शनिवार, 30 सितंबर 2023

पितृकार्य का विशेष महत्व

 ॐ  देवताभ्य: पितृभ्यश्च  महायोगिभ्य एव च ,

 नम: स्वाहायै  स्वधायै  नित्यमेव नमो नम:  .. ॐ अर्यमा न त्रिप्यताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा  नमः ...ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय .. 

 पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है .. अर्यमा पितरों के देव हैं.. अर्यमा को प्रणाम , हे पिता, पितामह और प्रपितामह तथा हे माता, मातामह और प्रमातामह, आपको भी बारम्बार प्रणाम .. 

आप हमें मृत्यु से अमृतत्व  की ओर ले चलें .. 

 .. अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।

पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्   .. श्री गीता में श्री भगवान ने कहा है .. हे धनंजय !  नागों में मैं शेषनाग और जलचरों में वरुण हूं;

पितरों में "अर्यमा" तथा नियमन करने वालों में यमराज हूं .. 

अर्यमा : आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की किरण (अर्यमा) और किरण के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर  व्याप्त रहता है ..  पितरों में श्रेष्ठ है अर्यमा .. अर्यमा पितरों के देव  हैं ..ये महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति के पुत्र हैं और इंद्रादि देवताओं के भाई .. पुराण के अनुसार उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास लोक है ..  इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती है..  जड़-चेतनमयी सृष्टि में शरीर का निर्माण नित्य पितर  ही करते हैं  .. इनके प्रसन्न होने पर पितरों की तृप्ति होती है . श्राद्ध के समय इनके नाम से जलदान दिया जाता है,  यज्ञ में मित्र (सूर्य) तथा वरुण (जल) देवता के साथ स्वाहा का 'हव्य' और श्राद्ध में स्वधा का 'कव्य' दोनों स्वीकार करते हैं.. 

।।श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छ्राद्धम्।। .. जो पितरों के निमित्त श्रद्धा पूर्वक दिया जाता है  वह श्राद्ध है .. 

गरूड़ पुराण के अनुसार पितर ऋण मुक्ति हेतु , श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध करना ही चाहिये ..  कल्पदेव कुर्वीत समये श्राद्धं  कुले कश्चिन्न सीदति .. 

आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं  कीर्तिं   पुष्टिं   बलं श्रियम् .. 

पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात्  पितृपूजनात् 

 देवकार्यादपि सदा सपितृकार्यं  विशिष्यते .. 

देवताभ्यः पितृणां हि पूर्वमाप्यायनं शुभम् .. 

अर्थात,  समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुखी नहीं  रहता..   

पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशु, सुख और धन-धान्य प्राप्त करता है.. 

उत्तरायण में देवताओं का दिन और पितरों की रात्रि  कही गई है .. दक्षिणायन  में श्रावण के पश्चात् पितरों का दिन प्रारम्भ माना जाता है ..  अश्विन कृष्ण पक्ष में पितरों को भोजन कराने का समय नियत है .. 

देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्व है..  देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी है .. 

 श्री स्कन्दमहापुराण  में कहा गया है कि सूर्यदेव के कन्या राशि पर स्थित होनै के पश्चात  आश्विन कृष्णपक्ष (श्राद्धपक्ष या महालय) में पितर अपने वंशजों द्वारा किए जाने वाले श्राद्ध व तर्पण से तृप्ति की इच्छा रखते हैं ..  जो मनुष्य पितरों की मृत्यु तिथि पर श्राद्ध -तर्पण करेंगे, उनके उस श्राद्ध से पितरों को एक वर्ष तक तृप्ति  बनी रहेगी तथा पितरों का आशीर्वाद मिलता है .. 



ब्रह्मपुराण में कहा गया है 

 “आयु: प्रजां धनं विद्यां स्वर्गं मोक्षं सुखानि च , 

प्रयच्छन्ति तथा राज्यं पितर: श्राद्ध तर्पिता .. ”

अर्थात श्राद्ध के द्वारा प्रसन्न हुए पितृगण मनुष्यों को पुत्र,  धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष तथा स्वर्ग आदि प्रदान करते हैं  इस दौरान मांगलिक कार्य, शुभ कार्य, विवाह और विवाह की बात चलाना वर्जित है.. 

श्राद्ध केवल अपराह्न काल में ही करें..  श्राद्ध में तीन वस्तुएं  परम पवित्र हैं- दुहिता पुत्र ( पुत्री का पुत्र ) .. कुतपकाल (दिन का आठवां भाग .. ११. ३६. से १२ बज कर २४ मिनट तक  का समय ) तथा काले तिल ..  श्राद्ध में तीन प्रशंसनीय बातें हैं- बाहर-भीतर की  शुद्धि,  क्रोध नहीं करना तथा जल्दबाजी नहीं करना .. 

 “पद्म पुराण” तथा “मनुस्मृति” के अनुसार श्राद्ध का दिखावा नहीं करें, उसे गुप्त रूप से एकांत में करें ..  धनी होने पर भी इसका विस्तार नही करें तथा भोजन के माध्यम से मित्रता, सामाजिक या व्यापारिक संबंध स्थापित न करें ..  श्राद्ध काल में श्रीमद्भागवत् गीता, पितृसूक्त, ऐन्द्रसूक्त, मधुमति सूक्त आदि का पाठ करना मन, बुद्धि एवं कर्म की शुद्धि के लिए फलप्रद है .. 

.. श्रीमद्भागवत् महात्म्य  के  गोकर्णोपाख्यान की बहुत महत्ता कही गई है .. .. श्राद्धे प्रयुक्ते  पितृ तृप्ति हेतु .. नित्यं सुपाठाद  पुनर्भवं च ... 

विष्णु पुराण में कहा गया है कि श्राद्ध के अवसर पर दिवंगत  पूर्वजों की मृत्यु तिथि को निमंत्रण देकर ब्राह्मण को भोजन, वस्त्र एवं दक्षिणा सहित दान देकर श्राद्ध कर्म करना चाहिए.. 

इस दिन पांच पत्तों पर अलग-अलग भोजन सामग्री रखकर  पंचबलि करें ये हैं- गौ बलि, श्वान बलि, काक बलि, देवादि बलि तथा चींटियों के लिए श्राद्ध में एक हाथ से पिंड तथा आहुति  दें परन्तु तर्पण में दोनों हाथों से जल देना चाहिए .. 

जिस दिन आप के घर में श्राद्ध हो उस दिन गीता का सातवें अध्याय का पाठ करे ..  पाठ करते समय जल भर के रखें ..  पाठ पूरा हो तो जल सूर्य भगवन को अर्घ्य दें और कहें की हमारे पितृ के लिए हम अर्पण करते हैं ..  जिनका श्राद्ध है , उनके लिए आज का गीता पाठ अर्पण .. 

पितृनुद्दिश्य यः श्राद्धे गीतापाठं करोति वै , 

संतुष्टा पितरस्तस्य निरयाद्यान्ति सद्गतिम् .. 

जो मनुष्य श्राद्ध में पितरों को लक्ष्य करके गीता का पाठ करता है उसके पितृ सन्तुष्ट होते हैं और नर्क से सदगति पाते हैं .. 

गीतापाठेन संतुष्टाः पितरः श्राद्धतर्पिताः.. 

पितृलोकं प्रयान्त्येव पुत्राशीर्वादतत्पराः ( श्री गीता माहात्म्य ).. 

.. गया, पुष्कर, प्रयाग और हरिद्वार में श्राद्ध करना श्रेष्ठ माना गया है .. ब्रम्ह कपाली (बद्रीनाथ ).. की महिमा सर्वोपरि है , यहां पिण्ड दान कर लेने के पश्चात कहीं अन्यत्र  तीर्थ में पिण्ड नहीं भरने चाहिये .. 

शिर: कपालं यत्रैतत्पात ब्रम्हण: पुरा 

तत्रैव बदरीक्षेत्रे पिण्डं दातु: प्रभु: पुमान ..

मोहाद गयायां दद्याद: स पितृन् पातयेत् स्वकान ... अर्थात .. गयादि तीर्थों में श्राद्ध सम्पन्न कर लेने के बाद ही अन्त में ब्रम्ह कपाली में श्राद्ध करना चाहिये ..

.. वार्षिक तिथि पर होने वाला सांवत्सरिक श्राद्ध नित्य पितरों के निमित्त होता है जो प्रति वर्ष करना ही चाहिये .. 

.  गौशाला में, देवालय में और नदी तट पर श्राद्ध करना श्रेष्ठ माना गया है .. 

.. सोना, चांदी, तांबा और कांसे के बर्तन में अथवा पलाश के पत्तल में भोजन करना-कराना अति उत्तम माना गया है  .. लोहा, मिटटी आदि के बर्तन काम में नहीं लाने चाहिए .. 

.. श्राद्ध के समय अक्रोध रहना, जल्दबाजी न करना और बड़े लोगों को या बहुत लोगों को श्राद्ध में सम्मिलित नहीं करना चाहिए, नहीं तो इधर-उधर ध्यान बंट जायेगा, तो जिनके प्रति श्राद्ध सद्भावना और सत उद्देश्य से जो श्राद्ध करना चाहिए, वो फिर दिखावे के उद्देश्य में सामान्य कर्म हो जाता है  ..  त्रीणि चात्र प्रशंसन्ति  शौच मक्रोध मत्वराम् .. ( मनुस्मृति ३/२३५ )

.. सफ़ेद सुगन्धित पुष्प श्राद्ध कर्म में काम में लाने चाहिए ,  लाल, काले फूलों का त्याग करना चाहिए ,  अति मादक गंध वाले फूल अथवा सुगंध हीन फूल श्राद्ध कर्म में काम में नहीं लाये जाते हैं  .. 

  किसी कारण वश अगर पंडित से श्राद्ध नहीं करा पाये  तो सूर्य नारायण के आगे अपने बगल खुले करके (दोनों हाथ ऊपर करके) बोलें : .. हे मेरे पितृ गण  इस समय मेरे पास न तो धन है न धान्य है , हाँ मेरे पास आपके लिये श्रद्धा और भक्ति  है , मैं इन्ही के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूं .. आप तृप्त हो जांय  , मैंने शास्त्र की आज्ञा के अनुरूप दोनों भुजाओं को आकाश में उठा रखा है .. 

"हे सूर्य नारायण ! मेरे पिता (नाम), अमुक (नाम) का बेटा, अमुक जाति (नाम), (अगर जाति, कुल, गोत्र नहीं याद तो ब्रह्म गोत्र बोल दे) को आप संतुष्ट/सुखी रखें ..  इस निमित मैं आपको अर्घ्यदान करता हूँ ,  व भोजन कराता हूँ ।" ऐसा करके आप सूर्य भगवान को अर्घ्य दें और भोग लगायें.. 

"नमेऽस्ति वित्तं  न धनं न च नान्य च्छ्राद्धोपयोग्यं स्व पितृन्नतोऽस्मि ..

तृप्यन्तु भक्त्या पितरौ मयेतौ कृतौ भुजौ वर्त्मनि मारुततच्छ्राद्धम् ||.. ( विष्णु पुराण. ३/१४/३०) .. 

नैवं श्राद्धं विवर्जयेत्  (धर्मसिन्धु ) .. श्राद्ध कभी छोड़ें नहीं .. पितरों का स्मरण अवश्य करें .. 

 हो सके तो पितरों का स्मरण करके  आमान्न ( बिना अग्नि पर पका हुआ , कच्चा अन्न , एवम् शाक फल आदि ) .. का संकल्प पूर्वक  ब्राम्हण अथवा  विवाहिता पुत्री को दान करना चाहिये .. 

.. जीवन पर्यन्त  माता पिता की आज्ञा का पालन करना  , उनके श्राद्ध में खूब भोजन करवाना , और  गयादि तीर्थों में पिण्डदान  करने वाले पुत्र का पुत्रत्व. सार्थक होता है .. 

जीवतो वाक्यकरणात्  क्षयाहे भूरि भोजनात् .

गयायां  पिण्डदानाच्च त्रिभिर्पुत्रस्य  पुत्रता.. ( श्रीमद्देवी भागवत् .. ६/४/१५ ) ..

श्राद्ध करने से , देवता , ब्राम्हण, और पितृगणों का पूजन होता है .. जिससे सर्वभूतान्तरात्मा  भगवान विष्णु का पूजन हो जाता है .. 

ये यजन्ति पितृन देवान  ब्राम्हणांश्च हुताशनम सर्व भूतान्तरात्मानं  विष्णुमेव  यजन्ति ते  .. 

मार्कण्डेय पुराण के अन्तर्गत .. रौच्यमन्वन्तर कथा में .. रुचि प्रजापति द्वारा की गई पितृ स्तुति  (  स्तोत्र कमेन्ट में ..  ) .. सम्पूर्ण पितरों को तृप्ति प्रदान करने वाली है .. तीन बार स्वधा देवी के  स्मरण और नामोच्चारण से  पितृ कार्य की पूर्णता हो जाती है .. ॐ स्वधा , स्वधा , स्वधा ..



पुराणोक्त  पितृ -स्तोत्र : .. रुचिरुवाच ..
अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम् 
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम् .. 
इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा
सप्तर्षीणां तथान्येषां तां नमस्यामि कामदान् ..
मन्वादीनां मुनीन्द्राणां सूर्या चन्द्र मसोस्तथा 
तान् नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्सूदधावपि .. 
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा 
द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलिः .. 
देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान् 
अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येऽहं कृतांजलिः .. 
प्रजापते: कश्यपाय सोमाय वरूणाय च 
योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृतांजलिः.. 
नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु 
स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे .. 
सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा 
नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम् .. 
अग्निरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम् 
अग्निषोममयं विश्वं यत एतदशेषतः .. 
ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः 
जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः ..
तेभ्योऽखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः 
नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुजः .. 
.. शरत्काल श्राद्ध के समय इस स्तोत्र का पाठ करने से पितरों को पुष्टि एवम् तृप्ति प्राप्त होती है .. श्री मार्कण्डेय पुराण में इस स्तोत्र का बड़ा माहात्म्य वर्णित  है ..




एक शंका का समाधान ..  . 
अर्यमा नित्य पितर हैं .. नित्य पितर वो होते हैं जो ब्रम्हा जी के शरीर से सीधे पितृ रूप में ही प्रकट होते हैं .. 
काल चक्र के नियन्ता सूर्य नारायण को भी अर्यमा कहा गया है .. 
सूर्य अर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्क: सविता रवि: 
गभस्तिमानजा कालो मृत्युर्धाता प्रभाकर: ..( महाभारत .. सूर्य अष्टोत्तर शतनाम ) 
यह काल चक्र का नियमन करने वाली शक्तियां हैं .. अर्यमा  श्री कृष्ण की विभूति अंश होने से सभी पितरों का प्रतिनिधित्व करते हैं .. नित्य पितर २१  प्रमुख हैं .. जो बिना मृत्यु को प्राप्त हुये ही पितृ पद पर होते हैं .. मरने वाले जीव की कर्मानुसार गति होती है .. जिसके भाग को विश्वेदेव नित्य पितरों के माध्यम से उसी जीव तक पहुंचा देते हैं .. 
यथा गोष्ठे प्रणष्टां वै वत्सो विन्देत मातरम 
तथा तं नयते मन्त्रो जन्तुर्यत्रावतिष्ठते ..(वायु पुराण ...)
जैसे गौशाला में बछड़ा अपनी मां को ढूंढ़ कर पहुंच जाता है .. वैसे ही पितरों को दिये हुये संकल्पित पदार्थ उन तक उसी योनि के अनुरूप पहुंच जाते हैं .. यह कार्य विश्वेदेवों का है .. 
दक्षिणायन में नित्य पितरों का दिन होता है  जो श्रावण से शुरू हो जाता है .. अश्विन कृष्ण पक्ष दिन का पांचवां छठा मुहूर्त  के समान  समय का अंश है  जो भोजन दिये जाने के लिये प्रशस्त है .. इस पक्ष के स्मरण और तर्पण भोजन से पितृ पूरे वर्ष तृप्त रहते हैं ..

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अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम् 

नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम् .. 

इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा

सप्तर्षीणां तथान्येषां तां नमस्यामि कामदान् ..

मन्वादीनां मुनीन्द्राणां सूर्या चन्द्र मसोस्तथा 

तान् नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्सूदधावपि .. 

नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा 

द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलिः .. 

देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान् 

अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येऽहं कृतांजलिः .. 

प्रजापते: कश्यपाय सोमाय वरूणाय च 

योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृतांजलिः.. 

नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु 

स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे .. 

सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा 

नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम् .. 

अग्निरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम् 

अग्निषोममयं विश्वं यत एतदशेषतः .. 

ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः 

जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः ..

तेभ्योऽखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः 

नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुजः .. 

.. शरत्काल श्राद्ध के समय इस स्तोत्र का पाठ करने से पितरों को पुष्टि एवम् तृप्ति प्राप्त होती है .. श्री मार्कण्डेय पुराण में इस स्तोत्र का बड़ा माहात्म्य वर्णित है .. 

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