 



ब्रह्मपुराण में कहा गया है 

 “आयु: प्रजां धनं विद्यां स्वर्गं मोक्षं सुखानि च , 

प्रयच्छन्ति तथा राज्यं पितर: श्राद्ध तर्पिता .. ”

अर्थात श्राद्ध के द्वारा प्रसन्न हुए पितृगण मनुष्यों को पुत्र,  धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष तथा स्वर्ग आदि प्रदान करते हैं  इस दौरान मांगलिक कार्य, शुभ कार्य, विवाह और विवाह की बात चलाना वर्जित है.. 

श्राद्ध केवल अपराह्न काल में ही करें..  श्राद्ध में तीन वस्तुएं  परम पवित्र हैं- दुहिता पुत्र ( पुत्री का पुत्र ) .. कुतपकाल (दिन का आठवां भाग .. ११. ३६. से १२ बज कर २४ मिनट तक  का समय ) तथा काले तिल ..  श्राद्ध में तीन प्रशंसनीय बातें हैं- बाहर-भीतर की  शुद्धि,  क्रोध नहीं करना तथा जल्दबाजी नहीं करना .. 

 “पद्म पुराण” तथा “मनुस्मृति” के अनुसार श्राद्ध का दिखावा नहीं करें, उसे गुप्त रूप से एकांत में करें ..  धनी होने पर भी इसका विस्तार नही करें तथा भोजन के माध्यम से मित्रता, सामाजिक या व्यापारिक संबंध स्थापित न करें ..  श्राद्ध काल में श्रीमद्भागवत् गीता, पितृसूक्त, ऐन्द्रसूक्त, मधुमति सूक्त आदि का पाठ करना मन, बुद्धि एवं कर्म की शुद्धि के लिए फलप्रद है .. 

.. श्रीमद्भागवत् महात्म्य  के  गोकर्णोपाख्यान की बहुत महत्ता कही गई है .. .. श्राद्धे प्रयुक्ते  पितृ तृप्ति हेतु .. नित्यं सुपाठाद  पुनर्भवं च ... 

विष्णु पुराण में कहा गया है कि श्राद्ध के अवसर पर दिवंगत  पूर्वजों की मृत्यु तिथि को निमंत्रण देकर ब्राह्मण को भोजन, वस्त्र एवं दक्षिणा सहित दान देकर श्राद्ध कर्म करना चाहिए.. 

इस दिन पांच पत्तों पर अलग-अलग भोजन सामग्री रखकर  पंचबलि करें ये हैं- गौ बलि, श्वान बलि, काक बलि, देवादि बलि तथा चींटियों के लिए श्राद्ध में एक हाथ से पिंड तथा आहुति  दें परन्तु तर्पण में दोनों हाथों से जल देना चाहिए .. 

जिस दिन आप के घर में श्राद्ध हो उस दिन गीता का सातवें अध्याय का पाठ करे ..  पाठ करते समय जल भर के रखें ..  पाठ पूरा हो तो जल सूर्य भगवन को अर्घ्य दें और कहें की हमारे पितृ के लिए हम अर्पण करते हैं ..  जिनका श्राद्ध है , उनके लिए आज का गीता पाठ अर्पण .. 

पितृनुद्दिश्य यः श्राद्धे गीतापाठं करोति वै , 

संतुष्टा पितरस्तस्य निरयाद्यान्ति सद्गतिम् .. 

जो मनुष्य श्राद्ध में पितरों को लक्ष्य करके गीता का पाठ करता है उसके पितृ सन्तुष्ट होते हैं और नर्क से सदगति पाते हैं .. 

गीतापाठेन संतुष्टाः पितरः श्राद्धतर्पिताः.. 

पितृलोकं प्रयान्त्येव पुत्राशीर्वादतत्पराः ( श्री गीता माहात्म्य ).. 

.. गया, पुष्कर, प्रयाग और हरिद्वार में श्राद्ध करना श्रेष्ठ माना गया है .. ब्रम्ह कपाली (बद्रीनाथ ).. की महिमा सर्वोपरि है , यहां पिण्ड दान कर लेने के पश्चात कहीं अन्यत्र  तीर्थ में पिण्ड नहीं भरने चाहिये .. 

शिर: कपालं यत्रैतत्पात ब्रम्हण: पुरा 

तत्रैव बदरीक्षेत्रे पिण्डं दातु: प्रभु: पुमान ..

मोहाद गयायां दद्याद: स पितृन् पातयेत् स्वकान ... अर्थात .. गयादि तीर्थों में श्राद्ध सम्पन्न कर लेने के बाद ही अन्त में ब्रम्ह कपाली में श्राद्ध करना चाहिये ..

.. वार्षिक तिथि पर होने वाला सांवत्सरिक श्राद्ध नित्य पितरों के निमित्त होता है जो प्रति वर्ष करना ही चाहिये .. 

.  गौशाला में, देवालय में और नदी तट पर श्राद्ध करना श्रेष्ठ माना गया है .. 

.. सोना, चांदी, तांबा और कांसे के बर्तन में अथवा पलाश के पत्तल में भोजन करना-कराना अति उत्तम माना गया है  .. लोहा, मिटटी आदि के बर्तन काम में नहीं लाने चाहिए .. 

.. श्राद्ध के समय अक्रोध रहना, जल्दबाजी न करना और बड़े लोगों को या बहुत लोगों को श्राद्ध में सम्मिलित नहीं करना चाहिए, नहीं तो इधर-उधर ध्यान बंट जायेगा, तो जिनके प्रति श्राद्ध सद्भावना और सत उद्देश्य से जो श्राद्ध करना चाहिए, वो फिर दिखावे के उद्देश्य में सामान्य कर्म हो जाता है  ..  त्रीणि चात्र प्रशंसन्ति  शौच मक्रोध मत्वराम् .. ( मनुस्मृति ३/२३५ )

.. सफ़ेद सुगन्धित पुष्प श्राद्ध कर्म में काम में लाने चाहिए ,  लाल, काले फूलों का त्याग करना चाहिए ,  अति मादक गंध वाले फूल अथवा सुगंध हीन फूल श्राद्ध कर्म में काम में नहीं लाये जाते हैं  .. 

  किसी कारण वश अगर पंडित से श्राद्ध नहीं करा पाये  तो सूर्य नारायण के आगे अपने बगल खुले करके (दोनों हाथ ऊपर करके) बोलें : .. हे मेरे पितृ गण  इस समय मेरे पास न तो धन है न धान्य है , हाँ मेरे पास आपके लिये श्रद्धा और भक्ति  है , मैं इन्ही के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूं .. आप तृप्त हो जांय  , मैंने शास्त्र की आज्ञा के अनुरूप दोनों भुजाओं को आकाश में उठा रखा है .. 

"हे सूर्य नारायण ! मेरे पिता (नाम), अमुक (नाम) का बेटा, अमुक जाति (नाम), (अगर जाति, कुल, गोत्र नहीं याद तो ब्रह्म गोत्र बोल दे) को आप संतुष्ट/सुखी रखें ..  इस निमित मैं आपको अर्घ्यदान करता हूँ ,  व भोजन कराता हूँ ।" ऐसा करके आप सूर्य भगवान को अर्घ्य दें और भोग लगायें.. 

"नमेऽस्ति वित्तं  न धनं न च नान्य च्छ्राद्धोपयोग्यं स्व पितृन्नतोऽस्मि ..

तृप्यन्तु भक्त्या पितरौ मयेतौ कृतौ भुजौ वर्त्मनि मारुततच्छ्राद्धम् ||.. ( विष्णु पुराण. ३/१४/३०) .. 

नैवं श्राद्धं विवर्जयेत्  (धर्मसिन्धु ) .. श्राद्ध कभी छोड़ें नहीं .. पितरों का स्मरण अवश्य करें .. 

 हो सके तो पितरों का स्मरण करके  आमान्न ( बिना अग्नि पर पका हुआ , कच्चा अन्न , एवम् शाक फल आदि ) .. का संकल्प पूर्वक  ब्राम्हण अथवा  विवाहिता पुत्री को दान करना चाहिये .. 

.. जीवन पर्यन्त  माता पिता की आज्ञा का पालन करना  , उनके श्राद्ध में खूब भोजन करवाना , और  गयादि तीर्थों में पिण्डदान  करने वाले पुत्र का पुत्रत्व. सार्थक होता है .. 

जीवतो वाक्यकरणात्  क्षयाहे भूरि भोजनात् .

गयायां  पिण्डदानाच्च त्रिभिर्पुत्रस्य  पुत्रता.. ( श्रीमद्देवी भागवत् .. ६/४/१५ ) ..

श्राद्ध करने से , देवता , ब्राम्हण, और पितृगणों का पूजन होता है .. जिससे सर्वभूतान्तरात्मा  भगवान विष्णु का पूजन हो जाता है .. 

ये यजन्ति पितृन देवान  ब्राम्हणांश्च हुताशनम सर्व भूतान्तरात्मानं  विष्णुमेव  यजन्ति ते  .. 

मार्कण्डेय पुराण के अन्तर्गत .. रौच्यमन्वन्तर कथा में .. रुचि प्रजापति द्वारा की गई पितृ स्तुति  (  स्तोत्र कमेन्ट में ..  ) .. सम्पूर्ण पितरों को तृप्ति प्रदान करने वाली है .. तीन बार स्वधा देवी के  स्मरण और नामोच्चारण से  पितृ कार्य की पूर्णता हो जाती है .. ॐ स्वधा , स्वधा , स्वधा ..



पुराणोक्त  पितृ -स्तोत्र : .. रुचिरुवाच ..
अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम् 
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम् .. 
इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा
सप्तर्षीणां तथान्येषां तां नमस्यामि कामदान् ..
मन्वादीनां मुनीन्द्राणां सूर्या चन्द्र मसोस्तथा 
तान् नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्सूदधावपि .. 
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा 
द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलिः .. 
देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान् 
अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येऽहं कृतांजलिः .. 
प्रजापते: कश्यपाय सोमाय वरूणाय च 
योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृतांजलिः.. 
नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु 
स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे .. 
सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा 
नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम् .. 
अग्निरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम् 
अग्निषोममयं विश्वं यत एतदशेषतः .. 
ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः 
जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः ..
तेभ्योऽखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः 
नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुजः .. 
.. शरत्काल श्राद्ध के समय इस स्तोत्र का पाठ करने से पितरों को पुष्टि एवम् तृप्ति प्राप्त होती है .. श्री मार्कण्डेय पुराण में इस स्तोत्र का बड़ा माहात्म्य वर्णित  है ..




एक शंका का समाधान ..  . 
अर्यमा नित्य पितर हैं .. नित्य पितर वो होते हैं जो ब्रम्हा जी के शरीर से सीधे पितृ रूप में ही प्रकट होते हैं .. 
काल चक्र के नियन्ता सूर्य नारायण को भी अर्यमा कहा गया है .. 
सूर्य अर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्क: सविता रवि: 
गभस्तिमानजा कालो मृत्युर्धाता प्रभाकर: ..( महाभारत .. सूर्य अष्टोत्तर शतनाम ) 
यह काल चक्र का नियमन करने वाली शक्तियां हैं .. अर्यमा  श्री कृष्ण की विभूति अंश होने से सभी पितरों का प्रतिनिधित्व करते हैं .. नित्य पितर २१  प्रमुख हैं .. जो बिना मृत्यु को प्राप्त हुये ही पितृ पद पर होते हैं .. मरने वाले जीव की कर्मानुसार गति होती है .. जिसके भाग को विश्वेदेव नित्य पितरों के माध्यम से उसी जीव तक पहुंचा देते हैं .. 
यथा गोष्ठे प्रणष्टां वै वत्सो विन्देत मातरम 
तथा तं नयते मन्त्रो जन्तुर्यत्रावतिष्ठते ..(वायु पुराण ...)
जैसे गौशाला में बछड़ा अपनी मां को ढूंढ़ कर पहुंच जाता है .. वैसे ही पितरों को दिये हुये संकल्पित पदार्थ उन तक उसी योनि के अनुरूप पहुंच जाते हैं .. यह कार्य विश्वेदेवों का है .. 
दक्षिणायन में नित्य पितरों का दिन होता है  जो श्रावण से शुरू हो जाता है .. अश्विन कृष्ण पक्ष दिन का पांचवां छठा मुहूर्त  के समान  समय का अंश है  जो भोजन दिये जाने के लिये प्रशस्त है .. इस पक्ष के स्मरण और तर्पण भोजन से पितृ पूरे वर्ष तृप्त रहते हैं ..

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अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम् 

नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम् .. 

इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा

सप्तर्षीणां तथान्येषां तां नमस्यामि कामदान् ..

मन्वादीनां मुनीन्द्राणां सूर्या चन्द्र मसोस्तथा 

तान् नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्सूदधावपि .. 

नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा 

द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलिः .. 

देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान् 

अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येऽहं कृतांजलिः .. 

प्रजापते: कश्यपाय सोमाय वरूणाय च 

योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृतांजलिः.. 

नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु 

स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे .. 

सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा 

नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम् .. 

अग्निरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम् 

अग्निषोममयं विश्वं यत एतदशेषतः .. 

ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः 

जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः ..

तेभ्योऽखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः 

नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुजः .. 

.. शरत्काल श्राद्ध के समय इस स्तोत्र का पाठ करने से पितरों को पुष्टि एवम् तृप्ति प्राप्त होती है .. श्री मार्कण्डेय पुराण में इस स्तोत्र का बड़ा माहात्म्य वर्णित है .. 

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ଭାଗବତ ଜନ୍ମ

 ନୀଳାଚଳ ନିବାସାୟ ନିତ୍ଯାୟ ପରମାତ୍ମନେ। 

ବଳଭଦ୍ର ଶୁଭଦ୍ରାଭ୍ଯାଂ ଜଗନ୍ନାଥାୟତେ ନମଃ। 🙏    

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ll ଭାଗବତ ଜନ୍ମ ll 

       

      ଆଜି ଭାଦ୍ରବ ପୂର୍ଣ୍ଣିମା ତଥା ଭାଗବତ ଜନ୍ମ। ପୌରାଣିକ କଥା ଅନୁସାରେ ମୃତ୍ୟୁ ଭୟରୁ ରାଜା ପରୀକ୍ଷିତଙ୍କୁ ଉଦ୍ଧାର କରିବାକୁ ଶୁକମୁନି ତାଙ୍କୁ ଭଗବାନ ଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣଙ୍କର ଯେଉଁ ଅମୃତ ଆଖ୍ୟାନ ସାତଦିନ ଧରି ଶୁଣାଇଥିଲେ ତାହା ହେଉଛି " ଶ୍ରୀମଦ୍‌ଭାଗବତ " ।  ବ୍ୟାଖ୍ୟାକାରମାନଙ୍କ କଥନରେ ଏବଂ ଲୋକ ପରମ୍ପରାରେ ପ୍ରଚଳିତ ଅଛି, ଯେ ରାଜା ପରୀକ୍ଷିତଙ୍କୁ ଶୁକମୁନି ଭାଦ୍ରବ ଶୁକ୍ଳ ନବମୀ ଦିନ ଭଗବାନଙ୍କର ସେହି ଅମୃତ ଆଖ୍ୟାନ ଶୁଣାଇବା ଆରମ୍ଭ କରିଥିଲେ ଏବଂ ତାହା ଭାଦ୍ରବ ପୂର୍ଣ୍ଣିମା ଦିନ ସଂପୂର୍ଣ୍ଣ ହୋଇଥିଲା। ସେଇଥିପାଇଁ ସମ୍ଭବତଃ, ଭାଦ୍ରବ ପୂର୍ଣ୍ଣମୀ ଭାଗବତ ଜନ୍ମର ପୁଣ୍ୟ ତିଥି ରୂପେ ପାଳିତ ହୋଇ ଆସୁଛି।


             ଶ୍ରୀମଦ ଭାଗବତ ଭଗବାନଙ୍କ ମୁଖ ନିସୃତବାଣୀ  ଭାବରେ ସର୍ବଜନ ସ୍ଵୀକୃତ। ଭାଗବତ ପାଠ କଲେ ସମସ୍ତ ପାପ ତାପ ଦୂର ହୋଇଥାଏ।ଭାଗବତରେ ଭଗବାନଙ୍କ ଲୀଳା , ରୂପ , ଧାମ ଓ ମାହାତ୍ମ୍ୟ ଆଦିର ବର୍ଣ୍ଣନା ରହିଛି ।  ଭଗବାନ ଅନେକ ରୂପ ଧାରଣ କରି ନାନା ପ୍ରକାର ଲୀଳା କରନ୍ତି। ଭାଗବତ କଥା ଶ୍ରବଣରେ ସମସ୍ତ ପ୍ରକାର ଅଶୁଭ ତଥା ଯାବତୀୟ ଦୁଃଖ ତଥା ବହୁବିଧ ବିଘ୍ନ ଦୂର ହୋଇଥାଏ। ମହର୍ଷି ବ୍ୟାସଦେବ କୃତ ଶ୍ରୀମଦ୍ ଭାଗବତ ସଂସ୍କୃତଭାଷାରେ ଧର୍ମୋପନିଷେଦ ମଧ୍ୟରେ ଏକ ସର୍ବୋକଷ୍ଟ ପରିଣତି l ଏହାର ଆଧ୍ୟାତ୍ମିକ ଓ କାବ୍ୟିକ ମୂଲ୍ୟବୋଧ ତଥା ଏଥିରେ ବର୍ଣ୍ଣିତ ସାଧନା  ଭକ୍ତି , ଜ୍ଞାନ , ବୌରାଗ୍ୟ , ସମାଜ ଗଠନ ପ୍ରଣାଳୀ  ପ୍ରଭୃତି ସମଗ୍ର ବିଶ୍ଵ ପାଇଁ ଅତ୍ୟନ୍ତ ଉପାଦେୟ। ଏହା କହିଲେ ଆଦୌଭୁଲ ହେବ ନାହିଁ ଯେ , ମାନବର ପରମ କଳ୍ୟାଣ ନିମନ୍ତେ କୃଷ୍ଣ ଦ୍ଵୌପାୟନ ବ୍ୟାସଦେବ ଉକ୍ତ ଗ୍ରନ୍ଥ ରଚନା କରିଥିଲେ।  ଏହି ଦୃଷ୍ଟିରୁ ଶ୍ରୀମଦ ଭାଗବତ ଗ୍ରନ୍ଥ ସାକ୍ଷାତ ଭଗବାନଙ୍କର ପରମ ମଙ୍ଗଳମୟ ମୂର୍ତ୍ତି ବୋଲି କୁହାଯାଇଥାଏ । ଭାଗବତ ରଚନା ସମ୍ପର୍କରେ କୁହାଯାଇଛି  ଦିନେ ବ୍ୟାସଦେବ ଅନ୍ୟମନସ୍କ ଭାବରେ ବସିଥିବା ବେଳେ ତାଙ୍କ ପାଖରେ ପହଞ୍ଚିଥିଲେ ନାରଦ ମୁନି। ନାରଦ ମୁନି ବ୍ୟାସଦେବଙ୍କ ମୁହଁକୁ ଦେଖି ପଚାରିଥିଲେ  ତୁମ ମୁହଁ ଦେଖିଲେ ମନେ ହେଉଛି ତୁମେ ଯେଭଳି ଦୁଖରେ ଅଛ ? ତୁମ ଭଳି ମହାନ ଜ୍ଞାନି , ଗୁଣୀ, ପଣ୍ଡିତ , ରୁଷିବରଙ୍କର ପୁଣି ମନଦୁଖ କାହିଁକି ? ବେଦ , ପୁରାଣ ମହାଭାରତ ଭଳି ମହାନ ଗ୍ରନ୍ଥ ଯିଏ ରଚନା କରିଛନ୍ତି  ତାଙ୍କଠାରୁ ଆଉ କିଏ ମହାନ ଅଛନ୍ତି ?ସେତେବେଳେ ନାରଦ ମୁନିଙ୍କ କଥା ଶୁଣି ବ୍ୟାସଦେବ କହିଛନ୍ତି ।  ହଁ ମୁନିବର ତୁମ କଥାଅନୁସାରେ ମୁଁ ବୋହୁତ କିଛି ରଚନା କରିସାରିଛି ।  କିନ୍ତୁ କାହିଁକି କେଜାଣି ମୋ ମନରେ ଅବସୋସ ରହିଯାଇଛି। ଆହୁରି କିଛି ରଚନା କରିବା ପାଇଁ , ଯଦିଓ ମୁଁ ବେଦ , ମହାଭାରତ ଇତ୍ୟାଦି ରଚନା କରିଛି କିନ୍ତୁ ମୁଁ ଚାହୁଁଛି ଏଭଳି ଏକ ଗ୍ରନ୍ଥ ରଚନା କରିବା ପାଇଁ ଯାହାକୁ ସାଧାରଣ ଲୋକମାନେ ପଢିପାରିବେ , ବୁଝିପାରିବେ ଏବଂ କୃଷ୍ଣଙ୍କର ଗୁଣ ଗାନ କରି ସୁଖରେ ରହିପାରିବେ ।  ସେତେବେଳେ ନାରଦ ମୁନି ଓ ବ୍ୟାସଦେବ ଉଭୟଙ୍କ ଆଲୋଚନାରେ ସ୍ଥିର ହେଲା ଭାଗବତ ନାମକ ମହାନ ଗ୍ରନ୍ଥ ରଚନାର କଥା।  ତାପରେ ବ୍ୟାସଦେବ ଆରମ୍ଭ କରିଥିଲେ ଭାଗବତ  ରଚନା ଏବଂ ତାକୁ ଖୁବ ଶୀଘ୍ର ସାରିଥିଲେ ମଧ୍ୟ। ଭାଗବତ ମାହାପୁରାଣରେ ଜନ୍ମମୃତ୍ୟୁ କଥା କାହା ଯାଇଛି ।  ଜନ୍ମମୃତ୍ୟୁ ଚକ୍ରରୁ ମୁକ୍ତି ପାଇବାକୁ ନିର୍ବାଣ , ମୋକ୍ଷ ବା ସ୍ଵର୍ଗପ୍ରାପ୍ତି କୁହାଯାଏ। ଭାଗବତ ମହାପୁରାଣରେ ସୁନ୍ଦର ଭାବରେ ବର୍ଣ୍ଣିତ ହୋଇଛି ଯେ ଚଉରାଶି ଲକ୍ଷ ଯୋନି  ଅତିକ୍ରମ କରିବା ପରେ ଦୁର୍ଲ୍ଲଭ ମନୁଷ୍ୟ ଜନ୍ମ ମିଳିଥାଏ।  ଯଥା - 


       ନଅ ଲକ୍ଷ ପ୍ରକାର ଜଳ ଜୀବ 

       କୋଡିଏ ଲକ୍ଷ ପ୍ରକାର ବୃକ୍ଷ

       ଏଗାର ଲକ୍ଷ ପ୍ରକାର କୃମି କୀଟ 

      ଦଶ ଲକ୍ଷ ପ୍ରକାର ପକ୍ଷୀ 

      ତିରିଶ ଲକ୍ଷ ପ୍ରକାର ପଶୁ 

      ଚାରି ଲକ୍ଷ ପ୍ରକାର ମନୁଷ୍ୟ ଯୋନି 


     ଭାଗବତ ଶବ୍ଦ ର ଅର୍ଥ ଅନୁସାରେ " ଭା " ର ଅର୍ଥ ଭାବ " ଗ " ର ଅର୍ଥ ଜ୍ଞାନ " ବ " ର ଅର୍ଥ ବୌରାଗ୍ୟ ଏବଂ "  ତ " ର ଅର୍ଥ ତତ୍ତ୍ଵ କିନ୍ତୁ ବ୍ୟାକରଣ ସୂତ୍ରାନୁସାରେ  ଭାଗବତ କୃତଂ  ଭାଗବତମ୍ , ଅର୍ଥାତ୍ ଯାହା ଭଗବାନଙ୍କ କୃତ ତାହାହିଁ  ଭାଗବତ।  ଏହି ଭାଗବତ ରେ ଭଗବାନ ଙ୍କ କିର୍ତ୍ତି ଏବଂ ମାହାତ୍ମ୍ୟ ବର୍ଣ୍ଣିତ ।  ଭାଗବତ ରୂପୀ କଳ୍ପ ବୃକ୍ଷ୍ୟର ମଞ୍ଜ ହେଉଛନ୍ତି ପରମାତ୍ମା ନିଜେ ଭକ୍ତି ହେଉଛି ମନ୍ଦା ଓଁକାର ହେଉଛି ଅଙ୍କୁର ।  ଏହା ବାର ସ୍କନ୍ଦ ରେ ବିଦ୍ୟମାନ ।   ଏହି ବୃକ୍ଷ୍ୟ ର ଶାଖା ପ୍ରଶାଖା ର ସଂଖ୍ୟା ହେଲା  ୩୩୨ ଯାହାକି ଭାଗବତ ର ସମୁଦାୟ ଅଧ୍ୟାୟ ସଂଖ୍ୟାର ସମଷ୍ଟି।  ଏହି ବୃକ୍ଷର ପତ୍ର ମାନଙ୍କର ସଂଖ୍ୟା ହେଉଛି ୧୮୦୦୦ ଯାହାକି ଭାଗବତ ର ସମସ୍ତ ଶ୍ଲୋକମାନଙ୍କର ସମଷ୍ଟି ଭାଗବତ କୁ ପ୍ରତ୍ୟକ୍ଷ୍ୟ ଭାବରେ ଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣଙ୍କ ସହିତ ତୁଳନା କରାଯାଇଛି ।   ଭାଗବତ ର ପ୍ରଥମ ଓ ଦ୍ଵିତୀୟ ସ୍କନ୍ଦ ଭଗବାନଙ୍କର ଦୁଇ ଚରଣାର ବିନ୍ଦ । ତୃତୀୟ ଏବଂ ଚତୁର୍ଥ ସ୍କନ୍ଦ ଯଥାର୍ଥ  ପ୍ରଭୁଙ୍କର ଦୁଇ ଭାନୁ।  ପଞ୍ଚମ ସ୍କନ୍ଦ  ହେଉଛି ନାଭି ଦେଶ ।   ଷଷ୍ଟ ସ୍କନ୍ଦ ଭଗବାନଙ୍କର ବକ୍ଷ ସ୍ଥଳ ।  ସପ୍ତମ ଓ ଅଷ୍ଟମ ସ୍କନ୍ଦ ହେଉଛି ଦୁଇ ଭୁଜ ।  ନବମ ସ୍କନ୍ଦ ହେଉଛି ପ୍ରଭୁଙ୍କର କଣ୍ଠ ଦେଶ ।  ଦଶମ ସ୍କନ୍ଦ ହେଉଛି ଶ୍ରୀ ଗଙ୍ଗା ଅଧର ଯୁକ୍ତ ମୁଖ ମଣ୍ଡଳ। ଏକାଦଶ ସ୍କନ୍ଦ ହେଉଛି ଲାଲ ଦେଶ ବା ଲଲାଟ । ଦ୍ଵାଦଶ ସ୍କନ୍ଦ ହେଉଛି ଭଗବାନଙ୍କର ମସ୍ତକ। ଏହି ମାହାନ ଗ୍ରନ୍ଥ ମହିମା ବିଷୟରେ ଯେତେଯାହା କହିଲେ କମ ହେବ। ଷୋଡଶ ଶତାବ୍ଦୀରେ ଯେଉଁ ମହାମନିଷୀମାନେ ଶ୍ରୀମଦ ଭାଗବତକୁ ଆଧାରକରି ପ୍ରାନ୍ତୀୟ ଭାଷାରେ ନିଜନିଜ ଭକ୍ତିପୂର୍ଣ୍ଣ କୃତିସମୂହ ଦ୍ଵାରା ସମାଜରେ ଭକ୍ତିଧାରା ସୃଷ୍ଟି କରିବାରେ ମହାନ କାର୍ଯ୍ୟ କରିଛନ୍ତି ସେମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ଓଡିଶାର ମାହାନ ସନ୍ଥ ଅତିବଡୀ ଜଗନ୍ନାଥ ଦାସ ଅନ୍ୟତମ। ତାଙ୍କ ପ୍ରଣୀତ ଓଡିଆ ଭାଗବତ ଉତ୍କଳୀୟ  ଜନଜୀବନ ଓ ଉତ୍କଳୀୟ ସଂସ୍କୃତିର ଏକ ବଳିଷ୍ଠ ଅଙ୍ଗ ପାଲଟି ଯାଇଛି । 

        ଇତିହାସ କହେ  ବ୍ୟାସଦେବ ରଚିତ ସଂସ୍କୃତ ଭାଗବତ ଓଡ଼ିଆ ଭାଷାଭାଷୀଙ୍କ ନିକଟରେ ଆଦୃତ ହୋଇପାରିନଥିଲା । ଜଗନ୍ନାଥ ଦାସଙ୍କ ପିତା ଭଗବାନ ଦାସ ବଡ଼ଦେଉଳରେ ପୁରାଣପଣ୍ଡା ଥିଲେ । ତାଙ୍କ ପରେ ଜଗନ୍ନାଥ ଦାସ ପୁରାଣପଣ୍ଡା ହେଲେ । ସେ ସଂସ୍କୃତ ଭାଗବତକୁ ସରଳଭାଷାରେ ବୁଝାଇ ଦେଉଥିଲେ । ଜଗନ୍ନାଥଙ୍କ ବୋଉ ଓଡ଼ିଆ ଭାଷାରେ ପଦ୍ୟରୂପରେ ଶୁଣିବା ପାଇଁ ପୁଅକୁ ନିର୍ଦ୍ଦେଶ ଦିଅନ୍ତି । ବିଧବା ମା’ ବାର୍ଦ୍ଧକ୍ୟର ପୁଣ୍ୟ ସଞ୍ଚୟ ଆଶାରେ କୃଷ୍ଣଚରିତ ଶୁଣିବାକୁ ଆଶାୟୀ ହେବାରୁ ଜଗନ୍ନାଥ ଦାସ ଜନନୀର ଅଭିଳାଷ ପୂରଣ ନିମନ୍ତେ ଅଧ୍ୟାୟେ ଅଧ୍ୟାୟେ ପଦ୍ୟାନୁବାଦ ଶୁଣାଇବାକୁ ଲାଗିଲେ । ସେହି ପଦ୍ୟାନୁବାଦ ଭାଗବତ ଗ୍ରନ୍ଥର ରୂପ ନେଲା । ସେ ଓଡ଼ିଆ ଭାଷାରେ ନବାକ୍ଷରୀ ଛନ୍ଦରେ ଏହାର ଭାବାନୁବାଦ କରିଥିଲେ । ଜଗନ୍ନାଥଙ୍କ ମନ୍ଦିର ବେଢ଼ାରେ ନିତି ଭାଗବତ ପାଠ ହୁଏ ଓ ଭକ୍ତଗଣ ଶୁଣିବାକୁ ଆସନ୍ତି । ଓଡିଶାର ପୁରପଲ୍ଲୀରେ ତଥା ଘରେ ଘରେ ପୂଜା ଏହାର ଲୋକପ୍ରିୟତା ସର୍ବଜନୀତ।  ଓଡିଶାର ଜନମାନସ ତଥା ଧର୍ମପ୍ରାଣ ଶ୍ରାଦ୍ଦାଳୁ ଏହି ଗ୍ରନ୍ଥକୁ ସ୍ଵୟଂ ଭଗବାନଙ୍କ ବିଗ୍ରହ ମନେକରି ଆଜି ମଧ୍ୟ ଘରେ ଘରେ ପୂଜା କରୁଛନ୍ତି ।  ଏହା ହିଁ ଉକ୍ତ ଗ୍ରନ୍ଥ ର ମହାନାତା ର ପ୍ରମାଣ । ଭଗବତରେ ଅତିବଡୀ ଜଗନ୍ନାଥ ଦାସ ମନୁଷ୍ୟ ଜନ୍ମକୁ ପ୍ରଶଂସା କରିଅଛନ୍ତି ଯଥା - 


        ଅନେକ ଜନ୍ମ ତପ ଫଳେ

        ମନୁଷ୍ୟ ଜନ୍ମ ମହୀତଳେ

        ଦୁର୍ଲ୍ଲଭ ମନୁଷ୍ୟ ଜନମ 

       ପାଇ କିମ୍ପାଇ ହେଉ ଭ୍ରମ

        ସର୍ବ ଶରୀର ମଧ୍ୟେ ସାର 

       ଦୁର୍ଲ୍ଲଭ ନର କଳେବର 

       ଦୁର୍ଲ୍ଲଭ ମନୁଷ୍ୟ ଶରୀର 

       ନରକ ନିସ୍ତାରଣ ଦ୍ଵାର 

  


        ଜଗନ୍ନାଥଙ୍କର ଷୋଳକଳା ମଧ୍ୟରୁ ଶ୍ରୀ କୃଷ୍ଣ ଏକ କଳାରେ ଅବତାରୀ ହୋଇଛନ୍ତି ।  ସେହି ଗୋଟିଏ କଳାକୁ ପୁଣି ଷୋହଳ କଳା କରି ତହିଁରୁ ଏକ କଳା ଅର୍ଜୁନକୁ ପ୍ରଦାନ କରିଛନ୍ତି ଏବଂ ପନ୍ଦର କଳା ଘେନି ନିଜେ ଗୋପ ମଥୁରା ତଥା ଦ୍ଵାରିକାଦି କ୍ଷେତ୍ରରେ ଚିରନ୍ତନ ଲୀଳାମାନ ସମ୍ପର୍ଣ୍ଣ କରିଛନ୍ତି । ଜଗନ୍ନାଥ ଦାସଙ୍କ କୃତ ଓଡ଼ିଆ ଭାଗବତ ବାର ସ୍କନ୍ଧରେ ବିଭକ୍ତ ଏବଂ ପ୍ରତି ସ୍କନ୍ଧ ଦଶରୁ ତିରିଶଟି ଅଧ୍ୟାୟ ବିଭକ୍ତ ହୋଇ ଏଭଳି ରଚିତ ଯେ, ପ୍ରତିଦିନ ଗୋଟିଏ ଗୋଟିଏ ଅଧ୍ୟାୟ ପାଠ କଲେ ଏହା ଠିକ ଏକ ବର୍ଷ ବା ୩୬୫ ଦିନରେ ସମାପ୍ତ ହେବ ।  ଭାଗବତ ପ୍ରତି ଓଡ଼ିଆ ଘରେ ସନ୍ତାନ ଜନ୍ମ ହେବା ଏନ୍ତୁଡ଼ିଶାଳରେ, ମୁମୂର୍ଷର ଶେଯ ପାଖରେ ପଢ଼ାଯାଏ । ଆଗରୁ ବସନ୍ତ, ମହାମାରୀ, ହଇଜା ଓ ଗ୍ରାମର ଅନିଷ୍ଟ ଆଶଙ୍କା ଭୟରେ ଭାଗବତ ପାଠ କରାଯାଉଥିଲା । ଜଗନ୍ନାଥ ଦାସଙ୍କ ଭାଗବତରେ ମୂଳ ସଂସ୍କୃତ ଭାଗବତର ମଙ୍ଗଳାଚରଣ ସ୍ଥାନ ପାଇବା ଦେଖିବାକୁ ମିଳେ । 


ll ମଙ୍ଗଳାଚରଣ ll :- 


ବାଗୀଶା ଯସ୍ୟ ବଦନେ ଲକ୍ଷ୍ମୀର୍ଯସ୍ୟ ଚ ବକ୍ଷସି ।

ଯସ୍ୟାସ୍ତେ ହୃଦୟେ ସଂବିତ୍ ତଂ ନୃସିଂହମହଂ ଭଜେ || ୧ ||


ଭାବାର୍ଥ:- ଯାହାଙ୍କ ମୁଖରେ ସରସ୍ୱତୀ, ବକ୍ଷସ୍ଥଳରେ ଲକ୍ଷ୍ମୀ ଏବଂ ହୃଦୟରେ ଜ୍ଞାନ ବିରାଜମାନ, ସେହି ନୃସିଂହ ଭଗବାନଙ୍କୁ ମୁଁ ବନ୍ଦନା କରୁଛି ।


ବିଶ୍ୱସର୍ଗବିସର୍ଗାଦିନବଲକ୍ଷଣଲକ୍ଷିତମ୍

ଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣାଖ୍ୟଂ ପରଂଧାମ ଜଗଦ୍ଧାମ ନମାମ ତତ୍ || ୨ ||


      ବିଶ୍ୱର ସର୍ଗ, ବିସର୍ଗ ଆଦି ନବଲକ୍ଷଣ (ସର୍ଗ, ବିସର୍ଗ, ସ୍ଥାନ, ପୋଷଣ, ଉତି, ମନ୍ୱନ୍ତର, ଈଶାନୁକଥା, ନିରୋଧ ଓ ମୁକ୍ତି)ଦ୍ୱାରା ଲକ୍ଷିତ, ସମଗ୍ର ଜଗତର ପରମ ଆଶ୍ରୟ ତଥା ବିଶ୍ୱର ଅନ୍ଧକାର ବିନାଶକାରୀ ପରମ ତେଜୋମୟ ଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣଙ୍କ ସାକ୍ଷାତ୍ ସ୍ୱରୂପ ଶ୍ରୀମଦଭାଗବତକୁ ଆମ୍ଭେମାନେ ନମସ୍କାର କରୁଛୁ ।


ମାଧବୋମାଧବାବୀଶୌ ସର୍ବସିଦ୍ଧି ବିଧାୟିନୌ ।

ବନ୍ଦେ ପରସ୍ପରାତ୍ମାନୌ ପରସ୍ପରନୁତିପ୍ରିୟୋ ।। ୩ ||


               ସର୍ବସିଦ୍ଧି ପ୍ରଦାୟକ, ପରସ୍ପର ଏକାତ୍ମରୂପ ଏବଂ ପରସ୍ପରର ସ୍ତୁତିରେ ପ୍ରସନ୍ନ ହେଉଥିବା ମାଧବ (ଲକ୍ଷ୍ମୀପତି ବିଷ୍ଣୁ) ଓ ଉମାଧବଙ୍କୁ (ଉମାପତି ଶିବଙ୍କୁ) ଆମ୍ଭେ ବନ୍ଦନା କରୁଛୁ ।


ମୂକଂ କରୋତି ବାଚାଳଂ ପଙ୍ଗୁଂ ଲଙ୍ଘୟତେ ଗିରିମ୍ ।

ଯତ୍ କୃପା ତମହଂ ବନ୍ଦେ ପରମାନନ୍ଦମାଧବମ୍ | ୪ ||


                 ଯାହାଙ୍କ କୃପା ମୂକକୁ ବାଗ୍ମୀ କରିଦେଇପାରେ, ପଙ୍ଗୁକୁ ଗିରି ଲଂଘନ କରାଇ ଦେଇପାରେ, ସେହି ପରମାନନ୍ଦ ମାଧବଙ୍କୁ ମୁଁ ବନ୍ଦନା କରୁଛି ।


ଯଂ ବ୍ରହ୍ମାବରୁଣେନ୍ଦ୍ରରୁଦ୍ରମରୁତଃ ସ୍ତୁନ୍ୱନ୍ତି ଦିବୈଃ ସ୍ତବୈ-

ର୍ବେଦୈଃ ସାଙ୍ଗପଦକ୍ରମୋପନିଷଦୈଗାୟନ୍ତି ଯଂ ସାମଗାଃ ।

ଧ୍ୟାନାବତ୍ସିତଦ୍‌ଗତେନ ମନସା ପଶଂନ୍ତି ଯଂ ଯୋଗିନୋ

ଯସ୍ୟାନ୍ତଂ ନ ବିଦୁଃ ସୁରାସୁରଗଣା ଦେବାୟ ତସ୍ମୈ ନମଃ || ୫ ||


        ଯାହାଙ୍କୁ ବ୍ରହ୍ମା, ବରୁଣ, ଇନ୍ଦ୍ର, ରୁଦ୍ର, ମରୁତ ପ୍ରଭୃତି ଦିବ୍ୟ ସ୍ତୋତ୍ରଦ୍ୱାରା ସ୍ତୁତି କରନ୍ତି; ଯାହାଙ୍କ ମହିମା ସାମବେଦ ଗାୟନକାରୀମାନେ ପଦକ୍ରମାନୁସାରେ ବେଦ ଉପନିଷଦ ପ୍ରଭୃତିଦ୍ୱାରା ଗାନ କରନ୍ତି; ଧ୍ୟାନାଭିଭୂତ ମନ ମଧ୍ୟରେ ଯୋଗୀମାନେ ଯାହାଙ୍କୁ ଦର୍ଶନ କରନ୍ତି ଏବଂ ଦେବ ଦାନବଗଣ ଯାହାଙ୍କର ଅନ୍ତ ପାଇ ପାରନ୍ତି ନାହିଁ, ସେହି ଦେବଙ୍କୁ ମୁଁ ନମସ୍କାର କରୁଛି ।


ନାରାୟଣଂ ନମସ୍କୃତ୍ଂୟ ନରଂ ଚୈବ ନରୋତ୍ତମମ୍ ।

ଦେବୀଂ ସରସ୍ୱତୀଂ ବ୍ୟାସଂ ତତୋ ଜୟମୁଦୀରୟେତ୍ || ୬ ||


           ଭଗବାନ ନାରାୟଣ, ନରୋତ୍ତମ ନର, ଦେବୀ ସରସ୍ୱତୀ ଓ ମହର୍ଷି ବ୍ୟାସଦେବଙ୍କୁ ନମସ୍କାର କରି ସଂସାର ଓ ଅନ୍ତଃକରଣର ନାନାବିଧ ବିକାର ଉପରେ ବିଜୟ ପ୍ରଦାନ କରାଉଥିବା ଏହି ଶ୍ରୀମଦଭାଗବତ ମହାପୁରାଣକୁ ପାଠ କରିବା ଉଚିତ।


“ ଗୋବିନ୍ଦ ଗୋବିନ୍ଦ ଗୋବିନ୍ଦ ।

ପଦୁ ଗଡ଼ୁଛି ମକରନ୍ଦ ॥

ସେ ମକରନ୍ଦ ପାନ କରି ।

ହେଳେ ତରିଲେ ବ୍ରଜନାରୀ ॥

ସେ ବ୍ରଜନାରୀଙ୍କ ପୟରେ ।

ମନ ମୋ ରହୁ ନିରନ୍ତରେ ॥

ମନ ମୋ ନିରନ୍ତରେ ଥାଉ ।

ହା କୃଷ୍ଣ ବୋଲି ଜୀବ ଯାଉ ॥

—ଜଗନ୍ନାଥ ଦାସ, ଭାଗବତ ବାଣୀ


   ଆଜି ସେହି ମହାନ ତଥା ପବିତ୍ର ଗ୍ରନ୍ଥର ଜନ୍ମଦିନ। ଓଡିଆ ପୁରପଲ୍ଲିରେ ଏହା ଭାଗବତ ଜନ୍ମ ଭାବେ ବେଶ ପ୍ରସିଦ୍ଧ। ଏହି ଅବସରରେ ଆମେମାନେ ପ୍ରତ୍ୟହ ଓଡିଆ ଭାଗବତ ପଢିବାରେ ବ୍ରତୀ ହେବା।


ଓଁ ନମୋ ଭଗବତେ ବାସୁଦେବାୟ 🙏

गुरुवार, 28 सितंबर 2023

ଅବଧୂତଙ୍କର ୨୪ ଗୁରୁ ଙ୍କ ଠାରୁ ଶିକ୍ଷା

 💥🌺💥 * ଅବଧୂତଙ୍କର ୨୪ ଗୁରୁ ଙ୍କ ଠାରୁ ଶିକ୍ଷା * 💥🌺💥


ଓଁ

ଗୁରୁଦେବାୟ ବିଦ୍ମହେ, ପରଂବ୍ରହ୍ମାୟ ଧିମାହୀ,ତନ୍ନୋ ଗୁରୁ ପ୍ରଚୋଦୟାତ 🙏


ଓଁ 

ବସୁଦେବଂ ସୁତଂ ଦେବଂ କଂସ ଚାଣୁର ମର୍ଦ୍ଦନଂ

ଦେବକୀ ପରମାନନ୍ଦଂ କୃଷ୍ଣମ୍ ବନ୍ଦେ ଜଗତଗୁରୁମ୍ 🙏


ଓଁ

ମନ୍ନାଥଃ ଶ୍ରୀ ଜଗନ୍ନାଥ ମଦ୍ ଗୁରୁ ଶ୍ରୀ ଜଗତଗୁରୁ। 

ମଦାତ୍ମା ସର୍ବଭୁତାତ୍ମା ତଶ୍ମୈଶ୍ରୀ ଗୁରବେ ନମଃ।। 🙏

 

ମନୁଷ୍ୟ ଜୀବନରେ ତିନି ଜଣକ ଭୂମିକା ଅତ୍ୟନ୍ତ ମହତ୍ତ୍ଵପୂର୍ଣ୍ଣ । ଜଣେ ହେଲେ ଜନ୍ମଦାତ୍ରୀ ମା’ । ଦ୍ଵିତୀୟ ଜଣକ ପାଳନହାରୀ ପିତା । ଆଉ ତୃତୀୟ ଜଣକ ହେଲେ #ଗୁରୁ ।

         ଯିଏ ଆମକୁ ଅଜ୍ଞାନ ରୂପକ ଅନ୍ଧକାରରୁ ଜ୍ଞାନ ରୂପକ ଆଲୋକ ଦିଗକୁ ପଥ ପ୍ରଦର୍ଶନ କରନ୍ତି । 🙏


 ଶ୍ରୀମଦ ଭାଗବତମ୍ ରେ ଏକାଦଶ ସ୍କନ୍ଧରେ ଅବଧୂତ ବା ଦତ୍ତାତ୍ରେୟ ମୁନୀଙ୍କର ୨୪ ଜଣ ଗୁରୁ ଥିବାର ଉଲ୍ଲେଖ ରହିଛି । 


ମହାମୁନି ଦତ୍ତାତ୍ରେୟ ଙ୍କର ବାର୍ତ୍ତା ନୁସାରେ ସୃଷ୍ଟି ରେ ସଭିଙ୍କ ଠାରୁ ଆମେ କିଛି ନା କିଛି ଶିକ୍ଷା ଲାଭ କରିପାରିବା । ଶ୍ରୀମଦ୍ ଭାଗବତମ୍ ଅନୁସାରେ ୨୪ ଜଣ ଗୁରୁଙ୍କ ଠାରୁ ମହାମୁନି ଅବଧୂତ କିଛି ନା କିଛି ଜ୍ଞାନ ଆହରଣ କରିଥିଲେ । ତେବେ ଆସନ୍ତୁ ଆଜିର ଏହି ପବିତ୍ର ଦିବସ ରେ ଏହି ୨୪ ଜଣ ଗୁରୁଙ୍କ ବିଷୟରେ ପୁନଃ ମନେ 

ପକେଇବା 🙏


୧-#ପୃଥିବୀ –ପୃଥିବୀ ନାନାବିଧ ଅତ୍ୟାଚାରର ସମ୍ମୁଖୀନ ହେଇଥାଏ। ହେଲେ ସେ ସବୁ କିଛି ସହି ନିଏ । ଏଣୁ ପୃଥିବୀ ଆମକୁ ଧୈର୍ଯ୍ୟ, ତ୍ୟାଗ, କ୍ଷମା ଓ ପରୋପକାରର ଶିକ୍ଷା ଦିଏ । 


୨-#ବାୟୁ- ବାୟୁର ନିଜସ୍ଵ ଗନ୍ଧ କିଛି ନ ଥାଏ । ସୁଗନ୍ଧ ସହ ମିଶିଲେ ସେ ସୁଗନ୍ଧିତ ହୁଏ ଆଉ ଦୁର୍ଗନ୍ଧ ସହ ମିଶିଲେ ଦୁର୍ଗନ୍ଧିତ ହୁଏ । ପୁଣି ତାଙ୍କ ଠାରୁ ଅଲଗା ହେଲେ ନିଜର ଗୁଣ ପ୍ରକଟ କରେ । ଏଣୁ ବାୟୁ ଆମକୁ ଅନାସକ୍ତ ହେବା ପାଇଁ ଶିକ୍ଷା ଦିଏ । 


୩-#ଜଳ -ଜଳ ଅନ୍ୟର ତୃଷା ମେଣ୍ଟାଇ ଥାଏ । ହେଲେ ସେ ତାର ଏଇ ଗୁଣ ପାଇଁ କେବେ ଗର୍ବ କରେନା ବରଂ ନମ୍ର ହେଇ ତଳକୁ ବହିଯାଏ । ତେଣୁ ଜଳ ଆମକୁ ନିରହଂକାର ଓ ନମ୍ର ଭାବ ଶିଖାଏ । 


୪-#ଅଗ୍ନି-ଅଗ୍ନିର କୌଣସି ଆକାର ନଥାଏ । ସେ ସବୁବେଳେ ଦହନ କରୁଥିବା ବସ୍ତୁର ଆକାର ଧାରଣ କରିଥାଏ । ସେ ସବୁ ଭକ୍ଷଣ କରୁଥିଲେ ସୁଦ୍ଧା ନିଜେ ଶୁଦ୍ଧ ରହିଥାଏ । ଅଗ୍ନି ସବୁ ବସ୍ତୁକୁ ଅଙ୍ଗାରରେ ପରିଣତ କରେ । ତେଣୁ ଏଥିରୁ ଏଇ ଶିକ୍ଷା ମିଳୁଛି କି ମଣିଷ ଯାହା ବି କରୁ ନିଜକୁ ସବୁବେଳେ ଶୁଦ୍ଧପୂତ ରଖିବା ଦରକାର । ସଂସାରର ମାୟାରେ ନ ପଡି ତା’ର ମୂଳ ସ୍ୱରୂପକୁ ଜାଣିବା ଦରକାର । 


୫-#ଆକାଶ-ଆକାଶ ଯେପରି ସର୍ବବ୍ୟାପି ସେଇପରି ମଣିଷ ନିଜକୁ ପରିବ୍ୟାପ୍ତ କରିବା ଆବଶ୍ୟକ । କେଉଁ ଏକ ନିର୍ଦ୍ଦିଷ୍ଟ ସ୍ଥାନରେ ବାନ୍ଧି ନ ହୋଇ ସାରା ଜଗତର କଲ୍ୟାଣ କରିବା ଆବଶ୍ୟକ । ଏଇ କଥା ଆକାଶ ଆମକୁ ଶିଖାଏ । 


୬-#ଚନ୍ଦ୍ରମା - ଚନ୍ଦ୍ରମା ବଢିବା ବା କମିବା ପରି ପ୍ରତୀତ ହେଲେ ମଧ୍ୟ ତାହା ପ୍ରକୃତରେ ଅକ୍ଷୟ ରହିଥାଏ। ସେହିପରି ଶରୀର କ୍ଷୀଣ ହେଲେ ବି ଅନୁଭବ ଅକ୍ଷୟ ରହିଥାଏ । ଚନ୍ଦ୍ରମାର ନିଜସ୍ୱ ଆଲୋକ ନ ଥାଏ, ଠିକ୍ ସେମିତି ମଣିଷର ମନ ଓ ଶରୀରର ନିଜସ୍ୱ ଶକ୍ତି ନ ଥାଏ, ଏମାନେ ଆତ୍ମାର ଶକ୍ତିରେ ବଳିୟାନ । ତେଣୁ ଚନ୍ଦ୍ରମା ଠାରୁ ଅକ୍ଷୟ ଆତ୍ମଜ୍ଞାନର ଶିକ୍ଷା ମିଳିଥାଏ । 


୭-#ସୂର୍ଯ୍ୟ – ସୂର୍ଯ୍ୟ ଉଦୟ ହେଲେ ଅନ୍ଧାର ଦୂର ହୁଏ ।  ସେଇପରି  ମଣିଷ ମନରେ  ଜ୍ଞାନର ଆଲୋକ ଜାଗ୍ରତ ହେଲେ ଅଜ୍ଞାନ ଅନ୍ଧାର ଦୂରୀଭୂତ ହୁଏ । ଏଇ କଥା ହିଁ ସୂର୍ଯ୍ୟଙ୍କ ଠାରୁ ଶିକ୍ଷା ମିଳେ । 


୮-#କପୋତ-ଜାଲରେ ପଡ଼ିଥିବା ନିଜ ଶାବକକୁ ରକ୍ଷା କରିବାପାଇଁ କପୋତୀ ସହିତ କପୋତ ନିଜେ ଜାଲରେ ପଡ଼ିଥିଲା । ଆସକ୍ତି ହିଁ  ବନ୍ଧନର କାରଣ ବୋଲି ତା’ଠାରୁ ଶିକ୍ଷା ମିଳେ ।    


୯-#ଅଜଗର-ଅଳସୁଆ ଅଜଗର ଗୋଟିଏ ଜାଗାରେ ପଡ଼ିଥାଏ, ଯାହା ପାଖକୁ ଆସେ ତାକୁ ହିଁ ସେ ଖାଏ । ଖାଦ୍ୟପ୍ରତି ଲୋଭ ନ ରଖି ଯାହା ମିଳିବ ସେଥିରେ ଉଦର ପୂରଣ କରି ସର୍ବଦା ନିଜର ମୂଳସ୍ୱରୂପର ଧ୍ୟାନରେ ମଗ୍ନ ରହିବାର ଶିକ୍ଷା ଅଜଗର ଠାରୁ ମିଳେ ।


୧୦-#ସିନ୍ଧୁ -ସବୁ ନଦୀର ପାଣି ମିଶିଲେ ମଧ୍ୟ ସମୁଦ୍ର ନିଜର ସମତା ରକ୍ଷା କରିଥାଏ । ନା ଅଧିକ ଉଛୁଳେ ନା ଟିକିଏ ମାତ୍ର ଶୁଖେ। ସାଂସାରିକ ବିଷୟ ବାସନା ଥିଲେ ମଧ୍ୟ ନିଜର ମର୍ଯ୍ୟାଦା ଲଙ୍ଘନ ନ କରିବାର ଗୁଣ, ସମତା ତଥା ଓ ନିଶ୍ଚଳ ମନ ସମୁଦ୍ରଠାରୁ ଶିକ୍ଷା ମିଳେ ।


୧୧-#ପତଙ୍ଗ -ପତଙ୍ଗଠାରୁ ଦୁଇଟି ଜିନିଷ ଶିଖିବାକୁ ମିଳେ । ଇନ୍ଦ୍ରିୟ ଭୋଗ୍ୟ ବସ୍ତୁ ସକଳରୁ ନିଜକୁ ନିବୃତ୍ତ ନ କରି ପାରିଲେ ଅଗ୍ନୀରେ ପତଙ୍ଗ ସମ ନିଜର ବିନାଶ ହୋଇଥାଏ। ଜ୍ଞାନୀମାନେ ଜ୍ଞାନର ସନ୍ଧାନ ପାଇ ସେଥିରେ ଏମିତି ମଜ୍ଜି ଯାଆନ୍ତି ଯେ ନିଜର ବ୍ୟକ୍ତିଗତ ସୀମିତ ସତ୍ତାକୁ ଭସ୍ମ କରି ନିର୍ଗୁଣ ନିରାକାର ସତ୍ତାକୁ ଲାଭ କରନ୍ତି, ଏହା ମଧ୍ୟ ପତଙ୍ଗଠାରୁ ଶିକ୍ଷା ମିଳେ।


୧୨-#ମଧୁପ -ଫୁଲକୁ ଫୁଲ ଉଡ଼ି ମଧୁ ସଂଗ୍ରହ କରୁଥିବା ମଧୁପ ବା ମହୁମାଛି ପରି ବିଭିନ୍ନ ଶାସ୍ତ୍ର ଅଧ୍ୟୟନ କରି ତା’ର ସାରକୁ ଗ୍ରହଣ କରିବା ଉଚିତ୍ ।


୧୩-#ଗଜ -ନକଲି ମାଈହାତୀକୁ ଦେଖି ନିଜର ଜାନ୍ତବ କ୍ଷୁଧାର ପରିତୃପ୍ତି ପାଇଁ ହାତୀ ମାଡ଼ିଆସେ ଓ ଶିକାରୀ ଦ୍ୱାରା ଖୋଳା ଯାଇଥିବା ଗାତରେ ପଡ଼ିଥାଏ । କାମନା ବାସନାର ନିୟନ୍ତ୍ରଣ କରିବା ଗଜ ବା ହାତୀଠାରୁ ଶିକ୍ଷାମିଳେ ।


୧୪-#ପିମ୍ପୁଡି ଓ #ଭଁଅର -ଅକ୍ଳାନ୍ତ ପରିଶ୍ରମ କରି ଅତି କଷ୍ଟରେ ସଂଗ୍ରହ କରି ସଞ୍ଚୟ କରିଥିବା ଖାଦ୍ୟକଣିକାର ଗନ୍ଧରେ ଆକର୍ଷିତ ହୋଇ ଅନ୍ୟପ୍ରାଣୀମାନେ ଏହାକୁ ତା’ଠାରୁ ଅପହରଣ କରିଥାନ୍ତି, ଏଥିରୁ ଏହି ଶିକ୍ଷା ମିଳେ ଯେ, ସଂଗ୍ରହ କରିବାର ପ୍ରବୃତ୍ତି ଚୋରି, ଡକେଇତି ବା ହତ୍ୟାରେ ପରିସମାପ୍ତ ହୁଏ । ତେବେ ପିମ୍ପୁଡ଼ିଠାରୁ ଏକ ଭଲଗୁଣ ଶିଖିବାକୁ ମିଳେ, ଆତ୍ମସାକ୍ଷାତକାର ଅନ୍ୱେଷୀ, ମୁମୁକ୍ଷୁ ନିରଳସ ଭାବେ ନିଜ ମାର୍ଗରେ ଅଗ୍ରଗତି କରିବା ଦରକାର ।

ଭଅଁର ଫୁଲର ଗନ୍ଧରେ ଆକୃଷ୍ଟ ହୋଇ ସେଥିରେ ଏମିତି ଆସକ୍ତ ହୋଇଯାଏ ଯେ, ସନ୍ଧ୍ୟାରେ ଫୁଲ ପାଖୁଡ଼ା ବନ୍ଦ ହେବା ଆଗରୁ ତାକୁ ଛାଡ଼ି ପଳାଇ ନ ଆସି ଏହା ବନ୍ଦ ହେବାପରେ ମଧ୍ୟ ସେଥିରେ ବନ୍ଦୀ ହୋଇ ରହିଯାଏ । ଫଳତଃ ନିଜର ପ୍ରାଣ ହରାଏ । ଆସକ୍ତି ସବୁବେଳେ ବିନାଶକାରୀ ବୋଲି ତା’ଠାରୁ ଶିକ୍ଷା ମିଳେ। 


୧୫-#ହରିଣ -ସଙ୍ଗୀତର ମୂର୍ଚ୍ଛନାରେ ମୋହିତ ହରିଣ ଶିକାରୀର ବାଣରେ ମୃତ୍ୟୁବରଣ କରେ । ଏଥିରୁ ଶିକ୍ଷାମିଳେ ଯେ ସଂସାରର ନିକୃଷ୍ଟ ଆନନ୍ଦ ପ୍ରତି ଆକୃଷ୍ଟ ହେଲେ ନିଜର ବିନାଶ ଘଟିଥାଏ ।


୧୬-#ମୀନ -ଖାଦ୍ୟଲାଳସାରେ ବନିସୀରେ ପଡ଼ି ପ୍ରାଣ ହାରେ। ସୁସ୍ୱାଦୁ ବ୍ୟଞ୍ଜନ ପ୍ରତି ଆସକ୍ତି ନିଜର ଲକ୍ଷ୍ୟପ୍ରାପ୍ତିରେ ଅନ୍ତରାୟ ହୋଇଥାଏ । ତେବେ ମାଛଠାରୁ ଆଉ ଏକ ଗୁଣ ଶିଖିବାକୁ ମିଳେ। ଏହା କେତେବେଳେ ବି ନିଜ ଘର ଅର୍ଥାତ୍ ପାଣିକୁ ପରିତ୍ୟାଗ କରେନା । ସେହିପରି ମାନବ କେବେ ବି ନିଜର ମୂଳସ୍ୱରୂପରୁ ବିଚ୍ୟୁତ ହେବା ଅନୁଚିତ ।


୧୭-#ପିଙ୍ଗଳା_ବେଶ୍ୟା - କାମପିପାସାରେ ମତ୍ତହୋଇ ତଥା ଧନ ଲୋଭରେ ଅନ୍ଧ ହୋଇ ପିଙ୍ଗଳା ନାମକ ବେଶ୍ୟା ଏକ ନିର୍ଦ୍ଦିଷ୍ଟ ପୁରୁଷକୁ ଚାହିଁ ସାରା ରାତି କାଟିଦେଲା ପରେ ଅନୁଭବ କଲା, ମିଥ୍ୟା ମାୟାରେ ମୋହିତ ହୋଇ ସେ ମସ୍ତବଡ଼ ଭୁଲ୍ କରିଛି। ସଂସାରର ଅଳିକ ସୁଖ ଓ ସାଂସାରିକ ଧନର ନଶ୍ୱରତାକୁ ଦେଖି ସେ ଅସଲି ଧନ ଓ ଅସଲି ଆନନ୍ଦର ତଲାସରେ ବୈରାଗ୍ୟର ପଥକୁ ବାଛି ନେଲା । ଅତଃ ପିଙ୍ଗଳା ବେଶ୍ୟା ବୈରାଗ୍ୟ ଶିକ୍ଷାଦିଏ ।


୧୮-#କୁରୁର(ମାଟିଆ ଚିଲ) - ନିଜ ଥଣ୍ଟରେ ମାଂସଟୁକୁଡ଼କୁ ଧରି ରଖିଥିବା କୁରୁର ପକ୍ଷୀ ଅନ୍ୟ ପକ୍ଷୀମାନଙ୍କର ଆକ୍ରମଣରେ ବ୍ୟତିବ୍ୟସ୍ତ ହୋଇ ମାଂସଟୁକୁଡାଟିକୁ ଛାଡ଼ିଦେଲା ପରେ  ଅନ୍ୟମାନଙ୍କର ଆକ୍ରମଣରୁ ରକ୍ଷା ପାଇଗଲା । ଏଥିରୁ ଶିକ୍ଷାମିଳେ, ଦୈହିକ ସୁଖଭୋଗର ବାସନା ସଂସାରରେ ଯାବତୀୟ ଯନ୍ତ୍ରଣା ଓ ଜଞ୍ଜାଳକୁ ଜନ୍ମ ଦେଇଥାଏ। ଏହାର ପରିତ୍ୟାଗରେ ହିଁ ଅସଲି ଆନନ୍ଦ ନିହିତ ରହିଛି ।


୧୯-#ଅର୍ଭକ (ଶିଶୁ)- ଅନ୍ୟ ପ୍ରତି ବୈର ଭାବନା ରହିତ, ନିଜ ପରର ଭେଦଭାବରୁ ମୁକ୍ତ, ସବୁବେଳେ ଖିଲି ଖିଲି ହାସିତ, ନିଜର ସ୍ୱଭାବରେ ସ୍ଥିତ, ଆନନ୍ଦରେ ଉଛୁଳି ଉଠୁଥିବା ଶିଶୁଠାରୁ ଆତ୍ମସାକ୍ଷାତକାରୀର ଅବସ୍ଥା ଦେଖିବାକୁ ମିଳେ। ଆନନ୍ଦ ସ୍ୱତଃସ୍ଫୁର୍ତ୍ତ ହୋଇଥାଏ, ଏହା କୌଣସି ବାହ୍ୟକାରଣ କିମ୍ବା ବସ୍ତୁ ଉପରେ ନିର୍ଭରଶୀଳ ହୋଇ ନ ଥାଏ।


୨୦-#ବ୍ରାହ୍ମଣ_କୁମାରୀ -ନିଜ ପୁତ୍ର ପାଇଁ କୁମାରୀ କନ୍ୟାର ହାତ ମାଗିବାକୁ ଆସିଥିବା ଅତିଥିମାନଙ୍କ ପାଇଁ କିଛି ବ୍ୟଞ୍ଜନ ପ୍ରସ୍ତୁତ କରିବା ଉଦ୍ଦେଶ୍ୟରେ ମା’ ଅନୁପସ୍ଥିତ ଥିବା ସମୟରେ ବ୍ରାହ୍ମଣ କୁମାରୀ ନିଜେ ଚାଉଳ କୁଟିବାକୁ ଆରମ୍ଭ କରିବାରୁ ତା’ ହାତର ଚୁଡ଼ିଗୁଡିକ ପରସ୍ପର ସହିତ ବାଜି ଶବ୍ଦ ସୃଷ୍ଟି କଲେ। ଏହା ଶୁଣି କାଳେ ଅତିଥିମାନେ ବ୍ୟସ୍ତ ହେବେ ସେଥିପାଇଁ ପରମ୍ପରା ରକ୍ଷାକରି ସେ ହାତରେ ପଟେ ପଟେ ଚୁଡ଼ି ରଖି ବାକି ଚୁଡ଼ିକୁ ବାହାର କରିଦେଲା । ଏହାଦ୍ୱାରା ସେ ନିଜ କାମକୁ ନିରବରେ କରିପାରିଲା । ଏଥିରୁ ଶିକ୍ଷାମିଳେ ପ୍ରକୃତ ମୁମୁକ୍ଷୁ(ମୁକ୍ତି ଚାହୁଁଥିବା ବ୍ୟକ୍ତି) ବାକ୍-ବିତଣ୍ଡାରେ ନ ପଡ଼ି ନିକାଞ୍ଚନରେ ନିଜର ସାଧନା କରିବା ଦରକାର । କାରଣ ଅନେକ ଲୋକ ଯହିଁ ମିଳି, ଅବଶ୍ୟ ଉପୁଜଇ କଳି।


୨୧-#ସର୍ପ -ନିଜେ ଗାତ ନ ଖୋଳି ଅନ୍ୟ ପଶୁ, ପକ୍ଷୀ, କୀଟମାନେ କରିଥିବା ଗାତରେ ରହିବା ପରି ବୈରାଗୀ ସନ୍ନ୍ୟାସୀମାନେ ସଂସାରୀ ଲୋକମାନେ ତିଆରି କରିଥିବା ଘରେ, ଅଥବା ପରିତ୍ୟକ୍ତ ଘରେ ବା ଗଛମୂଳେ ରହିଥାନ୍ତି। ସାପ ନିଜ କାତି ଛାଡ଼ିଲା ପରି ବୈରାଗୀମାନେ ମୃତ୍ୟୁ ସମୟରେ ସମ୍ପୂର୍ଣ୍ଣ ସଜାଗ ହୋଇ, ନିଜର ମୂଳ ସ୍ୱରୂପରେ ମନୋନିବେଶ ପୂର୍ବକ ପୁରୁଣା ଦେହକୁ ତ୍ୟାଗ କରି ନୂଆଦେହ ଧାରଣ କରନ୍ତି ।


୨୨-#ଶରକୃତ (ଶର ତିଆରି କରୁଥିବା ବ୍ୟକ୍ତି) -ଆଧ୍ୟାତ୍ମିକ ଅଗ୍ରଗତିର ରହସ୍ୟ ହେଉଛି ଏକାଗ୍ରତା । ତୀର ତିଆରି କରୁଥିବା ଏକାଗ୍ର ବଢ଼େଇଟିଏ ଜାଣିପାରେନା ତା’ ପାଖ ଦେଇ ରାଜକୀୟ ପଟୁଆର ଚାଲିଗଲା ବୋଲି । ତା’ ଠାରୁ ତୀକ୍ଷ୍ଣ ଏକାଗ୍ରତା ଶିକ୍ଷା ମିଳେ ।


୨୩-#ଉର୍ଣ୍ଣନାଭି-ଉର୍ଣ୍ଣନାଭି, ମାଙ୍କଡସା ବା ବୁଢ଼ିଆଣୀ ନିଜେ ଜାଲ ତିଆରି କରେ ଓ ପରେ ନିଜ ଜାଲରେ ନିଜେ ବନ୍ଦୀ ହୋଇ ସାରା ଜୀବନ ରହିଥାଏ ବୋଲି ସେ ଜାଣି ନ ଥାଏ । ସେମିତି ମଣିଷ ନିଜ ବିଚାରର ମାୟାଜାଲରେ ବନ୍ଦୀ ହୋଇ ନିଜର ମୂଳସ୍ୱରୂପକୁ ପାସୋରି ପକାଏ ।  ଉର୍ଣ୍ଣନାଭି ଆଉ ଏକ ଶିକ୍ଷା ମଧ୍ୟ ଦେଇଥାଏ । ପରମାତ୍ମା ନିଜକୁ ବିଭିନ୍ନ ଶରୀର ମାଧ୍ୟମରେ ପ୍ରକଟ କରିଥାନ୍ତି, ବିଭିନ୍ନ ଇନ୍ଦ୍ରିୟ ମାଧ୍ୟମରେ ସଂସାରର ରସ ଆସ୍ୱାଦନ କରିଥାନ୍ତି, ପରିଶେଷରେ ନିଜ ଗଢ଼ା ସଂସାରକୁ ନିଜ ଭିତରକୁ ଗୋଟେଇ ନିଅନ୍ତି ।


୨୪-#ସୁପେଶକୃତ -ସୁପେଶକୃତ୍ ବା କୁମ୍ଭାରିଆ କୌଣସି କୀଟକୁ ଧରିଆଣେ ଓ ମାଟିର ନିବୁଜ ଘର ତୋଳି ତାକୁ ସେଥିରେ ବନ୍ଦୀ କରିଦିଏ । ସେହି କୀଟଟି ମରିବା ପୂର୍ବରୁ କୁମ୍ଭାରିଆକୁ ଦେଖିଥାଏ, ତାଆରି ଗୁଣୁଗୁଣୁ ଶବ୍ଦଛଡ଼ା ସେ ଆଉ କିଛି ଶୁଣି ପାରେନା, ଭୟରେ କାତର ହୋଇ ସେ ତା’ରି ରୂପର ଚିନ୍ତା କରିଥାଏ । କିଛି ଦିନ ପରେ ସେ ନିଜେ କୁମ୍ଭାରିଆ ହୋଇ ସେଇଠି ଜନ୍ମ ହୁଏ। ଏଥିରୁ ଶିକ୍ଷା ମିଳେ ମରିଲାବେଳେ ମଣିଷ ଯେମିତି ଚିନ୍ତା କରିଥାଏ, ତାର ମୃତ୍ୟୁ ଉପରାନ୍ତ ଜୀବନର ତଦନୁରୂପ ନିର୍ଦ୍ଧାରିତ ହୋଇଥାଏ । ଏଥିରୁ ଅନ୍ୟ ଏକ ଶିକ୍ଷା ମିଳେ ଯେ ଯଦି ସାଧାରଣ ମଣିଷ ନିରବିଚ୍ଛିନ୍ନ ଭାବରେ ନିଜ ଗୁରୁ ସ୍ୱରୂପର ଧ୍ୟାନ କରେ, ତେବେ ଅବିଳମ୍ବେ ସେ ଗୁରୁଙ୍କ ସ୍ୱରୂପରେ ଅବସ୍ଥାନ କରେ, ଗୁରୁତୁଲ୍ୟ ହୋଇଯାଏ ।


ଏଇଥିଲା ଅବଧୂତଙ୍କ ୨୪ ଗୁରୁଙ୍କ ପ୍ରସଙ୍ଗ । 


 

बुधवार, 27 सितंबर 2023

नालंदा विश्वविद्यालय की कुछ खास रहस्य

 ।। ----- नालंदा विश्वविद्यालय की कुछ खास रहस्य -----।।


नालंदा यूनिवर्सिटी - अभी तक के ज्ञात इतिहास की सबसे महान यूनिवर्सिटी ।


आज भले ही भारत शिक्षा के मामले में 191 देशों की लिस्ट में 145वें नम्बर पर हो लेकिन कभी यहीं भारत दुनियाँ के लिए ज्ञान का स्रोत हुआ करता था। आज सैकड़ो छात्रों पर केवल एक अध्यापक उपलब्ध होते हैं वहीं हजारों वर्ष पहले इस विश्वविद्यालय के वैभव के दिनों में इसमें 10,000 से अधिक छात्र और 2,000 शिक्षक शामिल थे यानी कि केवल 5 छात्रों पर एक अध्यापक ..।  नालंदा में आठ अलग-अलग परिसर और 10 मंदिर थे, साथ ही कई अन्य मेडिटेशन हॉल और क्लासरूम थे। यहाँ एक पुस्तकालय 9 मंजिला इमारत में स्थित था, जिसमें 90 लाख पांडुलिपियों सहित लाखों किताबें रखी हुई थीं ।  यूनिवर्सिटी में सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, ईरान, ग्रीस, मंगोलिया समेत कई दूसरे देशो के स्टूडेंट्स भी पढ़ाई के लिए आते थे। और सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि उस दौर में यहां लिटरेचर, एस्ट्रोलॉजी, साइकोलॉजी, लॉ, एस्ट्रोनॉमी, साइंस, वारफेयर, इतिहास, मैथ्स, आर्किटेक्टर, भाषा विज्ञानं, इकोनॉमिक, मेडिसिन समेत कई विषय पढ़ाएं जाते थे।


इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी । केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थी। इस यूनिवर्सटी में देश विदेश से पढ़ने वाले छात्रों के लिए छात्रावास की सुविधा भी थी ।

यूनिवर्सिटी में प्रवेश परीक्षा इतनी कठिन होती थी की केवल विलक्षण प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे। यहां आज के विश्विद्यालयों की तरह छात्रों का अपना संघ होता था वे स्वयं इसकी व्यवस्था तथा चुनाव करते थे। छात्रों को किसी प्रकार की आर्थिक चिंता न थी। उनके लिए शिक्षा, भोजन, वस्त्र औषधि और उपचार सभी निःशुल्क थे। राज्य की ओर से विश्वविद्यालय को दो सौ गाँव दान में मिले थे, जिनसे प्राप्त आय और अनाज से उसका खर्च चलता था।


लगभग 800 सालों तक अस्तित्व में रहने के बाद इस विश्वविद्यालय को  तहस नहस कर दिया ।।




एक खतरनाक साजिश की सच्चाई

  🔸“संयुक्त परिवार को तोड़कर उपभोक्ता बनाया गया भारत: एक खतरनाक साजिश की सच्चाई* ⚡“जब परिवार टूटते हैं, तभी बाजार फलते हैं” — ये सिर्फ विच...