शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

पार्थिव शिव पूजन एवं वैदिक शिव पूजन

 🌲 पार्थिव शिव  पूजन एवं वैदिक शिव पूजन ।🌲


    पार्थिव पूजन के लिये स्नान संध्योपासन आदि नित्यकर्म से निवृत्त होकर शुभासन पर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठें। पूजा की सामग्री को सम्भालकर रख दें। अच्छी मिट्टी भी रख लें। भस्म का त्रिपुण्ड्र लगाकर रुद्राक्ष की माला पहन लें। पवित्री धारण कर आचमन और प्राणायाम करे। इसके बाद विनियोग सहित "ॐ अपवित्र:...." मंत्र का जाप करे,और अपने को तथा पूजन सामग्री को स्वच्छ करें। रक्षादीपक जला ले । विनियोग सहित "ॐ पृथिव्य त्वा...."इस मंत्र से आसन को पवित्र करे.हाथ मे अक्षत और पुष्प लेकर स्वस्त्ययन तथा गणपति का स्मरण करें। इसके बाद दाहिने हाथ में अर्घ्य पात्र लेकर उसके अन्दर कुशत्रय पुष्प अक्षत जल और द्रव्य रखकर निम्नलिखित संकल्प करें:-


    👉 संकल्प - ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: अद्य: (दिन महिना साल का नाम) मम (अपना नाम  और गोत्र के साथ) सर्वारिष्टनिरसनपूर्वकसर्वपापक्षयार्थं दीर्घायुरारोग्यधनधान्यपुत्रपौत्रादिसमस्तसम्पत्प्रवृद्ध्यर्थं श्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफ़लप्राप्त्यर्थं श्रीसाम्बसदाशिवप्रीत्यर्थं पार्थिवलिंगपूजनमहं करिष्ये।


✔️भूमि प्रार्थना


ॐ सर्वाधारे देवि त्वद्रूपां म्रुत्तिकामिमाम,

ग्रहीष्यामि प्रसन्ना त्वं लिंगार्थं भव सुप्रभे॥


ॐ ह्राँ पृथिव्यै नम:।


🟣 मिट्टी का ग्रहण:-


उद्ध्रुतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना,

मृत्तिके त्वां च गृहण्यामि प्रजया च धनेन च॥


          ॐ हराय नम: इस मंत्र को पढकर मिट्टी ले,मिट्टी को अच्छी तरह देखकर कर कंकड आदि निकाल दें,कम से कम बारह ग्राम मिट्टी हो,जल मिलाकर मिट्टी को गूंद लें।


  ☑️     लिंग गठन:- ॐ महेश्वराय नम:  कहकर लिंग का गठन करे,यह अंगूठे से न छोटा हो और वित्ते से बडा,मिट्टी की नन्ही सी गोली बनाकर लिंग के ऊपर रखें,यह वज्र कहलाता है,कांसा आदि के पात्र में बिल्वपत्र रखकर उस पर इस मंत्र को पढकर लिंग की स्थापना करें:-


    ✔️   प्रतिष्ठा:- ॐ शूलपाणये नम:,हे शिव ! इह प्रतिष्ठतो भव। यह कहकर लिंग की प्रतिॐष्ठा करें। ( यह सामान्य रूप से पार्थिव पूजन में सुगमता की नजर से प्रतिष्ठा की सूक्ष्म विधि है,किंतु पूजन के अवसरों पर या हमेशा के लिये शिवलिंग की स्थापना के लिये जो प्राण प्रतिष्ठा की जाती है वह इस प्रकार से है :- प्राणप्रतिष्ठा का मंत्र विनियोग :- ॐ अस्य श्री प्रानप्रतिष्ठामन्त्रस्य ब्रह्माविष्णुमहेश्वरा ऋषय: ऋग्यजु:सामानिच्छन्दांसि क्रियामयवपु: प्राणाख्या देवता आँ बीजं ह्रीं शक्ति: क्रौं कीलकं देव (देवी) प्राणप्रतिष्ठापने विनियोग:। (इतना कहकर जल भूमि पर छोड देवें). प्राणप्रतिष्ठा :- हाथ में पुष्प लेकर उसे मूर्ति पर स्पर्श करते हुये इस मंत्र को बोले :- ॐ ब्रह्माविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नम: शिरसि। ॐ ऋग्यजु:सामच्छन्दोभ्यो नम:,मुखे। ॐ प्राणाख्यदेवतायै नम:,ह्रदि। ॐ आँ बीजाय नम:,गुह्ये। ॐ ह्रीं शक्तये नम:,पादयो:। ॐ क्रौं कीलकाय नम:,सर्वांगेषु। इस प्रकार न्यास करने के बाद इन मंत्रों को बोलते हुये पुष्प से ही लिंग को स्पर्श करें:- ॐ आँ ह्रीं क्रौं यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ स: सोऽहं शिवस्य प्राणा इह प्राणा:।  ॐ आँ ह्रीं क्रौं यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ स: सोऽहं शिवस्य जीव इह स्थित:। ॐ आँ ह्रीं क्रौं यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ स: सोऽहं शिवस्य सर्वेन्द्रियाणि वांगमन्स्त्वक्वक्षु:श्रोत्रघ्राणजिव्हापाणिपादयायूपस्थानि इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा। 


    इसके बाद अक्षत (चावल बिना टूटे हुये) से आवाहन करें :- ॐ भू: पुरुषं साम्बसदाशिवमावाहयामि। ऊँ भू: पुरुषं साम्बसदाशिवमावाहयामि । ॐ भू: पुरुषं साम्बसदाशिवमावाहयामि । ॐ स्वामिन सर्वजगन्नाथ यावत्पूजावसानकम,तावत्वम्प्रीतिभावेन लिंगेऽस्मिन संनिधिं कुरु॥ )


 ☑️  प्रतिष्ठा के बाद विनियोग 


    ॐ अस्य श्रीशिवपंचाक्षर मंत्रस्य वामदेव ऋषिरनुष्ट्रुपछन्द: श्रीसदाशिवो देवता,ओंकारो बीजम नम: शक्ति:,शिवाय इति कीलकम,मम साम्बसदाशिवप्रीत्यर्थं न्यासे पार्थिवलिंगपूजने जपे च विनियोग:। इस विनियोग से अपने और देवता को दूर्वा अथवा कुश से स्पर्श करते हुये तत्तद अंगो में न्यास करें।


ऋष्यादिन्यास:-


ॐ वीमदेवर्षये नम: सिरसि.

ॐ अनुष्टुपछन्दसे नम: मुखे.

ॐ बीजाय नम: गुह्ये.

 ॐ शक्तये नम: पादयो:.

ॐ शिवाय कीलकाय नम:,सर्वांगे.

ॐ नं तत्पुरुषाय नम:.ह्रदये.

ॐ मं अघोराय नम:,पादयो.

ॐ शिं सद्योजाताय नम: गुह्ये.

ॐ वां वामदेवाय नम: मूर्घ्नि.

ॐ यं ईशानाय नम:,मुखे.


 👉करन्यास:-


ॐ अंगुष्ठाय नम:

ॐ नं तर्जनीभ्याम नम:.

ॐ मं मध्यमाभ्याम नम:

ॐ शिं अनामिकाभ्यां नम:

ॐ वां कनिष्ठिकाभ्याम नम:

ॐ यं करतलकरपृष्ठाभ्याम नम:


 👉षडंगन्यास:-


ॐ ह्रदयाय नम:

ॐ नं सिरसे स्वाहा.

ॐ मं शिखायै वषट.

ॐ शिं कवचाय हुम.

ॐ वां नेत्रत्राय वौषट

ॐ यं अस्त्राय फ़ट.


    इस प्रकार से न्यास करने के बाद भगवान सदाशिव का ध्यान पूर्वक पूजन करें.


🔺ध्यानम्🔺


ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारूचन्द्रावतंसं,

रत्नाकल्पोज्ज्वलांगं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम् ।

पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृतिं वसानं ,

विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम्॥


ध्यान करने के बाद आवाहन


ॐ पिनाकधृषे नम:,श्रीसाम्बसदाशिव पार्थेश्वर इहागच्छ इह प्रतिष्ठ इह संनिहितो भव। कहकर फ़ूल चढायें।


🌹आसन


ॐ नम: शिवाय श्रीभगवते साम्बसदाशिवाय (साम्बसदाशिवपार्थेवेश्वराय भी बोला जा सकता है) नम: आसनार्थे अक्षतान समर्पयामि। बिना टूटे चावल चढायें।


🌹पाद्य

ॐ नम: शिवाय श्रीभगवते साम्बसदाशिवाय नम:,पादयो: पाद्यं समर्पयामि। जल चढायें। 


🌹अर्घ्य

ॐ नम: शिवाय श्रीभगवते साम्बसदाशिवाय नम:,हस्तयोरर्घ्य समर्पयामि। जल चढायें।


🌹आचमन

ॐ नम: शिवाय श्रीभगवते साम्बसदाशिवाय नम:,आचमनीयं जलं समर्पयामि। जल चढावें।


🌹मधुपर्क

ॐ नम: शिवाय श्रीभगवते साम्बसदाशिवाय नम:,मधुपर्क समर्पयामि। मधुपर्क चढावें।


🌹स्नान

ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽ उतोतऽ इषवे नमः।

 बाहुभ्याम् उत ते नमः॥1॥ 

या ते रुद्र शिवा तनूर-घोरा ऽपाप-काशिनी। 

तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशंताभि चाकशीहि ॥2॥ 

यामिषुं गिरिशंत हस्ते बिभर्ष्यस्तवे । 

शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिन्सीः पुरुषं जगत् ॥3॥ 

शिवेन वचसा त्वा गिरिशाच्छा वदामसि । 

यथा नः सर्वमिज् जगद-यक्ष्मम् सुमनाऽ असत् ॥4॥ 

अध्य वोचद-धिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक् । 

अहींश्च सर्वान जम्भयन्त् सर्वांश्च यातु-धान्यो ऽधराचीः परा सुव ॥5॥ 

असौ यस्ताम्रोऽ अरुणऽ उत बभ्रुः सुमंगलः। 

ये चैनम् रुद्राऽ अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रशो ऽवैषाम् हेड ऽईमहे ॥6॥ 

असौ यो ऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः। 

उतैनं गोपाऽ अदृश्रन्न् दृश्रन्नु-दहारयः स दृष्टो मृडयाति नः ॥7॥ 

नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे। 

अथो येऽ अस्य सत्वानो ऽहं तेभ्यो ऽकरम् नमः ॥8॥ 


प्रमुंच धन्वनः त्वम् उभयोर आरत्न्योर ज्याम्। 

याश्च ते हस्तऽ इषवः परा ता भगवो वप ॥9॥ 

विज्यं धनुः कपर्द्दिनो विशल्यो बाणवान्ऽ उत। 

अनेशन्नस्य याऽ इषवऽ आभुरस्य निषंगधिः॥10॥ 

या ते हेतिर मीढुष्टम हस्ते बभूव ते धनुः । 

तया अस्मान् विश्वतः त्वम् अयक्ष्मया परि भुज ॥11॥ 

परि ते धन्वनो हेतिर अस्मान् वृणक्तु विश्वतः। 

अथो यऽ इषुधिः तवारेऽ अस्मन् नि-धेहि तम् ॥12॥ 

अवतत्य धनुष्ट्वम् सहस्राक्ष शतेषुधे। निशीर्य्य शल्यानां मुखा शिवो नः सुमना भव ॥13॥ 

नमस्तऽ आयुधाय अनातताय धृष्णवे। 

उभाभ्याम् उत ते नमो बाहुभ्यां तव धन्वने ॥14॥ 

मा नो महान्तम् उत मा नोऽ अर्भकं मा नऽ उक्षन्तम् उत मा नऽ उक्षितम्। 

मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास् तन्वो रूद्र रीरिषः॥15॥ 

मा नस्तोके तनये मा नऽ आयुषि मा नो गोषु मा नोऽ अश्वेषु रीरिषः। 

मा नो वीरान् रूद्र भामिनो वधिर हविष्मन्तः सदमित् त्वा हवामहे॥16॥

ॐ नम: शिवाय श्रीभगवते साम्बसदाशिवाय नम:,स्नानीयं जलं समर्पयामि। जल से स्नान करवायें।


🌹पंचामृत स्नान


ॐ नम: शिवाय श्रीभगवते साम्बसदाशिवाय नम:,पंचामृत स्नानं समर्पयामि। दूध दही घी शहद गंगाजल मिलाकर स्नान करवायें।


🌹शुद्धोदक स्नान


ॐ नम: शिवाय श्रीभगवते साम्बसदाशिवाय नम: शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि। शुद्ध जल से स्नान करवायें।


🌹आचमन

ॐ नम: शिवाय श्रीभगवते साम्बसदाशिवाय नम:,आचमनीयं जलं समर्पयामि। आचमन के लिये शुद्ध जल चढायें।


  आचमनके बाद नीचे लिखे सरल मंत्रों से पूजा सामग्री अर्पित कर पूजा करें - 


- ॐ ज्येष्ठाय नम:। वस्त्र अर्पित करें। 


- ॐ रुद्राय नम:। जनेऊ अर्पित करें। 


- ॐ कपर्दिने नम:। फिर से आचमन करें। 


- ॐ कालाय नम:। गंध अर्पित करें। 


- ॐ कलविकरणाय नम:। अक्षत चढ़ाए। 


- ॐ बल विकरणाय नम:। बिल्वपत्र, धतुरा समर्पित करें। 


- ॐ बलाय नम:। धूप लगाएं। 


- ॐ बल प्रमथनाय नम:। दीप प्रज्जवलित करें। 


- ॐ नीलकंठाय नम:। नैवेद्यं लगाएं। 


- ॐ भवाय नम:। मौसमी फल , अथवा रुतुफल चढ़ाएं। 


- ॐ मनोन्मनाय नम:। आचमन करें। 


- ॐ शम्भवे नम:। सुपारी चढाएं। 


- ॐ शिव प्रियाय नम:। दक्षिणा अर्पित करें। 


- ॐ शम्भवे नम:। नमस्कार करें। 


- ॐ पार्थिवेश्वराय नम: बोलकर पुष्प अर्पित कर क्षमा मांग कामनापूर्ति की प्रार्थना करें। 


       पूजा के दौरान पार्थिव शिवलिंग की पत्र-फूलों से ढंककर पूजा करें। जिससे लिंग की मिट्टी का क्षरण नहीं होता है।


            अगर आपकी देव उपासना या पूजन विधि से जुड़ी कोई जिज्ञासा हो या कोई जानकारी चाहते हैं तो इस मो.न.  मे सम्पर्क करें - ९४३७३३१८१२ ।


🌲🌲  संक्षिप्त वैदिक शिव पूजन  ।


            (संशोधन कर के पढें)


           🌹   !!   ध्यानम्   !!    🌹


ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं,

रत्नाकलोज्ज्वलांगं परशुमृगवराभीति हस्तं प्रसन्नं।

पद्माशीनं समन्तात् स्तुतममरगणेर्व्याघ्रकृतिं वसानं,

विश्वाद्यं विश्ववन्द्यं निखिलभयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥


👉सद्योजात-स्थापन

पश्चिमं पूर्णचन्द्राभं जगत् सृष्टिकरोज्ज्वलम,सद्योजातं यजेत सौम्य मन्दस्मित मनोहरम॥


👉वामदेव स्थापन

उत्तरं विद्रुमप्रख्यं विश्वस्थितिकरं विभुम,सविलासं त्रिनयनं वामदेवं प्रपूजयेत॥


👉अघोर स्थापन

दक्षिणं नीलजीमूतप्रभं संहारकारकम,वक्रभू कुटिलं घोरमघोराख्यं तमर्चयेत॥


👉तत्पुरुष स्थापन

यजेत पूर्वमुखं सौम्यं बालर्क सदृशप्रभम्,तिरोधानकृत्यपरं रुद्रं तत्पुरुंषभिधम्॥

 

👉ईशान स्थापन

ईशानं स्फ़टिकप्रख्यं सर्वभूतानुकंपिनम्,

अतीव सौभ्यमोंकार रूपं ऊर्ध्वमुखं यजेत॥


 ॐ उमामहेश्वराभ्यां नम: श्यानं समर्पयामि॥


👉आवाहन


ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽ उतोतऽ इषवे नमः। 

बाहुभ्याम् उत ते नमः॥


एह्योहि गौरीश पिनाकपाणे शशांकमौलेवृषभरूढं।

देवाधिदेवेश महेश नित्यं गृहाण पूजां भगवन नमस्ते॥

आवाहयामि देवेशमरादिमध्यान्तपर्तितम।

आधारं सर्वलोकानामिश्रितार्थ प्रदासिनम॥

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: आवाहनं समर्पयामि॥


👉आसन

ॐ या ते रुद्र शिवा तनूर-घोरा ऽपाप-काशिनी। तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशंताभि चाकशीहि ॥

विश्वात्मने नमस्तुभ्यं चिदम्भरनिवरसिने॥

रत्नसिंहासनं चारो ददामि करुणानिधे॥

ॐ उमामहेश्वराभ्यां नम: आसनार्थ पुष्पं समर्पयामि॥

फ़ूल चढायें।


👉पाद्य

यामिषुं गिरिशंत हस्ते बिभर्ष्यस्तवे । शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिन्सीः पुरुषं जगत् ॥

तुभ्यं संप्रददे पाद्यं श्रीकैलास निवासिने।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: पादयो: पाद्यं समर्पयामि॥

चरणों में जल अर्पित करें।


👉अर्घ्य

   ॐशिवेन वचसा त्वा गिरिशाच्छा वदामसि । यथा नः सर्वमिज् जगद-यक्ष्मम् सुमनाऽ असत् ॥

अनर्घफ़लदात्रे च शास्त्रे वैवस्वतस्य च।

तुमयर्मध्य प्रदास्यामि द्वादशान्त निवासिने॥


ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: हस्तयोर्घ्य समर्पयामि॥

अर्घ्य पात्रं में गन्धाक्षत पुष्प के साथ जल लेकर चढावें॥ 

ॐ अध्य वोचद-धिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक् । अहींश्च सर्वान जम्भयन्त् सर्वांश्च यातु-धान्यो ऽधराचीः परा सुव ॥

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: आचमनीयम जलं समर्पयामि॥

छ: बार आचमन करावें।


👉स्नान

असौ यो ऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः। उतैनं गोपाऽ अदृश्रन्न् दृश्रन्नु-दहारयः स दृष्टो मृडयाति नः 


गंगाक्लिन्नजटाभारं सोमसोमाधशेखर॥

नद्या मया समानेतै स्नानं कुरु महेश्वर:।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: स्नानीयं जलं समर्पयामि।

स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि॥

घन्टावादन करें और स्नान करवायें॥


👉पयस्नान (दूध से स्नान)

ॐ पय: पृथिव्याम्पयऽओषपीषु पर्योर्दिव्यसिक्षे पयोधा:॥

पयस्वती: प्रदिश: सन्तुमह्यम।

ऊँ उमामहेश्वराभ्याम नम: पय: स्नानं समर्पयामि।

ऊँ शुद्धवाल:सर्वशुद्धवालो मणिवालस्तेअश्विन:।

श्वेत: श्वेताक्षौ रुद्राय पशुपतये कर्णयामा अवलिप्ता रौद्रा नभो रूपा: पार्जन्या:।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि। शुद्धोदकस्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।

पय स्नानान्ते शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि॥

पहले दूध से फ़िर जल से स्नान करावें॥


👉दधि स्नान

ॐ दधिक्रोण्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिन:। सुरभि नो मुखा करत प्रणायु ॕ षितारिषत॥

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: दधिस्नानं समर्पयामि।

ॐ शुद्धवाल: सर्वशुद्धवालो मणिवालस्त अश्विन:।

श्वेत श्वेताक्षौरुणस्ते रुद्राय पशुपतये कर्णायामा अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपा: पार्जन्या:।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम:शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

शुद्धोदक स्नानन्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।

दधि स्नानन्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि॥

पहले दही फ़िर जल से स्नान करवायें।


👉घृतस्नान

ॐ घृतं मतिक्षेघृतमस्य योनिर्धिते श्रितोघृतस्य धाम।

अनष्वधमावह मदयस्व स्वाहाकृतं वृषभवक्षिहव्यम।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: घृतस्नानम समर्पयामि। घृतस्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

ॐ शुद्धवाल: सर्वशुद्धवालो मणिवालस्त अश्विन:। श्वेत: श्वेताक्षौरुणस्ते रुद्राय पह्सुपतये कर्णायामा अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपा: पार्जन्या:।

ॐ  उमामहेश्वराभ्याम नम: शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।

पहले घी से फ़िर जल से स्नान करवायें।


👉मधुस्नान

ॐ  मधुव्वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धव:। माधवीर्न: सन्त्वोषधी:।

मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव गंगवहे रज:। मधुद्यौरश्रतुन पिता। मधुमान्नो। वननस्पतिर्मधमां अस्तु सूर्य:। माध्वीरर्गावो-भवन्तु न:।

ॐ  उमामहेश्वराभ्याम नम: मधुस्नानं समर्पयामि। मधुस्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

ॐ  शुद्धवाल: सर्वशुद्धवालो मणिवालस्त अश्विन:। श्वेत: श्वेताक्षौरुणस्ते रुद्राय पह्सुपतये कर्णायामा अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपा: पार्जन्या:।

ॐ  उमामहेश्वराभ्याम नम: शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।

पहले शहद से फ़िर जल से स्नान करवायें।


👉शर्करास्नान

ॐ  अपा गंगवहे रसमुद्धयस गंगवहे सूर्ये सन्त: गंगवहे समाहितम।

अपा गंगवहे रसस्ययो रसस्तं वो गृहलाम्युतममुपयामगृहीतोसीन्द्राय त्वा जुष्टं गृहलाम्येषेत योति रिन्द्राय त्वा जुष्टतमम।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: शर्करास्नानं समर्पयामि। शर्करास्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

ॐ  शुद्धवाल: सर्वशुद्धवालो मणिवालस्त अश्विन:। श्वेत: श्वेताक्षौरुणस्ते रुद्राय पह्सुपतये कर्णायामा अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपा: पार्जन्या:।

ॐ  उमामहेश्वराभ्याम नम: शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।

पहले चीनी फ़िर जल से स्नान करवायें।


👉पंचामृत स्नान

ॐ  पंचनद्य: सरस्वतीमययपिबन्ति सस्रोतस: सरस्वती तु पंचधा सो देशेभवत्सरित।

ॐ  उमामहेश्वराभ्याम पंचामृतस्नानं समर्पयामि। पंचामृतस्नानन्ते शुद्धोदक स्नानम समर्पयामि।

ॐ  शुद्धवाल: सर्वशुद्धवालो मणिवालस्त अश्विन:। श्वेत: श्वेताक्षौरुणस्ते रुद्राय पह्सुपतये कर्णायामा अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपा: पार्जन्या:।

ॐ  उमामहेश्वराभ्याम नम: शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।

पहले पंचामृत से स्नान करवाये फ़िर जल से स्नान करवायें।


👉गन्धोदक स्नान

ॐ  गन्धद्वारा दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम। ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वेयेश्रियम।

मलयाचल सम्भूतं चन्दगारूरंभवम। चन्द्रनं देवदेवेश स्नानार्थ प्रतिगृह्यताम।

ॐ  उमामहेश्वराभ्याम नम: गन्धोदकस्नानं समर्पयामि। गन्धोदक स्नानान्ते शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

पहले गुलाबजल से फ़िर जल से स्नान करवायें।


👉शुद्धोदक स्नान

ॐ शुद्धवाल: सर्वशुद्धवालो मणिवालस्त अश्विन:। श्वेत: श्वेताक्षौरुणस्ते रुद्राय पह्सुपतये कर्णायामा अवलिप्ता रौद्रा नभोरूपा: पार्जन्या:।

ॐ  उमामहेश्वराभ्याम नम: शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि।

शुद्धोदक स्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।

घंटावदन करके जल से स्नान करवायें फ़िर आचमन करवायें।


👉वस्त्र

ॐ  असौ योवसर्पति नीलग्रीवो विलोहित: उतैनंगोपाऽदृश्रम नदश्रम नुदहाजै: सदषटोमृडययति न:।


दिगम्बर नमस्तुभ्यम गजाजिनधरा यच।

व्याघ्रचर्मोतरीयाय वस्त्रयुग्मं दादाम्यहम॥

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: वस्त्रोपवस्त्रं समर्पयामि। आचमनीयं जलं समर्पयामि।


👉यज्ञोपवीत

नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीढुषे। अथो येऽ अस्य सत्वानो ऽहं तेभ्यो ऽकरम् नमः ॥।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: यज्ञोपवीतं समर्पयामि। आचमनं जलं समर्पयामि।


👉सुगन्ध द्रव्य

ॐ त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम।

उर्वारुकमिव बन्धनान मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।

ॐ  उमामह्श्वराभ्याम नम: सुगन्धं समर्पयामि।

भगवान को इत्र लगावे.


👉भस्म

अग्निहोत्र समुदभूतं विरजाहोमपाजितम,

गृहाण भस्म हे स्वामिन भक्तानां भूतिदाय॥

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: भस्मं समर्पयामि॥

भस्म अर्पित करें।


👉गन्ध

ॐ  प्रमुश्चधन्वनस्तवमुभयोरात्न्यौर्ज्याम,

याश्चते हस्तऽअंगषव: पराता भगवोवप।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: गन्धं समर्पयामि॥


👉अक्षत

ॐ  अक्शन्नमीमदन्तछप्रियाऽअधषत।

अस्तोषतस्वभानति विप्रान्न विष्टुयामती योजान। विन्द्रतेहरी।

अक्सह्तान धवलान देवसिद्धगन्धर्व पूजितम।

सुदन्रेश नमस्तुभ्यं गृहाण वरदो भव॥

ॐ  उमामहेश्वराभ्याम नम: अक्षतान समर्पयामि।

अक्षत चढावें।


👉पुष्प


ॐ विज्जयन्धनु: कपर्दिनो विशल्यो बाधवांऽउत।

अनेकशन्नस्ययाऽड.षव आभुरस्यनिषंगधि:।

तुरीयवनसंभूतं। परमानन्दसौरभम।

पुष्पं गृहाण सोमेश पुष्पचापविभंजन॥

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: पुष्पाणि समर्पयामि।


👉बिल्वपत्र

ॐ नमो बिल्विने च कवचिने च नमो वश्रिणे च वरूथिने

च नम: श्रुताव च श्रुतसेनाय च नमो दुन्दुभ्यरयचाहनन्यायच।

त्रिबलं द्विगुणाकारं द्विनेत्रं च त्रिधायुधम।

श्रिजन्मपाप संहारमेक बिल्वं शिवार्पणम।

दर्शनं बिल्वपत्रस्य स्पर्शनं पापनाशनम।

अघोर पाप संहारं मेक बिल्वं शिवार्पणम॥


👉अंगपूजा

ॐ भवाय नम: पादो पूजयामि। ॐ  जगत्पित्र नम: जंघे पूजयामि। ॐ  मृडाय नम: जानुनीं पूजयामि। ॐ रुद्राय नम: उरु पूजयामि।ॐ कालान्तकाय नम: कटिं पूजयामि। ॐ नागेन्द्रा भरणाय नमं नाभिर पूजयामि। ऊँ स्तव्याय नम: कंठं पूजयामि। ॐ भवनाशाय नम: भुजान पूजयामि। ॐ कालकंठाय नम: कंठं पूजयामि।ॐ महेशाय नम: मुखं पूजयामि। ॐ  लास्यप्रियाय नम: ललाटं पूजयामि। ॐ  शिवाय नम: शिरं पूजयामि।ॐ प्रणतार्तिहराय नम: सर्वाण्यंगानि पूजयामि।

प्रत्येक बार गंधाक्षतपुष्प से सम्बन्धित अंग को घर्षित करें।


👉अष्टमूर्त्तिपूजा

ॐ शर्वाय क्षितिमूर्तये नम:ॐ  भवाय जलमूर्तये नम:,ॐ रुद्राय अग्निमूर्तये नम:,ॐ  उग्राय वायुमूर्तये नम:,ऊँ भीमाय आकाश मूर्तये नम:,ॐ  ईशनाय सूर्य मूर्तये नम:,ॐ  महादेवाय सोममूर्तये नम:ॐ पशुपतये यजमान मूर्तये नम:।

प्रत्येक बार गन्धाक्षतपुष्प बिल्वपत्र अर्पित करें।


👉परिवार पूजा

ॐ  उमायै नम:,ॐ  शंकर प्रियाये नम:ॐ पार्वत्यै नम:,ॐ काल्यै नम:, ॐ कालिन्द्यै नम:ॐ कोटि देव्यै नम:ॐ पिश्वधारित्रै नम:ॐ गंगा देव्यै नम:,नववितीन पूजयामि सर्वोपकरायै गन्धाक्षतपुष्पयाणि समर्पयामि।


👉प्रत्येक बार गन्ध अक्षत पुष्प अर्पण करें।


ऊँ गणपतये नम:,ऊँ कार्तिकेयाय नम:,ऊँ पुष्पदन्ताय नम:,ऊँ कपर्दिने नम:.ऊँ भैरवाय नम:,ऊँ भूलपाधये नम:,ऊँ चण्डेशाय नम:,ऊँ दण्डपाणये नम:, ॐ नन्दीश्वराय नम:,ॐ महाकालाय नम:,सर्वान गणाधिपान पूजयामि सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि।


ॐ अघोराय नम:,ॐ पशुपतये नम:,ॐ शर्वाय नम:, विरूपाक्षाय नम:,ॐ विश्वरूष्ये नम:,ॐ त्र्यम्बकाय नम:,ॐ कपर्दिने नम:,ॐ भैरवाय नम:,ॐ शूलपाणये नम:,ॐ ईशनाय नम:,एकादश रुद्रान पूजयामि सर्वोपचारार्थे गन्ध अक्षत पुष्पाणि समर्पयामि।


👉सौभाग्य द्रव्य

ॐ अहिरीव भोगै: पर्येति बाहुन्ज्यावा हेतिम्परिवाधमान:।

हस्तघ्नो विश्वावयुनानिविद्वान पुमान पुमा गंगवहे समपरिपातुविश्वत:॥

हरिद्रां कुंकुमं चैव सिन्दूरं कज्जलान्वितम।

सौभाग्यद्रव्यसंयुक्तं ग्रहाण परमेश्वर॥

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: सौभाग्यद्रव्याणि समर्पयामि।

हल्दी कुमकुम सिन्दूर चढावें।


👉धूप

ॐ या ते हेतीर्मीढ्ष्ट्रम हस्ते बभूव ते धनु:। तयास्मान-विश्वस्त्व मयक्ष्मया परिभुज॥

ऊँ उमा महेश्वराभ्याम नम: धूपं आघ्रायामि।


धूपबत्ती जलायें।


👉दीप

ॐ परिते धन्वनो हेतिरस्मान्वृणकतुविश्वत:। अथोयऽगंषि घ्रिस्त वारेऽकअस्मन्निधेहितम।

साज्यं वर्ति युक्तं दीपं सर्वमंगलकारकम।

समर्पयामि श्येदं सोमसूर्याग्निलोचनम॥


प्रज्वलित दीपक पर घंटावादन करते हुये चावल छोडें।


👉नैवैद्य

नैवैद्य के ऊपर बिल्वपत्र या पुष्प में पानी लेकर रुद्रगायत्री को बोलें-

ॐ तत्पुरुषाय विद्यमहे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्र: प्रचोदयात।

फ़िर नैवैद्य पर धेनु मुद्रा दिखाते हुये इस मंत्र को बोलें-

ॐ  अवतय धनुष्टव गंगवहे सहस्त्राक्षशतेषुधे। निशीर्य शलयानामुख शिवा न: सुमना भव॥

नैवैध्यं षडरसोपेतं विषाशत घृतान्वितम।

मधुक्षीरापूपयुक्तं गृह्यतां सोमशेखर॥

ॐ  या फ़लिनीयाऽफ़लाऽपुष्पा याश्चपुष्पिणि:। बृहस्पतिप्रसूस्तानो मुन्वत्व गंगवहे हस:।

यस्य स्मरण मात्रेण सफ़लता सन्ति सत्क्रिया:।

तस्य देवस्या प्रीत्यर्थ इयं ऋतुफ़लार्पणम।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: नैवैद्यम निवेदयामि नाना ऋतुफ़लानि च सपर्पयामि।

इसके बाद ग्राम मुद्रा में इस मंत्र का उच्चारण करें-

ॐ  प्राणाय स्वाहा,ऊँ अपानाय स्वाहा,ॐ व्यानाय स्वाहा,ॐ उदानाय स्वाहा,ॐ समानाय स्वाहा।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: आचमनीयं जलं समर्पयामि,पूर्जापोषण समर्पयामि।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: मध्ये पानीयं समर्पयामि,नैवैद्यान्ते आचमनीयं समर्पयामि,उत्तरापोषणं समर्पयामि,हस्तप्राक्षलण समर्पयामि,मुखप्रक्षालनं समर्पयामि।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: करोद्वर्जनार्थे चन्दनं समर्पयामि।

भगवान के हाथो में चन्दन अर्पित करें।


👉ताम्बूल

ॐ नमस्तुऽआयुधानाततायधृष्णवे। उमाभ्यांमुत ते नमो बाहुभ्यान्नत धन्वने।

ॐ  उमा महेश्वराभ्याम नम: मुख शुद्धयर्थे ताम्बूलं समर्पयामि।


👉दक्षिणा

ॐ हरिण्यगर्भ: समवर्तमाग्रे भूतस्य जात: परिरेकऽआसीत।

सदाधार पृथिवीन्द्यामुतेमाकस्मै देवाय हविषा विधेम।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम:सांगता सिद्धयर्थ हिरण्यगर्भ दक्षिणां समर्पयामि।


👉नीराजन

ॐ इद गंगवहे हवि: प्रजननम्मे अस्तु दशवीर गंगवहे सर्वगण गंगवहे स्वस्तये।

आत्मसनि। प्रजासनि पशुसति लोकसन्यभयसनि:।

अग्नि प्रजा बहुलां में करोत्वनं न्यतो रेतोऽस्मासु धत।


👉ध्यान करें

वन्दे देव उमापतिं सुरुगुरु वन्दे जगत्कारणम,

वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं वन्दे पशूनांपतिम।

वन्दे सूर्य शशांक वहिनयनं वन्चे मुकुन्दप्रिय:,

वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिवशंकरम॥


शान्तं पदमासनस्थं शशिधर मुकुटं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम,

शूलं वज्र च खडग परशुमभयदं दक्षिणागे वहन्न्तम।

नाग पाशं च घंटां डमरूकसहितं सांकुशं वामभागे,

नानालंकार दीप्तं स्फ़टिकमणिनिभं पार्वतीशं नमामि॥


कर्पूर गौरं करुणावतारं संसार सारं भुजगेन्द्र हारम,

सदा बसन्तं ह्रदयार विन्दे भवं भवानी सहितं नमामि॥


👉आरती

जय शिवॐ कारा भज शिव ॐ कारा।

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अर्धांगी धारा॥ ऊँ॥

एकानन चतुरानन पंचानन राजे।

हंसानन गरुडासन वृषवाहन साजे॥ऊँ॥

दो भुज चारु चतुर्भुज दशभुज अति सोहे।

तीनो रुप निरखते त्रिभुवन जग मोहे॥ऊँ॥

अक्षरमाला वनमाला मुंडमाला धारी।

त्रिपुरानाथ मुरारी करमाला धारी॥ऊँ॥

श्वेताम्बर पीताम्बर बाघाम्बर अंगे।

सनकादिक गरुडादिक भूतादिक संगे॥ऊँ॥

कर मध्ये इक मंडल चक्र त्रिशूल धर्ता।

सुखकर्ता दुखहर्ता सुख में शिव रहता॥ऊँ॥

काशी में विश्वनाथ विराजे नंदी ब्रह्मचारी।

नित उठ ज्योति जलावत दिन दिन अधिकारी॥ऊँ॥

ब्रह्मा विष्णु सदा शिव जानत अविवेका।

प्रणवाक्षर ऊँ मध्ये ये तीनो एका॥ऊँ॥

त्रिगुण स्वामी की आरती जो कोई नर गावै।

ज्यारां मन शुद्ध होय जावे,ज्यारां पाप परा जावे,ज्यारे सुख संपति आवे,ज्यारां दुख दारिद्रय जावे,ज्यारे घर लक्ष्मी आवे,भणत भोलानन्द स्वामी,रटत शिवानन्द स्वामी इच्छा फ़ल पावे॥ऊँ॥


👉शिवपुकार

जै शिवॐ कारा

मन भज शिव ॐ कारा

मन रट शिव ऊँकारा

हो शिव भूरी जटा वाला

हो शिव दीर्घ जटा वाला

हो शिव भाल चन्द्र वाला

हो शिव तीन नेत्र वाला

हो शिव ऊपर गंगाधारा

हो शिव बरसत जलधारा

हो शिव तीव्र नेत्र वाला

हो शिव गलबिच रुण्डमाला

हो शिव कम्बु ग्रीव वाला

हो शिव भस्मी अंग वाला

हो शिव फ़णिधर फ़णवाला

हो शिव वृषभ स्कन्ध वाला

हो शिव ओढत मृगछाला

हो शिव धारण मुण्डमाला

हो शिव भूत प्रेत वाला

हो शिव बेल चढन वाला

हो शिव पार्वती प्यारा

हो शिव भक्तन हितकारा

हो शिव दुष्टदलन वाला

हो शिव पीवत भंग प्याला

हो शिव मस्त रहन वाला

हो शिव दर्शन दो भोला

हो शिव परसन हो भोला

हो शिव बरसो जलधारा

हो शिव काटो जम फ़ांसा

हो शिव मेटो जम त्रासा

हो शिव रहते मतवाला

हो शिव ऊपर जलधारा

हो शिव ईश्वर ऊँकारा

हो शिव बम बम भोला

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव भोले भोलेनाथ महादेव अर्धांगी धारा॥

ॐ हर हर हर महादेव।


👉जल आरती

ॐ  द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष गंगवहे शान्ति: पृथ्वीशान्तिराप: शान्त रोषधय: शान्ति।

वनस्पतय: शान्ति शान्तिर्विश्वेदेवा शान्तिब्रह्म शान्ति सर्व गंगवहे शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि।

इस पानी को शिवजी के चारों तरफ़ थोडा थोडा डालकर शिवलिंग पर चढा दें।


👉प्रदक्षिणा

ॐ  मा नो महान्तमुत मा नोऽअभर्कम्मानऽउक्षन्त मुत मा नऽउक्षितम। मानो वधी: पिरंम्मोतमारम्मान: प्रियास्तस्न्वोरुद्ररीरिष:।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: प्रदक्षिणां समर्पयामि।


👉पुष्पांजलि


ॐ  यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन। तेह ना कं महिमान: सचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा:।

ॐ राधाधिराजाय प्रसस्रसाहिने नमोवयं वेश्रणाय कुर्महे समे कामान कामकामा महम। कामेश्वरी वेश्रवणो ददातु। कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नम:।

ॐ  स्वास्ति साम्राज्यं भोज्य स्वराज्यं वैराज्यं परमेष्ठयं राज्यं महाराज्यमाधिपत्यमयं समन्तपर्यायो स्वात सार्वभौम:। सर्वायुष आन्तादा परार्धात। पृथिव्ये समुद्रपर्यान्ताय एकराडिति तदप्येष श्लोकोऽभिगितो मरुत: परिवेष्टारो मरुतस्यावसन्नगृहे। अविक्षि तस्य कामप्रेविश्वेदेवा: सभासद इति:।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नमं मन्त्र पुष्पान्जलि समर्पयामि।


👉नमस्कार

ॐ नम: शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नम: शिवाय च शिवतराय च।


तव तत्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर।

यादशोसि महादेव तादृशाय नमोनम:॥

त्रिनेत्राय नमज्ञतुभ्यं उमादेहार्धधारिणे।

त्रिशूल धारिणे तुभ्यं भूतानां पतये नम:॥

गंगाधर नमस्तुभ्यं वृषमध्वज नमोस्तु ते।

आशुतोष नमस्तुभ्यं भूयो भूयो नमो नम:॥


ॐ  निधनपतये नम:। निधनपतान्तिकाय नम: उर्ध्वाय नम:।

ऊर्ध्वलिंगाय नम:। हिरण्याय नम:। हिरण्यलिंगाय नम: दिव्याय नम: सुवर्णाय नम:। सुवर्ण लिंगाय नम:। दिव्यलिंगाय नम:। भवाय नम:। भवलिंगाय नम:। शर्वाय नम:। शर्वलिंगाय नम:। शिवाय नम:। शिवलिंगाय नम:। ज्वालाय नम:। ज्वललिंगाय नम:। आत्मरस नम:। आत्मलिंगाय नम:। परमाय नम:। परमलिंगाय नम:। एतत सोमस्य सूर्यस्य सर्वलिंग गंगवहे स्थापयसि पाणि मन्त्र पवित्रम।

ॐ उमामहेश्वराभ्याम नम: नमस्करोमि।


🟣 प्रार्थनापूर्वक क्षमापन


आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम,

पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर।


मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर,

यह पूजितं मयादेव परिपूर्ण तदस्तुमे॥

यदक्षरं पदं भ्रष्टं मात्राहीनं च यद भवेत,

तत सर्वं क्षम्यतां देव प्रसीद परमेश्वर॥

क्षमस्व देव देवेश क्षस्व भुवनेश्वर,

तव पदाम्बुजे नित्यं निश्चल भक्तितरस्तु में॥

असारे संसारे निजभजन दूरे जडधिया,

भ्रमन्तं मामन्धं परम कृपया पातुमुचितम॥

मदन्य: को दीन स्वव कृपण रक्षाति निपुण,

स्त्वदन्य: को वा मे त्रिगति शरण्य: पशुपते॥


👉विशेषार्ध्य

अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरंण मम,

मस्मात कारुण्य भावेन रक्ष मां परमेश्वर।

रक्ष रक्ष महादेव रक्ष त्रैलोक्य रक्षक,

भक्तानां अभयकर्ता त्राता भवभवार्णवात॥

वरद त्वं वरं देहि वांछितार्थादि।

अनेक सफ़लर्ध्येन फ़लादोस्तु सदामम॥


अर्ध्य पात्र में जल गन्ध अक्षत फ़ूल बिल्वपत्र आदि मंगल द्रव्य लेकर भगवान को अर्पित करें।


👉समर्पण

गतं पापं गतं दुखं गतं दारिद्रयमेव च,

आगता सुख सम्पत्ति: पुण्याच्च तव दर्शनात॥

दवो दाता च भोक्ता च देवरूपमितं जगत,

देवं जपति सर्वत्र यौ देव: सोहमेव हि॥

साधिवाऽसाधु वा कर्म यद्यमचारितं मया।

तत सर्व कृपया देव गृहाणाराधनम॥

शंख या आचमनी का जल भगवान के दाहिने हाथ मे देते हुये समस्त पूजा फ़ल उन्हे समर्पित करें।


अनेनकृत पूजाकर्मणा श्री संविदात्मक: साम्बसदाशिव प्रीयन्ताम्। ॐ तत् सद् ब्रह्मार्पणमस्तु।



सोमवार, 5 जुलाई 2021

ଶ୍ରୀଶୁକ୍ଲଯଜୁର୍ଵେଦୀୟ ରୁଦ୍ରାଷ୍ଟାଧ୍ୟାୟୀ

 🔴ଶ୍ରୀଶୁକ୍ଲଯଜୁର୍ଵେଦୀୟ ରୁଦ୍ରାଷ୍ଟାଧ୍ୟାୟୀ 🔴


     ( ଷଷ୍ଠ ଅଧ୍ୟାୟ ଠାରୁ ସମାପ୍ତି ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ )

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        🔴 ।। ଅଥ ଷଷ୍ଠୋଽଧ୍ୟାୟଃ ॥🔴


ହରିଃ Oମ୍ ॥ ଵୟଂ-ସୋମଵ୍ରତେ ତଵ ମନସ୍ତନୂଷୁ ବିଭ୍ରତଃ ॥ ପ୍ରଜାଵନ୍ତଃ ସଚେମହି ॥ ୧॥


ଏଷ ତେ ରୁଦ୍ରଭାଗଃ ସହସ୍ଵସ୍ରାଽମ୍ବିକୟା ତଂ ଜୁଷସ୍ଵ ସ୍ଵାହୈଷ ତେ ରୁଦ୍ରଭାଗ ଆଖୁସ୍ତେ ପଶୁଃ ॥ ୨॥


ଅଵ ରୁଦ୍ରମଦୀମହି ଅଵ ଦେଵଂ ତ୍ର୍ୟମ୍ବକମ୍ ॥


ୟଥା ନୋ ଵସ୍ୟସସ୍କରଦ୍ୟଥା ନଃ ଶ୍ରେୟସସ୍କରଦ୍ୟଥା ନୋ ଵ୍ୟଵସାୟାତ୍ ॥ ୩॥


ଭେଷଜମସି ଭେଷଜଂ ଗଵେଽଶ୍ଵାୟ ପୁରୁଷାୟ ଭେଷଜମ୍ । ସୁଖଂ ମେଷାୟ ମେଷ୍ୟୈ ॥ ୪॥


ତ୍ର୍ୟମ୍ବକଂ ୟଜାମହେ । ସୁଗନ୍ଧିଂ ପୁଷ୍ଟିଵର୍ଧନମ୍ । ଉର୍ଵାରୁକମିଵ ବନ୍ଧନାନ୍ମୃତ୍ୟୋର୍ମୁକ୍ଷୀୟ ମାଽମୃତାତ୍ ।

ତ୍ର୍ୟମ୍ବକଂ ୟଜାମହେ ସୁଗନ୍ଧିଂ ପତିଵେଦନମ୍ । ଉର୍ଵାରୁକମିଵ ବନ୍ଧନାଦିତୋ ମୁକ୍ଷୀୟ ମାମୁତଃ ॥ ୫॥


ଏତତ୍ତେ ରୁଦ୍ରାଵସଂ  ତେନ ପରୋ ୟମୂଜଵତୋଽତୀହି ॥


ଅଵତତ ଧନ୍ଵା ପିନାକଵାସସ୍କୃତ୍ତିଵାସା ଅହିଂସନ୍ ନଃ ଶିଵୋଽତୀହି ॥ ୬॥


ତ୍ର୍ୟାୟୁଷଂ ଜମଦଗ୍ନେ କଶ୍ୟପସ୍ୟ ତ୍ର୍ୟାୟୁଷମ୍ ॥ ୟଦ୍ଦେଵେଷୁ ତ୍ର୍ୟାୟୁଷଂ ତନ୍ନୋଽସ୍ତୁ ତ୍ର୍ୟାୟୁଷମ୍ ॥ ୭॥


ଶିଵୋ ନାମାଽସି ସ୍ଵଧିତିସ୍ତେ ପିତା ନମସ୍ତେଽସ୍ତୁ ମା ମା ହିଂସୀଃ ॥


ନିଵର୍ତୟାମ୍ୟାମୁଷେଽନ୍ନାଦ୍ୟାୟ ପ୍ରଜନନାୟ ରାୟସ୍ପୋଷାୟ ସୁପ୍ରଜାସ୍ତ୍ଵାୟ ସୁଵୀର୍ୟାୟ ॥ ୮॥


ଇତି ରୁଦ୍ରେ ଷଷ୍ଠୋଽଧ୍ୟାୟଃ ॥ ୬


     🔴 ।। ଅଥ ସପ୍ତମୋଽଧ୍ୟାୟଃ ॥🔴


ଉଗ୍ନଶ୍ଚ ଭୀମଶ୍ଚ ଧ୍ଵାନ୍ତଶ୍ଚ ଧୁନିଶ୍ଚ । ସାସହଵାଂଶ୍ଚାଭିୟୁଗ୍ଵା ଚ ଵିକ୍ଷିପଃ ସ୍ଵାହା ॥ ୧॥


ଅଗ୍ନିଂ ହୃଦୟେନାଶନିଂ ହୃଦୟାଗ୍ରେଣ ପଶୁପତିଂ କୃତ୍ସ୍ନହୃଦୟେନ ଭଵଂ ୟକ୍ନା ॥


ଶର୍ଵଂ ମତସ୍ନାଭ୍ୟାମୀଶାନଂ ମନ୍ୟୁନା ମହାଦେଵମନ୍ତଃପର୍ଶଵ୍ୟେନୋଗ୍ରଂ ଦେଵଂ ଵନିଷ୍ଠୁନା

ଵସିଷ୍ଠହନୁଃ ଶିଙ୍ଗୀନି କୋଶ୍ୟାଭ୍ୟାମ୍ ॥ ୨॥


ଉଗ୍ରଁଲ୍ଲୋହିତେନ ମିତ୍ରଂ ସୌଵ୍ରତ୍ୟେନ ରୁଦ୍ରଂ ଦୌଵ୍ରତ୍ୟେନ ଇନ୍ଦ୍ରଂ ପ୍ରକ୍ରୀଡେନ ମରୁତୋ ବଲେନ ସାଧ୍ୟାନ୍ପ୍ରମୁଦା ।

ଭଵସ୍ୟ କଣ୍ଠ୍ୟଂ ରୁଦ୍ରସ୍ୟାନ୍ତଃ ପାର୍ଶ୍ଵ୍ୟଂ ମହାଦେଵସ୍ୟ ୟକୃଚ୍ଛର୍ଵସ୍ୟ ଵନିଷ୍ଠୁଃ ପଶୁପତେଃ ପୁରୀତତ୍ ॥ ୩॥


ଲୋମଭ୍ୟଃ ସ୍ଵାହା ଲୋମଭ୍ୟଃ ସ୍ଵାହା ତ୍ଵଚେ ସ୍ଵାହା ତ୍ଵଚେ ସ୍ଵାହା ଲୋହିତାୟ ସ୍ଵାହା ଲୋହିତାୟ ସ୍ଵାହା

ମେଦୋଭ୍ୟଃ ସ୍ଵାହା ମେଦୋଭ୍ୟଃ ସ୍ଵାହା ମାଂସେଭ୍ୟଃ ସ୍ଵାହା ମାଂସେଭ୍ୟଃ ସ୍ଵାହା ସ୍ନାଵଭ୍ୟଃ ସ୍ଵାହା ସ୍ନାଵଭ୍ୟଃ ସ୍ଵାହା

ଅସ୍ଥଭ୍ୟଃ ସ୍ଵାହା ଅସ୍ଥଭ୍ୟଃ ସ୍ଵାହା ମଜ୍ଜଭ୍ୟଃ ସ୍ଵାହା ମଜ୍ଜଭ୍ୟଃ ସ୍ଵାହା ॥


ରେତସେ ସ୍ଵାହା ପାୟଵେ ସ୍ଵାହା ॥ ୪॥


ଆୟାସାୟ ସ୍ଵାହା ପ୍ରାୟାସାୟ ସ୍ଵାହା ସଂୟାସାୟ ସ୍ଵାହା ଵିୟାସାୟ ସ୍ଵାହୋଦ୍ୟାସାୟ ସ୍ଵାହା ॥


ଶୁଚେ ସ୍ଵାହା ଶୋଚତେ ସ୍ଵାହା ଶୋଚମାନାୟ ସ୍ଵାହା ଶୋକାୟ ସ୍ଵାହା ॥ ୫॥


ତପସେ ସ୍ଵାହା ତପ୍ୟତେ ସ୍ଵାହା ତପ୍ୟମାନାୟ ସ୍ଵାହା ତପ୍ତାୟ ସ୍ଵାହା ଘାୟ ସ୍ଵାହା ॥


ନିଷ୍କୃତ୍ୟୈ ସ୍ଵାହା ପ୍ରାୟଶ୍ଚିତ୍ୟୈ ସ୍ଵାହା ଭେଷଜାୟ ସ୍ଵାହା ॥ ୬॥


ୟମାୟ ସ୍ଵାହା ଅନ୍ତକାୟ ସ୍ଵାହା ମୃତ୍ୟଵେ ସ୍ଵାହା ॥


ବ୍ରହ୍ମଣେ ସ୍ଵାହା ବ୍ରହ୍ମହତ୍ୟାୟୈ ସ୍ଵାହା ଵିଶ୍ଵେଭ୍ୟୋ ଦେଵେଭ୍ୟଃ ସ୍ଵାହା ଦ୍ୟାଵାପୃଥିଵୀଭ୍ୟାଂ ସ୍ଵାହା ॥ ୭॥


ଇତି ରୁଦ୍ରେ ସପ୍ତମୋଽଧ୍ୟାୟଃ ॥ ୭

ଅଥ ଅଷ୍ଟମୋଽଧ୍ୟାୟଃ ॥


          🔴 ॥ ଚମକପ୍ରଶ୍ନଃ ॥🔴


ଵାଜ॑ଶ୍ଚ ମେ ପ୍ରସଵଶ୍ଚ ମେ ପ୍ରୟ॑ତିଶ୍ଚ ମେ ପ୍ରସିତିଶ୍ଚ ମେ ଧୀତିଶ୍ଚ ମେ କ୍ରତୁଶ୍ଚ ମେ ସ୍ଵରଶ୍ଚ ମେ

ଶ୍ଲୋକଶ୍ଚ ମେ ଶ୍ରଵଶ୍ଚ ମେ ଶ୍ରୁତିଶ୍ଚ ମେ ଜ୍ୟୋତିଶ୍ଚ ମେ ସ୍ଵଶ୍ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୧॥


ପ୍ରାଣଶ୍ଚ ମେଽପାନଶ୍ଚ ମେ ଵ୍ୟାନଶ୍ଚ ମେଽସୁଶ୍ଚ ମେ ଚିତ୍ତଞ୍ଚ ମେଽଧୀତଂ ଚ ମେ ଵାକ୍ଚ ମେ ମନଶ୍ଚ ମେ

ଚକ୍ଷୁଶ୍ଚ ମେ ଶ୍ରୋତ୍ରଂ ଚ ମେ ଦକ୍ଷଶ୍ଚ ମେ ବଲଂ ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୨॥


ଓଜଶ୍ଚ ମେ ସହଶ୍ଚ ମାତ୍ମା ଚ ମେ ତନୂଶ୍ଚ ମେ ଶର୍ମ ଚ ମେ ଵର୍ମ ଚ ମେଽଙ୍ଗାନି ଚ

ମେଽସ୍ଥୀନି ଚ ମେ ପରୂଂଷି ଚ ମେ ଶରୀରାଣି ଚ ମ ଆୟୁଶ୍ଚ ମେ ଜରା ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୩॥


ଜ୍ୟୈଷ୍ଠ୍ଂୟ ଚ  ମାଧିପତ୍ୟଂ ଚ ମେ ମନ୍ୟୁଶ୍ଚ ମେ ଭାମ॑ଶ୍ଚ ମେ ଅମ୍ଭଶ୍ଚ ଜେମା ଚ ମେ

ମହିମା ଚ ମେ ଵରିମା ଚ ମେ ପ୍ରଥିମା ଚ ମେ ଵର୍ଷିମା ଚ ମେ ଦ୍ରାଧିମା ଚ ମେ

ଵୃଦ୍ଧଂ ଚ ମେ ଵୃଦ୍ଧିଶ୍ଚ ମେ ୟୁଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୪॥


ସତ୍ୟଂ ଚ ମେ ଶ୍ରଦ୍ଧା ଚ ମେ ଜଗଚ୍ଚ ମେ ଧନଂ ଚ ମେ ଵିଶ୍ଵଂ ଚ ମେ ମହଶ୍ଚ ମେ କ୍ରୀଡା ଚ ମେ

ମୋଦ॑ଶ୍ଚ ମେ ଜାତଂ ଚ ମେ ଜନିଷ୍ୟାଣଂ ଚ ମେ ସୂକ୍ତଂ ଚ ମେ ସୁକୃତଂ ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୫॥


ଋତଂ ଚ ମେଽମୃତଂ ଚ ମେ ୟୁକ୍ଷ୍ମଂ ଚ ମେ ନାମୟଚ୍ଚ ମେ ଜୀଵାତୁଶ୍ଚ ମେ ଦୀର୍ଘାୟୁତ୍ଵଂ ଚ ମେ

ଽନମିତ୍ରଂ ଚ ମେଽଭୟଂ ଚ ମେ ସୁଖଂ ଚ ମେ ଶୟ॑ନଂ ଚ ମେ ସୂଷାଶ୍ଚ ମେ ସୁଦିନଂ ଚ ମେ

ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୬॥


ୟନ୍ତା ଚ ମେ ଧର୍ତା ଚ ମେ କ୍ଷେମଶ୍ଚ ମେ ଧୃତିଶ୍ଚ ମେ ଵିଶ୍ଵଂ ଚ ମେ ମହଶ୍ଚ ମେ ସଁଵିଚ୍ଚ ମେ

ଜ୍ଞାତ୍ରଂ ଚ ମେ ପ୍ରସୂଶ୍ଚ ମେ ପ୍ରସୂଶ୍ଚ ମେ ସୀର ଚ ମେ ଲୟ॑ଶ୍ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୭॥


ଶଂ ଚ ମେ ମୟଶ୍ଚ ମେ ପ୍ରିୟଂ ଚ ମେଽନୁକାମଶ୍ଚ ମେ କାମଶ୍ଚ ମେ ସୌମନସଶ୍ଚ ମେ

ଭଗଶ୍ଚ ମେ ଦ୍ରଵିଣଂ ଚ ମେ ଭଦ୍ରଂ ଚ ମେ ଶ୍ରେୟଶ୍ଚ ମେ ଵସୀୟଶ୍ଚ ମେ ୟଶଶ୍ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୮॥


ଊର୍କ୍ଚ ମେ ସୂନୃତା ଚ ମେ ପୟଶ୍ଚ ମେ ରସଶ୍ଚ ମେ ଘୃତଂ ଚ ମେ ମଧୁ ଚ ମେ ସଗ୍ଧିଶ୍ଚ ମେ

ସପୀତିଶ୍ଚ ମେ କୃଷିଶ୍ଚ ମେ ଵୃଷ୍ଟିଶ୍ଚ ମେ ଜୈତ୍ର ଚ ମେ ଔଦ୍ଭିଦ୍ୟଂ ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୯॥


ରୟିଶ୍ଚ ମେ ରାୟଶ୍ଚ ମେ ପୁଷ୍ଟଂ ଚ ମେ ପୁଷ୍ଟିଶ୍ଚ ମେ ଵିଭୁ ଚ ମେ ପ୍ରଭୁ ଚ ମେ ପୂର୍ଣଂ ଚ ମେ

ପୂର୍ଣତରଂ ଚ ମେ କୁୟଵଂ ଚ ମେଽକ୍ଷିତଂ ଚ ମେଽନ୍ନଂ ଚ ମେ କ୍ଷୁଚ୍ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୧୦॥


ଵିତ୍ତଂ ଚ ମେ ଵେଦ୍ୟଂ ଚ ମେ ଭୂତଂ ଚ ମେ ଭଵିଷ୍ୟଚ୍ଚ ମେ ସୁଗଂ ଚ ମେ ସୁପଥ୍ୟ ଚ ମେ ଋଦ୍ଧଂ ଚ ମେ

ଋଦ୍ଧିଶ୍ଚ ମେ କ୍ଲୃପ୍ତଂ ଚ ମେ କ୍ଲୃପ୍ତିଶ୍ଚ ମେ ମତିଶ୍ଚ ମେ ସୁମତିଶ୍ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୧୧॥


ଵ୍ରୀହୟଶ୍ଚ ମେ ୟଵାଶ୍ଚ ମେ ମାଷାଶ୍ଚ ମେ ତିଲାଶ୍ଚ ମେ ମୁଦ୍ଗାଶ୍ଚ ମେ ଖଲ୍ଵାଶ୍ଚ ମେ ପ୍ରିୟଙ୍ଗଵଶ୍ଚ ମେ

ଅଣଵଶ୍ଚ ମେ ଶ୍ୟାମାକାଶ୍ଚ ମେ ନୀଵାରାଶ୍ଚ ମେ ଗୋଧୂମାଶ୍ଚ ମେ ମସୂରାଶ୍ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୧୨॥


ଅଶ୍ମା ଚ ମେ ମୃତ୍ତିକା ଚ ମେ ଗିରୟଶ୍ଚ ମେ ପର୍ଵତାଶ୍ଚ ମେ ସିକତାଶ୍ଚ ମେ ଵନସ୍ପତୟଶ୍ଚ ମେ

ହିରଣ୍ୟଂ ଚ ମେଽୟଶ୍ଚ ମେ ଶ୍ୟାମଂ ଚ ମେ ଲୋହଂ ଚ ମେ ସୀସଂ ଚ ମେ ତ୍ରପୁ ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୧୩॥


ଅଗ୍ନିଶ୍ଚ ମେ ଆପଶ୍ଚ ମେ ଵୀରୁଧଶ୍ଚ ମେ ଓଷଧୟଶ୍ଚ ମେ କୃଷ୍ଟପଚ୍ୟାଶ୍ଚ ମେଽକୃଷ୍ଟପୁଚ୍ୟାଶ୍ଚ ମେ

ଗ୍ରାମ୍ୟାଶ୍ଚ ମେ ପଶଵଃ ଆରଣ୍ୟାଶ୍ଚ ମେ ଵିତ୍ତଂ ଚ ମେ ଵିତ୍ତିଶ୍ଚ ମେ ଭୂତଂ ଚ ମେ ଭୂତିଶ୍ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୧୪॥


ଵସୁ ଚ ମେ ଵସତିଶ୍ଚ ମେ କର୍ମ ଚ ମେ ଶକ୍ତିଶ୍ଚ ମେଽର୍ଥଶ୍ଚ ମେ ଏମଶ୍ଚ ମେ

ଇତ୍ୟା ଚ ମେ ଗତିଶ୍ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୧୫॥


ଅଗ୍ନିଶ୍ଚ ମେ ଇନ୍ଦ୍ରଶ୍ଚ ମେ ସୋମ॑ଶ୍ଚ ମେ ଇନ୍ଦ୍ରଶ୍ଚ ମେ ସଵିତା ଚ ମେ ଇନ୍ଦ୍ରଶ୍ଚ ମେ ସରସ୍ଵତୀ ଚ ମେ

ଇନ୍ଦ୍ରଶ୍ଚ ମେ ପୂଷା ଚ ମେ ଇନ୍ଦ୍ରଶ୍ଚ ମେ ବୃହସ୍ପତିଶ୍ଚ ମେ ଇନ୍ଦ୍ରଶ୍ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୧୬॥


ମିତ୍ରଶ୍ଚ ମେ ଇନ୍ଦ୍ରଶ୍ଚ ମେ ଵରୁଣଶ୍ଚ ମେ ଇନ୍ଦ୍ରଶ୍ଚ ମେ ଧାତା ଚ ମେ ଇନ୍ଦ୍ରଶ୍ଚ ମେ ତ୍ଵଷ୍ଟା ଚ ମେ

ଇନ୍ଦ୍ରଶ୍ଚ ମେ ମରୁତଶ୍ଚ ମେ ଇନ୍ଦ୍ରଶ୍ଚ ମେ ଵିଶ୍ଵେଦେଵାଶ୍ଚ ଚ ମେ ଇନ୍ଦ୍ରଶ୍ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୧୭॥


ପୃଥିଵୀ ଚ ମେ ଇନ୍ଦ୍ରଶ୍ଚ ମେ ଅନ୍ତରିକ୍ଷଂ ଚ ମେ ଇନ୍ଦ୍ରଶ୍ଚ ମେ ଦ୍ୟୌଶ୍ଚ ମେ ଇନ୍ଦ୍ରଶ୍ଚ ମେ ସମାଶ୍ଚ ମେ

ଇନ୍ଦ୍ରଶ୍ଚ ମେ ନକ୍ଷତ୍ରାଣି ଚ ମେ ଇନ୍ଦ୍ରଶ୍ଚ ମେ ଦିଶଶ୍ଚ ମେ ଇନ୍ଦ୍ରଶ୍ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୧୮॥


ଅଂଶୁଶ୍ଚ ମେ ରଶ୍ମିଶ୍ଚ ମେଽଦାଭ୍ୟଶ୍ଚ ମେଽଧିପତିଶ୍ଚ ମେଽଉପାଂଶୁଶ୍ଚ ମେଽନ୍ତର୍ୟାମଶ୍ଚ ମେ

ଐନ୍ଦ୍ରଵାୟଵଶ୍ଚ ମେ ମୈତ୍ରାଵରୁଣଶ୍ଚ ମେ ଆଶ୍ଵିନଶ୍ଚ ମେ ପ୍ରତିପ୍ରସ୍ଥାନଶ୍ଚ ମେ ଶୁକ୍ରଶ୍ଚ ମେ

ମନ୍ଥୀ ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୧୯॥


ଆଗ୍ରୟଣଶ୍ଚ ମେ ଵୈଶ୍ଵଦେଵଶ୍ଚ ମେ ଧ୍ରୁଵଶ୍ଚ ମେ ଵୈଶ୍ଵାନରଶ୍ଚ ମେ

ଐନ୍ଦ୍ରାଗ୍ନଶ୍ଚ ମେ ମୁହାଵୈଶ୍ଵଦେଵଶ୍ଚ ମେ ମରୁତ୍ଵତୀୟାଶ୍ଚ ମେ

ନିଷ୍କେଵଲ୍ୟଶ୍ଚ ମେ ସାଵିତ୍ରଶ୍ଚ ମେ ସାରସ୍ଵତଶ୍ଚ ମେ ପାତ୍କ୍ନୀଵତଶ୍ଚ ମେ

ହାରିୟୋଜନଶ୍ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୨୦॥


ସ୍ରୁଚଶ୍ଚ ମେ ଚମସାଶ୍ଚ ମେ ଵାୟଵ୍ୟାନି ଚ ମେ ଦ୍ରୋଣକଲଶଶ୍ଚ ମେ ଗ୍ରାଵାଣଶ୍ଚ

ମେଽଧିଷଵଣେ ଚ ମେ ପତଭୃଚ୍ଚ ମେ ଆଧଵନୀୟ॑ଶ୍ଚ ମେ ଵେଦିଶ୍ଚ ମେ ବର୍ହିଶ୍ଚ ମେଽଵଭୃଥଶ୍ଚ ମେ

ସ୍ଵଗାକାରଶ୍ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୨୧॥


ଅଗ୍ନିଶ୍ଚ ମେ ଘର୍ମଶ୍ଚ ମେଽର୍କଶ୍ଚ ମେ ସୂର୍ୟଶ୍ଚ ମେ ପ୍ରାଣଶ୍ଚ ମେଽଶ୍ଵମେଧଶ୍ଚ ମେ ପୃଥିଵୀ ଚ

ମେଦିତିଶ୍ଚ ମେଽଦିତିଶ୍ଚ ମେ ଦ୍ୟୌଶ୍ଚ ମେଽଙ୍ଗୁଲୟ ଶକ୍ଵରୟୋ ଦିଶଶ୍ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୨୨॥


ଵ୍ରତଂ ଚ ମେ ଋତଵଶ୍ଚ ମେ ତପଶ୍ଚ ମେ ସଂଵତ୍ସରଶ୍ଚ ମେଽହୋରାତ୍ରେ ଊର୍ଵଷ୍ଠୀଵେ

ବୃହଦ୍ରଥନ୍ତରେ ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୨୩॥


ଏକା ଚ ମେ ତିସ୍ରଶ୍ଚ ମେ ତିସ୍ରଶ୍ଚ ମେ ପଞ୍ଚ ଚ ମେ ପଞ୍ଚ ଚ ମେ ସପ୍ତ ଚ ମେ ସପ୍ତ ଚ ମେ

ନଵ ଚ ମେ ନଵ ଚ ମେ ଏକାଦଶ ଚ ମେ ଏକାଦଶ ଚ ମେ ତ୍ରୟୋଦଶ ଚ ମେ ତ୍ରୟୋଦଶ ଚ ମେ

ପଞ୍ଚଦଶ ଚ ମେ ପଞ୍ଚଦଶ ଚ ମେ ସପ୍ତଦଶ ଚ ମେ ସପ୍ତଦଶ ଚ ମେ ନଵଦଶ ଚ ମେ ନଵଦଶ ଚ ମ

ଏକଵିଂଶତିଶ୍ଚ ମେ ଏକଵିଂଶତିଶ୍ଚ ମେ ତ୍ରୟୋଵିଂଶତିଶ୍ଚ ମେ ତ୍ରୟୋଵିଂଶତିଶ୍ଚ ମେ ପଞ୍ଚଵିଂଶତି ଚ ମେ

ପଞ୍ଚଵିଂଶତିଶ୍ଚ ମେ ସପ୍ତଵିଂଶତିଶ୍ଚ ମେ ସପ୍ତଵିଂଶତିଶ୍ଚ ମେ ନଵଵିଂଶତିଶ୍ଚ ମେ ନଵଵିଂଶତିଶ୍ଚ ମେ

ଏକତ୍ରିଂଶଚ୍ଚ ମ ଏକତ୍ରିଂଶଚ୍ଚ ମେ ତ୍ରୟସ୍ତ୍ରିଂଶଚ୍ଚ ମେ ୟଜ୍ଞେନ କଲ୍ପନ୍ତାମ୍ ॥ ୨୪॥


ଇତି ରୁଦ୍ରେଽଷ୍ଟମୋଽଧ୍ୟାୟଃ ॥ ୮


    🔴।। ଅଥ ରୁଦ୍ରେ ନଵମୋଽଧ୍ୟାୟଃ ॥🔴


                 ( ଶାନ୍ତିମନ୍ତ୍ରାଃ)


ଋଚଂ ଵାଚଂ ପ୍ରପଦ୍ୟେ ମନୋ ୟଜୁଃ ପ୍ରପଦ୍ୟେ ସାମପ୍ରାଣଂ ପ୍ରପଦ୍ୟେ ଚକ୍ଷୁଃ ଶ୍ରୋତ୍ରଂ ପ୍ରପଦ୍ୟେ ॥


ଵାଗୋଜଃ ସହୌଜୋ ମୟି ପ୍ରାଣାପାନୌ ॥ ୧॥


ୟନ୍ମେ ଛିଦ୍ରଂ ଚକ୍ଷୁଷୋ ହୃଦୟସ୍ୟ॒ ମନସୋ ଵାଽତିତୃଣଂ ମ୍ବୃହସ୍ପତିର୍ମେ ଦଧାତୁ ॥


ଶଂ ନୋ ଭଵତୁ ଭୁଵନସ୍ୟ ୟଃ ପତିଃ ॥ ୨॥


ଭୂର୍ଭୁଵଃ ସ୍ଵଃ । ତତ୍ସଵିତୁର୍ଵରେଣ୍ୟଂ ଭର୍ଗୋ ଦେଵସ୍ୟ ଧୀମହି ॥ ଧିୟୋ ୟୋ ନଃ ପ୍ରଚୋଦୟାତ୍ ॥ ୩॥


କୟା ନଶ୍ଚିତ୍ର ଆଭୁଵଦୂତୀଃ ସଦାଵୃଧଃ ସଖା । କୟା ଶଚିଷ୍ଠୟା ଵୃତା ॥ ୪॥


କସ୍ତ୍ଵା । ସତ୍ୟୋ ଦାନାଂ ମହିଷ୍ଠୋ ମତ୍ସଦନ୍ଧସଃ ॥ ଦୃଢାଚିଦାରୁଜେ ଵସୁ ॥ ୫॥


ଅଭୀଷୁଣଃ ସଖୀନାମଧିତା ଜରିତୃଣାମ୍ ॥ ଶତଂ ଭଵାସ୍ୟୂତିଭିଃ ॥ ୬॥


କୟା ତ୍ଵଂ ନ ଊତ୍ୟାଽଭିପ୍ରମନ୍ଦସେ ଵୃଷନ୍ । କୟା ସ୍ତୋତୃଭ୍ୟଃ ଆଭର ॥ ୭॥


ଇନ୍ଦ୍ରୋ ଵିଶ୍ଵସ୍ୟ ରାଜତି ॥ ଶଂ ନୋଽଅସ୍ତୁ ଦ୍ଵିପଦେ ଶଂ ଚତୁଷ୍ପଦେ ॥ ୮॥


ଶଂ ନୋ ମିତ୍ରଃ ଶଂ ଵରୁଣଃ ଶଂ ନୋ ଭଵତ୍ଵର୍ୟମା ॥ ଶଂ ନ ଇନ୍ଦ୍ରୋ ବୃହସ୍ପତିଃ ଶଂ ନୋ ଵିଷ୍ଣୁରୁରୁକ୍ରମଃ ॥ ୯॥


ଶଂ ନୋ ଵାତଃ ପଵତାଂ ଶଂ ନସ୍ତପତୁ ସୂର୍ୟଃ ॥ ଶଂ ନଃ କନିକ୍ରଦଦ୍ଦେଵଃ ପର୍ଜନ୍ୟୋଽଭିଵର୍ଷତୁ ॥ ୧୦॥


ଅହାନି ଶଂ ଭଵନ୍ତୁ ନଃ ଶଂ-ରାତ୍ରୀଃ ପ୍ରତିଧୀୟତାମ୍ ॥


ଶଂ ନ ଇନ୍ଦ୍ରାଗ୍ରୀ ଭଵତାମଵୋଭିଃ ଶଂ ନ ଇନ୍ଦ୍ରାଵରୁଣା ରାତହଵ୍ୟା ॥


ଶଂ ନ ଇନ୍ଦ୍ରାପୂଷଣା ଵାଜସାତୌ ଶଂ ଇନ୍ଦ୍ରାସୋମା ସୁଵିତାୟ ଶଂ ୟୋଃ ॥ ୧୧॥


ଶଂ ନୋ ଦେଵୀରଭିଷ୍ଟୟେ ଆପୋ ଭଵନ୍ତୁ ପୀତୟେ ॥


ଶଂ ୟୋରଭିସ୍ରଵନ୍ତୁ ନଃ ॥ ୧୨॥


ସ୍ୟୋନା ପୃଥିଵି ନୋ ଭଵାନୁକ୍ଷରା ନିଵେଶନୀ ॥ ୟଚ୍ଛା ନଃ ଶର୍ମ ସପ୍ରଥାଃ ॥ ୧୩॥


ଆପୋ ହିଷ୍ଠାମୟୋଭୁଵସ୍ତାଃ ନଃ ଊର୍ଜେ ଦଧାତନ ॥ ମହେ ରଣାୟ ଚକ୍ଷସେ ॥ ୧୪॥


ୟୋ ଵଃ ଶିଵତମୋ ରସସ୍ତସ୍ୟ ଭାଜୟତେହ ନ ଉଶତୀରିଵ ମାତର ଃ ॥ ୧୫॥


ତସ୍ମୈ ଅରଂ ଗମାମ ଵୋ ୟସ୍ୟ କ୍ଷୟାୟ ଜିନ୍ଵଥ ॥ ଆପୋ ଜନୟଥା ଚ ନଃ ॥ ୧୬॥


ଦ୍ୟୌଃ ଶାନ୍ତିରନ୍ତରିକ୍ଷଃ ଶାନ୍ତିଃ ପୃଥିଵୀ ଶାନ୍ତିରାପଃ ଶାନ୍ତିରୋଷଧୟଃ ଶାନ୍ତିଃ ॥


ଵନସ୍ପତୟଃ ଶାନ୍ତିର୍ଵିଶ୍ଵେଦେଵାଃ ଶାନ୍ତିର୍ବ୍ରହ୍ମ ଶାନ୍ତିଃ ସର୍ଵଂ ଶାନ୍ତିଃ ଶାନ୍ତିରେଵ ଶାନ୍ତିଃ

ସା ମା ଶାନ୍ତିରେଧି ॥ ୧୭॥


ଦୃତେ-ଦୃଂହ ମା ମିତ୍ରସ୍ୟ ମା ଚକ୍ଷୁଷା ସର୍ଵାଣି ଭୂତାନି ସମୀକ୍ଷନ୍ତାମ୍ ॥


ମିତ୍ରସ୍ୟାହଂ ଚକ୍ଷୁଷା ସର୍ଵାଣି ଭୂତାନି ସମୀକ୍ଷେ ॥ ମିତ୍ରସ୍ୟ ଚକ୍ଷୁଷା ସମୀକ୍ଷାମହେ ॥ ୧୮॥


ଦୃତେ-ଦୃଂହ ମା । ଜ୍ୟୋକ୍ତେ ସନ୍ଦୃଶି ଜୀଵ୍ୟାସଂ ଜ୍ୟୋକ୍ତେ ସନ୍ଦୃଶି ଜୀଵ୍ୟାସମ୍ ॥ ୧୯॥


ନମସ୍ତେ ହରସେ ଶୋଚିଷେ ନମସ୍ତେଽସ୍ତ୍ଵର୍ଚିଷେ ॥ ଅନ୍ୟାଁସ୍ତେଽସ୍ମତ୍ତପନ୍ତୁ ହେତୟଃ ପାଵକୋଽସ୍ମଭ୍ୟଂ ଶିଵୋ ଭଵ ॥ ୨୦॥


ନମସ୍ତେ । ଅସ୍ତୁ ଵିଦ୍ୟୁତେ ନମସ୍ତେ ସ୍ତନୟିତ୍ନଵେ ॥ ନମସ୍ତେ ଭଗଵନ୍ନସ୍ତୁ- ୟତଃ ସ୍ଵଃ ସମୀହସେ ॥ ୨୧॥


ୟତୋ ୟତଃ ସମୀହସେ ତତୋ ନୋଽଭୟଂ କୁରୁ ॥


ଶଂ ନଃ କୁରୁ ପ୍ରଜାଭ୍ୟୋଽଭୟଂ ନଃ ପଶୁଭ୍ୟଃ ॥ ୨୨॥


ସୁମିତ୍ରିୟା ନ ଆପଃ ଓଷଧୟଃ ସନ୍ତୁ ଦୁର୍ମିତ୍ରିୟାସ୍ତସ୍ମୈ ସନ୍ତୁ ୟୋଽସ୍ମାନ୍ଦ୍ଵେଷ୍ଟି ୟଂ ଚ ଵୟଂ ଦ୍ଵିଷ୍ମଃ ॥ ୨୩॥


ତଚ୍ଚକ୍ଷୁର୍ଦେଵହିତଂ ପୁରସ୍ତାଚ୍ଛୁକ୍ରମୁଚ୍ଚରତ୍ ॥ ପଶ୍ୟେମ ଶରଦଃ ଶତଂ ଜ୍ଜୀଵେମ ଶରଦଃ-ଶତଂ

ଶୃଣୁୟାମ ଶରଦଃ ଶତଂ ପ୍ରବ୍ରଵାମ ଶରଦଃ ଶତମଦୀନାଃ ସ୍ୟାମ ଶରଦଃ ଶତଂ ଭୂୟଶ୍ଵ ଶରଦଃ ଶତାତ୍ ॥ ୨୪॥


ଇତି ରୁଦ୍ରେ ଶାନ୍ତ୍ୟଧ୍ୟାୟଃ ॥ ୯


    🔴 ।। ଅଥ ରୁଦ୍ରେ ଦଶମୋଽଧ୍ୟାୟଃ ॥🔴


                ॥ ଅଥ ପ୍ରାର୍ଥନାମନ୍ତ୍ରାଃ ॥


ଓଁ ସ୍ଵସ୍ତି ନ ଇନ୍ଦ୍ରୋ ଵୃଦ୍ଧଶ୍ରଵାଃ ସ୍ଵସ୍ତି ନଃ ପୂଷା ଵିଶ୍ଵଵେଦାଃ ॥


ସ୍ଵସ୍ତି ନସ୍ତାର୍କ୍ଷ୍ୟୋଽରିଷ୍ଟନେମିଃ ସ୍ଵସ୍ତି ନୋ ବୃହସ୍ପତିର୍ଦଧାତୁ ॥ ୧॥


ପୟଃ ପୃଥିଵ୍ୟାଂ ପୟ ଓଷଧୀଷୁ ପୟୋ ଦିଵ୍ୟନ୍ତରିକ୍ଷେ ପୟୋ ଧାଃ ।

ପୟସ୍ଵତୀଃ ପ୍ରଦିଶଃ ସନ୍ତୁ ମହ୍ୟମ୍ ॥ ୨॥


ଵିଷ୍ଣୋ ରରାଟମସି ଵିଷ୍ଣୋଃ ଶ୍ନପ୍ତ୍ରେସ୍ଥୋ ଵିଷ୍ଷ୍ଣୋଃ ସ୍ୟୂରସି ଵିଷ୍ଣୋର୍ଧୃଵୋଽସି ॥


ଵୈଷ୍ଣଵମସି ଵୈଷ୍ଣଵେ ତ୍ଵା ॥ ୩॥


ଅଗ୍ନିର୍ଦେଵତା ଵାତୌ ଦେ॒ଵତା ସୂର୍ୟୋ ଦେଵତା ଚନ୍ଦ୍ରମା ଦେଵତା ଵସଵୋ ଦେଵତା

ରୁଦ୍ରା ଦେଵତାଽଽଦିତ୍ୟା ଦେଵତା ମରୁତୋ ଦେଵତା ଵିଶ୍ଵେଦେଵା ଦେଵତା ବୃହସ୍ପତିର୍ଦେଵତେନ୍ଦ୍ରୋ ଦେଵତା ଵରୁଣୋ ଦେଵତା ॥ ୪॥


ସଦ୍ୟୋଜାତଂ ପ୍ରପଦ୍ୟାମି ସଦ୍ୟୋଜାତାୟ ଵୈ ନମୋ ନମଃ ॥ ଭଵେ ଭଵେ ନାତିଭଵେ ଭଵସ୍ଵ ମାଂ ଭଵୋଦ୍ଭୟାୟ ନମଃ ॥ ୫॥


ଵାମଦେଵାୟ ନମୋ ଜ୍ୟେଷ୍ଠାୟ ନମଃ ଶ୍ରେଷ୍ଠାୟ ନମୋ ରୁଦ୍ରାୟ ନମଃ କାଲାୟ ନମଃ କଲଵିକରଣାୟ ନମଃ

ବଲଵିକରଣାୟ ନମୋ ବଲାୟ ନମୋ ବଲପ୍ରମଥନାୟ ନମଃ ସର୍ଵଭୂତଦମନାୟ ନମୋ ମନୋନ୍ମନାୟ ନମଃ ॥ ୬॥


ଅଘୋରେଭ୍ୟୋଽଥ ଘୋରେଭ୍ୟୋ ଧୋରଘୋରତରେଭ୍ୟଃ । ସର୍ଵେଭ୍ୟଃ ସର୍ଵଶର୍ଵେଭ୍ୟୋ ନମସ୍ତେଽସ୍ତୁ ରୁଦ୍ରରୂପେଭ୍ୟଃ ॥ ୭॥


ତତ୍ପୁରୁଷାୟ ଵିଦ୍ମହେ ମହାଦେଵାୟ ଧୀମହି । ତନ୍ନୋ ରୁଦ୍ରଃ ପ୍ରଚୋଦୟାତ୍ ॥ ୮॥


ଈଶାନଃ ସର୍ଵଵିଦ୍ୟାନାମୀଶ୍ଵରଃ ସର୍ଵଭୂତାନାମ୍ ।

ବ୍ରହ୍ମାଧିପତିର୍ବ୍ରହ୍ମଣୋଽଧିପତିର୍ବ୍ରହ୍ମା ଶିଵୋ ମେଽସ୍ତୁ ସଦାଶିଵୋଽମ୍ ॥ ୯॥


ଶିଵୋନାମାସି ସ୍ଵଧିତିସ୍ତେ ପିତା ନମସ୍ତେଽସ୍ତୁ ମାଂ ମା ହିଂସୀଃ ॥


ନିଵର୍ତୟାମ୍ୟାୟୁଷେଽନ୍ନାଦ୍ୟାୟ ପ୍ରଜନନାୟ ରାୟସ୍ପୋପାୟ ସୁପ୍ରଜାସ୍ତ୍ଵାୟ ସୁଵୀର୍ୟାୟ ॥ ୧୦॥


ଵିଶ୍ଵାନି ଦେଵ ସଵିତର୍ଦୁରିତାନି ପରାସୁଵ ॥ ୟଦ୍ଭଦ୍ରଂ ତନ୍ନ ଆସୁଵ ॥ ୧୧॥


ଦ୍ୟୌଃ ଶାନ୍ତିରନ୍ତରିକ୍ଷଃ ଶାନ୍ତିଃ ପୃଥିଵୀ ଶାନ୍ତିରାପଃ ଶାନ୍ତିରୋଷଧୟ ଶାନ୍ତି ।

ଵନସ୍ପତୟଃ ଶାନ୍ତିର୍ଵିଶ୍ଵେଦେଵାଃ ଶାନ୍ତିର୍ବ୍ରହ୍ମଶାନ୍ତିଃ ସର୍ଵଂ ଶାନ୍ତିଃ ଶାନ୍ତିରେଵ ଶାନ୍ତିଃ ସାମାଶାନ୍ତିରେଧି ॥ ୧୨॥


ଅନେନ ରୁଦ୍ରାଭିଷେକକର୍ମଣା ଭଵାନୀଶଙ୍କରଃ ପ୍ରୀୟତାଂ ନ ମମ ଇତି ।

ରୁଦ୍ରାଷ୍ଟାଧ୍ୟାୟୀ  ସମାପ୍ତା ॥


ଇତି ଶ୍ରୀଶୁକ୍ଲୟଜୁର୍ଵେଦୀୟ ରୁଦ୍ରାଷ୍ଟାଧ୍ୟାୟୀ ସମାପ୍ତା ।


श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी

 🔴श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी 🔴


 🔺 ( षष्ठ - अध्यायतः समाप्तिं यावत्  )🔺

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      🔴।। अथ षष्ठोऽध्यायः ॥🔴


               (त्र्यम्बक यजनं)


हरिः ॐ  ,  वयं-सोमव्रते तव मनस्तनूषु बिभ्रतः ॥ प्रजावन्तः सचेमहि ॥ १॥


एष ते रुद्रभागः सहस्वस्राऽम्बिकया तं जुषस्व स्वाहैष ते रुद्रभाग आखुस्ते पशुः ॥ २॥


अव रुद्रमदीमहि अव देवं त्र्यम्बकम् ॥


यथा नो वस्यसस्करद्यथा नः श्रेयसस्करद्यथा नो व्यवसायात् ॥ ३॥


भेषजमसि भेषजं गवेऽश्वाय पुरुषाय भेषजम् । सुखं मेषाय मेष्यै ॥ ४॥


त्र्यम्बकं यजामहे । सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ।

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् । उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुतः ॥ ५॥


एतत्ते रुद्रावसं  तेन परो यमूजवतोऽतीहि ॥


अवतत धन्वा पिनाकवासस्कृत्तिवासा अहिंसन् नः शिवोऽतीहि ॥ ६॥


त्र्यायुषं जमदग्ने कश्यपस्य त्र्यायुषम् ॥ यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नोऽस्तु त्र्यायुषम् ॥ ७॥


शिवो नामाऽसि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽस्तु मा मा हिंसीः ॥


निवर्तयाम्यामुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय ॥ ८॥


इति रुद्रे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६


        🔴।।अथ सप्तमोऽध्यायः ॥🔴


                (सर्वस्वार्पणं)


उग्नश्च भीमश्च ध्वान्तश्च धुनिश्च । सासहवांश्चाभियुग्वा च विक्षिपः स्वाहा ॥ १॥


अग्निं हृदयेनाशनिं हृदयाग्रेण पशुपतिं कृत्स्नहृदयेन भवं यक्ना ॥


शर्वं मतस्नाभ्यामीशानं मन्युना महादेवमन्तःपर्शव्येनोग्रं देवं वनिष्ठुना

वसिष्ठहनुः शिङ्गीनि कोश्याभ्याम् ॥ २॥


उग्रँल्लोहितेन मित्रं सौव्रत्येन रुद्रं दौव्रत्येन इन्द्रं प्रक्रीडेन मरुतो बलेन साध्यान्प्रमुदा ।

भवस्य कण्ठ्यं रुद्रस्यान्तः पार्श्व्यं महादेवस्य यकृच्छर्वस्य वनिष्ठुः पशुपतेः पुरीतत् ॥ ३॥


लोमभ्यः स्वाहा लोमभ्यः स्वाहा त्वचे स्वाहा त्वचे स्वाहा लोहिताय स्वाहा लोहिताय स्वाहा

मेदोभ्यः स्वाहा मेदोभ्यः स्वाहा मांसेभ्यः स्वाहा मांसेभ्यः स्वाहा स्नावभ्यः स्वाहा स्नावभ्यः स्वाहा

अस्थभ्यः स्वाहा अस्थभ्यः स्वाहा मज्जभ्यः स्वाहा मज्जभ्यः स्वाहा ॥


रेतसे स्वाहा पायवे स्वाहा ॥ ४॥


आयासाय स्वाहा प्रायासाय स्वाहा संयासाय स्वाहा वियासाय स्वाहोद्यासाय स्वाहा ॥


शुचे स्वाहा शोचते स्वाहा शोचमानाय स्वाहा शोकाय स्वाहा ॥ ५॥


तपसे स्वाहा तप्यते स्वाहा तप्यमानाय स्वाहा तप्ताय स्वाहा घाय स्वाहा ॥


निष्कृत्यै स्वाहा प्रायश्चित्यै स्वाहा भेषजाय स्वाहा ॥ ६॥


यमाय स्वाहा अन्तकाय स्वाहा मृत्यवे स्वाहा ॥


ब्रह्मणे स्वाहा ब्रह्महत्यायै स्वाहा विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा ॥ ७॥


इति रुद्रे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७


      🔴 ।। अथ अष्टमोऽध्यायः ॥🔴


                ॥ चमकप्रश्नः ॥


वाज॑श्च मे प्रसवश्च मे प्रय॑तिश्च मे प्रसितिश्च मे धीतिश्च मे क्रतुश्च मे स्वरश्च मे

श्लोकश्च मे श्रवश्च मे श्रुतिश्च मे ज्योतिश्च मे स्वश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १॥


प्राणश्च मेऽपानश्च मे व्यानश्च मेऽसुश्च मे चित्तञ्च मेऽधीतं च मे वाक्च मे मनश्च मे

चक्षुश्च मे श्रोत्रं च मे दक्षश्च मे बलं च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २॥


ओजश्च मे सहश्च मात्मा च मे तनूश्च मे शर्म च मे वर्म च मेऽङ्गानि च

मेऽस्थीनि च मे परूंषि च मे शरीराणि च म आयुश्च मे जरा च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ३॥


ज्यैष्ठ्ंय च  माधिपत्यं च मे मन्युश्च मे भाम॑श्च मे अम्भश्च जेमा च मे

महिमा च मे वरिमा च मे प्रथिमा च मे वर्षिमा च मे द्राधिमा च मे

वृद्धं च मे वृद्धिश्च मे युज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ४॥


सत्यं च मे श्रद्धा च मे जगच्च मे धनं च मे विश्वं च मे महश्च मे क्रीडा च मे

मोद॑श्च मे जातं च मे जनिष्याणं च मे सूक्तं च मे सुकृतं च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ५॥


ऋतं च मेऽमृतं च मे युक्ष्मं च मे नामयच्च मे जीवातुश्च मे दीर्घायुत्वं च मे

ऽनमित्रं च मेऽभयं च मे सुखं च मे शय॑नं च मे सूषाश्च मे सुदिनं च मे

यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ६॥


यन्ता च मे धर्ता च मे क्षेमश्च मे धृतिश्च मे विश्वं च मे महश्च मे सँविच्च मे

ज्ञात्रं च मे प्रसूश्च मे प्रसूश्च मे सीर च मे लय॑श्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ७॥


शं च मे मयश्च मे प्रियं च मेऽनुकामश्च मे कामश्च मे सौमनसश्च मे

भगश्च मे द्रविणं च मे भद्रं च मे श्रेयश्च मे वसीयश्च मे यशश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ८॥


ऊर्क्च मे सूनृता च मे पयश्च मे रसश्च मे घृतं च मे मधु च मे सग्धिश्च मे

सपीतिश्च मे कृषिश्च मे वृष्टिश्च मे जैत्र च मे औद्भिद्यं च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ९॥


रयिश्च मे रायश्च मे पुष्टं च मे पुष्टिश्च मे विभु च मे प्रभु च मे पूर्णं च मे

पूर्णतरं च मे कुयवं च मेऽक्षितं च मेऽन्नं च मे क्षुच्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १०॥


वित्तं च मे वेद्यं च मे भूतं च मे भविष्यच्च मे सुगं च मे सुपथ्य च मे ऋद्धं च मे

ऋद्धिश्च मे क्लृप्तं च मे क्लृप्तिश्च मे मतिश्च मे सुमतिश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ ११॥


व्रीहयश्च मे यवाश्च मे माषाश्च मे तिलाश्च मे मुद्गाश्च मे खल्वाश्च मे प्रियङ्गवश्च मे

अणवश्च मे श्यामाकाश्च मे नीवाराश्च मे गोधूमाश्च मे मसूराश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १२॥


अश्मा च मे मृत्तिका च मे गिरयश्च मे पर्वताश्च मे सिकताश्च मे वनस्पतयश्च मे

हिरण्यं च मेऽयश्च मे श्यामं च मे लोहं च मे सीसं च मे त्रपु च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १३॥


अग्निश्च मे आपश्च मे वीरुधश्च मे ओषधयश्च मे कृष्टपच्याश्च मेऽकृष्टपुच्याश्च मे

ग्राम्याश्च मे पशवः आरण्याश्च मे वित्तं च मे वित्तिश्च मे भूतं च मे भूतिश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १४॥


वसु च मे वसतिश्च मे कर्म च मे शक्तिश्च मेऽर्थश्च मे एमश्च मे

इत्या च मे गतिश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १५॥


अग्निश्च मे इन्द्रश्च मे सोम॑श्च मे इन्द्रश्च मे सविता च मे इन्द्रश्च मे सरस्वती च मे

इन्द्रश्च मे पूषा च मे इन्द्रश्च मे बृहस्पतिश्च मे इन्द्रश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १६॥


मित्रश्च मे इन्द्रश्च मे वरुणश्च मे इन्द्रश्च मे धाता च मे इन्द्रश्च मे त्वष्टा च मे

इन्द्रश्च मे मरुतश्च मे इन्द्रश्च मे विश्वेदेवाश्च च मे इन्द्रश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १७॥


पृथिवी च मे इन्द्रश्च मे अन्तरिक्षं च मे इन्द्रश्च मे द्यौश्च मे इन्द्रश्च मे समाश्च मे

इन्द्रश्च मे नक्षत्राणि च मे इन्द्रश्च मे दिशश्च मे इन्द्रश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १८॥


अंशुश्च मे रश्मिश्च मेऽदाभ्यश्च मेऽधिपतिश्च मेऽउपांशुश्च मेऽन्तर्यामश्च मे

ऐन्द्रवायवश्च मे मैत्रावरुणश्च मे आश्विनश्च मे प्रतिप्रस्थानश्च मे शुक्रश्च मे

मन्थी च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ १९॥


आग्रयणश्च मे वैश्वदेवश्च मे ध्रुवश्च मे वैश्वानरश्च मे

ऐन्द्राग्नश्च मे मुहावैश्वदेवश्च मे मरुत्वतीयाश्च मे

निष्केवल्यश्च मे सावित्रश्च मे सारस्वतश्च मे पात्क्नीवतश्च मे

हारियोजनश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २०॥


स्रुचश्च मे चमसाश्च मे वायव्यानि च मे द्रोणकलशश्च मे ग्रावाणश्च

मेऽधिषवणे च मे पतभृच्च मे आधवनीय॑श्च मे वेदिश्च मे बर्हिश्च मेऽवभृथश्च मे

स्वगाकारश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २१॥


अग्निश्च मे घर्मश्च मेऽर्कश्च मे सूर्यश्च मे प्राणश्च मेऽश्वमेधश्च मे पृथिवी च

मेदितिश्च मेऽदितिश्च मे द्यौश्च मेऽङ्गुलय शक्वरयो दिशश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २२॥


व्रतं च मे ऋतवश्च मे तपश्च मे संवत्सरश्च मेऽहोरात्रे ऊर्वष्ठीवे

बृहद्रथन्तरे च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २३॥


एका च मे तिस्रश्च मे तिस्रश्च मे पञ्च च मे पञ्च च मे सप्त च मे सप्त च मे

नव च मे नव च मे एकादश च मे एकादश च मे त्रयोदश च मे त्रयोदश च मे

पञ्चदश च मे पञ्चदश च मे सप्तदश च मे सप्तदश च मे नवदश च मे नवदश च म

एकविंशतिश्च मे एकविंशतिश्च मे त्रयोविंशतिश्च मे त्रयोविंशतिश्च मे पञ्चविंशति च मे

पञ्चविंशतिश्च मे सप्तविंशतिश्च मे सप्तविंशतिश्च मे नवविंशतिश्च मे नवविंशतिश्च मे

एकत्रिंशच्च म एकत्रिंशच्च मे त्रयस्त्रिंशच्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥ २४॥


इति रुद्रेऽष्टमोऽध्यायः ॥ ८


       🔴।।अथ रुद्रे नवमोऽध्यायः ॥ 🔴


                   ( शान्तिमन्त्राः )

ऋचं वाचं प्रपद्ये मनो यजुः प्रपद्ये सामप्राणं प्रपद्ये चक्षुः श्रोत्रं प्रपद्ये ॥


वागोजः सहौजो मयि प्राणापानौ ॥ १॥


यन्मे छिद्रं चक्षुषो हृदयस्य॒ मनसो वाऽतितृणं म्बृहस्पतिर्मे दधातु ॥


शं नो भवतु भुवनस्य यः पतिः ॥ २॥


भूर्भुवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ॥ धियो यो नः प्रचोदयात् ॥ ३॥


कया नश्चित्र आभुवदूतीः सदावृधः सखा । कया शचिष्ठया वृता ॥ ४॥


कस्त्वा । सत्यो दानां महिष्ठो मत्सदन्धसः ॥ दृढाचिदारुजे वसु ॥ ५॥


अभीषुणः सखीनामधिता जरितृणाम् ॥ शतं भवास्यूतिभिः ॥ ६॥


कया त्वं न ऊत्याऽभिप्रमन्दसे वृषन् । कया स्तोतृभ्यः आभर ॥ ७॥


इन्द्रो विश्वस्य राजति ॥ शं नोऽअस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे ॥ ८॥


शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वर्यमा ॥ शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुक्रमः ॥ ९॥


शं नो वातः पवतां शं नस्तपतु सूर्यः ॥ शं नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्योऽभिवर्षतु ॥ १०॥


अहानि शं भवन्तु नः शं-रात्रीः प्रतिधीयताम् ॥


शं न इन्द्राग्री भवतामवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या ॥


शं न इन्द्रापूषणा वाजसातौ शं इन्द्रासोमा सुविताय शं योः ॥ ११॥


शं नो देवीरभिष्टये आपो भवन्तु पीतये ॥


शं योरभिस्रवन्तु नः ॥ १२॥


स्योना पृथिवि नो भवानुक्षरा निवेशनी ॥ यच्छा नः शर्म सप्रथाः ॥ १३॥


आपो हिष्ठामयोभुवस्ताः नः ऊर्जे दधातन ॥ महे रणाय चक्षसे ॥ १४॥


यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह न उशतीरिव मातर ः ॥ १५॥


तस्मै अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ ॥ आपो जनयथा च नः ॥ १६॥


द्यौः शान्तिरन्तरिक्षः शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः ॥


वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः

सा मा शान्तिरेधि ॥ १७॥


दृते-दृंह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ॥


मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे ॥ मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ॥ १८॥


दृते-दृंह मा । ज्योक्ते सन्दृशि जीव्यासं ज्योक्ते सन्दृशि जीव्यासम् ॥ १९॥


नमस्ते हरसे शोचिषे नमस्तेऽस्त्वर्चिषे ॥ अन्याँस्तेऽस्मत्तपन्तु हेतयः पावकोऽस्मभ्यं शिवो भव ॥ २०॥


नमस्ते । अस्तु विद्युते नमस्ते स्तनयित्नवे ॥ नमस्ते भगवन्नस्तु- यतः स्वः समीहसे ॥ २१॥


यतो यतः समीहसे ततो नोऽभयं कुरु ॥


शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः ॥ २२॥


सुमित्रिया न आपः ओषधयः सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान्द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः ॥ २३॥


तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् ॥ पश्येम शरदः शतं ज्जीवेम शरदः-शतं

श‍ृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्व शरदः शतात् ॥ २४॥


इति रुद्रे शान्त्यध्यायः ॥ ९


    🔴 ।।अथ रुद्रे दशमोऽध्यायः ॥  🔴


           ॥ अथ प्रार्थनामन्त्राः ॥


ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥


स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ १॥


पयः पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः ।

पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम् ॥ २॥


विष्णो रराटमसि विष्णोः श्नप्त्रेस्थो विष्ष्णोः स्यूरसि विष्णोर्धृवोऽसि ॥


वैष्णवमसि वैष्णवे त्वा ॥ ३॥


अग्निर्देवता वातौ दे॒वता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता वसवो देवता

रुद्रा देवताऽऽदित्या देवता मरुतो देवता विश्वेदेवा देवता बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता वरुणो देवता ॥ ४॥


सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः ॥ भवे भवे नातिभवे भवस्व मां भवोद्भयाय नमः ॥ ५॥


वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमः

बलविकरणाय नमो बलाय नमो बलप्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नमः ॥ ६॥


अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो धोरघोरतरेभ्यः । सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥ ७॥


तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि । तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ ८॥


ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानाम् ।

ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मेऽस्तु सदाशिवोऽम् ॥ ९॥


शिवोनामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽस्तु मां मा हिंसीः ॥


निवर्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोपाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय ॥ १०॥


विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव ॥ यद्भद्रं तन्न आसुव ॥ ११॥


द्यौः शान्तिरन्तरिक्षः शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधय शान्ति ।

वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्मशान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सामाशान्तिरेधि ॥ १२॥


अनेन रुद्राभिषेककर्मणा भवानीशङ्करः प्रीयतां न मम इति

रुद्राष्टाध्यायी  समाप्ता ॥


इति श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी समाप्ता ।


 


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सोमवार, 14 जून 2021

श्रीजगन्नाथसहस्रनामस्तोत्रम्

 

श्रीजगन्नाथसहस्रनामस्तोत्रम्

॥ ॐ श्रीजगन्नाथाय नमो नमः ॥ प्रार्थना देवदानवगन्धर्वयक्षविद्याधरोरगैः । सेव्यमानं सदा चारुकोटिसूर्यसमप्रभम् ॥ १॥ ध्यायेन्नारायणं देवं चतुर्वर्गफलप्रदम् । जय कृष्ण जगन्नाथ जय सर्वाधिनायक ॥ २॥ जयाशेषजगद्वन्द्यपादाम्भोज नमोऽस्तु ते ॥ ३॥ युधिष्ठिर उवाच यस्य प्रसादात्तु सर्वं यस्तु विष्णुपरायणः । यस्तु धाता विधाता च यश्च सत्यं परो भवेत् ॥ १॥ यस्य मायामयं जालं त्रैलोक्यं सचराचरम् । मर्त्यांश्च मृगतृष्णायां भ्रामयत्यपि केवलम् ॥ २॥ नमाम्यहं जगतप्रीत्या नामानि च जगत्पतिम्। बृहत्या कथितं यच्च तन्मे कथय साम्प्रतम् ॥ ३॥ भीष्म उवाच युधिष्ठिर महाबाहो कथयामि श‍ृणुष्व मे । जगन्नाथस्य नामानि पवित्राणि शुभानि च ॥ १॥ मायया यस्य संसारो व्यापृतः सचराचरः । यस्य प्रसादाद्ब्रह्माणं सृष्ट्वा पाति च सर्वदा ॥ २॥ ब्रह्मादिदशदिक्पालान् मायाविमोहितान् खलु । यस्य चेष्टावरोहश्च ब्रह्माण्डखण्डगोचरः ॥ ३॥ दया वा ममता यस्य सर्वभूतेषु सर्वगः । सत्यधर्मविभूषस्य जगन्नाथस्य सर्वतः ॥ ४॥ कथयामि सहस्राणि नामानि तव चानघ ॥ ५॥ अथ श्रीजगन्नाथस्य सहस्रनामस्तोत्रम् । अथ विनियोगः । अस्य मातृका मन्त्रस्य, वेदव्यासो ऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः, श्रीजगन्नाथो देवता, भगवतः श्रीजगन्नाथस्य प्रीत्यर्थे सहस्रनाम पठने विनियोगः । ध्यानम् नीलाद्रौ शङ्खमध्ये शतदलकमले रत्नसिंहासनस्थं सर्वालङ्कारयुक्तं नवघनरुचिरं संयुतं चाग्रजेन । भद्राया वामभागे रथचरणयुतं ब्रह्मरुद्रेन्द्रवन्द्यं वेदानां सारमीशं स्वजनपरिवृतं ब्रह्मदारु स्मरामि ॥ श्रीभगवानुवाच चतुर्भुजो जगन्नाथः कण्ठशोभितकौस्तुभः । पद्मनाभो वेदगर्भश्चन्द्रसूर्यविलोचनः ॥ १॥ जगन्नाथो लोकनाथो नीलाद्रीशः परो हरिः । दीनबन्धुर्दयासिन्धुः कृपालुः जनरक्षकः ॥ २॥ कम्बुपाणिः चक्रपाणिः पद्मनाभो नरोत्तमः । जगतां पालको व्यापी सर्वव्यापी सुरेश्वरः ॥ ३॥ लोकराजो देवराजः शक्रो भूपश्च भूपतिः । नीलाद्रिपतिनाथश्च अनन्तः पुरुषोत्तमः ॥ ४॥ तार्क्ष्योध्यायः कल्पतरुः विमलाप्रीतिवर्द्धनः । var? तार्क्ष्यध्वजः बलभद्रो वासुदेवो माधवो मधुसूदनः ॥ ५॥ दैत्यारिः पुण्डरीकाक्षो वनमाली बलप्रियः । ब्रह्मा विष्णुः वृष्णिवंशो मुरारिः कृष्णकेशवः ॥ ६॥ श्रीरामः सच्चिदानन्दो गोविन्दः परमेश्वरः । विष्णुर्जिष्णुर्महाविष्णुः प्रभविष्णुर्महेश्वरः ॥ ७॥ लोककर्ता जगन्नाथो महाकर्ता महायशाः । महर्षिः कपिलाचार्यो लोकचारी सुरो हरिः ॥ ८॥ आत्मा च जीवपालश्च शूरः संसारपालकः । एकोनैको ममप्रियो ब्रह्मवादी महेश्वरः ॥ ९॥ var? सर्वप्रियो रमाप्रियो द्विभुजश्च चतुर्बाहुः शतबाहुः सहस्रकः । पद्मपत्रविशालाक्षः पद्मगर्भः परो हरिः ॥ १०॥ पद्महस्तो देवपालो दैत्यारिर्दैत्यनाशनः । चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुराननसेवितः ॥ ११॥ पद्महस्तश्चक्रपाणिः शङ्खहस्तो गदाधरः । महावैकुण्ठवासी च लक्ष्मीप्रीतिकरः सदा ॥ १२॥ विश्वनाथः प्रीतिदश्च सर्वदेवप्रियंकरः । विश्वव्यापी दारुरूपश्चन्द्रसूर्यविलोचनः ॥ १३॥ var प्रियव्यापि गुप्तगङ्गोपलब्धिश्च तुलसीप्रीतिवर्द्धनः । जगदीशः श्रीनिवासः श्रीपतिः श्रीगदाग्रजः ॥ १४॥ सरस्वतीमूलाधारः श्रीवत्सः श्रीदयानिधिः । प्रजापतिः भृगुपतिर्भार्गवो नीलसुन्दरः ॥ १५॥ योगमायागुणारूपो जगद्योनीश्वरो हरिः । आदित्यः प्रलयोद्धारी आदौ संसारपालकः ॥ १६॥ कृपाविष्टः पद्मपाणिरमूर्तिर्जगदाश्रयः । पद्मनाभो निराकारः निर्लिप्तः पुरुषोत्तमः ॥ १७॥ कृपाकरः जगद्व्यापी श्रीकरः शङ्खशोभितः । समुद्रकोटिगम्भीरो देवताप्रीतिदः सदा ॥ १८॥ सुरपतिर्भूतपतिर्ब्रह्मचारी पुरन्दरः । आकाशवायुमूर्तिश्च ब्रह्ममूर्तिर्जलेस्थितः ॥ १९॥ ब्रह्मा विष्णुर्दृष्टिपालः परमोऽमृतदायकः । परमानन्दसम्पूर्णः पुण्यदेवः परायणः ॥ २०॥ var पुण्यदेहः धनी च धनदाता च धनगर्भो महेश्वरः । पाशपाणिः सर्वजीवः सर्वसंसाररक्षकः ॥ २१॥ देवकर्ता ब्रह्मकर्ता वषिष्ठो ब्रह्मपालकः । जगत्पतिः सुराचार्यो जगद्व्यापी जितेन्द्रियः ॥ २२॥ महामूर्तिर्विश्वमूर्तिर्महाबुद्धिः पराक्रमः । सर्वबीजार्थचारी च द्रष्टा वेदपतिः सदा ॥ २३॥ सर्वजीवस्य जीवश्च गोपतिर्मरुतां पतिः । मनोबुद्धिरहंकारकामादिक्रोधनाशनः ॥ २४॥ var क्रोधशातनः कामदेवः कामपालः कामाङ्गः कामवल्लभः । शत्रुनाशी कृपासिन्धुः कृपालुः परमेश्वरः ॥ २५॥ देवत्राता देवमाता भ्राता बन्धुः पिता सखा । बालवृद्धस्तनूरूपो विश्वकर्मा बलोऽबलः ॥ २६॥ var बलोद्बलः अनेकमूर्तिः सततं सत्यवादी सतांगतिः । लोकब्रह्म बृहद्ब्रह्म स्थूलब्रह्म सुरेश्वरः ॥ २७॥ जगद्व्यापी सदाचारी सर्वभूतश्च भूपतिः । var? सर्वभुईपश्च दुर्गपालः क्षेत्रनाथो रतीशो रतिनायकः ॥ २८॥ बली विश्वबलाचारी बलदो बलि-वामनः । दरह्रासः शरच्चन्द्रः परमः परपालकः ॥ २९॥ अकारादिमकारान्तो मध्योकारः स्वरूपधृक् । स्तुतिस्थायी सोमपाश्च स्वाहाकारः स्वधाकरः ॥ ३०॥ मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहश्च वामनः । परशुरामो महावीर्यो रामो दशरथात्मजः ॥ ३१॥ देवकीनन्दनः श्रेष्ठो नृहरिः नरपालकः । वनमाली देहधारी पद्ममाली विभूषणः ॥ ३२॥ मल्लीकामालधारी च जातीयूथिप्रियः सदा । बृहत्पिता महापिता ब्राह्मणो ब्राह्मणप्रियः ॥ ३३॥ कल्पराजः खगपतिर्देवेशो देववल्लभः । परमात्मा बलो राज्ञां माङ्गल्यं सर्वमङ्गलः ॥ ३४॥ var राजा सर्वबलो देहधारी राज्ञां च बलदायकः । नानापक्षिपतङ्गानां पावनः परिपालकः ॥ ३५॥ वृन्दावनविहारी च नित्यस्थलविहारकः । क्षेत्रपालो मानवश्च भुवनो भवपालकः ॥ ३६॥ सत्त्वं रजस्तमोबुद्धिरहङ्कारपरोऽपि च । आकाशंगः रविः सोमो धरित्रीधरणीधरः ॥ ३७॥ निश्चिन्तो योगनिद्रश्च कृपालुः देहधारकः । var शोकनिद्रश्च सहस्रशीर्षा श्रीविष्णुर्नित्यो जिष्णुर्निरालयः ॥ ३८॥ कर्ता हर्ता च धाता च सत्यदीक्षादिपालकः । var शक्रदीक्षादि कमलाक्षः स्वयम्भूतः कृष्णवर्णो वनप्रियः ॥ ३९॥ कल्पद्रुमः पादपारिः कल्पकारी स्वयं हरिः । देवानां च गुरुः सर्वदेवरूपो नमस्कृतः ॥ ४०॥ निगमागमचारी च कृष्णगम्यः स्वयंयशः । नारायणो नराणां च लोकानां प्रभुरुत्तमः ॥ ४१॥ जीवानां परमात्मा च जगद्वन्द्यः परो यमः । भूतावासो परोक्षश्च सर्ववासी चराश्रयः ॥ ४२॥ भागीरथी मनोबुद्धिर्भवमृत्युः परिस्थितः । संसारप्रणयी प्रीतः संसाररक्षकः सदा ॥ ४३॥ नानावर्णधरो देवो नानापुष्पविभूषणः । नन्दध्वजो ब्रह्मरूपो गिरिवासी गणाधिपः ॥ ४४॥ मायाधरो वर्णधारी योगीशः श्रीधरो हरिः । महाज्योतिर्महावीर्यो बलवांश्च बलोद्भवः ॥ ४५॥ var बलोद्भवः भूतकृत् भवनो देवो ब्रह्मचारी सुराधिपः । सरस्वती सुराचार्यः सुरदेवः सुरेश्वरः ॥ ४६॥ अष्टमूर्तिधरो रुद्र इच्छामूर्तिः पराक्रमः । महानागपतिश्चैव पुण्यकर्मा तपश्चरः ॥ ४७॥ दिनपो दीनपालश्च दिव्यसिंहो दिवाकरः । अनभोक्ता सभोक्ता च हविर्भोक्ता परोऽपरः ॥ ४८॥ मन्त्रदो ज्ञानदाता च सर्वदाता परो हरिः । परर्द्धिः परधर्मा च सर्वधर्मनमस्कृतः ॥ ४९॥ क्षमादश्च दयादश्च सत्यदः सत्यपालकः । कंसारिः केशिनाशी च नाशनो दुष्टनाशनः ॥ ५०॥ पाण्डवप्रीतिदश्चैव परमः परपालकः । जगद्धाता जगत्कर्ता गोपगोवत्सपालकः ॥ ५१॥ सनातनो महाब्रह्म फलदः कर्मचारिणाम् । परमः परमानन्दः परर्द्धिः परमेश्वरः ॥ ५२॥ शरणः सर्वलोकानां सर्वशास्त्रपरिग्रहः । धर्मकीर्तिर्महाधर्मो धर्मात्मा धर्मबान्धवः ॥ ५३॥ मनःकर्ता महाबुद्धिर्महामहिमदायकः । भूर्भुवः स्वो महामूर्तिः भीमो भीमपराक्रमः ॥ ५४॥ पथ्यभूतात्मको देवः पथ्यमूर्तिः परात्परः । विश्वाकारो विश्वगर्भः सुरामन्दो सुरेश्वरः ॥ ५५॥ var सुरहा च भुवनेशः सर्वव्यापी भवेशः भवपालकः । दर्शनीयश्चतुर्वेदः शुभाङ्गो लोकदर्शनः ॥ ५६॥ श्यामलः शान्तमूर्तिश्च सुशान्तश्चतुरोत्तमः । सामप्रीतिश्च ऋक् प्रीतिर्यजुषोऽथर्वणप्रियः ॥ ५७॥ श्यामचन्द्रश्चतुमूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्गतिः । महाज्योतिर्महामूर्तिर्महाधामा महेश्वरः ॥ ५८॥ अगस्तिर्वरदाता च सर्वदेवपितामहः । प्रह्लादस्य प्रीतिकरो ध्रुवाभिमानतारकः ॥ ५९॥ मण्डितः सुतनुर्दाता साधुभक्तिप्रदायकः । ॐकारश्च परंब्रह्म ॐ निरालंबनो हरिः ॥ ६०॥ सद्गतिः परमो हंसो जीवात्मा जननायकः । मनश्चिन्त्यश्चित्तहारी मनोज्ञश्चापधारकः ॥ ६१॥ ब्राह्मणो ब्रह्मजातीनामिन्द्रियाणां गतिः प्रभुः । त्रिपादादूर्द्ध्वसम्भूतो विराट् चैव सुरेश्वरः ॥ ६२॥ var विराटश्च परात्परः परः पादः पद्मस्थः कमलासनः । नानासन्देहविषयस्तत्त्वज्ञानाभिनिवृतः ॥ ६३॥ सर्वज्ञश्च जगद्बन्धुर्मनोजज्ञातकारकः । मुखसंभूतविप्रस्तु वाहसम्भूतराजकः ॥ ६४॥ ऊरोवैश्यः पदोभूतः शूद्रो नित्योपनित्यकः । ज्ञानी मानी वर्णदश्च सर्वदः सर्वभूषितः ॥ ६५॥ अनादिवर्णसन्देहो नानाकर्मोपरिस्थितः । शुद्धादिधर्मसन्देहो ब्रह्मदेहः स्मिताननः ॥ ६६॥ शंबरारिर्वेदपतिः सुकृतः सत्त्ववर्द्धनः । सकलं सर्वभूतानां सर्वदाता जगन्मयः ॥ ६७॥ सर्वभूतहितैषी च सर्वप्राणिहिते रतः । सर्वदा देहधारी च बटको बटुगः सदा ॥ ६८॥ var बटुको सर्वकर्मविधाता च ज्ञानदः करुणात्मकः । पुण्यसम्पत्तिदाता च कर्ता हर्ता तथैव च ॥ ६९॥ सदा नीलाद्रिवासी च नतास्यश्च पुरन्दरः । नरो नारायणो देवो निर्मलो निरुपद्रवः ॥ ७०॥ ब्रह्माशम्भुः सुरश्रेष्ठः कम्बुपाणिर्बलोऽर्जुनः । जगद्धाता चिरायुश्च गोविन्दो गोपवल्लभः ॥ ७१॥ देवो देवो महाब्रह्म महाराजो महागतिः । अनन्तो भूतनाथश्च अनन्तभूतसम्भवः ॥ ७२॥ समुद्रपर्वतानां च गन्धर्वाणां तथाऽऽश्रयः । श्रीकृष्णो देवकीपुत्रो मुरारिर्वेणुहस्तकः ॥ ७३॥ जगत्स्थायी जगद्व्यापी सर्वसंसारभूतिदः । रत्नगर्भो रत्नहस्तो रत्नाकरसुतापतिः ॥ ७४॥ कन्दर्परक्षाकारी च कामदेवपितामहः । कोटिभास्करसंज्योतिः कोटिचन्द्रसुशीतलः ॥ ७५॥ कोटिकन्दर्पलावण्यः काममूर्तिर्बृहत्तपः । मथुरापुरवासी च द्वारिको द्वारिकापतिः ॥ ७६॥ वसन्तऋतुनाथश्च माधवः प्रीतिदः सदा । श्यामबन्धुर्घनश्यामो घनाघनसमद्युतिः ॥ ७७॥ अनन्तकल्पवासी च कल्पसाक्षी च कल्पकृत् । var अनन्तः कल्पवासी सत्यनाथः सत्यचारी सत्यवादी सदास्थितः ॥ ७८॥ चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्युगपतिर्भवः । रामकृष्णो युगान्तश्च बलभद्रो बलो बली ॥ ७९॥ लक्ष्मीनारायणो देवः शालग्रामशिलाप्रभुः । प्राणोऽपानः समानश्चोदानव्यानौ तथैव च ॥ ८०॥ पञ्चात्मा पञ्चतत्त्वं च शरणागतपालकः । यत्किंचित् दृश्यते लोके तत्सर्वं जगदीश्वरः ॥ ८१॥ जगदीशो महद्ब्रह्म जगन्नाथाय ते नमः । जगदीशो महद्ब्रह्म जगन्नाथाय ते नमः । जगदीशो महद्ब्रह्म जगन्नाथाय ते नमः । ॥ इति श्रीजगन्नाथसहस्रनामस्तोत्रम् ॥
अथ श्रीजगन्नाथसहस्रनाम माहात्म्यम् । एवं नामसहस्रेण स्तवोऽयं पठ्यते यदि । पाठं पाठयते यस्तु श‍ृणुयादपि मानवः ॥ १॥ सहस्राणां शतेनैव यज्ञेन परिपूज्यते । यत्पुण्यं सर्वतीर्थेषु वेदेषु च विशेषतः ॥ २॥ तत्पुण्यं कोटिगुणितं अचिराल्लभते नरः । जगन्नाथस्य नामानि पुण्यानि सफलानि च ॥ ३॥ विद्यार्थी लभते विद्यां योगार्थी योगमाप्नुयात् । कन्यार्थी लभते कन्यां जयार्थी लभते जयम् ॥ ४॥ कामार्थी लभते कामं पुत्रार्थी लभते सुतम् । क्षत्रियाणां प्रयोगेण संग्रामे जयदः सदा ॥ ५॥ वैश्यानां सर्वधर्मः स्याच्छूद्राणां सुखमेधते । साधूनां पठतो नित्यं ज्ञानदः फलदस्तथा ॥ ६॥ नाऽपवादं न दुःखं च कदा च लभते नरः । सर्वसौख्यं फलं प्राप्य चिरंजीवी भवेन्नरः ॥ ७॥ श‍ृणु राजन् महाबाहो महिमानं जगत्पतेः । यस्य स्मरणमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ८॥ जगन्नाथं लोकनाथं पठते यः सदा शुचिः । कलिकालोद्भवं पापं तत्क्षणात्तस्य नश्यति ॥ ९॥ इति श्रीब्रह्मपुराणे भीष्म-युधिष्ठिर-संवादे श्रीजगन्नाथसहस्रनामस्तोत्रं समाप्तम् ॥

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

श्रीजगन्नाथस्तोत्र १

श्रीजगन्नाथस्तोत्र १

॥ जगन्नाथप्रणामः ॥ नीलाचलनिवासाय नित्याय परमात्मने । बलभद्रसुभद्राभ्यां जगन्नाथाय ते नमः ॥ १॥
 ॥ श्री जगन्नाथ प्रार्थना ॥

रत्नाकरस्तव गृहं गृहिणी च पद्मा
किं देयमस्ति भवते पुरुषोत्तमाय ।
? अभीर?वामनयनाहृतमानसाय
दत्तं मनो यदुपते त्वरितं गृहाण ॥ १॥

भक्तानामभयप्रदो यदि भवेत् किन्तद्विचित्रं प्रभो
कीटोऽपि स्वजनस्य रक्षणविधावेकान्तमुद्वेजितः ।
ये युष्मच्चरणारविन्दविमुखा स्वप्नेऽपि नालोचका-
स्तेषामुद्धरण-क्षमो यदि भवेत् कारुण्यसिन्धुस्तदा ॥ २॥

अनाथस्य जगन्नाथ नाथस्त्वं मे न संशयः ।
यस्य नाथो जगन्नाथस्तस्य दुःखं कथं प्रभो ॥ ३॥

या त्वरा द्रौपदीत्राणे या त्वरा गजमोक्षणे ।
मय्यार्ते करुणामूर्ते सा त्वरा क्व गता हरे ॥ ४॥

मत्समो पातकी नास्ति त्वत्समो नास्ति पापहा ।
इति विज्ञाय देवेश यथायोग्यं तथा कुरु ॥ ५॥

 

गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

कमलास्तोत्रम्

 

कमलास्तोत्रम्

संकलक डाॅ। मनस्वी श्रीविद्यालंकार `मनस्वी' विष्णु पुराण में कमला स्तोत्र का उल्लेख प्राप्त होता है । सुख-समृद्धि की प्राप्ति हेतु भगवती कमला का पाठ फलदायी है । यहां हमने सुविधा के लिए कमला स्तोत्र को हिन्दी में अनुवाद सहित उपलब्ध कराया है । ओंकाररूपिणी देवि विशुद्धसत्त्वरूपिणी । देवानां जननी त्वं हि प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ हे देवी लक्ष्मी! आप ओंकारस्वरूपिणी हैं, आप विशुद्धसत्त्व गुणरूपिणी और देवताओं की माता हैं । हे सुंदरी! आप हम पर प्रसन्न हों । तन्मात्रंचैव भूतानि तव वक्षस्थलं स्मृतम् । त्वमेव वेदगम्या तु प्रसन्ना भव सुंदरि ॥ हे सुंदरी! पंचभूत और पंचतन्मात्रा आपके वक्षस्थल हैं, केवल वेद द्वारा ही आपको जाना जाता है । आप मुझ पर कृपा करें । देवदानवगन्धर्वयक्षराक्षसकिन्नरः । स्तूयसे त्वं सदा लक्ष्मि प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ हे देवी लक्ष्मी! देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस् और किन्नर सभी आपकी स्तुति करते हैं । आप हम पर प्रसन्न हों । लोकातीता द्वैतातीता समस्तभूतवेष्टिता । विद्वज्जनकीर्त्तिता च प्रसन्ना भव सुंदरि ॥ हे जननी! आप लोक और द्वैत से परे और सम्पूर्ण भूतगणों से घिरी हुई रहती हैं । विद्वान लोग सदा आपका गुण-कीर्तन करते हैं । हे सुंदरी! आप मुझ पर प्रसन्न हों । परिपूर्णा सदा लक्ष्मि त्रात्री तु शरणार्थिषु । विश्वाद्या विश्वकत्रीं च प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ हे देवी लक्ष्मी! आप नित्यपूर्णा शरणागतों का उद्धार करने वाली, विश्व की आदि और रचना करने वाली हैं । हे सुन्दरी! आप मुझ पर प्रसन्न हों । ब्रह्मरूपा च सावित्री त्वद्दीप्त्या भासते जगत् । विश्वरूपा वरेण्या च प्रसन्ना भव सुंदरि ॥ हे माता! आप ब्रह्मरूपिणी, सावित्री हैं । आपकी दीप्ति से ही त्रिजगत प्रकाशित होता है, आप विश्वरूपा और वर्णन करने योग्य हैं । हे सुंदरी! आप मुझ पर कृपा करें । क्षित्यप्तेजोमरूद्धयोमपंचभूतस्वरूपिणी । बन्धादेः कारणं त्वं हि प्रसन्ना भव सुंदरि ॥ हे जननी! क्षिति, जल, तेज, मरूत् और व्योम पंचभूतों की स्वरूप आप ही हैं । गंध, जल का रस, तेज का रूप, वायु का स्पर्श और आकाश में शब्द आप ही हैं । आप इन पंचभूतों के गुण प्रपंच का कारण हैं, आप हम पर प्रसन्न हों । महेशे त्वं हेमवती कमला केशवेऽपि च । ब्रह्मणः प्रेयसी त्वं हि प्रसन्ना भव सुंदरि ॥ हे देवी! आप शूलपाणि महादेवजी की प्रियतमा हैं । आप केशव की प्रियतमा कमला और ब्रह्मा की प्रेयसी ब्रह्माणी हैं, आप हम पर प्रसन्न हों । चंडी दुर्गा कालिका च कौशिकी सिद्धिरूपिणी । योगिनी योगगम्या च प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ हे देवी! आप चंडी, दुर्गा, कालिका, कौशिकी, सिद्धिरूपिणी, योगिनी हैं । आपको केवल योग से ही प्राप्त किया जाता है । आप हम पर प्रसन्न हों । बाल्ये च बालिका त्वं हि यौवने युवतीति च । स्थविरे वृद्धरूपा च प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ हे देवी! आप बाल्यकाल में बालिका, यौवनकाल में युवती और वृद्धावस्था में वृद्धारूप होती हैं । हे सुन्दरी! आप हम पर प्रसन्न हों । गुणमयी गुणातीता आद्या विद्या सनातनी । महत्तत्त्वादिसंयुक्ता प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ हे जननी! आप गुणमयी, गुणों से परे, आप आदि, आप सनातनी और महत्तत्त्वादिसंयुक्त हैं । हे सुंदरी! आप हम पर प्रसन्न हों । तपस्विनी तपः सिद्धि स्वर्गसिद्धिस्तदर्थिषु । चिन्मयी प्रकृतिस्त्वं तु प्रसन्ना भव सुंदरि ॥ हे माता! आप तपस्वियों की तपःसिद्धि स्वर्गार्थिगणों की स्वर्गसिद्धि, आनंदस्वरूप और मूल प्रकृति हैं । हे सुंदरी! आप हम पर प्रसन्न हों । त्वमादिर्जगतां देवि त्वमेव स्थितिकारणम् । त्वमन्ते निधनस्थानं स्वेच्छाचारा त्वमेवहि ॥ हे जननी! आप जगत् की आदि, स्थिति का एकमात्र कारण हैं । देह के अंत में जीवगण आपके ही निकट जाते हैं । आप स्वेच्छाचारिणी हैं । आप हम पर प्रसन्न हों । चराचराणां भूतानां बहिरन्तस्त्वमेव हि । व्याप्यव्याकरूपेण त्वं भासि भक्तवत्सले ॥ हे भक्तवत्सले! आप चराचर जीवगणों के बाहर और भीतर दोनों स्थलों में विराजमान रहती हैं, आपको नमस्कार है । त्वन्मायया हृतज्ञाना नष्टात्मानो विचेतसः । गतागतं प्रपद्यन्ते पापपुण्यवशात्सदा ॥ हे माता! जीवगण आपकी माया से ही अज्ञानी और चेतनारहित होकर पुण्य के वश से बारम्बार इस संसार में आवागमन करते हैं । तावन्सत्यं जगद्भाति शुक्तिकारजतं यथा । यावन्न ज्ञायते ज्ञानं चेतसा नान्वगामिनी ॥ जैसे सीपी में अज्ञानतावश चांदी का भ्रम हो जाता है और फिर उसके स्वरूप का ज्ञान होने पर वह भ्रम दूर हो जाता है, वैसे ही जब तक ज्ञानमयी चित्त में आपका स्वरूप नहीं जाना जाता है, तब तक ही यह जगत् सत्य भासित होता है, परन्तु आपके स्वरूप का ज्ञान हो जाने से यह सारा संसार मिथ्या लगने लगता है । त्वज्ज्ञानात्तु सदा युक्तः पुत्रदारगृहादिषु । रमन्ते विषयान्सर्वानन्ते दुखप्रदान् ध्रुवम् ॥ जो मनुष्य आपके ज्ञान से पृथक रहते हुए जगत् को ही सत्य मानकर विषयों में लगे रहते हैं, निःसंदेह अंत में उनको महादुख मिलता है । त्वदाज्ञया तु देवेशि गगने सूर्यमण्डलम् । चन्द्रश्च भ्रमते नित्यं प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ हे देवेश्वरी! आपकी आज्ञा से ही सूर्य और चंद्रमा आकाश मण्डल में नियमित भ्रमण करते हैं । आप हम पर प्रसन्न हों । ब्रह्मेशविष्णुजननी ब्रह्माख्या ब्रह्मसंश्रया । व्यक्ताव्यक्त च देवेशि प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ हे देवेश्वरी! आप ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर की भी जननी हैं । आप ब्रह्माख्या और ब्रह्मासंश्रया हैं, आप ही प्रगट और गुप्त रूप से विराजमान रहती हैं । हे देवी! आप हम पर प्रसन्न हों । अचला सर्वगा त्वं हि मायातीता महेश्वरि । शिवात्मा शाश्वता नित्या प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ हे देवी! आप अचल, सर्वगामिनी, माया से परे, शिवात्मा और नित्य हैं । हे देवी! आप हम पर प्रसन्न हों । सर्वकायनियन्त्री च सर्वभूतेश्वरी । अनन्ता निष्काला त्वं हि प्रसन्ना भवसुन्दरि ॥ हे देवी! आप सबकी देह की रक्षक हैं । आप सम्पूर्ण जीवों की ईश्वरी, अनन्त और अखंड हैं । आप हम पर प्रसन्न हों । सर्वेश्वरी सर्ववद्या अचिन्त्या परमात्मिका । भुक्तिमुक्तिप्रदा त्वं हि प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ हे माता! सभी भक्तिपूर्वक आपकी वंदना करते हैं । आपकी कृपा से ही भुक्ति और मुक्ति प्राप्त होती है । हे सुंदरि! आप हम पर प्रसन्न हों । ब्रह्माणी ब्रह्मलोके त्वं वैकुण्ठे सर्वमंगला । इंद्राणी अमरावत्यामम्बिका वरूणालये ॥ हे माता! आप ब्रह्मलोक में ब्रह्माणी, वैकुण्ठ में सर्वमंगला अमरावती में इंद्राणी और वरूणालय में अम्बिकास्वरूपिणी हैं । आपको नमस्कार है । यमालये कालरूपा कुबेरभवने शुभा । महानन्दाग्निकोणे च प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ हे देवी! आप यम के गृह में कालरूप, कुबेर के भवन में शुभदायिनी और अग्निकोण में महानन्दस्वरूपिणी हैं, हे सुन्दरी! आप हम पर प्रसन्न हों । नैऋर्त्यां रक्तदन्ता त्वं वायव्यां मृगवाहिनी । पाताले वैष्णवीरूपा प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ हे देवी! आप नैऋर्त्य में रक्तदन्ता, वायव्य कोण में मृगवाहिनी और पाताल में वैष्णवी रूप से विराजमान रहती हैं । हे सुंदरी! आप हम पर प्रसन्न हों । सुरसा त्वं मणिद्वीपे ऐशान्यां शूलधारिणी । भद्रकाली च लंकायां प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ हे देवी! आप मणिद्वीप में सुरसा, ईशान कोण में शूलधारिणी और लंकापुरी में भद्रकाली रूप में स्थित रहती हैं । हे सुंदरी! आप हम पर प्रसन्न हों । रामेश्वरी सेतुबन्धे सिंहले देवमोहिनी । विमला त्वं च श्रीक्षेत्रे प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ हे देवी! आप सेतुबन्ध में रामेश्वरी, सिंहद्वीप में देवमोहिनी और पुरूषोत्तम में विमला नाम से स्थित रहती हैं । हे सुंदरी! आप हम पर प्रसन्न हों । कालिका त्वं कालिघाटे कामाख्या नीलपर्वत । विरजा ओड्रदेशे त्वं प्रसन्ना भव सुंदरि ॥ हे देवी! आप कालीघाट पर कालिका, नीलपर्वत पर कामाख्या और औड्र देश में विरजारूप में विराजमान रहती हैं । हे सुंदरी! आप हम पर प्रसन्न हों । वाराणस्यामन्नपूर्णा अयोध्यायां महेश्वरी । गयासुरी गयाधाम्नि प्रसन्ना भव सुंदरि ॥ हे देवी! आप वाराणसी क्षेत्र में अन्नपूर्णा, अयोध्या नगरी में माहेश्वरी और गयाधाम में गयासुरी रूप से विराजमान रहती हैं । हे सुंदरी! आप हम पर प्रसन्न हों । भद्रकाली कुरूक्षेत्रे त्वंच कात्यायनी व्रजे । माहामाया द्वारकायां प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ हे देवी! आप कुरूक्षेत्र में भद्रकाली, वज्रधाम में कात्यायनी और द्वारकापुरी में महामाया रूप में विराजमान रहती हैं । हे देवी! आप हम पर प्रसन्न हों । क्षुधा त्वं सर्वजीवानां वेला च सागरस्य हि । महेश्वरी मथुरायां च प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ हे देवी! आप सम्पूर्ण जीवों में क्षुधारूपिणी हैं, आप मथुरानगरी में महेश्वरी रूप में विराजमान रहती हैं । हे देवी! आप हम पर प्रसन्न हों । रामस्य जानकी त्वं च शिवस्य मनमोहिनी । दक्षस्य दुहिता चैव प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ हे देवी! आप रामचंद्र की जानकी और शिव को मोहने वाली दक्ष की पुत्री हैं । हे देवी! आप हम पर प्रसन्न हों । विष्णुभक्तिप्रदां त्वं च कंसासुरविनाशिनी । रावणनाशिनां चैव प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥ हे माता! आप विष्णु की भक्ति देने वाली, कंस और रावण का नाश करने वाली हैं । हे देवी! आप हम पर प्रसन्न हों । लक्ष्मीस्तोत्रमिदं पुण्यं यः पठेद्भक्सिंयुतः । सर्वज्वरभयं नश्येत्सर्वव्याधिनिवारणम् ॥ जो प्राणी भक्ति सहित सर्वव्याधि के नाशक इस पवित्र लक्ष्मी स्तोत्र का पाठ करता है, उसे किसी प्रकार का ज्वर का भय नहीं रहता है । इदं स्तोत्रं महापुण्यमापदुद्धारकारणम् । त्रिसंध्यमेकसन्ध्यं वा यः पठेत्सततं नरः ॥ मुच्यते सर्वपापेभ्यो तथा तु सर्वसंकटात् । मुच्यते नात्र सन्देहो भुवि स्वर्गे रसातले ॥ यह लक्ष्मी स्तोत्र परम पवित्र और विपत्ति का नाशक है । जो प्राणी तीनों संध्याओं में अथवा केवल एक बार ही इसका पाठ करता है, वह सभी पापों से छूट जाता है । स्वर्ग, मर्त्य, पाताल आदि में कहीं भी उसको किसी प्रकार का संकट नहीं होता, इसमें संदेह नहीं है । समस्तं च तथा चैकं यः पठेद्भक्तित्परः । स सर्वदुष्करं तीर्त्वा लभते परमां गतिम् ॥ जो प्राणी भक्तियुक्त चित्त से सम्पूर्ण स्तोत्र अथवा इसका एक श्लोक भी प्णाढ़ता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर परमगति को प्राप्त होता है । सुखदं मोक्षदं स्तोत्रं यः पठेद्भक्तिसंयुक्तः । स तु कोटीतीर्थफलं प्राप्नोति नात्र संशयः ॥ जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर सुख और मोक्ष के देने वाले इस लक्ष्मी स्तोत्र का पाठ करता है, उसको करोड़ तीर्थों का फल प्राप्त होता है, इसमें संदेह नहीं है । एका देवी तु कमला यस्मिंस्तुष्टा भवेत्सदा । तस्याऽसाध्यं तु देवेशि नास्तिकिंचिज्जगत् त्रये ॥ हे देवेश्वरी! जिस पर आपकी कृपा हो, उसको तीनों लोकों में कुछ भी असंभव नहीं है । पठनादपि स्तोत्रस्य किं न सिद्धयति भूतले । तस्मात्स्तोत्रवरं प्रोक्तं सत्यं हि पार्वति ॥ हे पार्वती! मैं सत्य कहता हूं कि पृथ्वी पर ऐसा कुछ भी नहीं है, जो इस स्तोत्र का पाठ करने से सुलभ न हो । यह स्तोत्र मैंने तुम्हें सत्य कहा है । ॥ इति श्रीकमला स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

बुधवार, 28 अप्रैल 2021

कल्किस्तोत्रम्

कल्किस्तोत्रम्

श्रीगणेशाय नमः । सुशान्तोवाच । जय हरेऽमराधीशसेवितं तव पदांबुजं भूरिभूषणम् । कुरु ममाग्रतः साधुसत्कृतं त्यज महामते मोहमात्मनः ॥ १॥ तव वपुर्जगद्रूपसम्पदा विरचितं सतां मानसे स्थितम् । रतिपतेर्मनो मोहदायकं कुरु विचेष्टितं कामलंपटम् ॥ २॥ तव यशोजगच्छोकनाशकं मृदुकथामृतं प्रीतिदायकम् । स्मितसुधोक्षितं चन्द्रवन्मुखं तव करोत्यलं लोकमङ्गलम् ॥ ३॥ मम पतिस्त्वयं सर्वदुर्जयो यदि तवाप्रियं कर्मणाऽऽचरेत् । जहि तदात्मनः शत्रुमुद्यतं कुरु कृपां न चेदीदृगीश्वरः ॥ ४॥ महदहंयुतं पञ्चमात्रया प्रकृतिजायया निर्मितं वपुः । तव निरीक्षणाल्लीलया जगत्स्थितिलयोदयं ब्रह्मकल्पितम् ॥ ५॥ भूवियन्मरुद्वारितेजसां राशिभिः शरीरेन्द्रियाश्रितैः । त्रिगुणया स्वया मायया विभो कुरु कृपां भवत्सेवनार्थिनाम् ॥ ६॥ तव गुणालयं नाम पावनं कलिमलापहं कीर्तयन्ति ये । भवभयक्षयं तापतापिता मुहुरहो जनाः संसरन्ति नो ॥ ७॥ तव जनुः सतां मानवर्धनं जिनकुलक्षयं देवपालकम् । कृतयुगार्पकं धर्मपूरकं कलिकुलान्तकं शं तनोतु मे ॥ ८॥ मम गृहं पतिपुत्रनप्तृकं गजरथैर्ध्वजैश्चामरैर्धनैः । मणिवरासनं सत्कृतिं विना तव पदाब्जयोः शोभयन्ति किम् ॥ ९॥ तव जगद्वपुः सुन्दरस्मितं मुखमनिन्दितं सुन्दरत्विषम् । यदि न मे प्रियं वल्गुचेष्टितं परिकरोत्यहो मृत्युरस्त्विह ॥ १०॥ हयवर भयहर करहरशरणखरतरवरशर दशबलदमन । जय हतपरभरभववरनाशन शशधर शतसमरसभरमदन ॥ ११॥ इति श्रीकल्किपुराणे सुशान्ताकृतं कल्किस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

 

मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

कल्किस्तवः अथवा दशावतारस्तवः

कल्किस्तवः अथवा दशावतारस्तवः

श्रीगणेशाय नमः । राजान ऊचुः । गद्यानि । जय जय निजमायया कल्पिताशेषविशेषकल्पनापरिणामजलाप्लुतलोकत्रयोपकारणमाकलयमनुमनिशम्य पूरितमविजनाविजनाविर्भूतमहामीनशरीर त्वं निजकृतधर्मसेतुसंरक्षणकृतावतारः ॥ १॥ पुनरिह जलधिमथनादृतदेवदानवगणानां मन्दराचलानयनव्याकुलितानां साहाय्येनादृतचित्तः । पर्वतोद्धरणामृतप्राशनरचनावतारः कूर्माकारः प्रसीद परेश त्वं दीननृपाणाम् ॥ २॥ पुनरिह दितिजबलपरिलंघितवासवसूदनादृत जितभुवनपराक्रमहिरण्याक्षनिधन पृथिव्युद्धरणसङ्कल्पाभिनिवेशेन धृतकोलावतार पाहि नः ॥ ३॥ पुनरिह त्रिभुवनजयिनो महाबलपराक्रमस्य हिरण्यकश्यपोरर्दितानां देववराणां भयभीतानां कल्याणाय दितिसुतवधप्रेप्सुर्ब्रह्मणो वरदानादवध्यस्त न शस्त्रास्त्रारात्रिदिवास्वर्गमर्त्यपातालतले देवगन्धर्वकिन्नरनरनागैरिति विचिन्त्य नरहरिरूपेण नखाग्रभिन्नोरुं दष्टदन्तच्छदं त्यक्तासुं कृतवानसि ॥ ४॥ पुनरिह त्रिजगज्जयिनो बलेः सत्रे शक्रानुजो बटुवामनो दैत्यसंमोहनाय त्रिपदभूमियाञ्चाच्छलेन विश्वकायस्तदुत्सृष्टजलसंस्पर्शविवृद्धमनोऽभिलाषस्त्वं भूतले बलेर्दौवारिकत्वमङ्गीकृतमुचितं दानफलम् ॥ ५॥ पुनरिह हैहयादिनृपाणाममितबलपराक्रमाणां नानामदोल्लंघितमर्यादावर्त्मनां निधनाय भृगुवंशजो जामदग्न्यः पितृहोमधेनुहरणप्रवृद्धमन्युवशात् त्रिःसप्तकृत्वो निःक्षत्रियां पृथिवीं कृतवानसि परशुरामावतारः ॥ ६॥ पुनरिह पुलस्त्यवंशावतंसस्य विश्रवसः पुत्रस्य निशाचरस्य रावणस्य लोकत्रयतापनस्य निधनमुररीकृत्य रविकुलजातदशरथात्मजो विश्वामित्रादस्त्राण्युपलभ्य वने सीताहरणवशात्प्रवृद्धमन्युनाऽम्बुधिंवानरैर्निबध्य सगणं दशकन्धरं हतवानसि रामावतारः ॥ ७॥ पुनरिह यदुकुलजलधिकलानिधिः सकलसुरगणसेवितपादारविन्दद्वन्द्वो विविधदानवदैत्यदलनलोकत्रयदुरिततापनो वसुदेवात्मजो कृष्णावतारो बलभद्रस्त्वमसि ॥ ८॥ पुनरिह विधिकृतवेदधर्मानुष्ठानविहितनानादर्शनसंघृणः संसारकर्मत्यागविधिना ब्रह्माभासविलासचातुरीं प्रकृतिविमाननामसम्पादयन् बुद्धावतारस्त्वमसि ॥ ९॥ अधुना कलिकुलनाशावतारो बौद्धपाषण्डम्लेंच्छादीनां च वेदधर्मसेतुपरिपालनाय कृतावतारः कल्किरूपेणास्मान् स्त्रीत्वनिरयादुद्धृतवानसि तवानुकम्पां किमिह कथयाम् ॥ १०॥ क्व ते ब्रह्मादीनामविजितविलासावतरणं क्व नः कामवामाकलितमृगतृष्णार्तमनसाम् सुदुष्प्राप्यं युष्मच्चरणजलजालोकनमिदं कृपापारावारः प्रमुदितदृशाऽऽश्वासय निजान् ॥ ११॥ इति श्रीकल्किपुराणेऽनुभागवते भविष्ये द्वितीयांशे नृपकृतकल्किस्तव सम्पूर्णः ॥

 

सोमवार, 26 अप्रैल 2021

कनकधारास्तोत्रम्

 

कनकधारास्तोत्रम्

वन्दे वन्दारुमन्दारमिन्दिरानन्दकन्दलम् । अमन्दानन्दसन्दोहबन्धुरं सिन्धुराननम् ॥ अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम् । अङ्गीकृताखिलविभूतिरपाङ्गलीला माङ्गल्यदास्तु मम मङ्गळदेवतायाः ॥ १॥ मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि । माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः ॥ २॥ आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दं आनन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम् । आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः ॥ ३॥ बाह्वन्तरे मधुजितः श्रितकौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति । कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः ॥ ४॥ कालाम्बुदाळिललितोरसि कैटभारेः धाराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव । मातुस्समस्तजगतां महनीयमूर्तिः भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः ॥ ५॥ प्राप्तं पदं प्रथमतः खलु यत्प्रभावान्- माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन । मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं मन्दालसं च मकरालयकन्यकायाः ॥ ६॥ विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षं आनन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि । ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्ध- मिन्दीवरोदरसहोदरमिन्दिरायाः ॥ ७॥ इष्टा विशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते । दृष्टिः प्रहृष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ॥ ८॥ दद्याद्दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारां अस्मिन्नकिञ्चनविहङ्गशिशौ विषण्णे । दुष्कर्मघर्ममपनीय चिराय दूरं नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाहः ॥ ९॥ धीर्देवतेति गरुडध्वजसुन्दरीति var गरुडध्वजभामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति । सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै ॥ १०॥ श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै । शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै ॥ ११॥ नमोऽस्तु नालीकनिभाननायै नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूम्यै । नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै ॥ १२॥ नमोऽस्तु हेमाम्बुजपीठिकायै नमोऽस्तु भूमण्डलनायिकायै । नमोऽस्तु देवादिदयापरायै नमोऽस्तु शार्ङ्गायुधवल्लभायै ॥ १३॥ नमोऽस्तु देव्यै भृगुनन्दनायै नमोऽस्तु विष्णोरुरसि स्थितायै । नमोऽस्तु लक्ष्म्यै कमलालयायै नमोऽस्तु दामोदरवल्लभायै ॥ १४॥ नमोऽस्तु कान्त्यै कमलेक्षणायै नमोऽस्तु भूत्यै भुवनप्रसूत्यै । नमोऽस्तु देवादिभिरर्चितायै नमोऽस्तु नन्दात्मजवल्लभायै ॥ १५॥ सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि । var सरोरुहाणि त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये ॥ १६॥ यत्कटाक्षसमुपासनाविधिः सेवकस्य सकलार्थसम्पदः । सन्तनोति वचनाङ्गमानसैः त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे ॥ १७॥ सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवळतमांशुकगन्धमाल्यशोभे । भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम् ॥ १८॥ दिग्घस्तिभिः कनककुम्भमुखावसृष्ट स्वर्वाहिनी विमलचारुजलप्लुताङ्गीम् । प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष लोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम् ॥ १९॥ कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूरतरङ्गितैरपाङ्गैः । अवलोकय मामकिञ्चनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः ॥ २०॥ देवि प्रसीद जगदीश्वरि लोकमातः कल्यानगात्रि कमलेक्षणजीवनाथे । दारिद्र्यभीतिहृदयं शरणागतं मां आलोकय प्रतिदिनं सदयैरपाङ्गैः ॥ २१॥ स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम् । गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते भुवि बुधभाविताशयाः ॥ २२॥ ॥ इति श्रीमद् शङ्कराचार्यकृत श्री कनकधारास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥ अयं स्तवः स्वामिना शङ्करभगवत्पादेन ब्रह्मव्रतस्थेन कालटिनाम्नि स्वग्राम एवाकिञ्चन्यपरिखिन्नाया द्विजगृहिण्या निर्धनत्वमार्जनाय निरमायि । तेन स्तवेन प्रीता लक्ष्मीर्विप्रं विपुलधनदानेनाप्रीणयदिति शञ्करविजयतः समाधिगम्यते, ``स मुनिर्मुरजित्कुटुम्बिनीं पदचित्रैर्नवनीत कोमलैः ंअधुरैरूपतस्थिवां- स्तवैः'' इत्यादिना ॥ एते श्रीमन्मातुरभ्यर्थनया स्तवमेतमतनिषतेति कालटिग्रामनिकटवर्तिनां विदुषां मतम् । तदारभ्य कर्णाकर्णिकया तथानुश्रुतम् ।

एक खतरनाक साजिश की सच्चाई

  🔸“संयुक्त परिवार को तोड़कर उपभोक्ता बनाया गया भारत: एक खतरनाक साजिश की सच्चाई* ⚡“जब परिवार टूटते हैं, तभी बाजार फलते हैं” — ये सिर्फ विच...