सोमवार, 25 दिसंबर 2023

ଶ୍ରୀଗଣପତ୍ୟଥର୍ୱଶୀର୍ଷ


          ॥ ଶ୍ରୀ ଗଣପତ୍ୟଥର୍ୱଶୀର୍ଷ ॥


॥ ଶାନ୍ତି ପାଠ ॥


ଓଁ ଭଦ୍ରଂ କର୍ଣେଭିଃ ଶୃଣୁୟାମ ଦେବା ।

ଭଦ୍ରଂ ପଶ୍ୟେମାକ୍ଷଭିର୍ୟଜତ୍ରାଃ ॥


ସ୍ଥିରୈରଙ୍ଗୈସ୍ତୁଷ୍ଟୁବାଂସସ୍ତନୂଭିଃ ।

ବ୍ୟଶେମ ଦେବହିତଂ ଯଦାୟୁଃ ॥


ଓଁ ସ୍ୱସ୍ତି ନ ଇନ୍ଦ୍ରୋ ବୃଦ୍ଧଶ୍ରବାଃ ।

ସ୍ୱସ୍ତି ନଃ ପୂଷା ବିଶ୍ୱବେଦାଃ ॥


ସ୍ୱସ୍ତିନସ୍ତାର୍କ୍ଷ୍ୟୋ ଅରିଷ୍ଟନେମିଃ ।

ସ୍ୱସ୍ତି ନୋ ବୃହସ୍ପତିର୍ଦଧାତୁ ॥


ଓଁ ତନ୍ମାମବତୁ

ତଦ୍ ବକ୍ତାରମବତୁ

ଅବତୁ ମାମ୍

ଅବତୁ ବକ୍ତାରମ୍

ଓଁ ଶାନ୍ତିଃ ।  ଶାନ୍ତିଃ ॥ ଶାନ୍ତିଃ॥।


॥ ଉପନିଷତ୍ ॥


ହରିଃ ଓଁ ନମସ୍ତେ ଗଣପତୟେ ॥

ତ୍ୱମେବ ପ୍ରତ୍ୟକ୍ଷଂ ତତ୍ତ୍ୱମସି ॥ ତ୍ୱମେବ କେବଲଂ କର୍ତାଽସି ॥

ତ୍ୱମେବ କେବଲଂ ଧର୍ତାଽସି ॥ ତ୍ୱମେବ କେବଲଂ ହର୍ତାଽସି ॥

ତ୍ୱମେବ ସର୍ୱଂ ଖଲ୍ୱିଦଂ ବ୍ରହ୍ମାସି ॥ ତ୍ୱଂ ସାକ୍ଷାଦାତ୍ମାଽସି ନିତ୍ୟମ୍ ॥ ୧॥


               ॥ ସ୍ୱରୂପ ତତ୍ତ୍ୱ ॥


ଋତଂ ବଚ୍ମି (ବଦିଷ୍ୟାମି) ॥ ସତ୍ୟଂ ବଚ୍ମି (ବଦିଷ୍ୟାମି) ॥ ୨॥


ଅବ ତ୍ୱଂ ମାମ୍ ॥ ଅବ ବକ୍ତାରମ୍ ॥ ଅବ ଶ୍ରୋତାରମ୍ ॥

ଅବ ଦାତାରମ୍ ॥ ଅବ ଧାତାରମ୍ ॥

ଅବାନୂଚାନମବ ଶିଷ୍ୟମ୍ ॥

ଅବ ପଶ୍ଚାତ୍ତାତ୍ ॥ ଅବ ପୁରସ୍ତାତ୍ ॥

ଅବୋତ୍ତରାତ୍ତାତ୍ ॥ ଅବ ଦକ୍ଷିଣାତ୍ତାତ୍ ॥

ଅବ ଚୋର୍ଧ୍ୱାତ୍ତାତ୍ ॥ ଅବାଧରାତ୍ତାତ୍ ॥

ସର୍ୱତୋ ମାଂ ପାହି ପାହି ସମନ୍ତାତ୍ ॥ ୩॥


ତ୍ୱଂ ବାଙ୍ମୟସ୍ତ୍ୱଂ ଚିନ୍ମୟଃ ॥

ତ୍ୱମାନନ୍ଦମୟସ୍ତ୍ୱଂ ବ୍ରହ୍ମମୟଃ ॥

ତ୍ୱଂ ସଚ୍ଚିଦାନନ୍ଦାଦ୍ୱିତୀୟୋଽସି ॥

ତ୍ୱଂ ପ୍ରତ୍ୟକ୍ଷଂ ବ୍ରହ୍ମାସି ॥

ତ୍ୱଂ ଜ୍ଞାନମୟୋ ବିଜ୍ଞାନମୟୋଽସି ॥ ୪॥


ସର୍ୱଂ ଜଗଦିଦଂ ତ୍ୱତ୍ତୋ ଜାୟତେ ॥

ସର୍ୱଂ ଜଗଦିଦଂ ତ୍ୱତ୍ତସ୍ତିଷ୍ଠତି ॥

ସର୍ୱଂ ଜଗଦିଦଂ ତ୍ୱୟି ଲୟମେଷ୍ୟତି ॥

ସର୍ୱଂ ଜଗଦିଦଂ ତ୍ୱୟି ପ୍ରତ୍ୟେତି ॥

ତ୍ୱଂ ଭୂମିରାପୋଽନଲୋଽନିଲୋ ନଭଃ ॥

ତ୍ୱଂ ଚତ୍ୱାରି ବାକ୍ପଦାନି ॥ ୫॥


ତ୍ୱଂ ଗୁଣତ୍ରୟାତୀତଃ ତ୍ୱମବସ୍ଥାତ୍ରୟାତୀତଃ ॥

ତ୍ୱଂ ଦେହତ୍ରୟାତୀତଃ ॥ ତ୍ୱଂ କାଲତ୍ରୟାତୀତଃ ॥

ତ୍ୱଂ ମୂଲାଧାରସ୍ଥିତୋଽସି ନିତ୍ୟମ୍ ॥

ତ୍ୱଂ ଶକ୍ତିତ୍ରୟାତ୍ମକଃ ॥

ତ୍ୱାଂ ଯୋଗିନୋ ଧ୍ୟାୟନ୍ତି ନିତ୍ୟମ୍ ॥

ତ୍ୱଂ ବ୍ରହ୍ମା ତ୍ୱଂ ବିଷ୍ଣୁସ୍ତ୍ୱଂ ରୁଦ୍ରସ୍ତ୍ୱଂ

ଇନ୍ଦ୍ରସ୍ତ୍ୱଂ ଅଗ୍ନିସ୍ତ୍ୱଂ ବାୟୁସ୍ତ୍ୱଂ ସୂର୍ୟସ୍ତ୍ୱଂ ଚନ୍ଦ୍ରମାସ୍ତ୍ୱଂ

ବ୍ରହ୍ମଭୂର୍ଭୁବଃସ୍ୱରୋମ୍ ॥ ୬॥


               ॥ ଗଣେଶ ମନ୍ତ୍ର ॥


ଗଣାଦିଂ ପୂର୍ୱମୁଚ୍ଚାର୍ୟ ବର୍ଣାଦିଂ ତଦନନ୍ତରମ୍ ॥

ଅନୁସ୍ୱାରଃ ପରତରଃ ॥ ଅର୍ଧେନ୍ଦୁଲସିତମ୍ ॥ ତାରେଣ ଋଦ୍ଧମ୍ ॥

ଏତତ୍ତବ ମନୁସ୍ୱରୂପମ୍ ॥ ଗକାରଃ ପୂର୍ୱରୂପମ୍ ॥

ଅକାରୋ ମଧ୍ୟମରୂପମ୍ ॥ ଅନୁସ୍ୱାରଶ୍ଚାନ୍ତ୍ୟରୂପମ୍ ॥

ବିନ୍ଦୁରୁତ୍ତରରୂପମ୍ ॥ ନାଦଃ ସନ୍ଧାନମ୍ ॥

ସଂହିତାସନ୍ଧିଃ ॥ ସୈଷା ଗଣେଶବିଦ୍ୟା ॥

ଗଣକଋଷିଃ ॥ ନିଚୃଦ୍ଗାୟତ୍ରୀଚ୍ଛନ୍ଦଃ ॥

ଗଣପତିର୍ଦେବତା ॥ ଓଁ ଗଂ ଗଣପତୟେ ନମଃ ॥ ୭॥


               ॥ ଗଣେଶ ଗାୟତ୍ରୀ ॥


ଏକଦନ୍ତାୟ ବିଦ୍ମହେ । ବକ୍ରତୁଣ୍ଡାୟ ଧୀମହି ॥

ତନ୍ନୋ ଦନ୍ତିଃ ପ୍ରଚୋଦୟାତ୍ ॥ ୮॥


               ॥ ଗଣେଶ ରୂପ ॥


ଏକଦନ୍ତଂ ଚତୁର୍ହସ୍ତଂ ପାଶମଙ୍କୁଶଧାରିଣମ୍ ॥

ରଦଂ ଚ ବରଦଂ ହସ୍ତୈର୍ବିଭ୍ରାଣଂ ମୂଷକଧ୍ୱଜମ୍ ॥

ରକ୍ତଂ ଲମ୍ବୋଦରଂ ଶୂର୍ପକର୍ଣକଂ ରକ୍ତବାସସମ୍ ॥

ରକ୍ତଗନ୍ଧାନୁଲିପ୍ତାଙ୍ଗଂ ରକ୍ତପୁଷ୍ପୈଃ ସୁପୂଜିତମ୍ ॥

    ଭକ୍ତାନୁକମ୍ପିନଂ ଦେବଂ ଜଗତ୍କାରଣମଚ୍ୟୁତମ୍ ॥

    ଆବିର୍ଭୂତଂ ଚ ସୃଷ୍ଟ୍ୟାଦୌ ପ୍ରକୃତେଃ ପୁରୁଷାତ୍ପରମ୍ ॥

    ଏବଂ ଧ୍ୟାୟତି ଯୋ ନିତ୍ୟଂ ସ ଯୋଗୀ ଯୋଗିନାଂ ବରଃ ॥ ୯॥


               ॥ ଅଷ୍ଟ ନାମ ଗଣପତି ॥


ନମୋ ବ୍ରାତପତୟେ । ନମୋ ଗଣପତୟେ । ନମଃ ପ୍ରମଥପତୟେ ।

ନମସ୍ତେଽସ୍ତୁ ଲମ୍ବୋଦରାୟୈକଦନ୍ତାୟ ।

ବିଘ୍ନନାଶିନେ ଶିବସୁତାୟ । ଶ୍ରୀବରଦମୂର୍ତୟେ ନମୋ ନମଃ ॥ ୧୦॥


               ॥ ଫଲଶ୍ରୁତି ॥


ଏତଦଥର୍ୱଶୀର୍ଷଂ ଯୋଽଧୀତେ ॥ ସ ବ୍ରହ୍ମଭୂୟାୟ କଲ୍ପତେ ॥

ସ ସର୍ୱତଃ ସୁଖମେଧତେ ॥ ସ ସର୍ୱ ବିଘ୍ନୈର୍ନବାଧ୍ୟତେ ॥

     ସ ପଞ୍ଚମହାପାପାତ୍ପ୍ରମୁଚ୍ୟତେ ॥

ସାୟମଧୀୟାନୋ ଦିବସକୃତଂ ପାପଂ ନାଶୟତି ॥

ପ୍ରାତରଧୀୟାନୋ ରାତ୍ରିକୃତଂ ପାପଂ ନାଶୟତି ॥

     ସାୟମ୍ପ୍ରାତଃ ପ୍ରୟୁଞ୍ଜାନୋ ଅପାପୋ ଭବତି ॥

     ସର୍ୱତ୍ରାଧୀୟାନୋଽପବିଘ୍ନୋ ଭବତି ॥

     ଧର୍ମାର୍ଥକାମମୋକ୍ଷଂ ଚ ବିନ୍ଦତି ॥

     ଇଦମଥର୍ୱଶୀର୍ଷମଶିଷ୍ୟାୟ ନ ଦେୟମ୍ ॥

     ଯୋ ଯଦି ମୋହାଦ୍ଦାସ୍ୟତି ସ ପାପୀୟାନ୍ ଭବତି

     ସହସ୍ରାବର୍ତନାତ୍ ଯଂ ଯଂ କାମମଧୀତେ

     ତଂ ତମନେନ ସାଧୟେତ୍ ॥ ୧୧॥


ଅନେନ ଗଣପତିମଭିଷିଞ୍ଚତି ସ ବାଗ୍ମୀ ଭବତି ॥

ଚତୁର୍ଥ୍ୟାମନଶ୍ନନ୍ ଜପତି ସ ବିଦ୍ୟାବାନ୍ ଭବତି ।

ସ ଯଶୋବାନ୍ ଭବତି ॥

ଇତ୍ୟଥର୍ୱଣବାକ୍ୟମ୍ ॥ ବ୍ରହ୍ମାଦ୍ୟାବରଣଂ ବିଦ୍ୟାତ୍

     ନ ବିଭେତି କଦାଚନେତି ॥ ୧୨॥


ଯୋ ଦୂର୍ୱାଙ୍କୁରୈର୍ୟଜତି ସ ବୈଶ୍ରବଣୋପମୋ ଭବତି ॥

ଯୋ ଲାଜୈର୍ୟଜତି ସ ଯଶୋବାନ୍ ଭବତି ॥

ସ ମେଧାବାନ୍ ଭବତି ॥

ଯୋ ମୋଦକସହସ୍ରେଣ ଯଜତି

    ସ ବାଞ୍ଛିତଫଲମବାପ୍ନୋତି ॥

ଯଃ ସାଜ୍ୟସମିଦ୍ଭିର୍ୟଜତି

    ସ ସର୍ୱଂ ଲଭତେ ସ ସର୍ୱଂ ଲଭତେ ॥ ୧୩॥


ଅଷ୍ଟୌ ବ୍ରାହ୍ମଣାନ୍ ସମ୍ୟଗ୍ଗ୍ରାହୟିତ୍ୱା

ସୂର୍ୟବର୍ଚସ୍ୱୀ ଭବତି ॥

ସୂର୍ୟଗ୍ରହେ ମହାନଦ୍ୟାଂ ପ୍ରତିମାସଂନିଧୌ

ବା ଜପ୍ତ୍ୱା ସିଦ୍ଧମନ୍ତ୍ରୋ ଭବତି ॥

ମହାବିଘ୍ନାତ୍ପ୍ରମୁଚ୍ୟତେ ॥ ମହାଦୋଷାତ୍ପ୍ରମୁଚ୍ୟତେ ॥

ମହାପାପାତ୍ ପ୍ରମୁଚ୍ୟତେ ॥

ସ ସର୍ୱବିଦ୍ଭବତି ସ ସର୍ୱବିଦ୍ଭବତି ॥

ଯ ଏବଂ ବେଦ ଇତ୍ୟୁପନିଷତ୍ ॥ ୧୪॥


॥ ଶାନ୍ତି ମନ୍ତ୍ର ॥


ଓଁ ସହନାବବତୁ ॥ ସହନୌଭୁନକ୍ତୁ ॥

ସହ ବୀର୍ୟଂ କରବାବହୈ ॥

ତେଜସ୍ୱିନାବଧୀତମସ୍ତୁ ମା ବିଦ୍ୱିଷାବହୈ ॥

ଓଁ ଭଦ୍ରଂ କର୍ଣେଭିଃ ଶୃଣୁୟାମ ଦେବା ।

ଭଦ୍ରଂ ପଶ୍ୟେମାକ୍ଷଭିର୍ୟଜତ୍ରାଃ ॥

ସ୍ଥିରୈରଙ୍ଗୈସ୍ତୁଷ୍ଟୁବାଂସସ୍ତନୂଭିଃ ।

ବ୍ୟଶେମ ଦେବହିତଂ ଯଦାୟୁଃ ॥

ଓଁ ସ୍ୱସ୍ତି ନ ଇନ୍ଦ୍ରୋ ବୃଦ୍ଧଶ୍ରବାଃ ।

ସ୍ୱସ୍ତି ନଃ ପୂଷା ବିଶ୍ୱବେଦାଃ ॥

ସ୍ୱସ୍ତିନସ୍ତାର୍କ୍ଷ୍ୟୋ ଅରିଷ୍ଟନେମିଃ ।

ସ୍ୱସ୍ତି ନୋ ବୃହସ୍ପତିର୍ଦଧାତୁ ॥

ଓଁ ଶାନ୍ତିଃ । ଶାନ୍ତିଃ ॥ ଶାନ୍ତିଃ ॥।


॥ ଇତି ଶ୍ରୀଗଣପତ୍ୟଥର୍ୱଶୀର୍ଷଂ ସମାପ୍ତମ୍ ॥

शनिवार, 11 नवंबर 2023

चौदह वर्ष के वनवास के दौरान श्रीराम कहाँ कहाँ रहे?

 चौदह वर्ष के वनवास के दौरान श्रीराम कहाँ कहाँ रहे?

प्रभु श्रीराम को 14 वर्ष का वनवास हुआ। इस वनवास काल में श्रीराम ने कई ऋषि-मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की,  संपूर्ण भारत को उन्होंने एक ही विचारधारा के सूत्र में बांधा, लेकिन इस दौरान उनके साथ कुछ ऐसा भी घटा जिसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया।

जाने-माने इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे 200 से भी अधिक स्थानों का पता लगाया है, जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहां श्रीराम और सीता रुके या रहे थे। वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय-काल की जांच-पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से की। आओ जानते हैं कुछ प्रमुख स्थानों के बारे में;

1. श्रृंगवेरपुर: - राम को जब वनवास हुआ तो वाल्मीकि रामायण और शोधकर्ताओं के अनुसार वे सबसे पहले तमसा नदी पहुंचे, जो अयोध्या से 20 किमी दूर है। इसके बाद उन्होंने गोमती नदी पार की और प्रयागराज (इलाहाबाद) से 20-22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था।

2. सिंगरौर: - इलाहाबाद से लगभग 35.2 किमी उत्तर-पश्चिम की ओर स्थित ‘सिंगरौर’ नामक स्थान ही प्राचीन समय में श्रृंगवेरपुर नाम से परिज्ञात था। रामायण में इस नगर का उल्लेख आता है। यह नगर गंगा घाटी के तट पर स्थित था। महाभारत में इसे ‘तीर्थस्थल’ कहा गया है।

3. कुरई: - इलाहाबाद जिले में ही कुरई नामक एक स्थान है, जो सिंगरौर के निकट गंगा नदी के तट पर स्थित है। गंगा के उस पार सिंगरौर तो इस पार कुरई। सिंगरौर में गंगा पार करने के पश्चात श्रीराम इसी स्थान पर उतरे थे।

इस ग्राम में एक छोटा-सा मंदिर है, जो स्थानीय लोकश्रुति के अनुसार उसी स्थान पर है, जहां गंगा को पार करने के पश्चात राम, लक्ष्मण और सीताजी ने कुछ देर विश्राम किया था।

4. चित्रकूट के घाट पर: - कुरई से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयाग पहुंचे थे। प्रयाग को वर्तमान में इलाहाबाद कहा जाता है। यहां गंगा-जमुना का संगम स्थल है। हिन्दुओं का यह सबसे बड़ा तीर्थस्थान है। प्रभु श्रीराम ने संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। यहां स्थित स्मारकों में शामिल हैं, वाल्मीकि आश्रम, मांडव्य आश्रम, भरतकूप इत्यादि।

चित्रकूट में श्रीराम के दुर्लभ प्रमाण,,चित्रकूट वह स्थान है, जहां राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं। तब जब दशरथ का देहांत हो जाता है। भारत यहां से राम की चरण पादुका ले जाकर उनकी चरण पादुका रखकर राज्य करते हैं।

5. अत्रि ऋषि का आश्रम: - चित्रकूट के पास ही सतना मध्यप्रदेश स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। वहां श्रीराम ने कुछ वक्त बिताया। 

अत्रि के आश्रम के आस-पास राक्षसों का समूह रहता था। अत्रि, उनके भक्तगण व माता अनुसूइया उन राक्षसों से भयभीत रहते थे। भगवान श्रीराम ने उन राक्षसों का वध किया। वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में इसका वर्णन मिलता है।

प्रातःकाल जब राम आश्रम से विदा होने लगे तो अत्रि ऋषि उन्हें विदा करते हुए बोले, ‘हे राघव! इन वनों में भयंकर राक्षस तथा सर्प निवास करते हैं, जो मनुष्यों को नाना प्रकार के कष्ट देते हैं। इनके कारण अनेक तपस्वियों को असमय ही काल का ग्रास बनना पड़ा है। मैं चाहता हूं, तुम इनका विनाश करके तपस्वियों की रक्षा करो।’

राम ने महर्षि की आज्ञा को शिरोधार्य कर उपद्रवी राक्षसों तथा मनुष्य का प्राणांत करने वाले भयानक सर्पों को नष्ट करने का वचन देखर सीता तथा लक्ष्मण के साथ आगे के लिए प्रस्थान किया।

6. दंडकारण्य: - अत्रि ऋषि के आश्रम में कुछ दिन रुकने के बाद श्रीराम ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के घने जंगलों को अपना आश्रय स्थल बनाया। यह जंगल क्षेत्र था दंडकारण्य। ‘अत्रि-आश्रम’ से ‘दंडकारण्य’ आरंभ हो जाता है। छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों पर राम के नाना और कुछ पर बाणासुर का राज्य था। यहां के नदियों, पहाड़ों, सरोवरों एवं गुफाओं में राम के रहने के सबूतों की भरमार है। यहीं पर राम ने अपना वनवास काटा था। यहां वे लगभग 10 वर्षों से भी अधिक समय तक रहे थे।

‘अत्रि-आश्रम’ से भगवान राम मध्यप्रदेश के सतना पहुंचे, जहां ‘रामवन’ हैं। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ क्षेत्रों में नर्मदा व महानदी नदियों के किनारे 10 वर्षों तक उन्होंने कई ऋषि आश्रमों का भ्रमण किया। दंडकारण्य क्षेत्र तथा सतना के आगे वे विराध सरभंग एवं सुतीक्ष्ण मुनि आश्रमों में गए। बाद में सतीक्ष्ण आश्रम वापस आए। पन्ना, रायपुर, बस्तर और जगदलपुर में कई स्मारक विद्यमान हैं। उदाहरणत: मांडव्य आश्रम, श्रृंगी आश्रम, राम-लक्ष्मण मंदिर आदि।

शहडोल (अमरकंटक): - राम वहां से आधुनिक जबलपुर, शहडोल (अमरकंटक) गए होंगे। शहडोल से पूर्वोत्तर की ओर सरगुजा क्षेत्र है। यहां एक पर्वत का नाम ‘रामगढ़’ है। 30 फीट की ऊंचाई से एक झरना जिस कुंड में गिरता है, उसे ‘सीता कुंड’ कहा जाता है। यहां वशिष्ठ गुफा है। दो गुफाओं के नाम ‘लक्ष्मण बोंगरा’ और ‘सीता बोंगरा’ हैं। शहडोल से दक्षिण-पूर्व की ओर बिलासपुर के आसपास छत्तीसगढ़ है।

वर्तमान में करीब 92,300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस इलाके के पश्चिम में अबूझमाड़ पहाड़ियां तथा पूर्व में इसकी सीमा पर पूर्वी घाट शामिल हैं। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण तक करीब 320 किमी तथा पूर्व से पश्चिम तक लगभग 480 किलोमीटर है।

यह क्षेत्र आजकल दंतेवाड़ा के नाम से जाना जाता है। यहां वर्तमान में गोंड जाति निवास करती है तथा समूचा दंडकारण्य अब नक्सलवाद की चपेट में है।

इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे।

स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।

दंडकारण्य क्षे‍त्र की चर्चा पुराणों में विस्तार से मिलती है। इस क्षेत्र की उत्पत्ति कथा महर्षि अगस्त्य मुनि से जुड़ी हुई है। यहीं पर उनका महाराष्ट्र के नासिक के अलावा एक आश्रम था।

7. पंचवटी, नासिक: - दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम कई नदियों, तालाबों, पर्वतों और वनों को पार करने के पश्चात नासिक में अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। मुनि का आश्रम नासिक के पंचवटी क्षेत्र में था। त्रेतायुग में लक्ष्मण व सीता सहित श्रीरामजी ने वनवास का कुछ समय यहां बिताया।

उस काल में पंचवटी जनस्थान या दंडक वन के अंतर्गत आता था। पंचवटी या नासिक से गोदावरी का उद्गम स्थान त्र्यंम्बकेश्वर लगभग 32 किमी दूर है। वर्तमान में पंचवटी भारत के महाराष्ट्र के नासिक में गोदावरी नदी के किनारे स्थित विख्यात धार्मिक तीर्थस्थान है।

अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को अग्निशाला में बनाए गए शस्त्र भेंट किए। नासिक में श्रीराम पंचवटी में रहे और गोदावरी के तट पर स्नान-ध्यान किया। नासिक में गोदावरी के तट पर पांच वृक्षों का स्थान पंचवटी कहा जाता है। ये पांच वृक्ष थे- पीपल, बरगद, आंवला, बेल तथा अशोक वट। यहीं पर सीता माता की गुफा के पास पांच प्राचीन वृक्ष हैं जिन्हें पंचवट के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि इन वृक्षों को राम-सीमा और लक्ष्मण ने अपने हाथों से लगाया था।

यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी। राम-लक्ष्मण ने खर व दूषण के साथ युद्ध किया था। यहां पर मारीच वध स्थल का स्मारक भी अस्तित्व में है। नासिक क्षेत्र स्मारकों से भरा पड़ा है, जैसे कि सीता सरोवर, राम कुंड, त्र्यम्बकेश्वर आदि। यहां श्रीराम का बनाया हुआ एक मंदिर खंडहर रूप में विद्यमान है।

मरीच का वध पंचवटी के निकट ही मृगव्याधेश्वर में हुआ था। गिद्धराज जटायु से श्रीराम की मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड में पंचवटी का मनोहर वर्णन मिलता है।

8. सीताहरण का स्थान सर्वतीर्थ: - नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद ही रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया जिसकी स्मृति नासिक से 56 किमी दूर ताकेड गांव में ‘सर्वतीर्थ’ नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है।

जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पर हुई, जो नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड गांव में मौजूद है। इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया, क्योंकि यहीं पर मरणासन्न जटायु ने सीता माता के बारे में बताया। रामजी ने यहां जटायु का अंतिम संस्कार करके पिता और जटायु का श्राद्ध-तर्पण किया था। इसी तीर्थ पर लक्ष्मण रेखा थी।

9.पर्णशाला, भद्राचलम: - पर्णशाला आंध्रप्रदेश में खम्माम जिले के भद्राचलम में स्थित है। रामालय से लगभग 1 घंटे की दूरी पर स्थित पर्णशाला को ‘पनशाला’ या ‘पनसाला’ भी कहते हैं। हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से यह एक है। पर्णशाला गोदावरी नदी के तट पर स्थित है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहां से सीताजी का हरण हुआ था। हालांकि कुछ मानते हैं कि इस स्थान पर रावण ने अपना विमान उतारा था।

इस स्थल से ही रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बिठाया था यानी सीताजी ने धरती यहां छोड़ी थी। इसी से वास्तविक हरण का स्थल यह माना जाता है। यहां पर राम-सीता का प्राचीन मंदिर है।

10. सीता की खोज तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र: - सर्वतीर्थ जहां जटायु का वध हुआ था, वह स्थान सीता की खोज का प्रथम स्थान था। उसके बाद श्रीराम-लक्ष्मण तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंच गए। तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीता की खोज में गए।

11. शबरी का आश्रम पम्पा सरोवर: - तुंगभद्रा और कावेरी नदी को पार करते हुए राम और लक्ष्‍मण चले सीता की खोज में। जटायु और कबंध से मिलने के पश्‍चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे। रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है।

पम्पा नदी भारत के केरल राज्य की तीसरी सबसे बड़ी नदी है। इसे ‘पम्बा’ नाम से भी जाना जाता है। ‘पम्पा’ तुंगभद्रा नदी का पुराना नाम है। श्रावणकौर रजवाड़े की सबसे लंबी नदी है। इसी नदी के किनारे पर हम्पी बसा हुआ है। यह स्थान बेर के वृक्षों के लिए आज भी प्रसिद्ध है। पौराणिक ग्रंथ ‘रामायण’ में भी हम्पी का उल्लेख वानर राज्य किष्किंधा की राजधानी के तौर पर किया गया है।

12. हनुमान से भेंट: - मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। यहां उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बाली का वध किया।

ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। इसी पर्वत पर श्रीराम की हनुमान से भेंट हुई थी। बाद में हनुमान ने राम और सुग्रीव की भेंट करवाई, जो एक अटूट मित्रता बन गई। जब महाबली बाली अपने भाई सुग्रीव को मारकर किष्किंधा से भागा तो वह ऋष्यमूक पर्वत पर ही आकर छिपकर रहने लगा था।

ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है। विरुपाक्ष मंदिर के पास से ऋष्यमूक पर्वत तक के लिए मार्ग जाता है। यहां तुंगभद्रा नदी (पम्पा) धनुष के आकार में बहती है। तुंगभद्रा नदी में पौराणिक चक्रतीर्थ माना गया है। पास ही पहाड़ी के नीचे श्रीराम मंदिर है। पास की पहाड़ी को ‘मतंग पर्वत’ माना जाता है। इसी पर्वत पर मतंग ऋषि का आश्रम था।

13. कोडीकरई: - हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने अपनी सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। मलय पर्वत, चंदन वन, अनेक नदियों, झरनों तथा वन-वाटिकाओं को पार करके राम और उनकी सेना ने समुद्र की ओर प्रस्थान किया। श्रीराम ने पहले अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित किया।

तमिलनाडु की एक लंबी तटरेखा है, जो लगभग 1,000 किमी तक विस्‍तारित है। कोडीकरई समुद्र तट वेलांकनी के दक्षिण में स्थित है, जो पूर्व में बंगाल की खाड़ी और दक्षिण में पाल्‍क स्‍ट्रेट से घिरा हुआ है।

लेकिन राम की सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उचित भी नहीं है, तब श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम की ओर कूच किया।

14.रामेश्‍वरम: - रामेश्‍वरम समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और सन बेदिंग के लिए आदर्श है। रामेश्‍वरम प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केंद्र है। 

15.धनुषकोडी: : - वाल्मीकि के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूंढ़ निकाला, जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो। उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करने का फैसला लिया।

छेदुकराई तथा रामेश्वरम के इर्द-गिर्द इस घटना से संबंधित अनेक स्मृतिचिह्न अभी भी मौजूद हैं। नाविक रामेश्वरम में धनुषकोडी नामक स्थान से यात्रियों को रामसेतु के अवशेषों को दिखाने ले जाते हैं।

धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्‍य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गांव है। धनुषकोडी पंबन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्‍नार से करीब 18 मील पश्‍चिम में है।

इसका नाम धनुषकोडी इसलिए है कि यहां से श्रीलंका तक वानर सेना के माध्यम से नल और नील ने जो पुल (रामसेतु) बनाया था उसका आकार मार्ग धनुष के समान ही है। इन पूरे इलाकों को मन्नार समुद्री क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है। धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच एकमात्र स्‍थलीय सीमा है, जहां समुद्र नदी की गहराई जितना है जिसमें कहीं-कहीं भूमि नजर आती है।

दरअसल, यहां एक पुल डूबा पड़ा है। 1860 में इसकी स्पष्ट पहचान हुई और इसे हटाने के कई प्रयास किए गए। अंग्रेज इसे एडम ब्रिज कहने लगे तो स्थानीय लोगों में भी यह नाम प्रचलित हो गया। अंग्रेजों ने कभी इस पुल को क्षतिग्रस्त नहीं किया लेकिन आजाद भारत में पहले रेल ट्रैक निर्माण के चक्कर में बाद में बंदरगाह बनाने के चलते इस पुल को क्षतिग्रस्त किया गया।

30मील लंबा और सवा मील चौड़ा यह रामसेतु 5 से 30 फुट तक पानी में डूबा है। श्रीलंका सरकार इस डूबे हुए पुल (पम्बन से मन्नार) के ऊपर भू-मार्ग का निर्माण कराना चाहती है जबकि भारत सरकार नौवहन हेतु उसे तोड़ना चाहती है। इस कार्य को भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट का नाम दिया है। श्रीलंका के ऊर्जा मंत्री श्रीजयसूर्या ने इस डूबे हुए रामसेतु पर भारत और श्रीलंका के बीच भू-मार्ग का निर्माण कराने का प्रस्ताव रखा था।

16.’नुवारा एलिया’ पर्वत श्रृंखला: --वाल्मिकी रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। ‘नुवारा एलिया’ पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है।

श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएं, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है। आजकल भी इन स्थानों की भौगोलिक विशेषताएं, जीव, वनस्पति तथा स्मारक आदि बिलकुल वैसे ही हैं जैसे कि रामायण में वर्णित किए गए हैं।


बुधवार, 1 नवंबर 2023

महिलाओं के 16 श्रृंगार

 *🌹करवा चौथ :सौभाग्य का प्रतीक,सुहागन महिलाओं के 16 श्रृंगार की चर्चा:-🌹*

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*🌼 भारत की हिंदू महिलाएं किसी भी पर्व, त्योहार या मांगलिक कार्यों में पारंपरिक श्रृंगार करती हैं, यानी महिलाएं सजने संवरने का कार्य करती है जिसे मेकअप करना कहते हैं , करवा चौथ, हरियाली तीज, दिवाली, दशहरा आदि पर  सजने-संवरने के लिए महिलाएं कई तरह के सौंदर्य प्रसाधनों का उपयोग करती हैं। सौभाग्य के लिए भी 16 श्रृंगार किया जाता हैं*

*🌸1. स्नान :-श्रृंगारों का प्रथम चरण है स्नान। कोई भी और श्रृंगार करने से पूर्व नियम पूर्वक स्नान करते हैं। स्नान में शिकाकाई, भृंगराज, आंवला, उबटन और अन्य कई सामग्रियां मिलाते हैं। तब वस्त्र धारण करते हैं। दुल्हन हैं तो लाल रंग का लहंगा पहनती है, जिसमें हरे और पीले रंग का उपयोग भी होता।*

*🌸2. बिंदी :-सुहागिन महिलाओं द्वारा कुमकुम की बिंदी को माथे पर लगाना पवित्र माना जाता है। यह गुरु के बल को बढ़ती है।*

*🌸3. सिंदुर :-सिंदुर से मांग भरी जाती है। ऐसा माना जाता है कि इससे पति की आयु वृद्धि होती है।*

*🌸4. काजल :- काजल से आंखों की सुंदरता बढ़ जाती है और इससे मंगलदोष भी दूर होता है।*

*🌸5. मेहंदी :- मेहंदी से हाथों की सुंदरता बढ़ती है। मेहंदी लगाना शुभ होता है। कहते हैं कि इससे पति का प्यार मिलता है।*

*🌸6. चूड़ियां :-चूड़ियां सुहाग का प्रतीक है। लाल रंग खुशी का और हरा रंग समृद्धि का प्रतीक है।*

*🌸7. मंगल सूत्र :-मंगल सूत्र भी सुहाग का प्रतीक माना जाता है। इसके काले मोती बुरी नजर से बचाते हैं। इसके अलावा गले में नौलखा हार या कहें कि स्वर्णमाला भी पहनते हैं।* 

*🌸8. नथ :- इसे नथनी भी कहते हैं। नाक में चांदी का तार या लौंग पहना जरूरी होता है। इससे जहां सुंदरता बढ़ती हैं वहं बुध का दोष भी दूर होता है।*

*🌸9. गजरा :- इसे वेणी या चूड़ा मणि भी कहते हैं। यह बालों में सुंदरता और सुगंध के लिए लगाया जाता है।*

*🌸10. मांग टीका :- यह माथे के बीचोबीच पहना जाता है। यह विवाह के बाद शालीनता और सादगी से जीवन बिताने का प्रतीक है।*

*🌸11. झुमके :-इसे कुंडल और बाली भी कहते हैं। कानों में स्वर्ण बाली या झुमके पहनने से राहु और केतु का दोष दूर होता है। यह इस बात का भी प्रतीक है कि ससुराल वालों की बुराई करने और सुनने से दूर रहना।*

*🌸12. बाजूबंद :- यह सोने या चांदी का सुंदर सा कड़े की आकृति का जेवर रहता है जो बाजू में पहना जाता है। इससे परिवार के धन और समृद्धि की रक्षा होती है।*

*🌸13. कमरबंद :-इसे तगड़ी भी कहते हैं। यह कमर में पहना जाता है। यह इस बात का प्रतीक है कि सुहागिन आप अपने घर की मालकिन है। यह साड़ी को संभालकर भी रखता है।*

*🌸14. बिछिया :- इसे बिछुआ भी कहते हैं। यह पैरों के अंगुली में पहनी जाती है। यह सूर्य और शनि के दोष दूर करती है और यह इस बात का प्रतीक भी है कि सुहागिन अब हर समस्याओं का साहस के साथ सामना करेगी।*

*🌸15. पायल :- इसे पाजेप भी कहते हैं। पायल और बिछिया दोनों ही चांदी की ही पहनते हैं।*

*🌸16. अंगूठी :-विवाह के पूर्व यह मंगनी के दौरान पति अपनी पत्नी को पहनाता है।*

*🌺इसके अलावा आजकल नेलपेंट और लिपस्टिक का भी प्रचलन हो चला है। हालांकि पौराणिक समय में और भी कई तरह के 16 श्रृंगार होते थे जिसमें अधरों और नख का रंगना, तांबूल आदि कई और भी श्रृंगार की सामग्री शामिल थीं,,!!*


   *सभी सम्मान्नित,सुहागन महिलाओं को समर्पित,,!!*

सोमवार, 30 अक्टूबर 2023

पूजा के लिए पंचामृत बनाने की विधि

 *स्वस्थसमृद्धपरिवार निर्माण प्रयास में*


*पूजा के लिए पंचामृत बनाने की विधि*


*किसी खास अवसर, व्रत-त्योहारों पर भगवान को नैवेद्य (भोग) के रूप में पंचामृत अर्पित करना चाहिए। पंचामृत में पांच चीजों का मिश्रण होता है जिसमें – दूध, दही, घी ,शहद, और शक्कर शामिल है।*


*पंचामृत का महत्व*


*पंचामृत को हिंदू धर्म में बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। यह केवल नैवेद्य (भोग) ही नहीं है,बल्कि एक दिव्य और पवित्र अमृत है।*



*पंचामृत के 5 घटक* 


*पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जैसे 5 महाभूतों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसमें सृष्टि के मूल तत्व समाहित हैं।*


*यह देवी-देवताओं को भेंट करने का एक पवित्र माध्यम है और पूजा को सार्थक बनाता है।*


*पंचामृत में तुलसी के पत्ते डाले जाते हैं जो इसे और भी शुद्ध बना देते हैं।*


*यह हमारे शरीर, मन और आत्मा का शुद्धिकरण करता है और हमें आध्यात्मिक लाभ प्रदान करता है।*


*पंचामृत को भगवान को अर्पित करना फिर प्रसाद रूप में इसका सेवन करना एक आनंददायक अनुभव होता है जो हमें दिव्यता का एहसास कराता है।*

*इस प्रकार, पंचामृत एक बहुमूल्य और पवित्र अमृत है जिसे हिंदू धर्म में बड़े आदर के साथ माना जाता है। यह सच्चे अर्थों में एक दिव्य अमृत है।*


*पंचामृत में शामिल प्रमुख घटक और उनका महत्व*


*पंचामृत को बनाने के लिए 5 मुख्य घटकों का उपयोग किया जाता है जिनका अपना विशेष महत्व है:*


*1. दूध:- दूध शुद्धता और पोषण का प्रतीक है।*


*गाय का कच्चा दूध सबसे उपयुक्त होता है।पूर्ण क्रीम वाला दूध इस्तेमाल करना चाहिए।*


*2. दही:-दही समृद्धि और सकारात्मकता का प्रतीक है।*


*घर पर बनी ताज़ा दही सबसे अच्छी होती है। यह पंचामृत को क्रीमी बनाती है।*


*3. घी:-घी शुद्धिकरण और ऊर्जा का प्रतीक हैशुद्ध देसी घी का प्रयोग करना चाहिए।*


*4. शहद:- शहद मधुर बोलने का प्रतीक है।शुद्ध और प्राकृतिक शहद लेना चाहिए।*


*5. चीनी:-चीनी जीवन की मिठास को दर्शाती है,सफेद चीनी या मिश्री का उपयोग किया जा सकता है।*


*इन पांचों घटकों के संयोजन से पंचामृत की दिव्यता निर्मित होती है।*


*पंचामृत में तुलसी का महत्व*


*तुलसी को हिंदू धर्म में सबसे पवित्र पौधा माना जाता है।*


*तुलसी में शुद्धिकरण और शक्ति वर्धक गुण होते हैं।*


*पंचामृत में तुलसी के पत्ते डालने से इसकी पवित्रता और शक्ति बढ़ जाती है।*


*तुलसी के एंटीऑक्सीडेंट और फाइटोकेमिकल्स पंचामृत को और शुद्ध बनाते हैं।*


*पूजा के दौरान तुलसी सकारात्मक ऊर्जा अवशोषित करती है।*


*तुलसी युक्त पंचामृत एक शक्तिशाली प्रसाद बन जाता है।*


*तुलसी पंचामृत के पवित्र और आध्यात्मिक गुणों को बढ़ाती है।*


*इसलिए पंचामृत में तुलसी शामिल करना बहुत महत्वपूर्ण है।*



*पंचामृत की क्षेत्रीय विविधता*


*पंचामृत की रोचक विशेषताओं में से एक इसके विभिन्न क्षेत्रीय विविधता है।*


*आइए पंचामृत के कुछ लोकप्रिय क्षेत्रीय रूपों पर एक नज़र डालें:*


*महाराष्ट्र का पंचामृत –इसमें 5 मुख्य घटकों के साथ केले के टुकड़े और नारियल पानी मिलाया जाता है।*


*गुजराती पंचामृत – इसमें 5 मुख्य घटकों के साथ खजूर, अंजीर, किशमिश, अखरोट और केसर मिलाया जाता है।*


*ओडिशा का पंचामृत – इसमें आम का पल्प और कटहल के साथ मूल घटक डाले जाते हैं।*


*बंगाली पंचामृत – 5 मुख्य घटकों के साथ इसमें सुगंध लाने के लिए नारियल और इलायची डाली जाती है।*


*अतिरिक्त घटक कुछ और आकर्षक विकल्प जो आप पंचामृत में जोड़ सकते हैं:*


*केसर के रेशमी धागे जो सुंदर सुनहरा रंग और खुशबू देते हैं*


*जायफल का पाउडर जिससे कड़वा-मीठी सुगंध आती है*


*इलायची जो प्रतिरक्षा व पाचन क्षमता बढ़ाती है*


*पिस्ता या बादाम जो क्रंचिनेस देते हैं*


*केवड़ा पानी या गुलाब जल जो फूलों की खुशबू देते हैं*


*सारांश में, पंचामृत अपने मूल आध्यात्मिक तत्वों को बनाए रखते हुए भी स्थानीय पसंद को अपना लेता है। अपनी पूजा में विविधता लाने के लिए इन क्षेत्रीय विकल्पों को आज़माएँ!*


*पंचामृत को बनाते समय इन बातों का रखें ध्यान*


*पंचामृत को दिखने में सुंदर, खुशबूदार और स्वादिष्ट बनाने के लिए कुछ महत्वपूर्ण तकनीकें हैं जिनका ध्यान रखना चाहिए।*


*उपयुक्त बर्तन का चयन करें*


*पंचामृत बनाने और परोसने के लिए चांदी या स्टील के बर्तन का इस्तेमाल करें। चांदी शुद्धता का प्रतीक है और नैवेद्य की पवित्रता बढ़ाती है। लोहा या प्लास्टिक के बर्तनों से बचें क्योंकि वे रासायनिक प्रतिक्रिया कर सकते हैं।*


*सही अनुपात में सामग्री मिलाएँ*


*दूध और दही का अनुपात 3:1 या 4:1 होना चाहिए ताकि स्वाद संतुलित बना रहे। केसर, इलायची आदि की बहुत कम मात्रा डालनी चाहिए। तरल पदार्थ और चीनी का स्तर सही होना चाहिए ताकि पंचामृत की बनावट सही बने।*


*मिश्रण का सही क्रम अपनाएँ*


*पहले दूध और दही को अच्छी तरह मिलाएँ, फिर चीनी मिलाकर घोलें, उसके बाद घी, शहद और अंत में सुगंधित पदार्थ जैसे केसर मिलाएँ। अंत में तुलसी पत्तियों से सजाएँ।*


*श्रद्धा और भक्ति से अर्पित करें*


*इन तकनीकों का पालन करके आप दिखने और स्वाद में शानदार पंचामृत तैयार कर सकते हैं।* 


*मंदिरों में इस्तेमाल होने वाली परंपरागत विधि का अनुसरण करें और श्रद्धा भाव से भगवान को अर्पण करें।*


 *आइए जानते हैं पंचामृत बनाने की सरल पारंपरिक विधि* 


*अब जबकि आप पंचामृत के महत्व और घटकों के बारे में जानते हैं, चलिए घर पर इस दिव्य नैवेद्य को बनाने की विस्तृत रेसिपी पर एक नज़र डालें।*


*सामग्री:*


*1 कप गाय का दूध*

*1/4 कप दही*

*1 बड़ा चम्मच चीनी*

*1 चम्मच घी*

*1 चम्मच शहद*

*2-3 तुलसी के पत्ते*

*केसर की एक पिंच (वैकल्पिक)*


*बनाने की विधि:*


*एक साफ़ चांदी या स्टील के बोल में 1 कप गाय का दूध लें।*


*अपनी पसंद के मुताबिक़ दही डालें।*


*क्रीमी बनावट के लिए*

 

*1/4 कप दही डालें।*

*1 बड़ा चम्मच चीनी डालकर अच्छी तरह मिलाएँ।*

*अब इसमें 1 चम्मच शुद्ध गाय का घी डालकर अच्छी तरह मिलाएँ।*

*अब 1 चम्मच शहद डालकर अच्छी तरह मिलाएँ।*

*केसर की एक पिंच बिछाएँ (वैकल्पिक)।* *केसर अच्छी तरह मिल जाए तब तक मिलाएँ।*

*2-3 तुलसी के पत्ते धोकर पंचामृत में आराम से डाल दें।*

*2-3 मिनट के लिए निस्पंदित होने दें।* 


*पंचामृत अब चढ़ाने के लिए तैयार है!*


*प्रत्येक बार पंचामृत निकालते समय साफ़ चम्मच का प्रयोग करें।*


*तैयार करते समय मंत्रोच्चारण करने से अतिरिक्त आध्यात्मिक ऊर्जा मिलती है।*


*सही घटकों और विधि से पंचामृत बनाना आसान है। अपने पसंदीदा क्षेत्रीय स्वादों के साथ इसे कस्टमाइज़ करें। भगवान को समर्पित करने के लिए भक्ति के साथ चढ़ाएँ!*



*पंचामृत के बारे में कुछ आम प्रश्नों के उत्तर इस प्रकार हैं:*



*प्रश्न: पंचामृत में कौन सी सामग्रियां होती हैं?*



*उत्तर: पंचामृत बनाने की 5 मुख्य सामग्रियां हैं: -दूध -दही -घी -शहद -चीनी बेहतर आध्यात्मिक लाभ के लिए पारंपरिक रूप से तुलसी के पत्ते भी डाले जाते हैं।*


*प्रश्न: क्या पंचामृत में चीनी की जगह मिश्री का उपयोग किया जा सकता है?*



*उत्तर: हाँ, पंचामृत को और सात्विक और आध्यात्मिक रूप से पौष्टिक बनाने के लिए आमतौर पर सफेद चीनी की जगह मिश्री का उपयोग किया जाता है।*


*प्रश्न: अधिकतम लाभ के लिए पंचामृत कैसे लिया जाना चाहिए?*


*उत्तर: -पंचामृत को छोटी मात्रा में पवित्र प्रसाद के रूप में ग्रहण करें। -सेवन के दौरान पवित्र मंत्रोच्चारण करके इसकी आध्यात्मिक शक्ति को बढ़ाएं। -बाद में तुलसी के पत्ते चबाकर पंचामृत के सारे लाभों को अवशोषित करें। इस प्रकार पंचामृत का सेवन करने से आपको इसके अधिकतम लाभ प्राप्त होंगे।*



शनिवार, 21 अक्टूबर 2023

अद्भूत 001

 #अद्भूत 🙏


गणित में कोई भी संख्या 1 से 10 तक के सभी अंकों से नहीं कट सकती, लेकिन इस विचित्र संख्या को देखिये ..!


दरअसल, सदियों तक यह माना जाता रहा था कि ऐसी कोई भी संख्या नहीं है जिसे 1 से 10 तक के सभी अंको से विभाजित किया जा सके। लेकिन रामानुजन ने इन अंकों के साथ माथापच्ची करके इस मिथ को भी तोड़ दिया था। उन्होंने एक ऐसी संख्या खोजी थी जिसे 1 से 10 तक के सभी अंकों से विभाजित किया जा सकता है। यानी भाग दिया जा सकता है। यह संख्या है 2520,


संख्या 2520 अन्य संख्याओं की तरह वास्तव में एक सामान्य संख्या नही है, यह वो संख्या है जिसने विश्व के गणितज्ञों को अभी भी आश्चर्य में किया हुआ है।


यह विचित्र संख्या 1 से 10 तक प्रत्येक अंक से भाज्य है। ऐसी संख्या जिसे इकाई तक के किसी भी अंक से भाग देने के उपरांत शेष शून्य रहे, बहुत ही असम्भव/ दुर्लभ है - ऐसा प्रतीत होता है।


अब निम्न सत्य को देखें : 


2520 ÷ 1 = 2520

2520 ÷ 2 = 1260

2520 ÷ 3 = 840

2520 ÷ 4 = 630

2520 ÷ 5 = 504

2520 ÷ 6 = 420

2520 ÷ 7 = 360

2520 ÷ 8 = 315

2520 ÷ 9 = 280

2520 ÷ 10 = 252


 महान गणितज्ञ अभी भी आश्चर्यचकित है  : 2520 वास्तव में एक गुणनफल है《7 x 30 x 12》का। उन्हे और भी आश्चर्य हुआ जब प्रमुख गणितज्ञ द्वारा यह संज्ञान में लाया गया कि संख्या 2520 हिन्दू संवत्सर के अनुसार एकमात्र यही संख्या है जो वास्तव में उचित बैठ रही है, जो इस गुणनफल से प्राप्त हैः 


सप्ताह के दिन (7) x माह के दिन (30) x वर्ष के माह (12) = 2520



यही है भारतीय गणना की श्रेष्ठता 🙏

बुधवार, 18 अक्टूबर 2023

एक स्त्री के पूरे जीवनचक्र का बिम्ब है *नवदुर्गा* के नौ स्वरूप

 एक स्त्री के पूरे जीवनचक्र का बिम्ब है *नवदुर्गा* के नौ स्वरूप-


1. जन्म ग्रहण करती हुई कन्या "शैलपुत्री" स्वरूप है !

2. कौमार्य अवस्था तक "ब्रह्मचारिणी" का रूप है !

3. विवाह से पूर्व तक चंद्रमा के समान निर्मल होने से वह "चंद्रघंटा" समान है !

4. नए जीव को जन्म देने के लिए गर्भ धारण करने पर वह "कूष्मांडा" स्वरूप है !

5. संतान को जन्म देने के बाद वही स्त्री "स्कन्दमाता" हो जाती है !

6. संयम व साधना को धारण करने वाली स्त्री "कात्यायनी" रूप है !

7. अपने संकल्प से पति की अकाल मृत्यु को भी जीत लेने से वह "कालरात्रि" जैसी है !

8. संसार ( कुटुंब ही उसके लिए संसार है ) का उपकार करने से "महागौरी" हो जाती है !


9. धरती को छोड़कर स्वर्ग प्रयाण करने से पहले संसार मे अपनी संतान को सिद्धि ( समस्त सुख-संपदा ) का आशीर्वाद देने वाली "सिद्धिदात्री" हो जाती है !


*आप सपरिवार को शारदीय नवरात्र की अनंत शुभकामनाएँ.!!*

रविवार, 15 अक्टूबर 2023

शक्ति रुपेण मां दुर्गा

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*🚩🕉️शक्ति रुपेण मां दुर्गा*


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*🚩🕉️दुर्गा मां शक्ति हिन्दुओं की प्रमुख देवी हैं जिन्हें देवी, शक्ति और पार्वती,जग्दम्बा और आदि नामों से भी जाना जाता हैं शाक्त सम्प्रदाय की वह मुख्य देवी हैं जिनकी तुलना परम ब्रह्म से की जाती है। दुर्गा को आदि शक्ति, प्रधान प्रकृति, गुणवती योगमाया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकार रहित बताया गया है। वह अंधकार व अज्ञानता रुपी राक्षसों से रक्षा करने वाली तथा कल्याणकारी हैं। उनके बारे में मान्यता है कि वे शान्ति, समृद्धि तथा धर्म पर आघात करने वाली राक्षसी शक्तियों का विनाश करतीं हैं।*


*🚩अन्य नाम🚩*


*🚩🕉️देवी, शक्ति, गौरी, नारायणी, ब्राह्मणी, वैष्णवी, कल्याणी, शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री, आदि शक्ति, सती,*


*🚩🕉️मां दुर्गा के मंत्र*


*🕉️ॐ सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके सारण्ये त्र्यमबिके गौरी नारायणी नमोस्तुते ॥*


*🕉️ॐ सर्वस्वरूपे सर्वेसे सर्वशक्ति समन्विते भये भयस्त्रही नौ देवी दुर्गे देवि नमोस्तुते*


*🚩🕉️मां दुर्गा के अस्त्र*


*🔱⚜️त्रिशूल, चक्र, गदा, धनुष, शंख, तलवार,कमल, तीर, अभयहस्त , परशु, रस्सी , पाश , भाला , ढाल , डमरू , खप्पर , अग्निकटोरी*


*🚩🕉️मां दुर्गा द्वारा लड़े गये युद्ध*


*🕉️🚩महिषासुर वध, धूमरलोचन वध, शुम्भ- निशुंभ वध, दुर्गमासुर वध*


*🚩🪔मां दुर्गा का प्रतीक*


*🕉️🚩कुमारी कन्या और कलश*


*🕉️🚩मां का वर्ण*


*🕉️🚩लाल, पीला और केसरिया*


*🚩🕉️जीवनसाथी* *भगवान शिव*


*🚩🕉️भाई-बहन - विष्णु, गंगा*


*🚩🕉️मां दुर्गा की सवारी*


*🚩🕉️सिंह, हर तिथि पर अलग वाहन होता है*


*🚩🕉️त्यौहार व उत्सव* 


*🚩🕉️चैत्र नवरात्रि, श्रावणी नवरात्रि, शारदीय नवरात्रि, गुप्त नवरात्रि, दुर्गाष्टमी, महासप्तमी, महानवमि, कन्यापूजन और दशाएन*


*🚩🕉️दुर्गा का निरूपण सिंह पर सवार एक देवी के रूप में की जाती है। दुर्गा देवी आठ भुजाओं से युक्त हैं जिन सभी में कोई न कोई शस्त्रास्त्र होते है। उन्होने महिषासुर नामक असुर का वध किया। महिषासुर (= महिष + असुर = भैंसा जैसा असुर) करतीं हैं। हिन्दू ग्रन्थों में वे शिव की पत्नी दुर्गा के रूप में वर्णित हैं। जिन ज्योतिर्लिंगों में देवी दुर्गा की स्थापना रहती है उनको सिद्धपीठ कहते है। वहाँ किये गए सभी संकल्प पूर्ण होते है। माता का दुर्गा देवी नाम दुर्गम नाम के महान दैत्य का वध करने के कारण पड़ा। माता ने शताक्षी स्वरूप धारण किया और उसके बाद शाकंभरी देवी के नाम से विख्यात हुई शाकंभरी देवी ने ही दुर्गमासुर का वध किया। जिसके कारण वे समस्त ब्रह्मांड में दुर्गा देवी के नाम से भी विख्यात हो गई। माता के देश में अनेकों मंदिर हैं कहीं पर महिषासुरमर्दिनि शक्तिपीठ तो कहीं पर कामाख्या देवी। यही देवी कोलकाता में महाकाली के नाम से विख्यात और सहारनपुर के प्राचीन शक्तिपीठ मे शाकम्भरी देवी के रूप में ये ही पूजी जाती हैं।*


*🚩🕉️हिन्दुओं के शक्ति साम्प्रदाय में भगवती दुर्गा को ही दुनिया की पराशक्ति और सर्वोच्च देवता माना जाता है (शाक्त साम्प्रदाय ईश्वर को देवी के रूप में मानता है)। वेदों में तो दुर्गा का व्यापाक उल्लेख है, किन्तु उपनिषद में देवी "उमा हैमवती" (उमा, हिमालय की पुत्री) का वर्णन है। पुराण में दुर्गा को आदिशक्ति माना गया है। दुर्गा असल में शिव की पत्नी आदिशक्ति का एक रूप हैं, शिव की उस पराशक्ति को प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकाररहित बताया गया है। एकांकी (केंद्रित) होने पर भी वह माया शक्ति संयोगवश अनेक हो जाती है। उस आदि शक्ति देवी ने ही सावित्री(ब्रह्मा जी की पहली पत्नी), लक्ष्मी, और मुख्य रूप से पार्वती(सती) के रूप में जन्म लिया और उसने ब्रह्मा, विष्णु और महेश से विवाह किया था। तीन रूप होकर भी दुर्गा (आदि शक्ति) एक ही है।*


*🚩🕉️देवी दुर्गा के स्वयं कई रूप हैं (सावित्री, लक्ष्मी एव पार्वती से अलग)। मुख्य रूप उनका "गौरी" है, अर्थात शान्तमय, सुन्दर और गोरा रूप। उनका सबसे भयानक रूप "काली" है, अर्थात काला रूप। विभिन्न रूपों में दुर्गा भारत और नेपाल के कई मन्दिरों और तीर्थस्थानों में पूजी जाती हैं।भगवती दुर्गा की सवारी शेर है।*


*🚩🕉️मार्कण्डेय पुराण में ब्रहदेव ने मनुष्‍य जाति की रक्षा के लिए एक परम गुप्‍त, परम उपयोगी और मनुष्‍य का कल्‍याणकारी देवी कवच एवं व देवी सुक्‍त बताया है और कहा है कि जो मनुष्‍य इन उपायों को करेगा, वह इस संसार में सुख भोग कर अन्‍त समय में बैकुण्‍ठ को जाएगा। ब्रहदेव ने कहा कि जो मनुष्‍य दुर्गा सप्तशती का पाठ करेगा उसे सुख मिलेगा। भगवत पुराण के अनुसार माँ जगदम्‍बा का अवतरण श्रेष्‍ठ पुरूषो की रक्षा के लिए हुआ है। जबकि श्रीं मद देवीभागवत के अनुसार वेदों और पुराणों कि रक्षा के और दुष्‍टों के दलन के लिए माँ जगदंबा का अवतरण हुआ है। इसी तरह से ऋगवेद के अनुसार माँ दुर्गा ही आदि-शक्ति है, उन्‍ही से सारे विश्‍व का संचालन होता है और उनके अलावा और कोई अविनाशी नही है।*


*🚩🕉️इसीलिए नवरात्रि के दौरान नव दुर्गा के नौ रूपों का ध्‍यान, उपासना व आराधना की जाती है तथा नवरात्रि के प्रत्‍येक दिन मां दुर्गा के एक-एक शक्ति रूप का पूजन किया जाता है।*


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दशहरे का सन्देश

https://ashutoshamruta.blogspot.com/2022/05/blog-post_34.html



 एक स्त्री के पूरे जीवनचक्र का बिम्ब है *नवदुर्गा* के नौ स्वरूप-

1. जन्म ग्रहण करती हुई कन्या "शैलपुत्री" स्वरूप है !

2. कौमार्य अवस्था तक "ब्रह्मचारिणी" का रूप है !

3. विवाह से पूर्व तक चंद्रमा के समान निर्मल होने से वह "चंद्रघंटा" समान है !

4. नए जीव को जन्म देने के लिए गर्भ धारण करने पर वह "कूष्मांडा" स्वरूप है !

5. संतान को जन्म देने के बाद वही स्त्री "स्कन्दमाता" हो जाती है !

6. संयम व साधना को धारण करने वाली स्त्री "कात्यायनी" रूप है !

7. अपने संकल्प से पति की अकाल मृत्यु को भी जीत लेने से वह "कालरात्रि" जैसी है !

8. संसार ( कुटुंब ही उसके लिए संसार है ) का उपकार करने से "महागौरी" हो जाती है !

9. धरती को छोड़कर स्वर्ग प्रयाण करने से पहले संसार मे अपनी संतान को सिद्धि ( समस्त सुख-संपदा ) का आशीर्वाद देने वाली "सिद्धिदात्री" हो जाती है !


*आप सपरिवार को शारदीय नवरात्र की अनंत शुभकामनाएँ.!!*

शनिवार, 30 सितंबर 2023

पितृकार्य का विशेष महत्व

 ॐ  देवताभ्य: पितृभ्यश्च  महायोगिभ्य एव च ,

 नम: स्वाहायै  स्वधायै  नित्यमेव नमो नम:  .. ॐ अर्यमा न त्रिप्यताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा  नमः ...ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय .. 

 पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है .. अर्यमा पितरों के देव हैं.. अर्यमा को प्रणाम , हे पिता, पितामह और प्रपितामह तथा हे माता, मातामह और प्रमातामह, आपको भी बारम्बार प्रणाम .. 

आप हमें मृत्यु से अमृतत्व  की ओर ले चलें .. 

 .. अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।

पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्   .. श्री गीता में श्री भगवान ने कहा है .. हे धनंजय !  नागों में मैं शेषनाग और जलचरों में वरुण हूं;

पितरों में "अर्यमा" तथा नियमन करने वालों में यमराज हूं .. 

अर्यमा : आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की किरण (अर्यमा) और किरण के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर  व्याप्त रहता है ..  पितरों में श्रेष्ठ है अर्यमा .. अर्यमा पितरों के देव  हैं ..ये महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति के पुत्र हैं और इंद्रादि देवताओं के भाई .. पुराण के अनुसार उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास लोक है ..  इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती है..  जड़-चेतनमयी सृष्टि में शरीर का निर्माण नित्य पितर  ही करते हैं  .. इनके प्रसन्न होने पर पितरों की तृप्ति होती है . श्राद्ध के समय इनके नाम से जलदान दिया जाता है,  यज्ञ में मित्र (सूर्य) तथा वरुण (जल) देवता के साथ स्वाहा का 'हव्य' और श्राद्ध में स्वधा का 'कव्य' दोनों स्वीकार करते हैं.. 

।।श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छ्राद्धम्।। .. जो पितरों के निमित्त श्रद्धा पूर्वक दिया जाता है  वह श्राद्ध है .. 

गरूड़ पुराण के अनुसार पितर ऋण मुक्ति हेतु , श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध करना ही चाहिये ..  कल्पदेव कुर्वीत समये श्राद्धं  कुले कश्चिन्न सीदति .. 

आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं  कीर्तिं   पुष्टिं   बलं श्रियम् .. 

पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात्  पितृपूजनात् 

 देवकार्यादपि सदा सपितृकार्यं  विशिष्यते .. 

देवताभ्यः पितृणां हि पूर्वमाप्यायनं शुभम् .. 

अर्थात,  समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुखी नहीं  रहता..   

पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, श्री, पशु, सुख और धन-धान्य प्राप्त करता है.. 

उत्तरायण में देवताओं का दिन और पितरों की रात्रि  कही गई है .. दक्षिणायन  में श्रावण के पश्चात् पितरों का दिन प्रारम्भ माना जाता है ..  अश्विन कृष्ण पक्ष में पितरों को भोजन कराने का समय नियत है .. 

देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्व है..  देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी है .. 

 श्री स्कन्दमहापुराण  में कहा गया है कि सूर्यदेव के कन्या राशि पर स्थित होनै के पश्चात  आश्विन कृष्णपक्ष (श्राद्धपक्ष या महालय) में पितर अपने वंशजों द्वारा किए जाने वाले श्राद्ध व तर्पण से तृप्ति की इच्छा रखते हैं ..  जो मनुष्य पितरों की मृत्यु तिथि पर श्राद्ध -तर्पण करेंगे, उनके उस श्राद्ध से पितरों को एक वर्ष तक तृप्ति  बनी रहेगी तथा पितरों का आशीर्वाद मिलता है .. 



ब्रह्मपुराण में कहा गया है 

 “आयु: प्रजां धनं विद्यां स्वर्गं मोक्षं सुखानि च , 

प्रयच्छन्ति तथा राज्यं पितर: श्राद्ध तर्पिता .. ”

अर्थात श्राद्ध के द्वारा प्रसन्न हुए पितृगण मनुष्यों को पुत्र,  धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष तथा स्वर्ग आदि प्रदान करते हैं  इस दौरान मांगलिक कार्य, शुभ कार्य, विवाह और विवाह की बात चलाना वर्जित है.. 

श्राद्ध केवल अपराह्न काल में ही करें..  श्राद्ध में तीन वस्तुएं  परम पवित्र हैं- दुहिता पुत्र ( पुत्री का पुत्र ) .. कुतपकाल (दिन का आठवां भाग .. ११. ३६. से १२ बज कर २४ मिनट तक  का समय ) तथा काले तिल ..  श्राद्ध में तीन प्रशंसनीय बातें हैं- बाहर-भीतर की  शुद्धि,  क्रोध नहीं करना तथा जल्दबाजी नहीं करना .. 

 “पद्म पुराण” तथा “मनुस्मृति” के अनुसार श्राद्ध का दिखावा नहीं करें, उसे गुप्त रूप से एकांत में करें ..  धनी होने पर भी इसका विस्तार नही करें तथा भोजन के माध्यम से मित्रता, सामाजिक या व्यापारिक संबंध स्थापित न करें ..  श्राद्ध काल में श्रीमद्भागवत् गीता, पितृसूक्त, ऐन्द्रसूक्त, मधुमति सूक्त आदि का पाठ करना मन, बुद्धि एवं कर्म की शुद्धि के लिए फलप्रद है .. 

.. श्रीमद्भागवत् महात्म्य  के  गोकर्णोपाख्यान की बहुत महत्ता कही गई है .. .. श्राद्धे प्रयुक्ते  पितृ तृप्ति हेतु .. नित्यं सुपाठाद  पुनर्भवं च ... 

विष्णु पुराण में कहा गया है कि श्राद्ध के अवसर पर दिवंगत  पूर्वजों की मृत्यु तिथि को निमंत्रण देकर ब्राह्मण को भोजन, वस्त्र एवं दक्षिणा सहित दान देकर श्राद्ध कर्म करना चाहिए.. 

इस दिन पांच पत्तों पर अलग-अलग भोजन सामग्री रखकर  पंचबलि करें ये हैं- गौ बलि, श्वान बलि, काक बलि, देवादि बलि तथा चींटियों के लिए श्राद्ध में एक हाथ से पिंड तथा आहुति  दें परन्तु तर्पण में दोनों हाथों से जल देना चाहिए .. 

जिस दिन आप के घर में श्राद्ध हो उस दिन गीता का सातवें अध्याय का पाठ करे ..  पाठ करते समय जल भर के रखें ..  पाठ पूरा हो तो जल सूर्य भगवन को अर्घ्य दें और कहें की हमारे पितृ के लिए हम अर्पण करते हैं ..  जिनका श्राद्ध है , उनके लिए आज का गीता पाठ अर्पण .. 

पितृनुद्दिश्य यः श्राद्धे गीतापाठं करोति वै , 

संतुष्टा पितरस्तस्य निरयाद्यान्ति सद्गतिम् .. 

जो मनुष्य श्राद्ध में पितरों को लक्ष्य करके गीता का पाठ करता है उसके पितृ सन्तुष्ट होते हैं और नर्क से सदगति पाते हैं .. 

गीतापाठेन संतुष्टाः पितरः श्राद्धतर्पिताः.. 

पितृलोकं प्रयान्त्येव पुत्राशीर्वादतत्पराः ( श्री गीता माहात्म्य ).. 

.. गया, पुष्कर, प्रयाग और हरिद्वार में श्राद्ध करना श्रेष्ठ माना गया है .. ब्रम्ह कपाली (बद्रीनाथ ).. की महिमा सर्वोपरि है , यहां पिण्ड दान कर लेने के पश्चात कहीं अन्यत्र  तीर्थ में पिण्ड नहीं भरने चाहिये .. 

शिर: कपालं यत्रैतत्पात ब्रम्हण: पुरा 

तत्रैव बदरीक्षेत्रे पिण्डं दातु: प्रभु: पुमान ..

मोहाद गयायां दद्याद: स पितृन् पातयेत् स्वकान ... अर्थात .. गयादि तीर्थों में श्राद्ध सम्पन्न कर लेने के बाद ही अन्त में ब्रम्ह कपाली में श्राद्ध करना चाहिये ..

.. वार्षिक तिथि पर होने वाला सांवत्सरिक श्राद्ध नित्य पितरों के निमित्त होता है जो प्रति वर्ष करना ही चाहिये .. 

.  गौशाला में, देवालय में और नदी तट पर श्राद्ध करना श्रेष्ठ माना गया है .. 

.. सोना, चांदी, तांबा और कांसे के बर्तन में अथवा पलाश के पत्तल में भोजन करना-कराना अति उत्तम माना गया है  .. लोहा, मिटटी आदि के बर्तन काम में नहीं लाने चाहिए .. 

.. श्राद्ध के समय अक्रोध रहना, जल्दबाजी न करना और बड़े लोगों को या बहुत लोगों को श्राद्ध में सम्मिलित नहीं करना चाहिए, नहीं तो इधर-उधर ध्यान बंट जायेगा, तो जिनके प्रति श्राद्ध सद्भावना और सत उद्देश्य से जो श्राद्ध करना चाहिए, वो फिर दिखावे के उद्देश्य में सामान्य कर्म हो जाता है  ..  त्रीणि चात्र प्रशंसन्ति  शौच मक्रोध मत्वराम् .. ( मनुस्मृति ३/२३५ )

.. सफ़ेद सुगन्धित पुष्प श्राद्ध कर्म में काम में लाने चाहिए ,  लाल, काले फूलों का त्याग करना चाहिए ,  अति मादक गंध वाले फूल अथवा सुगंध हीन फूल श्राद्ध कर्म में काम में नहीं लाये जाते हैं  .. 

  किसी कारण वश अगर पंडित से श्राद्ध नहीं करा पाये  तो सूर्य नारायण के आगे अपने बगल खुले करके (दोनों हाथ ऊपर करके) बोलें : .. हे मेरे पितृ गण  इस समय मेरे पास न तो धन है न धान्य है , हाँ मेरे पास आपके लिये श्रद्धा और भक्ति  है , मैं इन्ही के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूं .. आप तृप्त हो जांय  , मैंने शास्त्र की आज्ञा के अनुरूप दोनों भुजाओं को आकाश में उठा रखा है .. 

"हे सूर्य नारायण ! मेरे पिता (नाम), अमुक (नाम) का बेटा, अमुक जाति (नाम), (अगर जाति, कुल, गोत्र नहीं याद तो ब्रह्म गोत्र बोल दे) को आप संतुष्ट/सुखी रखें ..  इस निमित मैं आपको अर्घ्यदान करता हूँ ,  व भोजन कराता हूँ ।" ऐसा करके आप सूर्य भगवान को अर्घ्य दें और भोग लगायें.. 

"नमेऽस्ति वित्तं  न धनं न च नान्य च्छ्राद्धोपयोग्यं स्व पितृन्नतोऽस्मि ..

तृप्यन्तु भक्त्या पितरौ मयेतौ कृतौ भुजौ वर्त्मनि मारुततच्छ्राद्धम् ||.. ( विष्णु पुराण. ३/१४/३०) .. 

नैवं श्राद्धं विवर्जयेत्  (धर्मसिन्धु ) .. श्राद्ध कभी छोड़ें नहीं .. पितरों का स्मरण अवश्य करें .. 

 हो सके तो पितरों का स्मरण करके  आमान्न ( बिना अग्नि पर पका हुआ , कच्चा अन्न , एवम् शाक फल आदि ) .. का संकल्प पूर्वक  ब्राम्हण अथवा  विवाहिता पुत्री को दान करना चाहिये .. 

.. जीवन पर्यन्त  माता पिता की आज्ञा का पालन करना  , उनके श्राद्ध में खूब भोजन करवाना , और  गयादि तीर्थों में पिण्डदान  करने वाले पुत्र का पुत्रत्व. सार्थक होता है .. 

जीवतो वाक्यकरणात्  क्षयाहे भूरि भोजनात् .

गयायां  पिण्डदानाच्च त्रिभिर्पुत्रस्य  पुत्रता.. ( श्रीमद्देवी भागवत् .. ६/४/१५ ) ..

श्राद्ध करने से , देवता , ब्राम्हण, और पितृगणों का पूजन होता है .. जिससे सर्वभूतान्तरात्मा  भगवान विष्णु का पूजन हो जाता है .. 

ये यजन्ति पितृन देवान  ब्राम्हणांश्च हुताशनम सर्व भूतान्तरात्मानं  विष्णुमेव  यजन्ति ते  .. 

मार्कण्डेय पुराण के अन्तर्गत .. रौच्यमन्वन्तर कथा में .. रुचि प्रजापति द्वारा की गई पितृ स्तुति  (  स्तोत्र कमेन्ट में ..  ) .. सम्पूर्ण पितरों को तृप्ति प्रदान करने वाली है .. तीन बार स्वधा देवी के  स्मरण और नामोच्चारण से  पितृ कार्य की पूर्णता हो जाती है .. ॐ स्वधा , स्वधा , स्वधा ..



पुराणोक्त  पितृ -स्तोत्र : .. रुचिरुवाच ..
अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम् 
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम् .. 
इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा
सप्तर्षीणां तथान्येषां तां नमस्यामि कामदान् ..
मन्वादीनां मुनीन्द्राणां सूर्या चन्द्र मसोस्तथा 
तान् नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्सूदधावपि .. 
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा 
द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलिः .. 
देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान् 
अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येऽहं कृतांजलिः .. 
प्रजापते: कश्यपाय सोमाय वरूणाय च 
योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृतांजलिः.. 
नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु 
स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे .. 
सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा 
नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम् .. 
अग्निरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम् 
अग्निषोममयं विश्वं यत एतदशेषतः .. 
ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः 
जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः ..
तेभ्योऽखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः 
नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुजः .. 
.. शरत्काल श्राद्ध के समय इस स्तोत्र का पाठ करने से पितरों को पुष्टि एवम् तृप्ति प्राप्त होती है .. श्री मार्कण्डेय पुराण में इस स्तोत्र का बड़ा माहात्म्य वर्णित  है ..




एक शंका का समाधान ..  . 
अर्यमा नित्य पितर हैं .. नित्य पितर वो होते हैं जो ब्रम्हा जी के शरीर से सीधे पितृ रूप में ही प्रकट होते हैं .. 
काल चक्र के नियन्ता सूर्य नारायण को भी अर्यमा कहा गया है .. 
सूर्य अर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्क: सविता रवि: 
गभस्तिमानजा कालो मृत्युर्धाता प्रभाकर: ..( महाभारत .. सूर्य अष्टोत्तर शतनाम ) 
यह काल चक्र का नियमन करने वाली शक्तियां हैं .. अर्यमा  श्री कृष्ण की विभूति अंश होने से सभी पितरों का प्रतिनिधित्व करते हैं .. नित्य पितर २१  प्रमुख हैं .. जो बिना मृत्यु को प्राप्त हुये ही पितृ पद पर होते हैं .. मरने वाले जीव की कर्मानुसार गति होती है .. जिसके भाग को विश्वेदेव नित्य पितरों के माध्यम से उसी जीव तक पहुंचा देते हैं .. 
यथा गोष्ठे प्रणष्टां वै वत्सो विन्देत मातरम 
तथा तं नयते मन्त्रो जन्तुर्यत्रावतिष्ठते ..(वायु पुराण ...)
जैसे गौशाला में बछड़ा अपनी मां को ढूंढ़ कर पहुंच जाता है .. वैसे ही पितरों को दिये हुये संकल्पित पदार्थ उन तक उसी योनि के अनुरूप पहुंच जाते हैं .. यह कार्य विश्वेदेवों का है .. 
दक्षिणायन में नित्य पितरों का दिन होता है  जो श्रावण से शुरू हो जाता है .. अश्विन कृष्ण पक्ष दिन का पांचवां छठा मुहूर्त  के समान  समय का अंश है  जो भोजन दिये जाने के लिये प्रशस्त है .. इस पक्ष के स्मरण और तर्पण भोजन से पितृ पूरे वर्ष तृप्त रहते हैं ..

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अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम् 

नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम् .. 

इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा

सप्तर्षीणां तथान्येषां तां नमस्यामि कामदान् ..

मन्वादीनां मुनीन्द्राणां सूर्या चन्द्र मसोस्तथा 

तान् नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्सूदधावपि .. 

नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा 

द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलिः .. 

देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान् 

अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येऽहं कृतांजलिः .. 

प्रजापते: कश्यपाय सोमाय वरूणाय च 

योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृतांजलिः.. 

नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु 

स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे .. 

सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा 

नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम् .. 

अग्निरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम् 

अग्निषोममयं विश्वं यत एतदशेषतः .. 

ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः 

जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः ..

तेभ्योऽखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः 

नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुजः .. 

.. शरत्काल श्राद्ध के समय इस स्तोत्र का पाठ करने से पितरों को पुष्टि एवम् तृप्ति प्राप्त होती है .. श्री मार्कण्डेय पुराण में इस स्तोत्र का बड़ा माहात्म्य वर्णित है .. 

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ଭାଗବତ ଜନ୍ମ

 ନୀଳାଚଳ ନିବାସାୟ ନିତ୍ଯାୟ ପରମାତ୍ମନେ। 

ବଳଭଦ୍ର ଶୁଭଦ୍ରାଭ୍ଯାଂ ଜଗନ୍ନାଥାୟତେ ନମଃ। 🙏    

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ll ଭାଗବତ ଜନ୍ମ ll 

       

      ଆଜି ଭାଦ୍ରବ ପୂର୍ଣ୍ଣିମା ତଥା ଭାଗବତ ଜନ୍ମ। ପୌରାଣିକ କଥା ଅନୁସାରେ ମୃତ୍ୟୁ ଭୟରୁ ରାଜା ପରୀକ୍ଷିତଙ୍କୁ ଉଦ୍ଧାର କରିବାକୁ ଶୁକମୁନି ତାଙ୍କୁ ଭଗବାନ ଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣଙ୍କର ଯେଉଁ ଅମୃତ ଆଖ୍ୟାନ ସାତଦିନ ଧରି ଶୁଣାଇଥିଲେ ତାହା ହେଉଛି " ଶ୍ରୀମଦ୍‌ଭାଗବତ " ।  ବ୍ୟାଖ୍ୟାକାରମାନଙ୍କ କଥନରେ ଏବଂ ଲୋକ ପରମ୍ପରାରେ ପ୍ରଚଳିତ ଅଛି, ଯେ ରାଜା ପରୀକ୍ଷିତଙ୍କୁ ଶୁକମୁନି ଭାଦ୍ରବ ଶୁକ୍ଳ ନବମୀ ଦିନ ଭଗବାନଙ୍କର ସେହି ଅମୃତ ଆଖ୍ୟାନ ଶୁଣାଇବା ଆରମ୍ଭ କରିଥିଲେ ଏବଂ ତାହା ଭାଦ୍ରବ ପୂର୍ଣ୍ଣିମା ଦିନ ସଂପୂର୍ଣ୍ଣ ହୋଇଥିଲା। ସେଇଥିପାଇଁ ସମ୍ଭବତଃ, ଭାଦ୍ରବ ପୂର୍ଣ୍ଣମୀ ଭାଗବତ ଜନ୍ମର ପୁଣ୍ୟ ତିଥି ରୂପେ ପାଳିତ ହୋଇ ଆସୁଛି।


             ଶ୍ରୀମଦ ଭାଗବତ ଭଗବାନଙ୍କ ମୁଖ ନିସୃତବାଣୀ  ଭାବରେ ସର୍ବଜନ ସ୍ଵୀକୃତ। ଭାଗବତ ପାଠ କଲେ ସମସ୍ତ ପାପ ତାପ ଦୂର ହୋଇଥାଏ।ଭାଗବତରେ ଭଗବାନଙ୍କ ଲୀଳା , ରୂପ , ଧାମ ଓ ମାହାତ୍ମ୍ୟ ଆଦିର ବର୍ଣ୍ଣନା ରହିଛି ।  ଭଗବାନ ଅନେକ ରୂପ ଧାରଣ କରି ନାନା ପ୍ରକାର ଲୀଳା କରନ୍ତି। ଭାଗବତ କଥା ଶ୍ରବଣରେ ସମସ୍ତ ପ୍ରକାର ଅଶୁଭ ତଥା ଯାବତୀୟ ଦୁଃଖ ତଥା ବହୁବିଧ ବିଘ୍ନ ଦୂର ହୋଇଥାଏ। ମହର୍ଷି ବ୍ୟାସଦେବ କୃତ ଶ୍ରୀମଦ୍ ଭାଗବତ ସଂସ୍କୃତଭାଷାରେ ଧର୍ମୋପନିଷେଦ ମଧ୍ୟରେ ଏକ ସର୍ବୋକଷ୍ଟ ପରିଣତି l ଏହାର ଆଧ୍ୟାତ୍ମିକ ଓ କାବ୍ୟିକ ମୂଲ୍ୟବୋଧ ତଥା ଏଥିରେ ବର୍ଣ୍ଣିତ ସାଧନା  ଭକ୍ତି , ଜ୍ଞାନ , ବୌରାଗ୍ୟ , ସମାଜ ଗଠନ ପ୍ରଣାଳୀ  ପ୍ରଭୃତି ସମଗ୍ର ବିଶ୍ଵ ପାଇଁ ଅତ୍ୟନ୍ତ ଉପାଦେୟ। ଏହା କହିଲେ ଆଦୌଭୁଲ ହେବ ନାହିଁ ଯେ , ମାନବର ପରମ କଳ୍ୟାଣ ନିମନ୍ତେ କୃଷ୍ଣ ଦ୍ଵୌପାୟନ ବ୍ୟାସଦେବ ଉକ୍ତ ଗ୍ରନ୍ଥ ରଚନା କରିଥିଲେ।  ଏହି ଦୃଷ୍ଟିରୁ ଶ୍ରୀମଦ ଭାଗବତ ଗ୍ରନ୍ଥ ସାକ୍ଷାତ ଭଗବାନଙ୍କର ପରମ ମଙ୍ଗଳମୟ ମୂର୍ତ୍ତି ବୋଲି କୁହାଯାଇଥାଏ । ଭାଗବତ ରଚନା ସମ୍ପର୍କରେ କୁହାଯାଇଛି  ଦିନେ ବ୍ୟାସଦେବ ଅନ୍ୟମନସ୍କ ଭାବରେ ବସିଥିବା ବେଳେ ତାଙ୍କ ପାଖରେ ପହଞ୍ଚିଥିଲେ ନାରଦ ମୁନି। ନାରଦ ମୁନି ବ୍ୟାସଦେବଙ୍କ ମୁହଁକୁ ଦେଖି ପଚାରିଥିଲେ  ତୁମ ମୁହଁ ଦେଖିଲେ ମନେ ହେଉଛି ତୁମେ ଯେଭଳି ଦୁଖରେ ଅଛ ? ତୁମ ଭଳି ମହାନ ଜ୍ଞାନି , ଗୁଣୀ, ପଣ୍ଡିତ , ରୁଷିବରଙ୍କର ପୁଣି ମନଦୁଖ କାହିଁକି ? ବେଦ , ପୁରାଣ ମହାଭାରତ ଭଳି ମହାନ ଗ୍ରନ୍ଥ ଯିଏ ରଚନା କରିଛନ୍ତି  ତାଙ୍କଠାରୁ ଆଉ କିଏ ମହାନ ଅଛନ୍ତି ?ସେତେବେଳେ ନାରଦ ମୁନିଙ୍କ କଥା ଶୁଣି ବ୍ୟାସଦେବ କହିଛନ୍ତି ।  ହଁ ମୁନିବର ତୁମ କଥାଅନୁସାରେ ମୁଁ ବୋହୁତ କିଛି ରଚନା କରିସାରିଛି ।  କିନ୍ତୁ କାହିଁକି କେଜାଣି ମୋ ମନରେ ଅବସୋସ ରହିଯାଇଛି। ଆହୁରି କିଛି ରଚନା କରିବା ପାଇଁ , ଯଦିଓ ମୁଁ ବେଦ , ମହାଭାରତ ଇତ୍ୟାଦି ରଚନା କରିଛି କିନ୍ତୁ ମୁଁ ଚାହୁଁଛି ଏଭଳି ଏକ ଗ୍ରନ୍ଥ ରଚନା କରିବା ପାଇଁ ଯାହାକୁ ସାଧାରଣ ଲୋକମାନେ ପଢିପାରିବେ , ବୁଝିପାରିବେ ଏବଂ କୃଷ୍ଣଙ୍କର ଗୁଣ ଗାନ କରି ସୁଖରେ ରହିପାରିବେ ।  ସେତେବେଳେ ନାରଦ ମୁନି ଓ ବ୍ୟାସଦେବ ଉଭୟଙ୍କ ଆଲୋଚନାରେ ସ୍ଥିର ହେଲା ଭାଗବତ ନାମକ ମହାନ ଗ୍ରନ୍ଥ ରଚନାର କଥା।  ତାପରେ ବ୍ୟାସଦେବ ଆରମ୍ଭ କରିଥିଲେ ଭାଗବତ  ରଚନା ଏବଂ ତାକୁ ଖୁବ ଶୀଘ୍ର ସାରିଥିଲେ ମଧ୍ୟ। ଭାଗବତ ମାହାପୁରାଣରେ ଜନ୍ମମୃତ୍ୟୁ କଥା କାହା ଯାଇଛି ।  ଜନ୍ମମୃତ୍ୟୁ ଚକ୍ରରୁ ମୁକ୍ତି ପାଇବାକୁ ନିର୍ବାଣ , ମୋକ୍ଷ ବା ସ୍ଵର୍ଗପ୍ରାପ୍ତି କୁହାଯାଏ। ଭାଗବତ ମହାପୁରାଣରେ ସୁନ୍ଦର ଭାବରେ ବର୍ଣ୍ଣିତ ହୋଇଛି ଯେ ଚଉରାଶି ଲକ୍ଷ ଯୋନି  ଅତିକ୍ରମ କରିବା ପରେ ଦୁର୍ଲ୍ଲଭ ମନୁଷ୍ୟ ଜନ୍ମ ମିଳିଥାଏ।  ଯଥା - 


       ନଅ ଲକ୍ଷ ପ୍ରକାର ଜଳ ଜୀବ 

       କୋଡିଏ ଲକ୍ଷ ପ୍ରକାର ବୃକ୍ଷ

       ଏଗାର ଲକ୍ଷ ପ୍ରକାର କୃମି କୀଟ 

      ଦଶ ଲକ୍ଷ ପ୍ରକାର ପକ୍ଷୀ 

      ତିରିଶ ଲକ୍ଷ ପ୍ରକାର ପଶୁ 

      ଚାରି ଲକ୍ଷ ପ୍ରକାର ମନୁଷ୍ୟ ଯୋନି 


     ଭାଗବତ ଶବ୍ଦ ର ଅର୍ଥ ଅନୁସାରେ " ଭା " ର ଅର୍ଥ ଭାବ " ଗ " ର ଅର୍ଥ ଜ୍ଞାନ " ବ " ର ଅର୍ଥ ବୌରାଗ୍ୟ ଏବଂ "  ତ " ର ଅର୍ଥ ତତ୍ତ୍ଵ କିନ୍ତୁ ବ୍ୟାକରଣ ସୂତ୍ରାନୁସାରେ  ଭାଗବତ କୃତଂ  ଭାଗବତମ୍ , ଅର୍ଥାତ୍ ଯାହା ଭଗବାନଙ୍କ କୃତ ତାହାହିଁ  ଭାଗବତ।  ଏହି ଭାଗବତ ରେ ଭଗବାନ ଙ୍କ କିର୍ତ୍ତି ଏବଂ ମାହାତ୍ମ୍ୟ ବର୍ଣ୍ଣିତ ।  ଭାଗବତ ରୂପୀ କଳ୍ପ ବୃକ୍ଷ୍ୟର ମଞ୍ଜ ହେଉଛନ୍ତି ପରମାତ୍ମା ନିଜେ ଭକ୍ତି ହେଉଛି ମନ୍ଦା ଓଁକାର ହେଉଛି ଅଙ୍କୁର ।  ଏହା ବାର ସ୍କନ୍ଦ ରେ ବିଦ୍ୟମାନ ।   ଏହି ବୃକ୍ଷ୍ୟ ର ଶାଖା ପ୍ରଶାଖା ର ସଂଖ୍ୟା ହେଲା  ୩୩୨ ଯାହାକି ଭାଗବତ ର ସମୁଦାୟ ଅଧ୍ୟାୟ ସଂଖ୍ୟାର ସମଷ୍ଟି।  ଏହି ବୃକ୍ଷର ପତ୍ର ମାନଙ୍କର ସଂଖ୍ୟା ହେଉଛି ୧୮୦୦୦ ଯାହାକି ଭାଗବତ ର ସମସ୍ତ ଶ୍ଲୋକମାନଙ୍କର ସମଷ୍ଟି ଭାଗବତ କୁ ପ୍ରତ୍ୟକ୍ଷ୍ୟ ଭାବରେ ଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣଙ୍କ ସହିତ ତୁଳନା କରାଯାଇଛି ।   ଭାଗବତ ର ପ୍ରଥମ ଓ ଦ୍ଵିତୀୟ ସ୍କନ୍ଦ ଭଗବାନଙ୍କର ଦୁଇ ଚରଣାର ବିନ୍ଦ । ତୃତୀୟ ଏବଂ ଚତୁର୍ଥ ସ୍କନ୍ଦ ଯଥାର୍ଥ  ପ୍ରଭୁଙ୍କର ଦୁଇ ଭାନୁ।  ପଞ୍ଚମ ସ୍କନ୍ଦ  ହେଉଛି ନାଭି ଦେଶ ।   ଷଷ୍ଟ ସ୍କନ୍ଦ ଭଗବାନଙ୍କର ବକ୍ଷ ସ୍ଥଳ ।  ସପ୍ତମ ଓ ଅଷ୍ଟମ ସ୍କନ୍ଦ ହେଉଛି ଦୁଇ ଭୁଜ ।  ନବମ ସ୍କନ୍ଦ ହେଉଛି ପ୍ରଭୁଙ୍କର କଣ୍ଠ ଦେଶ ।  ଦଶମ ସ୍କନ୍ଦ ହେଉଛି ଶ୍ରୀ ଗଙ୍ଗା ଅଧର ଯୁକ୍ତ ମୁଖ ମଣ୍ଡଳ। ଏକାଦଶ ସ୍କନ୍ଦ ହେଉଛି ଲାଲ ଦେଶ ବା ଲଲାଟ । ଦ୍ଵାଦଶ ସ୍କନ୍ଦ ହେଉଛି ଭଗବାନଙ୍କର ମସ୍ତକ। ଏହି ମାହାନ ଗ୍ରନ୍ଥ ମହିମା ବିଷୟରେ ଯେତେଯାହା କହିଲେ କମ ହେବ। ଷୋଡଶ ଶତାବ୍ଦୀରେ ଯେଉଁ ମହାମନିଷୀମାନେ ଶ୍ରୀମଦ ଭାଗବତକୁ ଆଧାରକରି ପ୍ରାନ୍ତୀୟ ଭାଷାରେ ନିଜନିଜ ଭକ୍ତିପୂର୍ଣ୍ଣ କୃତିସମୂହ ଦ୍ଵାରା ସମାଜରେ ଭକ୍ତିଧାରା ସୃଷ୍ଟି କରିବାରେ ମହାନ କାର୍ଯ୍ୟ କରିଛନ୍ତି ସେମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ଓଡିଶାର ମାହାନ ସନ୍ଥ ଅତିବଡୀ ଜଗନ୍ନାଥ ଦାସ ଅନ୍ୟତମ। ତାଙ୍କ ପ୍ରଣୀତ ଓଡିଆ ଭାଗବତ ଉତ୍କଳୀୟ  ଜନଜୀବନ ଓ ଉତ୍କଳୀୟ ସଂସ୍କୃତିର ଏକ ବଳିଷ୍ଠ ଅଙ୍ଗ ପାଲଟି ଯାଇଛି । 

        ଇତିହାସ କହେ  ବ୍ୟାସଦେବ ରଚିତ ସଂସ୍କୃତ ଭାଗବତ ଓଡ଼ିଆ ଭାଷାଭାଷୀଙ୍କ ନିକଟରେ ଆଦୃତ ହୋଇପାରିନଥିଲା । ଜଗନ୍ନାଥ ଦାସଙ୍କ ପିତା ଭଗବାନ ଦାସ ବଡ଼ଦେଉଳରେ ପୁରାଣପଣ୍ଡା ଥିଲେ । ତାଙ୍କ ପରେ ଜଗନ୍ନାଥ ଦାସ ପୁରାଣପଣ୍ଡା ହେଲେ । ସେ ସଂସ୍କୃତ ଭାଗବତକୁ ସରଳଭାଷାରେ ବୁଝାଇ ଦେଉଥିଲେ । ଜଗନ୍ନାଥଙ୍କ ବୋଉ ଓଡ଼ିଆ ଭାଷାରେ ପଦ୍ୟରୂପରେ ଶୁଣିବା ପାଇଁ ପୁଅକୁ ନିର୍ଦ୍ଦେଶ ଦିଅନ୍ତି । ବିଧବା ମା’ ବାର୍ଦ୍ଧକ୍ୟର ପୁଣ୍ୟ ସଞ୍ଚୟ ଆଶାରେ କୃଷ୍ଣଚରିତ ଶୁଣିବାକୁ ଆଶାୟୀ ହେବାରୁ ଜଗନ୍ନାଥ ଦାସ ଜନନୀର ଅଭିଳାଷ ପୂରଣ ନିମନ୍ତେ ଅଧ୍ୟାୟେ ଅଧ୍ୟାୟେ ପଦ୍ୟାନୁବାଦ ଶୁଣାଇବାକୁ ଲାଗିଲେ । ସେହି ପଦ୍ୟାନୁବାଦ ଭାଗବତ ଗ୍ରନ୍ଥର ରୂପ ନେଲା । ସେ ଓଡ଼ିଆ ଭାଷାରେ ନବାକ୍ଷରୀ ଛନ୍ଦରେ ଏହାର ଭାବାନୁବାଦ କରିଥିଲେ । ଜଗନ୍ନାଥଙ୍କ ମନ୍ଦିର ବେଢ଼ାରେ ନିତି ଭାଗବତ ପାଠ ହୁଏ ଓ ଭକ୍ତଗଣ ଶୁଣିବାକୁ ଆସନ୍ତି । ଓଡିଶାର ପୁରପଲ୍ଲୀରେ ତଥା ଘରେ ଘରେ ପୂଜା ଏହାର ଲୋକପ୍ରିୟତା ସର୍ବଜନୀତ।  ଓଡିଶାର ଜନମାନସ ତଥା ଧର୍ମପ୍ରାଣ ଶ୍ରାଦ୍ଦାଳୁ ଏହି ଗ୍ରନ୍ଥକୁ ସ୍ଵୟଂ ଭଗବାନଙ୍କ ବିଗ୍ରହ ମନେକରି ଆଜି ମଧ୍ୟ ଘରେ ଘରେ ପୂଜା କରୁଛନ୍ତି ।  ଏହା ହିଁ ଉକ୍ତ ଗ୍ରନ୍ଥ ର ମହାନାତା ର ପ୍ରମାଣ । ଭଗବତରେ ଅତିବଡୀ ଜଗନ୍ନାଥ ଦାସ ମନୁଷ୍ୟ ଜନ୍ମକୁ ପ୍ରଶଂସା କରିଅଛନ୍ତି ଯଥା - 


        ଅନେକ ଜନ୍ମ ତପ ଫଳେ

        ମନୁଷ୍ୟ ଜନ୍ମ ମହୀତଳେ

        ଦୁର୍ଲ୍ଲଭ ମନୁଷ୍ୟ ଜନମ 

       ପାଇ କିମ୍ପାଇ ହେଉ ଭ୍ରମ

        ସର୍ବ ଶରୀର ମଧ୍ୟେ ସାର 

       ଦୁର୍ଲ୍ଲଭ ନର କଳେବର 

       ଦୁର୍ଲ୍ଲଭ ମନୁଷ୍ୟ ଶରୀର 

       ନରକ ନିସ୍ତାରଣ ଦ୍ଵାର 

  


        ଜଗନ୍ନାଥଙ୍କର ଷୋଳକଳା ମଧ୍ୟରୁ ଶ୍ରୀ କୃଷ୍ଣ ଏକ କଳାରେ ଅବତାରୀ ହୋଇଛନ୍ତି ।  ସେହି ଗୋଟିଏ କଳାକୁ ପୁଣି ଷୋହଳ କଳା କରି ତହିଁରୁ ଏକ କଳା ଅର୍ଜୁନକୁ ପ୍ରଦାନ କରିଛନ୍ତି ଏବଂ ପନ୍ଦର କଳା ଘେନି ନିଜେ ଗୋପ ମଥୁରା ତଥା ଦ୍ଵାରିକାଦି କ୍ଷେତ୍ରରେ ଚିରନ୍ତନ ଲୀଳାମାନ ସମ୍ପର୍ଣ୍ଣ କରିଛନ୍ତି । ଜଗନ୍ନାଥ ଦାସଙ୍କ କୃତ ଓଡ଼ିଆ ଭାଗବତ ବାର ସ୍କନ୍ଧରେ ବିଭକ୍ତ ଏବଂ ପ୍ରତି ସ୍କନ୍ଧ ଦଶରୁ ତିରିଶଟି ଅଧ୍ୟାୟ ବିଭକ୍ତ ହୋଇ ଏଭଳି ରଚିତ ଯେ, ପ୍ରତିଦିନ ଗୋଟିଏ ଗୋଟିଏ ଅଧ୍ୟାୟ ପାଠ କଲେ ଏହା ଠିକ ଏକ ବର୍ଷ ବା ୩୬୫ ଦିନରେ ସମାପ୍ତ ହେବ ।  ଭାଗବତ ପ୍ରତି ଓଡ଼ିଆ ଘରେ ସନ୍ତାନ ଜନ୍ମ ହେବା ଏନ୍ତୁଡ଼ିଶାଳରେ, ମୁମୂର୍ଷର ଶେଯ ପାଖରେ ପଢ଼ାଯାଏ । ଆଗରୁ ବସନ୍ତ, ମହାମାରୀ, ହଇଜା ଓ ଗ୍ରାମର ଅନିଷ୍ଟ ଆଶଙ୍କା ଭୟରେ ଭାଗବତ ପାଠ କରାଯାଉଥିଲା । ଜଗନ୍ନାଥ ଦାସଙ୍କ ଭାଗବତରେ ମୂଳ ସଂସ୍କୃତ ଭାଗବତର ମଙ୍ଗଳାଚରଣ ସ୍ଥାନ ପାଇବା ଦେଖିବାକୁ ମିଳେ । 


ll ମଙ୍ଗଳାଚରଣ ll :- 


ବାଗୀଶା ଯସ୍ୟ ବଦନେ ଲକ୍ଷ୍ମୀର୍ଯସ୍ୟ ଚ ବକ୍ଷସି ।

ଯସ୍ୟାସ୍ତେ ହୃଦୟେ ସଂବିତ୍ ତଂ ନୃସିଂହମହଂ ଭଜେ || ୧ ||


ଭାବାର୍ଥ:- ଯାହାଙ୍କ ମୁଖରେ ସରସ୍ୱତୀ, ବକ୍ଷସ୍ଥଳରେ ଲକ୍ଷ୍ମୀ ଏବଂ ହୃଦୟରେ ଜ୍ଞାନ ବିରାଜମାନ, ସେହି ନୃସିଂହ ଭଗବାନଙ୍କୁ ମୁଁ ବନ୍ଦନା କରୁଛି ।


ବିଶ୍ୱସର୍ଗବିସର୍ଗାଦିନବଲକ୍ଷଣଲକ୍ଷିତମ୍

ଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣାଖ୍ୟଂ ପରଂଧାମ ଜଗଦ୍ଧାମ ନମାମ ତତ୍ || ୨ ||


      ବିଶ୍ୱର ସର୍ଗ, ବିସର୍ଗ ଆଦି ନବଲକ୍ଷଣ (ସର୍ଗ, ବିସର୍ଗ, ସ୍ଥାନ, ପୋଷଣ, ଉତି, ମନ୍ୱନ୍ତର, ଈଶାନୁକଥା, ନିରୋଧ ଓ ମୁକ୍ତି)ଦ୍ୱାରା ଲକ୍ଷିତ, ସମଗ୍ର ଜଗତର ପରମ ଆଶ୍ରୟ ତଥା ବିଶ୍ୱର ଅନ୍ଧକାର ବିନାଶକାରୀ ପରମ ତେଜୋମୟ ଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣଙ୍କ ସାକ୍ଷାତ୍ ସ୍ୱରୂପ ଶ୍ରୀମଦଭାଗବତକୁ ଆମ୍ଭେମାନେ ନମସ୍କାର କରୁଛୁ ।


ମାଧବୋମାଧବାବୀଶୌ ସର୍ବସିଦ୍ଧି ବିଧାୟିନୌ ।

ବନ୍ଦେ ପରସ୍ପରାତ୍ମାନୌ ପରସ୍ପରନୁତିପ୍ରିୟୋ ।। ୩ ||


               ସର୍ବସିଦ୍ଧି ପ୍ରଦାୟକ, ପରସ୍ପର ଏକାତ୍ମରୂପ ଏବଂ ପରସ୍ପରର ସ୍ତୁତିରେ ପ୍ରସନ୍ନ ହେଉଥିବା ମାଧବ (ଲକ୍ଷ୍ମୀପତି ବିଷ୍ଣୁ) ଓ ଉମାଧବଙ୍କୁ (ଉମାପତି ଶିବଙ୍କୁ) ଆମ୍ଭେ ବନ୍ଦନା କରୁଛୁ ।


ମୂକଂ କରୋତି ବାଚାଳଂ ପଙ୍ଗୁଂ ଲଙ୍ଘୟତେ ଗିରିମ୍ ।

ଯତ୍ କୃପା ତମହଂ ବନ୍ଦେ ପରମାନନ୍ଦମାଧବମ୍ | ୪ ||


                 ଯାହାଙ୍କ କୃପା ମୂକକୁ ବାଗ୍ମୀ କରିଦେଇପାରେ, ପଙ୍ଗୁକୁ ଗିରି ଲଂଘନ କରାଇ ଦେଇପାରେ, ସେହି ପରମାନନ୍ଦ ମାଧବଙ୍କୁ ମୁଁ ବନ୍ଦନା କରୁଛି ।


ଯଂ ବ୍ରହ୍ମାବରୁଣେନ୍ଦ୍ରରୁଦ୍ରମରୁତଃ ସ୍ତୁନ୍ୱନ୍ତି ଦିବୈଃ ସ୍ତବୈ-

ର୍ବେଦୈଃ ସାଙ୍ଗପଦକ୍ରମୋପନିଷଦୈଗାୟନ୍ତି ଯଂ ସାମଗାଃ ।

ଧ୍ୟାନାବତ୍ସିତଦ୍‌ଗତେନ ମନସା ପଶଂନ୍ତି ଯଂ ଯୋଗିନୋ

ଯସ୍ୟାନ୍ତଂ ନ ବିଦୁଃ ସୁରାସୁରଗଣା ଦେବାୟ ତସ୍ମୈ ନମଃ || ୫ ||


        ଯାହାଙ୍କୁ ବ୍ରହ୍ମା, ବରୁଣ, ଇନ୍ଦ୍ର, ରୁଦ୍ର, ମରୁତ ପ୍ରଭୃତି ଦିବ୍ୟ ସ୍ତୋତ୍ରଦ୍ୱାରା ସ୍ତୁତି କରନ୍ତି; ଯାହାଙ୍କ ମହିମା ସାମବେଦ ଗାୟନକାରୀମାନେ ପଦକ୍ରମାନୁସାରେ ବେଦ ଉପନିଷଦ ପ୍ରଭୃତିଦ୍ୱାରା ଗାନ କରନ୍ତି; ଧ୍ୟାନାଭିଭୂତ ମନ ମଧ୍ୟରେ ଯୋଗୀମାନେ ଯାହାଙ୍କୁ ଦର୍ଶନ କରନ୍ତି ଏବଂ ଦେବ ଦାନବଗଣ ଯାହାଙ୍କର ଅନ୍ତ ପାଇ ପାରନ୍ତି ନାହିଁ, ସେହି ଦେବଙ୍କୁ ମୁଁ ନମସ୍କାର କରୁଛି ।


ନାରାୟଣଂ ନମସ୍କୃତ୍ଂୟ ନରଂ ଚୈବ ନରୋତ୍ତମମ୍ ।

ଦେବୀଂ ସରସ୍ୱତୀଂ ବ୍ୟାସଂ ତତୋ ଜୟମୁଦୀରୟେତ୍ || ୬ ||


           ଭଗବାନ ନାରାୟଣ, ନରୋତ୍ତମ ନର, ଦେବୀ ସରସ୍ୱତୀ ଓ ମହର୍ଷି ବ୍ୟାସଦେବଙ୍କୁ ନମସ୍କାର କରି ସଂସାର ଓ ଅନ୍ତଃକରଣର ନାନାବିଧ ବିକାର ଉପରେ ବିଜୟ ପ୍ରଦାନ କରାଉଥିବା ଏହି ଶ୍ରୀମଦଭାଗବତ ମହାପୁରାଣକୁ ପାଠ କରିବା ଉଚିତ।


“ ଗୋବିନ୍ଦ ଗୋବିନ୍ଦ ଗୋବିନ୍ଦ ।

ପଦୁ ଗଡ଼ୁଛି ମକରନ୍ଦ ॥

ସେ ମକରନ୍ଦ ପାନ କରି ।

ହେଳେ ତରିଲେ ବ୍ରଜନାରୀ ॥

ସେ ବ୍ରଜନାରୀଙ୍କ ପୟରେ ।

ମନ ମୋ ରହୁ ନିରନ୍ତରେ ॥

ମନ ମୋ ନିରନ୍ତରେ ଥାଉ ।

ହା କୃଷ୍ଣ ବୋଲି ଜୀବ ଯାଉ ॥

—ଜଗନ୍ନାଥ ଦାସ, ଭାଗବତ ବାଣୀ


   ଆଜି ସେହି ମହାନ ତଥା ପବିତ୍ର ଗ୍ରନ୍ଥର ଜନ୍ମଦିନ। ଓଡିଆ ପୁରପଲ୍ଲିରେ ଏହା ଭାଗବତ ଜନ୍ମ ଭାବେ ବେଶ ପ୍ରସିଦ୍ଧ। ଏହି ଅବସରରେ ଆମେମାନେ ପ୍ରତ୍ୟହ ଓଡିଆ ଭାଗବତ ପଢିବାରେ ବ୍ରତୀ ହେବା।


ଓଁ ନମୋ ଭଗବତେ ବାସୁଦେବାୟ 🙏

गुरुवार, 28 सितंबर 2023

ଅବଧୂତଙ୍କର ୨୪ ଗୁରୁ ଙ୍କ ଠାରୁ ଶିକ୍ଷା

 💥🌺💥 * ଅବଧୂତଙ୍କର ୨୪ ଗୁରୁ ଙ୍କ ଠାରୁ ଶିକ୍ଷା * 💥🌺💥


ଓଁ

ଗୁରୁଦେବାୟ ବିଦ୍ମହେ, ପରଂବ୍ରହ୍ମାୟ ଧିମାହୀ,ତନ୍ନୋ ଗୁରୁ ପ୍ରଚୋଦୟାତ 🙏


ଓଁ 

ବସୁଦେବଂ ସୁତଂ ଦେବଂ କଂସ ଚାଣୁର ମର୍ଦ୍ଦନଂ

ଦେବକୀ ପରମାନନ୍ଦଂ କୃଷ୍ଣମ୍ ବନ୍ଦେ ଜଗତଗୁରୁମ୍ 🙏


ଓଁ

ମନ୍ନାଥଃ ଶ୍ରୀ ଜଗନ୍ନାଥ ମଦ୍ ଗୁରୁ ଶ୍ରୀ ଜଗତଗୁରୁ। 

ମଦାତ୍ମା ସର୍ବଭୁତାତ୍ମା ତଶ୍ମୈଶ୍ରୀ ଗୁରବେ ନମଃ।। 🙏

 

ମନୁଷ୍ୟ ଜୀବନରେ ତିନି ଜଣକ ଭୂମିକା ଅତ୍ୟନ୍ତ ମହତ୍ତ୍ଵପୂର୍ଣ୍ଣ । ଜଣେ ହେଲେ ଜନ୍ମଦାତ୍ରୀ ମା’ । ଦ୍ଵିତୀୟ ଜଣକ ପାଳନହାରୀ ପିତା । ଆଉ ତୃତୀୟ ଜଣକ ହେଲେ #ଗୁରୁ ।

         ଯିଏ ଆମକୁ ଅଜ୍ଞାନ ରୂପକ ଅନ୍ଧକାରରୁ ଜ୍ଞାନ ରୂପକ ଆଲୋକ ଦିଗକୁ ପଥ ପ୍ରଦର୍ଶନ କରନ୍ତି । 🙏


 ଶ୍ରୀମଦ ଭାଗବତମ୍ ରେ ଏକାଦଶ ସ୍କନ୍ଧରେ ଅବଧୂତ ବା ଦତ୍ତାତ୍ରେୟ ମୁନୀଙ୍କର ୨୪ ଜଣ ଗୁରୁ ଥିବାର ଉଲ୍ଲେଖ ରହିଛି । 


ମହାମୁନି ଦତ୍ତାତ୍ରେୟ ଙ୍କର ବାର୍ତ୍ତା ନୁସାରେ ସୃଷ୍ଟି ରେ ସଭିଙ୍କ ଠାରୁ ଆମେ କିଛି ନା କିଛି ଶିକ୍ଷା ଲାଭ କରିପାରିବା । ଶ୍ରୀମଦ୍ ଭାଗବତମ୍ ଅନୁସାରେ ୨୪ ଜଣ ଗୁରୁଙ୍କ ଠାରୁ ମହାମୁନି ଅବଧୂତ କିଛି ନା କିଛି ଜ୍ଞାନ ଆହରଣ କରିଥିଲେ । ତେବେ ଆସନ୍ତୁ ଆଜିର ଏହି ପବିତ୍ର ଦିବସ ରେ ଏହି ୨୪ ଜଣ ଗୁରୁଙ୍କ ବିଷୟରେ ପୁନଃ ମନେ 

ପକେଇବା 🙏


୧-#ପୃଥିବୀ –ପୃଥିବୀ ନାନାବିଧ ଅତ୍ୟାଚାରର ସମ୍ମୁଖୀନ ହେଇଥାଏ। ହେଲେ ସେ ସବୁ କିଛି ସହି ନିଏ । ଏଣୁ ପୃଥିବୀ ଆମକୁ ଧୈର୍ଯ୍ୟ, ତ୍ୟାଗ, କ୍ଷମା ଓ ପରୋପକାରର ଶିକ୍ଷା ଦିଏ । 


୨-#ବାୟୁ- ବାୟୁର ନିଜସ୍ଵ ଗନ୍ଧ କିଛି ନ ଥାଏ । ସୁଗନ୍ଧ ସହ ମିଶିଲେ ସେ ସୁଗନ୍ଧିତ ହୁଏ ଆଉ ଦୁର୍ଗନ୍ଧ ସହ ମିଶିଲେ ଦୁର୍ଗନ୍ଧିତ ହୁଏ । ପୁଣି ତାଙ୍କ ଠାରୁ ଅଲଗା ହେଲେ ନିଜର ଗୁଣ ପ୍ରକଟ କରେ । ଏଣୁ ବାୟୁ ଆମକୁ ଅନାସକ୍ତ ହେବା ପାଇଁ ଶିକ୍ଷା ଦିଏ । 


୩-#ଜଳ -ଜଳ ଅନ୍ୟର ତୃଷା ମେଣ୍ଟାଇ ଥାଏ । ହେଲେ ସେ ତାର ଏଇ ଗୁଣ ପାଇଁ କେବେ ଗର୍ବ କରେନା ବରଂ ନମ୍ର ହେଇ ତଳକୁ ବହିଯାଏ । ତେଣୁ ଜଳ ଆମକୁ ନିରହଂକାର ଓ ନମ୍ର ଭାବ ଶିଖାଏ । 


୪-#ଅଗ୍ନି-ଅଗ୍ନିର କୌଣସି ଆକାର ନଥାଏ । ସେ ସବୁବେଳେ ଦହନ କରୁଥିବା ବସ୍ତୁର ଆକାର ଧାରଣ କରିଥାଏ । ସେ ସବୁ ଭକ୍ଷଣ କରୁଥିଲେ ସୁଦ୍ଧା ନିଜେ ଶୁଦ୍ଧ ରହିଥାଏ । ଅଗ୍ନି ସବୁ ବସ୍ତୁକୁ ଅଙ୍ଗାରରେ ପରିଣତ କରେ । ତେଣୁ ଏଥିରୁ ଏଇ ଶିକ୍ଷା ମିଳୁଛି କି ମଣିଷ ଯାହା ବି କରୁ ନିଜକୁ ସବୁବେଳେ ଶୁଦ୍ଧପୂତ ରଖିବା ଦରକାର । ସଂସାରର ମାୟାରେ ନ ପଡି ତା’ର ମୂଳ ସ୍ୱରୂପକୁ ଜାଣିବା ଦରକାର । 


୫-#ଆକାଶ-ଆକାଶ ଯେପରି ସର୍ବବ୍ୟାପି ସେଇପରି ମଣିଷ ନିଜକୁ ପରିବ୍ୟାପ୍ତ କରିବା ଆବଶ୍ୟକ । କେଉଁ ଏକ ନିର୍ଦ୍ଦିଷ୍ଟ ସ୍ଥାନରେ ବାନ୍ଧି ନ ହୋଇ ସାରା ଜଗତର କଲ୍ୟାଣ କରିବା ଆବଶ୍ୟକ । ଏଇ କଥା ଆକାଶ ଆମକୁ ଶିଖାଏ । 


୬-#ଚନ୍ଦ୍ରମା - ଚନ୍ଦ୍ରମା ବଢିବା ବା କମିବା ପରି ପ୍ରତୀତ ହେଲେ ମଧ୍ୟ ତାହା ପ୍ରକୃତରେ ଅକ୍ଷୟ ରହିଥାଏ। ସେହିପରି ଶରୀର କ୍ଷୀଣ ହେଲେ ବି ଅନୁଭବ ଅକ୍ଷୟ ରହିଥାଏ । ଚନ୍ଦ୍ରମାର ନିଜସ୍ୱ ଆଲୋକ ନ ଥାଏ, ଠିକ୍ ସେମିତି ମଣିଷର ମନ ଓ ଶରୀରର ନିଜସ୍ୱ ଶକ୍ତି ନ ଥାଏ, ଏମାନେ ଆତ୍ମାର ଶକ୍ତିରେ ବଳିୟାନ । ତେଣୁ ଚନ୍ଦ୍ରମା ଠାରୁ ଅକ୍ଷୟ ଆତ୍ମଜ୍ଞାନର ଶିକ୍ଷା ମିଳିଥାଏ । 


୭-#ସୂର୍ଯ୍ୟ – ସୂର୍ଯ୍ୟ ଉଦୟ ହେଲେ ଅନ୍ଧାର ଦୂର ହୁଏ ।  ସେଇପରି  ମଣିଷ ମନରେ  ଜ୍ଞାନର ଆଲୋକ ଜାଗ୍ରତ ହେଲେ ଅଜ୍ଞାନ ଅନ୍ଧାର ଦୂରୀଭୂତ ହୁଏ । ଏଇ କଥା ହିଁ ସୂର୍ଯ୍ୟଙ୍କ ଠାରୁ ଶିକ୍ଷା ମିଳେ । 


୮-#କପୋତ-ଜାଲରେ ପଡ଼ିଥିବା ନିଜ ଶାବକକୁ ରକ୍ଷା କରିବାପାଇଁ କପୋତୀ ସହିତ କପୋତ ନିଜେ ଜାଲରେ ପଡ଼ିଥିଲା । ଆସକ୍ତି ହିଁ  ବନ୍ଧନର କାରଣ ବୋଲି ତା’ଠାରୁ ଶିକ୍ଷା ମିଳେ ।    


୯-#ଅଜଗର-ଅଳସୁଆ ଅଜଗର ଗୋଟିଏ ଜାଗାରେ ପଡ଼ିଥାଏ, ଯାହା ପାଖକୁ ଆସେ ତାକୁ ହିଁ ସେ ଖାଏ । ଖାଦ୍ୟପ୍ରତି ଲୋଭ ନ ରଖି ଯାହା ମିଳିବ ସେଥିରେ ଉଦର ପୂରଣ କରି ସର୍ବଦା ନିଜର ମୂଳସ୍ୱରୂପର ଧ୍ୟାନରେ ମଗ୍ନ ରହିବାର ଶିକ୍ଷା ଅଜଗର ଠାରୁ ମିଳେ ।


୧୦-#ସିନ୍ଧୁ -ସବୁ ନଦୀର ପାଣି ମିଶିଲେ ମଧ୍ୟ ସମୁଦ୍ର ନିଜର ସମତା ରକ୍ଷା କରିଥାଏ । ନା ଅଧିକ ଉଛୁଳେ ନା ଟିକିଏ ମାତ୍ର ଶୁଖେ। ସାଂସାରିକ ବିଷୟ ବାସନା ଥିଲେ ମଧ୍ୟ ନିଜର ମର୍ଯ୍ୟାଦା ଲଙ୍ଘନ ନ କରିବାର ଗୁଣ, ସମତା ତଥା ଓ ନିଶ୍ଚଳ ମନ ସମୁଦ୍ରଠାରୁ ଶିକ୍ଷା ମିଳେ ।


୧୧-#ପତଙ୍ଗ -ପତଙ୍ଗଠାରୁ ଦୁଇଟି ଜିନିଷ ଶିଖିବାକୁ ମିଳେ । ଇନ୍ଦ୍ରିୟ ଭୋଗ୍ୟ ବସ୍ତୁ ସକଳରୁ ନିଜକୁ ନିବୃତ୍ତ ନ କରି ପାରିଲେ ଅଗ୍ନୀରେ ପତଙ୍ଗ ସମ ନିଜର ବିନାଶ ହୋଇଥାଏ। ଜ୍ଞାନୀମାନେ ଜ୍ଞାନର ସନ୍ଧାନ ପାଇ ସେଥିରେ ଏମିତି ମଜ୍ଜି ଯାଆନ୍ତି ଯେ ନିଜର ବ୍ୟକ୍ତିଗତ ସୀମିତ ସତ୍ତାକୁ ଭସ୍ମ କରି ନିର୍ଗୁଣ ନିରାକାର ସତ୍ତାକୁ ଲାଭ କରନ୍ତି, ଏହା ମଧ୍ୟ ପତଙ୍ଗଠାରୁ ଶିକ୍ଷା ମିଳେ।


୧୨-#ମଧୁପ -ଫୁଲକୁ ଫୁଲ ଉଡ଼ି ମଧୁ ସଂଗ୍ରହ କରୁଥିବା ମଧୁପ ବା ମହୁମାଛି ପରି ବିଭିନ୍ନ ଶାସ୍ତ୍ର ଅଧ୍ୟୟନ କରି ତା’ର ସାରକୁ ଗ୍ରହଣ କରିବା ଉଚିତ୍ ।


୧୩-#ଗଜ -ନକଲି ମାଈହାତୀକୁ ଦେଖି ନିଜର ଜାନ୍ତବ କ୍ଷୁଧାର ପରିତୃପ୍ତି ପାଇଁ ହାତୀ ମାଡ଼ିଆସେ ଓ ଶିକାରୀ ଦ୍ୱାରା ଖୋଳା ଯାଇଥିବା ଗାତରେ ପଡ଼ିଥାଏ । କାମନା ବାସନାର ନିୟନ୍ତ୍ରଣ କରିବା ଗଜ ବା ହାତୀଠାରୁ ଶିକ୍ଷାମିଳେ ।


୧୪-#ପିମ୍ପୁଡି ଓ #ଭଁଅର -ଅକ୍ଳାନ୍ତ ପରିଶ୍ରମ କରି ଅତି କଷ୍ଟରେ ସଂଗ୍ରହ କରି ସଞ୍ଚୟ କରିଥିବା ଖାଦ୍ୟକଣିକାର ଗନ୍ଧରେ ଆକର୍ଷିତ ହୋଇ ଅନ୍ୟପ୍ରାଣୀମାନେ ଏହାକୁ ତା’ଠାରୁ ଅପହରଣ କରିଥାନ୍ତି, ଏଥିରୁ ଏହି ଶିକ୍ଷା ମିଳେ ଯେ, ସଂଗ୍ରହ କରିବାର ପ୍ରବୃତ୍ତି ଚୋରି, ଡକେଇତି ବା ହତ୍ୟାରେ ପରିସମାପ୍ତ ହୁଏ । ତେବେ ପିମ୍ପୁଡ଼ିଠାରୁ ଏକ ଭଲଗୁଣ ଶିଖିବାକୁ ମିଳେ, ଆତ୍ମସାକ୍ଷାତକାର ଅନ୍ୱେଷୀ, ମୁମୁକ୍ଷୁ ନିରଳସ ଭାବେ ନିଜ ମାର୍ଗରେ ଅଗ୍ରଗତି କରିବା ଦରକାର ।

ଭଅଁର ଫୁଲର ଗନ୍ଧରେ ଆକୃଷ୍ଟ ହୋଇ ସେଥିରେ ଏମିତି ଆସକ୍ତ ହୋଇଯାଏ ଯେ, ସନ୍ଧ୍ୟାରେ ଫୁଲ ପାଖୁଡ଼ା ବନ୍ଦ ହେବା ଆଗରୁ ତାକୁ ଛାଡ଼ି ପଳାଇ ନ ଆସି ଏହା ବନ୍ଦ ହେବାପରେ ମଧ୍ୟ ସେଥିରେ ବନ୍ଦୀ ହୋଇ ରହିଯାଏ । ଫଳତଃ ନିଜର ପ୍ରାଣ ହରାଏ । ଆସକ୍ତି ସବୁବେଳେ ବିନାଶକାରୀ ବୋଲି ତା’ଠାରୁ ଶିକ୍ଷା ମିଳେ। 


୧୫-#ହରିଣ -ସଙ୍ଗୀତର ମୂର୍ଚ୍ଛନାରେ ମୋହିତ ହରିଣ ଶିକାରୀର ବାଣରେ ମୃତ୍ୟୁବରଣ କରେ । ଏଥିରୁ ଶିକ୍ଷାମିଳେ ଯେ ସଂସାରର ନିକୃଷ୍ଟ ଆନନ୍ଦ ପ୍ରତି ଆକୃଷ୍ଟ ହେଲେ ନିଜର ବିନାଶ ଘଟିଥାଏ ।


୧୬-#ମୀନ -ଖାଦ୍ୟଲାଳସାରେ ବନିସୀରେ ପଡ଼ି ପ୍ରାଣ ହାରେ। ସୁସ୍ୱାଦୁ ବ୍ୟଞ୍ଜନ ପ୍ରତି ଆସକ୍ତି ନିଜର ଲକ୍ଷ୍ୟପ୍ରାପ୍ତିରେ ଅନ୍ତରାୟ ହୋଇଥାଏ । ତେବେ ମାଛଠାରୁ ଆଉ ଏକ ଗୁଣ ଶିଖିବାକୁ ମିଳେ। ଏହା କେତେବେଳେ ବି ନିଜ ଘର ଅର୍ଥାତ୍ ପାଣିକୁ ପରିତ୍ୟାଗ କରେନା । ସେହିପରି ମାନବ କେବେ ବି ନିଜର ମୂଳସ୍ୱରୂପରୁ ବିଚ୍ୟୁତ ହେବା ଅନୁଚିତ ।


୧୭-#ପିଙ୍ଗଳା_ବେଶ୍ୟା - କାମପିପାସାରେ ମତ୍ତହୋଇ ତଥା ଧନ ଲୋଭରେ ଅନ୍ଧ ହୋଇ ପିଙ୍ଗଳା ନାମକ ବେଶ୍ୟା ଏକ ନିର୍ଦ୍ଦିଷ୍ଟ ପୁରୁଷକୁ ଚାହିଁ ସାରା ରାତି କାଟିଦେଲା ପରେ ଅନୁଭବ କଲା, ମିଥ୍ୟା ମାୟାରେ ମୋହିତ ହୋଇ ସେ ମସ୍ତବଡ଼ ଭୁଲ୍ କରିଛି। ସଂସାରର ଅଳିକ ସୁଖ ଓ ସାଂସାରିକ ଧନର ନଶ୍ୱରତାକୁ ଦେଖି ସେ ଅସଲି ଧନ ଓ ଅସଲି ଆନନ୍ଦର ତଲାସରେ ବୈରାଗ୍ୟର ପଥକୁ ବାଛି ନେଲା । ଅତଃ ପିଙ୍ଗଳା ବେଶ୍ୟା ବୈରାଗ୍ୟ ଶିକ୍ଷାଦିଏ ।


୧୮-#କୁରୁର(ମାଟିଆ ଚିଲ) - ନିଜ ଥଣ୍ଟରେ ମାଂସଟୁକୁଡ଼କୁ ଧରି ରଖିଥିବା କୁରୁର ପକ୍ଷୀ ଅନ୍ୟ ପକ୍ଷୀମାନଙ୍କର ଆକ୍ରମଣରେ ବ୍ୟତିବ୍ୟସ୍ତ ହୋଇ ମାଂସଟୁକୁଡାଟିକୁ ଛାଡ଼ିଦେଲା ପରେ  ଅନ୍ୟମାନଙ୍କର ଆକ୍ରମଣରୁ ରକ୍ଷା ପାଇଗଲା । ଏଥିରୁ ଶିକ୍ଷାମିଳେ, ଦୈହିକ ସୁଖଭୋଗର ବାସନା ସଂସାରରେ ଯାବତୀୟ ଯନ୍ତ୍ରଣା ଓ ଜଞ୍ଜାଳକୁ ଜନ୍ମ ଦେଇଥାଏ। ଏହାର ପରିତ୍ୟାଗରେ ହିଁ ଅସଲି ଆନନ୍ଦ ନିହିତ ରହିଛି ।


୧୯-#ଅର୍ଭକ (ଶିଶୁ)- ଅନ୍ୟ ପ୍ରତି ବୈର ଭାବନା ରହିତ, ନିଜ ପରର ଭେଦଭାବରୁ ମୁକ୍ତ, ସବୁବେଳେ ଖିଲି ଖିଲି ହାସିତ, ନିଜର ସ୍ୱଭାବରେ ସ୍ଥିତ, ଆନନ୍ଦରେ ଉଛୁଳି ଉଠୁଥିବା ଶିଶୁଠାରୁ ଆତ୍ମସାକ୍ଷାତକାରୀର ଅବସ୍ଥା ଦେଖିବାକୁ ମିଳେ। ଆନନ୍ଦ ସ୍ୱତଃସ୍ଫୁର୍ତ୍ତ ହୋଇଥାଏ, ଏହା କୌଣସି ବାହ୍ୟକାରଣ କିମ୍ବା ବସ୍ତୁ ଉପରେ ନିର୍ଭରଶୀଳ ହୋଇ ନ ଥାଏ।


୨୦-#ବ୍ରାହ୍ମଣ_କୁମାରୀ -ନିଜ ପୁତ୍ର ପାଇଁ କୁମାରୀ କନ୍ୟାର ହାତ ମାଗିବାକୁ ଆସିଥିବା ଅତିଥିମାନଙ୍କ ପାଇଁ କିଛି ବ୍ୟଞ୍ଜନ ପ୍ରସ୍ତୁତ କରିବା ଉଦ୍ଦେଶ୍ୟରେ ମା’ ଅନୁପସ୍ଥିତ ଥିବା ସମୟରେ ବ୍ରାହ୍ମଣ କୁମାରୀ ନିଜେ ଚାଉଳ କୁଟିବାକୁ ଆରମ୍ଭ କରିବାରୁ ତା’ ହାତର ଚୁଡ଼ିଗୁଡିକ ପରସ୍ପର ସହିତ ବାଜି ଶବ୍ଦ ସୃଷ୍ଟି କଲେ। ଏହା ଶୁଣି କାଳେ ଅତିଥିମାନେ ବ୍ୟସ୍ତ ହେବେ ସେଥିପାଇଁ ପରମ୍ପରା ରକ୍ଷାକରି ସେ ହାତରେ ପଟେ ପଟେ ଚୁଡ଼ି ରଖି ବାକି ଚୁଡ଼ିକୁ ବାହାର କରିଦେଲା । ଏହାଦ୍ୱାରା ସେ ନିଜ କାମକୁ ନିରବରେ କରିପାରିଲା । ଏଥିରୁ ଶିକ୍ଷାମିଳେ ପ୍ରକୃତ ମୁମୁକ୍ଷୁ(ମୁକ୍ତି ଚାହୁଁଥିବା ବ୍ୟକ୍ତି) ବାକ୍-ବିତଣ୍ଡାରେ ନ ପଡ଼ି ନିକାଞ୍ଚନରେ ନିଜର ସାଧନା କରିବା ଦରକାର । କାରଣ ଅନେକ ଲୋକ ଯହିଁ ମିଳି, ଅବଶ୍ୟ ଉପୁଜଇ କଳି।


୨୧-#ସର୍ପ -ନିଜେ ଗାତ ନ ଖୋଳି ଅନ୍ୟ ପଶୁ, ପକ୍ଷୀ, କୀଟମାନେ କରିଥିବା ଗାତରେ ରହିବା ପରି ବୈରାଗୀ ସନ୍ନ୍ୟାସୀମାନେ ସଂସାରୀ ଲୋକମାନେ ତିଆରି କରିଥିବା ଘରେ, ଅଥବା ପରିତ୍ୟକ୍ତ ଘରେ ବା ଗଛମୂଳେ ରହିଥାନ୍ତି। ସାପ ନିଜ କାତି ଛାଡ଼ିଲା ପରି ବୈରାଗୀମାନେ ମୃତ୍ୟୁ ସମୟରେ ସମ୍ପୂର୍ଣ୍ଣ ସଜାଗ ହୋଇ, ନିଜର ମୂଳ ସ୍ୱରୂପରେ ମନୋନିବେଶ ପୂର୍ବକ ପୁରୁଣା ଦେହକୁ ତ୍ୟାଗ କରି ନୂଆଦେହ ଧାରଣ କରନ୍ତି ।


୨୨-#ଶରକୃତ (ଶର ତିଆରି କରୁଥିବା ବ୍ୟକ୍ତି) -ଆଧ୍ୟାତ୍ମିକ ଅଗ୍ରଗତିର ରହସ୍ୟ ହେଉଛି ଏକାଗ୍ରତା । ତୀର ତିଆରି କରୁଥିବା ଏକାଗ୍ର ବଢ଼େଇଟିଏ ଜାଣିପାରେନା ତା’ ପାଖ ଦେଇ ରାଜକୀୟ ପଟୁଆର ଚାଲିଗଲା ବୋଲି । ତା’ ଠାରୁ ତୀକ୍ଷ୍ଣ ଏକାଗ୍ରତା ଶିକ୍ଷା ମିଳେ ।


୨୩-#ଉର୍ଣ୍ଣନାଭି-ଉର୍ଣ୍ଣନାଭି, ମାଙ୍କଡସା ବା ବୁଢ଼ିଆଣୀ ନିଜେ ଜାଲ ତିଆରି କରେ ଓ ପରେ ନିଜ ଜାଲରେ ନିଜେ ବନ୍ଦୀ ହୋଇ ସାରା ଜୀବନ ରହିଥାଏ ବୋଲି ସେ ଜାଣି ନ ଥାଏ । ସେମିତି ମଣିଷ ନିଜ ବିଚାରର ମାୟାଜାଲରେ ବନ୍ଦୀ ହୋଇ ନିଜର ମୂଳସ୍ୱରୂପକୁ ପାସୋରି ପକାଏ ।  ଉର୍ଣ୍ଣନାଭି ଆଉ ଏକ ଶିକ୍ଷା ମଧ୍ୟ ଦେଇଥାଏ । ପରମାତ୍ମା ନିଜକୁ ବିଭିନ୍ନ ଶରୀର ମାଧ୍ୟମରେ ପ୍ରକଟ କରିଥାନ୍ତି, ବିଭିନ୍ନ ଇନ୍ଦ୍ରିୟ ମାଧ୍ୟମରେ ସଂସାରର ରସ ଆସ୍ୱାଦନ କରିଥାନ୍ତି, ପରିଶେଷରେ ନିଜ ଗଢ଼ା ସଂସାରକୁ ନିଜ ଭିତରକୁ ଗୋଟେଇ ନିଅନ୍ତି ।


୨୪-#ସୁପେଶକୃତ -ସୁପେଶକୃତ୍ ବା କୁମ୍ଭାରିଆ କୌଣସି କୀଟକୁ ଧରିଆଣେ ଓ ମାଟିର ନିବୁଜ ଘର ତୋଳି ତାକୁ ସେଥିରେ ବନ୍ଦୀ କରିଦିଏ । ସେହି କୀଟଟି ମରିବା ପୂର୍ବରୁ କୁମ୍ଭାରିଆକୁ ଦେଖିଥାଏ, ତାଆରି ଗୁଣୁଗୁଣୁ ଶବ୍ଦଛଡ଼ା ସେ ଆଉ କିଛି ଶୁଣି ପାରେନା, ଭୟରେ କାତର ହୋଇ ସେ ତା’ରି ରୂପର ଚିନ୍ତା କରିଥାଏ । କିଛି ଦିନ ପରେ ସେ ନିଜେ କୁମ୍ଭାରିଆ ହୋଇ ସେଇଠି ଜନ୍ମ ହୁଏ। ଏଥିରୁ ଶିକ୍ଷା ମିଳେ ମରିଲାବେଳେ ମଣିଷ ଯେମିତି ଚିନ୍ତା କରିଥାଏ, ତାର ମୃତ୍ୟୁ ଉପରାନ୍ତ ଜୀବନର ତଦନୁରୂପ ନିର୍ଦ୍ଧାରିତ ହୋଇଥାଏ । ଏଥିରୁ ଅନ୍ୟ ଏକ ଶିକ୍ଷା ମିଳେ ଯେ ଯଦି ସାଧାରଣ ମଣିଷ ନିରବିଚ୍ଛିନ୍ନ ଭାବରେ ନିଜ ଗୁରୁ ସ୍ୱରୂପର ଧ୍ୟାନ କରେ, ତେବେ ଅବିଳମ୍ବେ ସେ ଗୁରୁଙ୍କ ସ୍ୱରୂପରେ ଅବସ୍ଥାନ କରେ, ଗୁରୁତୁଲ୍ୟ ହୋଇଯାଏ ।


ଏଇଥିଲା ଅବଧୂତଙ୍କ ୨୪ ଗୁରୁଙ୍କ ପ୍ରସଙ୍ଗ । 


 

बुधवार, 27 सितंबर 2023

नालंदा विश्वविद्यालय की कुछ खास रहस्य

 ।। ----- नालंदा विश्वविद्यालय की कुछ खास रहस्य -----।।


नालंदा यूनिवर्सिटी - अभी तक के ज्ञात इतिहास की सबसे महान यूनिवर्सिटी ।


आज भले ही भारत शिक्षा के मामले में 191 देशों की लिस्ट में 145वें नम्बर पर हो लेकिन कभी यहीं भारत दुनियाँ के लिए ज्ञान का स्रोत हुआ करता था। आज सैकड़ो छात्रों पर केवल एक अध्यापक उपलब्ध होते हैं वहीं हजारों वर्ष पहले इस विश्वविद्यालय के वैभव के दिनों में इसमें 10,000 से अधिक छात्र और 2,000 शिक्षक शामिल थे यानी कि केवल 5 छात्रों पर एक अध्यापक ..।  नालंदा में आठ अलग-अलग परिसर और 10 मंदिर थे, साथ ही कई अन्य मेडिटेशन हॉल और क्लासरूम थे। यहाँ एक पुस्तकालय 9 मंजिला इमारत में स्थित था, जिसमें 90 लाख पांडुलिपियों सहित लाखों किताबें रखी हुई थीं ।  यूनिवर्सिटी में सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, ईरान, ग्रीस, मंगोलिया समेत कई दूसरे देशो के स्टूडेंट्स भी पढ़ाई के लिए आते थे। और सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि उस दौर में यहां लिटरेचर, एस्ट्रोलॉजी, साइकोलॉजी, लॉ, एस्ट्रोनॉमी, साइंस, वारफेयर, इतिहास, मैथ्स, आर्किटेक्टर, भाषा विज्ञानं, इकोनॉमिक, मेडिसिन समेत कई विषय पढ़ाएं जाते थे।


इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी । केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थी। इस यूनिवर्सटी में देश विदेश से पढ़ने वाले छात्रों के लिए छात्रावास की सुविधा भी थी ।

यूनिवर्सिटी में प्रवेश परीक्षा इतनी कठिन होती थी की केवल विलक्षण प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे। यहां आज के विश्विद्यालयों की तरह छात्रों का अपना संघ होता था वे स्वयं इसकी व्यवस्था तथा चुनाव करते थे। छात्रों को किसी प्रकार की आर्थिक चिंता न थी। उनके लिए शिक्षा, भोजन, वस्त्र औषधि और उपचार सभी निःशुल्क थे। राज्य की ओर से विश्वविद्यालय को दो सौ गाँव दान में मिले थे, जिनसे प्राप्त आय और अनाज से उसका खर्च चलता था।


लगभग 800 सालों तक अस्तित्व में रहने के बाद इस विश्वविद्यालय को  तहस नहस कर दिया ।।




सोमवार, 17 जुलाई 2023

रुद्राभिषेक विषयक ज्ञातव्य सूचना

 ।।   रुद्राभिषेक विषयक ज्ञातव्य सूचना ।।

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        [ संक्षिप्त शिव पूजन विधि सहित ]


  (   रुद्राभिषेक कब करें । कब न करें ।  )


 🍀रुद्राभिषेक के लिए भी कुछ उत्तम योग बनते हैं. 


      ⚘आइए जानते हैं कि कौन सा समय रुद्राभिषेक करने के लिए सबसे उत्तम होता है...


- रुद्राभिषेक के लिए शिव जी की उपस्थिति देखना बहुत जरूरी है.


- शिव जी का निवास देखे बिना कभी भी रुद्राभिषेक न करें, बुरा प्रभाव होता है.


- शिव जी का निवास तभी देखें जब मनोकामना पूर्ति के लिए अभिषेक करना हो.


        🌲शिव जी का निवास कब मंगलकारी होता है?


               देवों के देव महादेव ब्रह्माण्ड में घूमते रहते हैं. महादेव कभी मां गौरी के साथ होते हैं तो कभी-कभी कैलाश पर विराजते हैं. ज्योतिषाचार्याओं की मानें तो रुद्राभिषेक तभी करना चाहिए जब शिव जी का निवास मंगलकारी हो...


- हर महीने के शुक्ल पक्ष की द्वितीया और नवमी को शिव जी मां गौरी के साथ रहते हैं.


- हर महीने कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा, अष्टमी और अमावस्या को भी शिव जी मां गौरी के साथ रहते हैं.


- कृष्ण पक्ष की चतुर्थी और एकादशी को महादेव कैलाश पर वास करते हैं.


- शुक्ल पक्ष की पंचमी और द्वादशी तिथि को भी महादेव कैलाश पर ही रहते हैं.


- कृष्ण पक्ष की पंचमी और द्वादशी को शिव जी नंदी पर सवार होकर पूरा विश्व भ्रमण करते हैं.


- शुक्ल पक्ष की षष्ठी और  तिथि को भी शिव जी विश्व भ्रमण पर होते हैं.


- रुद्राभिषेक के लिए इन तिथियों में महादेव का निवास मंगलकारी होता है.


      🌷शिव जी का निवास कब """"अनिष्टकारी""" होता है?


        शिव आराधना का सबसे उत्तम तरीका है रुद्राभिषेक लेकिन रुद्राभिषेक करने से पहले शिव के अनिष्‍टकारी निवास का ध्यान रखना बहुत जरूरी है...


- कृष्णपक्ष की सप्तमी और चतुर्दशी को भगवान शिव""" श्मशान """में समाधि में रहते हैं.


- शुक्लपक्ष की प्रतिपदा, अष्टमी और पूर्णिमा को भी शिव श्मशान में समाधि में रहते हैं.


- कृष्ण पक्ष की द्वितीया और नवमी को महादेव देवताओं की समस्याएं सुनते हैं.


- शुक्लपक्ष की तृतीया और दशमी में भी महादेव देवताओं की समस्याएं सुनते हैं.


- कृष्णपक्ष की तृतीया और दशमी को नटराज क्रीड़ा में व्यस्त रहते हैं.


- शुक्लपक्ष की चतुर्थी और एकादशी को भी नटराज क्रीड़ा में व्यस्त रहते हैं.


- कृष्णपक्ष की षष्ठी और त्रयोदशी को रुद्र भोजन करते हैं.


- शुक्लपक्ष की सप्तमी और चतुर्दशी को भी रुद्र भोजन करते हैं.


- इन तिथियों में मनोकामना पूर्ति के लिए अभिषेक नहीं किया जा सकता है.


      🌹  कब तिथियों का विचार नहीं किया जाता?


-★शिवरात्री, प्रदोष और ★सावन के सोमवार★ को शिव के निवास पर विचार नहीं करते. 


- ★सिद्ध पीठ या ज्योतिर्लिंग के क्षेत्र में भी शिव के निवास पर विचार नहीं करते.   


भगवान शिव के अनुष्ठान में रुद्राभिषेक इत्यादि में  शिव वास देखना अति आवश्यक कहा जाता है ।

महामृत्युञ्जय इत्यादि के हवन के लिए भी यदि शिव वास देखा जाये तो बहुत उत्तम माना गया है ।

परन्तु विशेष रूप से शिव लिंग तथा शिव मूर्ती की स्थापना एवं प्रतिष्ठा करने के लिए शिव वास देखना कहा गया है ।

भगवान शिव का वास कोन से पक्ष की कोन सी तिथि को किधर होता है और उसका क्या फल है यह हम आपको बताने जा रहे हैं ।


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प्रमाणम् यथा 

💥 [  शिव वास की गणना करने की विशेष विधि :  

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नारद जी के अनुसार ---


"तिथिं च द्विगुणी कृत्वा पुनः पञ्च समन्वितम्।

सप्तभिस्तुहरेद्भागं शिववासः स उच्यते ।।"  


       जिस तिथि के लिए शिव वास देखना हो उस संख्या को दोगुना करके जो आये उसमे पांच जोड़ें ।

जो संख्या प्राप्त हुई उसको सात से भाग दे दें ।

अब शेष बची हुई संख्या के अनुसार शिव वास को जानें ।


"एकेन वासः कैलाशे द्वितीये गौरी सन्निधौ । 

तृतीये वृषभारुढ़ः सभायां च चतुष्टये  । 

पंचमे भोजने चैव क्रीड़ायां च रसात्मके । 

श्मशाने सप्तशेषे च शिववासः उदीरितः ।।"


यदि एक शेष बचे तो शिववास कैलाश पर जाने, दो शेष बचने पर गौरी सानिध्य में, तीन शेष में वृषभारुढ, चार में सभामध्य, पांच में भोजन करते हुए, छः शेष में क्रीड़ारत और  सात यानी शून्य शेष रहने पर शिव को श्मशान वासी जाने ।


शिव वास कहाँ होने से क्या फल है यह आगे कहा गया है ---


"कैलाशे लभते सौख्यं गौर्यन्तं सुख सम्पदः । 

वृषभारूढं सिद्धिः स्यात् सभासंतापकारिणी । 

भोजने च भवेत् रोगी क्रीडायां कष्टमेव च । 

श्मशाने मरणं ज्ञेयं फलमेवं विचारयेत् ।।" 


अर्थात् कैलाश वासी शिव का अनुष्ठान करने से सुख प्राप्ति होती है ।  गौरी-सानिध्य में रहने पर सुख-सम्पदा की प्राप्ति होती है ।  वृषारुढ़ शिव की विशेष उपासना से अभीष्ट की सिद्धि होती है ।  सभासद शिव पूजन से संताप होता है ।  भोजन करते हुए शिव की आराधना रोग प्राप्तिः होता है ।  क्रीड़ारत शिवाराधन भी कष्टकारी है तथा श्मशानवासी शिवाराधन से मरण तुल्य कष्ट देता है । 

उक्त शिववास नियम - विचार के साथ-साथ सामान्य पंचांग-शुद्धि (भद्रादि दोष वर्जना) भी अवश्य देखना चाहिए ।


    मुख्यतः सकाम उपासना पूजन के लिए शिव वास या अन्य विचार किया जाता है , यदि निष्काम भाव से शिव आराधना पूजन इत्यादि करना हो तो कभी भी किया जा सकता है । किसी प्राचीन तीर्थ स्थान में या ज्योतिर्लिंग में शिवरात्रि प्रदोष आदि में माघ व सावन में बिना शिव वास देखे भी अनुष्ठान कर सकते हैं ।   ]


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      🌷   रुद्राभिषेक से क्या क्या लाभ मिलता है ?


        शिव पुराण के अनुसार किस द्रव्य से अभिषेक करने से क्या फल मिलता है अर्थात आप जिस उद्देश्य की पूर्ति हेतु रुद्राभिषेक करा रहे है उसके लिए किस द्रव्य का इस्तेमाल करना चाहिए का उल्लेख शिव पुराण में किया गया है उसका सविस्तार विवरण प्रस्तुत कर रहा हू और आप से अनुरोध है की आप इसी के अनुरूप रुद्राभिषेक कराये तो आपको पूर्ण लाभ मिलेगा।


               ।। श्लोक ।।


जलेन वृष्टिमाप्नोति व्याधिशान्तिः कुशोदकै


दध्ना च पशुकामाय श्रिया इक्षुरसेन वै।


मध्वाज्येन धनार्थी स्यान्मुमुक्षुस्तीर्थवारिणा।


पुत्रार्थी पुत्रमाप्नोति पयसा चाभिषेचनात्।।


बन्ध्या वा काकबंध्या वा मृतवत्सा चयाङगना।


जवरप्रकोपशांत्यर्थम् जलधारा शिवेप्रिया।।


घृतधारा शिवे कार्या यावन्मन्त्रसहस्त्रकम्।


तदा वंशस्यविस्तारो जायते नात्र संशयः।


प्रमेहरोगशांत्यर्थं प्राप्नुयात्मान्सेप्सितम्।


केवलं दुग्धधारा च तदा कार्या विशेषतः।


शर्करा मिश्रिता तत्र यदा बुद्धिर्जडा भवेत्।


श्रेष्ठाबुद्धिर्भवेत्तस्य कृपया शङ्करस्य च!!


सार्षपेनैव तैलेन शत्रुनाशो भवेदिह!


पापक्षयार्थी मधुना निर्व्याधिः सर्पिषा तथा।।


जीवनार्थी तू पयसा श्रीकामीक्षुरसेन वै।


पुत्रार्थी शर्करायास्तु रसेनार्चेत् शिवं तथा।


महलिंगाभिषेकेन सुप्रीतः शंकरो मुदा।


कुर्याद्विधानं रुद्राणां यजुर्वेदविनिर्मितम्।


अर्थात् 


जल से रुद्राभिषेक करने पर —               वृष्टि होती है।

कुशा जल से अभिषेक करने पर —        रोग, दुःख से छुटकारा मिलती है।

दही से अभिषेक करने पर —                  पशु, भवन तथा वाहन की प्राप्ति होती है।

गन्ने के रस से अभिषेक  करने पर —     लक्ष्मी प्राप्ति

मधु युक्त जल से अभिषेक करने पर — धन वृद्धि के लिए। 

तीर्थ जल से अभिषेकक करने पर —     मोक्ष की प्राप्ति होती है।

इत्र मिले जल से अभिषेक करने से —     बीमारी नष्ट होती है ।

दूध् से अभिषेककरने से   —                   पुत्र प्राप्ति,प्रमेह रोग की शान्ति तथा  मनोकामनाएं  पूर्ण

गंगाजल से अभिषेक करने से —             ज्वर ठीक हो जाता है।

दूध् शर्करा मिश्रित अभिषेक करने से — सद्बुद्धि प्राप्ति हेतू।

घी से अभिषेक करने से —                       वंश विस्तार होती है।

सरसों के तेल से अभिषेक करने से —      रोग तथा शत्रु का नाश होता है।

शुद्ध शहद रुद्राभिषेक करने से   —-         पाप क्षय हेतु ।


         इस प्रकार शिव के रूद्र रूप के पूजन और अभिषेक करने से जाने-अनजाने होने वाले पापाचरण से भक्तों को शीघ्र ही छुटकारा मिल जाता है और साधक में शिवत्व रूप सत्यं शिवम सुन्दरम् का उदय हो जाता है उसके बाद शिव के शुभाशीर्वाद सेसमृद्धि, धन-धान्य, विद्या और संतान की प्राप्ति के साथ-साथ सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाते हैं।


                        🌲संक्षिप्त शिव पूजन  ।💥

           (    पञ्चवक्त्रविधि सहित    )


                     !!   ध्यानम्   !!


ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं,

रत्नाकलोज्ज्वलांगं परशुमृगवराभीति हस्तं प्रसन्नं।

पद्माशीनं समन्तात् स्तुतममरगणेर्व्याघ्रकृतिं वसानं,

विश्वाद्यं विश्ववन्द्यं निखिलभयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥


👉सद्योजात-स्थापन


पश्चिमं पूर्णचन्द्राभं जगत् सृष्टिकरोज्ज्वलम,सद्योजातं यजेत सौम्य मन्दस्मित मनोहरम॥


👉वामदेव स्थापन


उत्तरं विद्रुमप्रख्यं विश्वस्थितिकरं विभुम,सविलासं त्रिनयनं वामदेवं प्रपूजयेत॥


👉अघोर स्थापन


दक्षिणं नीलजीमूतप्रभं संहारकारकम,वक्रभू कुटिलं घोरमघोराख्यं तमर्चयेत॥


👉तत्पुरुष स्थापन


यजेत पूर्वमुखं सौम्यं बालर्क सदृशप्रभम्,तिरोधानकृत्यपरं रुद्रं तत्पुरुंषभिधम्॥

 

👉ईशान स्थापन


ईशानं स्फ़टिकप्रख्यं सर्वभूतानुकंपितम,अतीव सौभ्यमोंकार रूपं ऊर्ध्वमुखं यजेत॥


ॐ उमामहेश्वराभ्यां नम: श्यानं समर्पयामि॥


आवाहन


ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव उतो त इषये नम:।

बाहुभ्यामुत ते नम:॥


एह्योहि गौरीश पिनाकपाणे शशांकमौलेवृषभरूढं।

देवाधिदेवेश महेश नित्यं गृहाण पूजां भगवन नमस्ते॥

आवाहयामि देवेशमरादिमध्यान्तपर्तितम्।

आधारं सर्वलोकानामिश्रितार्थ प्रदासिनम्॥


ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: आवाहनं समर्पयामि॥


आसन


ॐ याते रुद्र शिवातनूरघोरा पापकाशिनी।

तयानस्तावा शन्तमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि।

विश्वात्मने नमस्तुभ्यं चिदम्भरनिवरसिने॥

रत्नसिंहासनं चारो ददामि करुणानिधे॥

ऊँ उमामहेश्वराभ्यां नम: आसनार्थ पुष्पं समर्पयामि॥

फ़ूल चढायें।


पाद्य


ॐ यामिषुडिंगरिशन्त हस्ते विभर्ष्यस्तवे।

शिवांगिरिशतडंकरु माहि गंगवहे सी: पुरुषन्जगत।

तुभ्यं संप्रददे पाद्यं श्रीकैलास निवासिने।

ऊँ उमामहेश्वराभ्याम नम: पादयो: पाद्यं समर्पयामि॥

चरणों में जल अर्पित करें।


अर्घ्य


ॐ शिवेन वचसात्वा गिरिशाच्छावदामसि।

यथान: सर्वमिज्जगदयक्ष्य गंगवहे सुमनाऽअसत॥

अनर्घफ़लदात्रे च शास्त्रे वैवस्वतस्य च।

तुमयर्मध्य प्रदास्यामि द्वादशान्त निवासिने॥


ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: हस्तयोर्घ्य समर्पयामि॥

अर्घ्य पात्रं में गन्धाक्षत पुष्प के साथ जल लेकर चढावें॥


आचमन

ॐ अद्धयवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक।

अह्रीश्यसर्वान्जभयन्त्सर्वाश्चयातुधान्योधराची: परासुव।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: आचमनीयम जलं समर्पयामि॥

छ: बार आचमन करावें।


स्नान

ऊँ असोस्ताम्रोऽरुण उतब्रभु: सुमंगल:।

ये चेन गंगवहे रुद्राअभितोदिक्षुश्रिता: सहस्त्रशोवेषस गंगवहे हेडऽईमहे।


गंगाक्लिन्नजटाभारं सोमसोमाधशेखर॥

नद्या मया समानेतै स्नानं कुरु महेश्वर:।


ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: स्नानीयं जलं समर्पयामि।

स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि॥

घन्टावादन करें और स्नान करवायें॥


पयस्नान (दूध से स्नान)


ॐ पय: पृथिव्याम्पयऽओषपीषु पर्योर्दिव्यसिक्षे पयोधा:॥

पयस्वती: प्रदिश: सन्तुमह्यम।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: पय: स्नानं समर्पयामि।

ॐ शुद्धवाल:सर्वशुद्धवालो मणिवालस्तेअश्विन:।

श्वेत: श्वेताक्षौ रुद्राय पशुपतये कर्णयामा अवलिप्ता रौद्रा नभो रूपा: पार्जन्या:।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि। शुद्धोदकस्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।

पय स्नानान्ते शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि॥

पहले दूध से फ़िर जल से स्नान करावें॥


दधि स्नान


ॐ दधिक्रोण्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिन:। सुरभि नो मुखा करत प्रणाअयु गंगवहे

षितारिषत॥


ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: दधिस्नानं समर्पयामि।

ॐ शुद्धवाल: सर्वशुद्धवालो मणिवालस्त अश्विन:।

श्वेत श्वेताक्षौरुणस्ते रुद्राय पशुपतये कर्णायामा अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपा: पार्जन्या:।


ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम:शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

शुद्धोदक स्नानन्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।

दधि स्नानन्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि॥

पहले दही फ़िर जल से स्नान करवायें।


घृतस्नान

ॐ घृतं मतिक्षेघृतमस्य योनिर्धिते श्रितोघृतस्य धाम।

अनष्वधमावह मदयस्व स्वाहाकृतं वृषभवक्षिहव्यम।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: घृतस्नानम समर्पयामि। घृतस्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।


ॐ शुद्धवाल: सर्वशुद्धवालो मणिवालस्त अश्विन:। श्वेत: श्वेताक्षौरुणस्ते रुद्राय पह्सुपतये कर्णायामा अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपा: पार्जन्या:।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।

पहले घी से फ़िर जल से स्नान करवायें।


मधुस्नान

ॐ मधुव्वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धव:। माधवीर्न: सन्त्वोषधी:।

मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव गंगवहे रज:। मधुद्यौरश्रतुन पिता। मधुमान्नो। वननस्पतिर्मधमां अस्तु सूर्य:। माध्वीरर्गावो-भवन्तु न:।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: मधुस्नानं समर्पयामि। मधुस्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

ॐ शुद्धवाल: सर्वशुद्धवालो मणिवालस्त अश्विन:। श्वेत: श्वेताक्षौरुणस्ते रुद्राय पह्सुपतये कर्णायामा अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपा: पार्जन्या:।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।

पहले शहद से फ़िर जल से स्नान करवायें।


शर्करास्नान

ॐ अपा गंगवहे रसमुद्धयस गंगवहे सूर्ये सन्त: गंगवहे समाहितम।

अपा गंगवहे रसस्ययो रसस्तं वो गृहलाम्युतममुपयामगृहीतोसीन्द्राय त्वा जुष्टं गृहलाम्येषेत योति रिन्द्राय त्वा जुष्टतमम्।


ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: शर्करास्नानं समर्पयामि। शर्करास्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

ॐ शुद्धवाल: सर्वशुद्धवालो मणिवालस्त अश्विन:। श्वेत: श्वेताक्षौरुणस्ते रुद्राय पह्सुपतये कर्णायामा अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपा: पार्जन्या:।


ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।

पहले चीनी फ़िर जल से स्नान करवायें।


पंचामृत स्नान

ॐ पंचनद्य: सरस्वतीमययपिबन्ति सस्रोतस: सरस्वती तु पंचधा सो देशेभवत्सरित।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम पंचामृतस्नानं समर्पयामि। पंचामृतस्नानन्ते शुद्धोदक स्नानम समर्पयामि।

ॐ शुद्धवाल: सर्वशुद्धवालो मणिवालस्त अश्विन:। श्वेत: श्वेताक्षौरुणस्ते रुद्राय पह्सुपतये कर्णायामा अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपा: पार्जन्या:।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।

पहले पंचामृत से स्नान करवाये फ़िर जल से स्नान करवायें।


गन्धोदक स्नान

ॐ गन्धद्वारा दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम। ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वेयेश्रियम।

मलयाचल सम्भूतं चन्दगारूरंभवम। चन्द्रनं देवदेवेश स्नानार्थ प्रतिगृह्यताम।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: गन्धोदकस्नानं समर्पयामि। गन्धोदक स्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

पहले गुलाबजल से फ़िर जल से स्नान करवायें।


शुद्धोदक स्नान

ॐ शुद्धवाल: सर्वशुद्धवालो मणिवालस्त अश्विन:। श्वेत: श्वेताक्षौरुणस्ते रुद्राय पह्सुपतये कर्णायामा अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपा: पार्जन्या:।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।

घंटावदन करके जल से स्नान करवायें फ़िर आचमन करवायें।


वस्त्र

ॐ असौ योवसर्पति नीलग्रीवो विलोहित: उतैनंगोपाऽदृश्रम नदश्रम नुदहाजै: सदषटोमृडययति न:।

दिगम्बर नमस्तुभ्यम गजाजिनधरा यच।

व्याघ्रचर्मोतरीयाय वस्त्रयुग्मं दादाम्यहम॥

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: वस्त्रोपवस्त्रं समर्पयामि। आचमनीयं जलं समर्पयामि।


यज्ञोपवीत

ॐनीलग्रीवाय सहस्त्राक्षाय मीढुषे। अथोयेऽस्य सत्वानो हन्तेभ्योकरन्नम।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: यज्ञोपवीतं समर्पयामि। आचमनं जलं समर्पयामि।


सुगन्ध द्रव्य

ॐ त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम।

उर्वारुकमिव बन्धनान मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।

ॐ उमामह्श्वराभ्याम नम: सुगन्धं समर्पयामि।

भगवान को इत्र लगावे.


भस्म

अग्निहोत्र समुदभूतं विरजाहोमपाजितम,

गृहाण भस्म हे स्वामिन भक्तानां भूतिदाय॥

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: भस्मं समर्पयामि॥

भस्म अर्पित करें।


गन्ध

ॐ प्रमुश्चधन्वनस्तवमुभयोरात्न्यौर्ज्याम,

याश्चते हस्तऽअंगषव: पराता भगवोवप।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: गन्धं समर्पयामि॥


अक्षत

ॐ अक्शन्नमीमदन्तछप्रियाऽअधषत।

अस्तोषतस्वभानति विप्रान्न विष्टुयामती योजान। विन्द्रतेहरी।

अक्सह्तान धवलान देवसिद्धगन्धर्व पूजितम।

सुदन्रेश नमस्तुभ्यं गृहाण वरदो भव॥

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: अक्षतान समर्पयामि।

अक्षत चढावें।


पुष्प

ॐ विज्जयन्धनु: कपर्दिनो विशल्यो बाधवांऽउत।

अनेकशन्नस्ययाऽड.षव आभुरस्यनिषंगधि:।

तुरीयवनसंभूतं। परमानन्दसौरभम।

पुष्पं गृहाण सोमेश पुष्पचापविभंजन॥

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: पुष्पाणि समर्पयामि।


बिल्वपत्र

ॐ नमो बिल्विने च कवचिने च नमो वश्रिणे च वरूथिने

च नम: श्रुताव च श्रुतसेनाय च नमो दुन्दुभ्यरयचाहनन्यायच।

त्रिबलं द्विगुणाकारं द्विनेत्रं च त्रिधायुधम।

श्रिजन्मपाप संहारमेक बिल्वं शिवार्पणम।

दर्शनं बिल्वपत्रस्य स्पर्शनं पापनाशनम।

अघोर पाप संहारं मेक बिल्वं शिवार्पणम॥


अंगपूजा

ॐ भवाय नम: पादो पूजयामि। ॐ जगत्पित्र नम: जंघे पूजयामि। ॐ मृडाय नम: जानुनीं पूजयामि। ॐ रुद्राय नम: उरु पूजयामि। ॐ कालान्तकाय नम: कटिं पूजयामि। ॐ नागेन्द्रा भरणाय नमं नाभिर पूजयामि। ॐ स्तव्याय नम: कंठं पूजयामि। ॐ भवनाशाय नम: भुजान पूजयामि। ॐ कालकंठाय नम: कंठं पूजयामि। ॐ महेशाय नम: मुखं पूजयामि। ॐ लास्यप्रियाय नम: ललाटं पूजयामि। ॐ शिवाय नम: शिरं पूजयामि। ऊँ प्रणतार्तिहराय नम: सर्वाण्यंगानि पूजयामि।

प्रत्येक बार गंधाक्षतपुष्प से सम्बन्धित अंग को घर्षित करें।


अष्टमूर्त्तिपूजा


ॐ शर्वाय क्षितिमूर्तये नम:,ॐ भवाय जलमूर्तये नम:,ॐ रुद्राय अग्निमूर्तये नम:,ॐ उग्राय वायुमूर्तये नम:,ॐ भीमाय आकाश मूर्तये नम:,ॐ ईशनाय सूर्य मूर्तये नम:,ॐ महादेवाय सोममूर्तये नम:,ॐ पशुपतये यजमान मूर्तये नम:।

प्रत्येक बार गन्धाक्षतपुष्प बिल्वपत्र अर्पित करें।


परिवार पूजा


ॐ उमायै नम:,ॐ शंकर प्रियाये नम:,ॐ पार्वत्यै नम:,ॐ काल्यै नम:, ॐ कालिन्द्यै नम:,ॐ कोटि देव्यै नम:,ॐ पिश्वधारित्रै नम:,ॐ गंगा देव्यै नम:,नववितीन पूजयामि सर्वोपकरायै गन्धाक्षतपुष्पयाणि समर्पयामि।


प्रत्येक बार गन्ध अक्षत पुष्प अर्पण करें।


ॐ गणपतये नम:,ॐ कार्तिकेयाय नम:,ॐ पुष्पदन्ताय नम:,ॐ कपर्दिने नम:.ॐ भैरवाय नम:,ॐ भूलपाधये नम:,ॐ चण्डेशाय नम:,ॐ दण्डपाणये नम:, ॐ नन्दीश्वराय नम:,ॐ महाकालाय नम:,सर्वान गणाधिपान पूजयामि सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि।


ॐ अघोराय नम:,ॐ पशुपतये नम:,ॐ शर्वाय नम:,ॐ विरूपाक्षाय नम:,ॐ विश्वरूष्ये नम:,ॐ त्र्यम्बकाय नम:,ॐ कपर्दिने नम:,ॐ भैरवाय नम:,ॐ शूलपाणये नम:,ॐ ईशनाय नम:,एकादश रुद्रान् पूजयामि सर्वोपचारार्थे गन्ध अक्षत पुष्पाणि समर्पयामि।


सौभाग्य द्रव्य


ॐ अहिरीव भोगै: पर्येति बाहुन्ज्यावा हेतिम्परिवाधमान:।

हस्तघ्नो विश्वावयुनानिविद्वान पुमान पुमा गंगवहे समपरिपातुविश्वत:॥

हरिद्रां कुंकुमं चैव सिन्दूरं कज्जलान्वितम।

सौभाग्यद्रव्यसंयुक्तं ग्रहाण परमेश्वर॥

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: सौभाग्यद्रव्याणि समर्पयामि।

हल्दी कुमकुम सिन्दूर चढावें।


धूप

ॐ या ते हेतीर्मीढ्ष्ट्रम हस्ते बभूव ते धनु:। तयास्मान-विश्वस्त्व मयक्ष्मया परिभुज॥

ॐ उमा महेश्वराभ्याम नम: धूपं आघ्रापयामि।


धूपबत्ती जलायें।


दीप

ॐ परिते धन्वनो हेतिरस्मान्वृणकतुविश्वत:। अथोयऽगंषि घ्रिस्त वारेऽकअस्मन्निधेहितम्।

साज्यं वर्ति युक्तं दीपं सर्वमंगलकारकम्।

समर्पयामि श्येदं सोमसूर्याग्निलोचनम्॥


प्रज्वलित दीपक पर घंटावादन करते हुये चावल छोडें।


नैवैद्य

नैवैद्य के ऊपर बिल्वपत्र या पुष्प में पानी लेकर रुद्रगायत्री को बोलें-

ॐ तत्पुरुषाय विद्यमहे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्र: प्रचोदयात।

फ़िर नैवैद्य पर धेनु मुद्रा दिखाते हुये इस मंत्र को बोलें-

ॐ अवतय धनुष्टव गंगवहे सहस्त्राक्षशतेषुधे। निशीर्य शलयानामुख शिवा न: सुमना भव॥

नैवैध्यं षडरसोपेतं विषाशत घृतान्वितम।

मधुक्षीरापूपयुक्तं गृह्यतां सोमशेखर॥

ॐ या फ़लिनीयाऽफ़लाऽपुष्पा याश्चपुष्पिणि:। बृहस्पतिप्रसूस्तानो मुन्वत्व गंगवहे हस:।

यस्य स्मरण मात्रेण सफ़लता सन्ति सत्क्रिया:।

तस्य देवस्या प्रीत्यर्थ इयं ऋतुफ़लार्पणम।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: नैवैद्यम निवेदयामि नाना ऋतुफ़लानि च सपर्पयामि।

इसके बाद ग्राम मुद्रा में इस मंत्र का उच्चारण करें-

ॐ प्राणाय स्वाहा,ऊँ अपानाय स्वाहा,ऊँ व्यानाय स्वाहा,ऊँ उदानाय स्वाहा,ऊँ समानाय स्वाहा।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: आचमनीयं जलं समर्पयामि,पूर्जापोषण समर्पयामि।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: मध्ये पानीयं समर्पयामि,नैवैद्यान्ते आचमनीयं समर्पयामि,उत्तरापोषणं समर्पयामि,हस्तप्राक्षलण समर्पयामि,मुखप्रक्षालनं समर्पयामि।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: करोद्वर्जनार्थे चन्दनं समर्पयामि।

भगवान के हाथो में चन्दन अर्पित करें।


ताम्बूल

ॐ नमस्तुऽआयुधानाततायधृष्णवे। उमाभ्यांमुत ते नमो बाहुभ्यान्नत धन्वने।

ॐ उमा महेश्वराभ्याम नम: मुख शुद्धयर्थे ताम्बूलं समर्पयामि।


दक्षिणा

ॐ हरिण्यगर्भ: समवर्तमाग्रे भूतस्य जात: परिरेकऽआसीत।

सदाधार पृथिवीन्द्यामुतेमाकस्मै देवाय हविषा विधेम।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम:सांगता सिद्धयर्थ हिरण्यगर्भ दक्षिणां समर्पयामि।


नीराजंन

ॐ इद‌गूं हवि: प्रजननम्मे अस्तु दशवीर गंगवहे सर्वगण गंगवहे स्वस्तये।

आत्मसनि। प्रजासनि पशुसति लोकसन्यभयसनि:।

अग्नि प्रजा बहुलां में करोत्वनं न्यतो रेतोऽस्मासु धत।


ध्यान करें

वन्दे देव उमापतिं सुरुगुरु वन्दे जगत्कारणम,

वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं वन्दे पशूनांपतिम।

वन्दे सूर्य शशांक वहिनयनं वन्चे मुकुन्दप्रिय:,

वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिवशंकरम॥


शान्तं पदमासनस्थं शशिधर मुकुटं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम,

शूलं वज्र च खडग परशुमभयदं दक्षिणागे वहन्न्तम।

नाग पाशं च घंटां डमरूकसहितं सांकुशं वामभागे,

नानालंकार दीप्तं स्फ़टिकमणिनिभं पार्वतीशं नमामि॥


कर्पूर गौरं करुणावतारं संसार सारं भुजगेन्द्र हारम,

सदा बसन्तं ह्रदयार विन्दे भवं भवानी सहितं नमामि॥


आरती

जय शिव ॐकारा भज शिव ॐकारा।

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अर्धांगी धारा॥ ॐ॥

एकानन चतुरानन पंचानन राजे।

हंसानन गरुडासन वृषवाहन साजे॥ॐ॥

दो भुज चारु चतुर्भुज दशभुज अति सोहे।

तीनो रुप निरखते त्रिभुवन जग मोहे॥ॐ॥

अक्षरमाला वनमाला मुंडमाला धारी।

त्रिपुरानाथ मुरारी करमाला धारी॥ऊँ॥

श्वेताम्बर पीताम्बर बाघाम्बर अंगे।

सनकादिक गरुडादिक भूतादिक संगे॥ऊँ॥

कर मध्ये इक मंडल चक्र त्रिशूल धर्ता।

सुखकर्ता दुखहर्ता सुख में शिव रहता॥ऊँ॥

काशी में विश्वनाथ विराजे नंदी ब्रह्मचारी।

नित उठ ज्योति जलावत दिन दिन अधिकारी॥ऊँ॥

ब्रह्मा विष्णु सदा शिव जानत अविवेका।

प्रणवाक्षर ॐ मध्ये ये तीनो एका॥ऊँ॥

त्रिगुण स्वामी की आरती जो कोई नर गावै।

ज्यारां मन शुद्ध होय जावे,ज्यारां पाप परा जावे,ज्यारे सुख संपति आवे,ज्यारां दुख दारिद्रय जावे,ज्यारे घर लक्ष्मी आवे,भणत भोलानन्द स्वामी,रटत शिवानन्द स्वामी इच्छा फ़ल पावे॥ऊँ॥


शिवपुकार

जै शिवॐकारा

मन भज शिव ॐँकारा

मन रट शिव ॐकारा

हो शिव भूरी जटा वाला

हो शिव दीर्घ जटा वाला

हो शिव भाल चन्द्र वाला

हो शिव तीन नेत्र वाला

हो शिव ऊपर गंगाधारा

हो शिव बरसत जलधारा

हो शिव तीव्र नेत्र वाला

हो शिव गलबिच रुण्डमाला

हो शिव कम्बु ग्रीव वाला

हो शिव भस्मी अंग वाला

हो शिव फ़णिधर फ़णवाला

हो शिव वृषभ स्कन्ध वाला

हो शिव ओढत मृगछाला

हो शिव धारण मुण्डमाला

हो शिव भूत प्रेत वाला

हो शिव बेल चढन वाला

हो शिव पार्वती प्यारा

हो शिव भक्तन हितकारा

हो शिव दुष्टदलन वाला

हो शिव पीवत भंग प्याला

हो शिव मस्त रहन वाला

हो शिव दर्शन दो भोला

हो शिव परसन हो भोला

हो शिव बरसो जलधारा

हो शिव काटो जम फ़ांसा

हो शिव मेटो जम त्रासा

हो शिव रहते मतवाला

हो शिव ऊपर जलधारा

हो शिव ईश्वर ऊँकारा

हो शिव बम बम भोला

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव भोले भोलेनाथ महादेव अर्धांगी धारा॥

ऊँ हर हर हर महादेव।


जल आरती

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष गंगवहे शान्ति: पृथ्वीशान्तिराप: शान्त रोषधय: शान्ति।

वनस्पतय: शान्ति शान्तिर्विश्वेदेवा शान्तिब्रह्म शान्ति सर्व गंगवहे शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि।

इस पानी को शिवजी के चारों तरफ़ थोडा थोडा डालकर शिवलिंग पर चढा दें।


प्रदक्षिणा

ऊँ मा नो महान्तमुत मा नोऽअभर्कम्मानऽउक्षन्त मुत मा नऽउक्षितम। मानो वधी: पिरंम्मोतमारम्मान: प्रियास्तस्न्वोरुद्ररीरिष:।

ऊँ उमामहेश्वराभ्याम नम: प्रदक्षिणां समर्पयामि।


पुष्पांजलि


ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन। तेह ना कं महिमान: सचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा:।

ॐ राधाधिराजाय प्रसस्रसाहिने नमोवयं वेश्रणाय कुर्महे समे कामान कामकामा महम। कामेश्वरी वेश्रवणो ददातु। कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नम:।

ॐस्वास्ति साम्राज्यं भोज्य स्वराज्यं वैराज्यं परमेष्ठयं राज्यं महाराज्यमाधिपत्यमयं समन्तपर्यायो स्वात सार्वभौम:। सर्वायुष आन्तादा परार्धात। पृथिव्ये समुद्रपर्यान्ताय एकराडिति तदप्येष श्लोकोऽभिगितो मरुत: परिवेष्टारो मरुतस्यावसन्नगृहे। अविक्षि तस्य कामप्रेविश्वेदेवा: सभासद इति:।

ॐउमामहेश्वराभ्याम नमं मन्त्र पुष्पान्जलि समर्पयामि।


नमस्कार

ॐ नम: शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नम: शिवाय च शिवतराय च।

तव तत्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर।

यादशोसि महादेव तादृशाय नमोनम:॥

त्रिनेत्राय नमज्ञतुभ्यं उमादेहार्धधारिणे।

त्रिशूल धारिणे तुभ्यं भूतानां पतये नम:॥

गंगाधर नमस्तुभ्यं वृषमध्वज नमोस्तु ते।

आशुतोष नमस्तुभ्यं भूयो भूयो नमो नम:॥


ॐनिधनपतये नम:। निधनपतान्तिकाय नम: उर्ध्वाय नम:।

ऊर्ध्वलिंगाय नम:। हिरण्याय नम:। हिरण्यलिंगाय नम: दिव्याय नम: सुवर्णाय नम:। सुवर्ण लिंगाय नम:। दिव्यलिंगाय नम:। भवाय नम:। भवलिंगाय नम:। शर्वाय नम:। शर्वलिंगाय नम:। शिवाय नम:। शिवलिंगाय नम:। ज्वालाय नम:। ज्वललिंगाय नम:। आत्मरस नम:। आत्मलिंगाय नम:। परमाय नम:। परमलिंगाय नम:। एतत सोमस्य सूर्यस्य सर्वलिंग गंगवहे स्थापयसि पाणि मन्त्र पवित्रम।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: नमस्करोमि।


प्रार्थनापूर्वक क्षमायपन

आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम,

पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर।


मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर,

यह पूजितं मयादेव परिपूर्ण तदस्तुमे॥

यदक्षरं पदं भ्रष्टं मात्राहीनं च यद भवेत,

तत सर्वं क्षम्यतां देव प्रसीद परमेश्वर॥

क्षमस्व देव देवेश क्षस्व भुवनेश्वर,

तव पदाम्बुजे नित्यं निश्चल भक्तितरस्तु में॥

असारे संसारे निजभजन दूरे जडधिया,

भ्रमन्तं मामन्धं परम कृपया पातुमुचितम॥

मदन्य: को दीन स्वव कृपण रक्षाति निपुण,

स्त्वदन्य: को वा मे त्रिगति शरण्य: पशुपते॥


विशेषार्ध्य

अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरंण मम,

मस्मात कारुण्य भावेन रक्ष मां परमेश्वर।

रक्ष रक्ष महादेव रक्ष त्रैलोक्य रक्षक,

भक्तानां अभयकर्ता त्राता भवभवार्णवात॥

वरद त्वं वरं देहि वांछितार्थादि।

अनेक सफ़लर्ध्येन फ़लादोस्तु सदामम॥

ॐ मानस्तोके तनये मानऽआयुषिमानो गोषुमानोऽश्वेषुरीरिष:।

मानो वीरानुरुद्र भामिनो बधीर्हविष्मन्त: सदामित्वाहवामहे।

ॐउमामहेश्वराभ्याम नम: विशेषर्ध्यं समर्पयामि।


अर्ध्य पात्र में जल गन्ध अक्षत फ़ूल बिल्वपत्र आदि मंगल द्रव्य लेकर भगवान को अर्पित करें।


समर्पण

गतं पापं गतं दुखं गतं दारिद्रयमेव च,

आगता सुख सम्पत्ति: पुण्याच्च तव दर्शनात॥

दवो दाता च भोक्ता च देवरूपमितं जगत,

देवं जपति सर्वत्र यौ देव: सोहमेव हि॥

साधिवाऽसाधु वा कर्म यद्यमचारितं मया।

तत सर्व कृपया देव गृहाणाराधनम॥

शंख या आचमनी का जल भगवान के दाहिने हाथ मे देते हुये समस्त पूजा फ़ल उन्हे समर्पित करें।


अनेनकृत पूजाकर्मणा श्री संविदात्मक: साम्बसदाशिव प्रीयन्ताम। ऊँ तत सद ब्रह्मार्पणमस्तु।

इसके बाद वैदिक या संस्कृत आरती कर पुष्पांजलि दें।


शिव आरती किस प्रकार करें

शिव आरती में सबसे पहले शिव के चरणों का ध्यान करके चार बार आरती उतारें फ़िर नाभिकमल का ध्यान करनेक दो बार आरती उतारें,फ़िर मुख का स्मरण करते हुये एक बार आरती उतारें,तथा सर्वांग की सात बार आरती उतारें, इस प्रकार चौदह बार आरती उतारे। इसके बाद शंख या पात्र में जल लेकर घुमाते हुये छोडें,और इस मंत्र को बोलें-


ॐ द्यौ हवामहे शान्तिरन्तरिक्षं हवामहे शान्ति पृथ्वी शान्ति राप: शान्तिरोषधय शान्ति: वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा शान्ति ब्रह्माशान्ति सर्वं हवामहे शान्ति शान्ति:रे वशन्ति सामाशान्तिरेधि।


प्रदक्षिणा

यानि कानि च पापानि ज्ञाताज्ञात कृतानि च,

तानि सर्वाणि नश्यन्ति प्रदक्षिणं पदे पदे॥


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