सोमवार, 4 नवंबर 2024

रुद्राष्टकम्

 रुद्राष्टकम भगवान शिव की अभिव्यक्ति को समर्पित एक अष्टकम या अष्टक (आठ छंदों वाली प्रार्थना) है. इस महान मंत्र की रचना स्वामी तुलसीदास द्वारा 15वीं शताब्दी में की गई थी. रुद्र को भगवान शिव की भयावह अभिव्यक्ति के रूप में पूजा जाता है, जिनसे हमेशा भयभीत रहना चाहिए. भगवान महाकाल को प्रसन्न करने के लिए स्तुति का यह आठ गुना भजन गाया गया था. जो भी इसका पाठ करेगा, उस पर भगवान शिव अति प्रसन्न होंगे.


मानस के अनुसार भगवान श्रीराम ने रावण जैसे भयंकर शत्रु पर विजय पाने के लिए रामेशवरम में शिवलिंग की स्थापना कर रूद्राष्टकम स्तुति का श्रद्धापूर्वक पाठ किया था। इस पाठ के कारण ही उन्हें शिवजी की कृपा प्राप्त होकर युद्ध में विजयी मिली थी।


रुद्राष्टकम् 


नमामीशमीशान निर्वाणरूपं

विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं ।

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं

चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं ॥1॥


हे ईशान ! मैं मुक्तिस्वरूप, समर्थ, सर्वव्यापक, ब्रह्म, वेदस्वरूप, निज स्वरूप में स्थित, निर्गुण, निर्विकल्प, निरीह, अनन्त ज्ञानमय और आकाश के समान सर्वत्र व्याप्त प्रभु को प्रणाम करता हूँ ॥1॥


निराकारमोंकारमूलं तुरीयं

गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं ।

करालं महाकाल कालं कृपालं

गुणागार संसारपारं नतोऽहं ॥2॥


जो निराकार हैं, ओंकाररूप आदिकारण हैं, तुरीय हैं, वाणी, बुद्धि और इन्द्रियों के पथ से परे हैं, कैलासनाथ हैं, विकराल और महाकाल के भी काल, कृपाल, गुणों के आगार और संसार से तारने वाले हैं, उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥2॥


तुषाराद्रि सङ्काश गौरं गभीरं

मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं ।

स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा

लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा ॥3॥


जो हिमालय के समान श्वेतवर्ण, गम्भीर और करोड़ों कामदेवों के समान कान्तिमान शरीर वाले हैं, जिनके मस्तक पर मनोहर गंगाजी लहरा रही हैं, भाल पर बाल-चन्द्रमा सुशोभित होते हैं और गले में सर्पों की माला शोभा देती है ॥3॥


चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं

प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं ।

मृगाधीशचर्माम्बरं मुंडमालं

प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥4॥


जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, जिनके नेत्र एवं भृकुटि सुन्दर और विशाल हैं, जिनका मुख प्रसन्न और कण्ठ नीला है, जो बड़े ही दयालु हैं, जो बाघ के चर्म का वस्त्र और मुण्डों की माला पहनते हैं, उन सर्वाधीश्वर प्रियतम शिव का मैं भजन करता हूँ ॥4॥


प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं

अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं ।

त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं

भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं ॥5॥


जो प्रचण्ड, सर्वश्रेष्ठ, प्रगल्भ, परमेश्वर, पूर्ण, अजन्मा, कोटि सूर्य के समान प्रकाशमान, त्रिभुवन के शूलनाशक और हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले हैं, उन भावगम्य भवानीपति का मैं भजन करता हूँ ॥5॥


कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी

सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।

चिदानंद संदोह मोहापहारी

प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥6॥


हे प्रभो ! आप कलारहित, कल्याणकारी और कल्प का अंत करने वाले हैं। आप सर्वदा सत्पुरुषों को आनन्द देते हैं, आपने त्रिपुरासुर का नाश किया था, आप मोहनाशक और ज्ञानानन्दघन परमेश्वर हैं, कामदेव के शत्रु हैं, आप मुझ पर प्रसन्न हों, प्रसन्न हों ॥6॥


न यावद् उमानाथ पादारविन्दं

भजंतीह लोके परे वा नराणां ।

न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं

प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं ॥7॥


मनुष्य जब तक उमाकान्त महादेव जी के चरणारविन्दों का भजन नहीं करते, उन्हें इहलोक या परलोक में कभी सुख तथा शान्ति की प्राप्ति नहीं होती और न उनका सन्ताप ही दूर होता है। हे समस्त भूतों के निवास स्थान भगवान शिव ! आप मुझ पर प्रसन्न हों ॥7॥


न जानामि योगं जपं नैव पूजां

नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं ।

जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं

प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ॥8॥


हे प्रभो ! हे शम्भो ! हे ईश ! मैं योग, जप और पूजा कुछ भी नहीं जानता, हे शम्भो ! मैं सदा-सर्वदा आपको नमस्कार करता हूँ। जरा, जन्म और दुःख समूह से सन्तप्त होते हुए मुझ दुःखी की दुःख से रक्षा कीजिये ॥8॥


रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।

ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥9॥


जो मनुष्य भगवान शंकर की तुष्टि के लिये ब्राह्मण द्वारा कहे हुए इस रुद्राष्टक का भक्तिपूर्वक पाठ करते हैं, उन पर शंकर जी प्रसन्न होते हैं ॥9॥


नम: शिवाय ।





रुद्राष्टकम् 


नमामीशमीशान निर्वाणरूपं

विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं ।

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं

चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं ॥1॥


निराकारमोंकारमूलं तुरीयं

गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं ।

करालं महाकाल कालं कृपालं

गुणागार संसारपारं नतोऽहं ॥2॥


तुषाराद्रि सङ्काश गौरं गभीरं

मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं ।

स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा

लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा ॥3॥


चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं

प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं ।

मृगाधीशचर्माम्बरं मुंडमालं

प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥4॥


प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं

अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं ।

त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं

भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं ॥5॥


कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी

सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।

चिदानंद संदोह मोहापहारी

प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥6॥


न यावद् उमानाथ पादारविन्दं

भजंतीह लोके परे वा नराणां ।

न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं

प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं ॥7॥


न जानामि योगं जपं नैव पूजां

नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं ।

जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं

प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ॥8॥


रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।

ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥9॥



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शुक्रवार, 1 नवंबर 2024

16 सिद्धियाँ विवरण

 16 सिद्धियाँ विवरण

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1. वाक् सिद्धि : - 👇


जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, वह वचन कभी व्यर्थ न जाये, प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो, वाक् सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप अरु वरदान देने की क्षमता होती हैं..


 2. दिव्य दृष्टि सिद्धि:-👇


 दिव्यदृष्टि का तात्पर्य हैं कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया जाये, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ जाये, आगे क्या कार्य करना हैं, कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं, इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्यदृष्टियुक्त महापुरुष बन जाता हैं.


3. प्रज्ञा सिद्धि : -👇


प्रज्ञा का तात्पर्य यह हें की मेधा अर्थात स्मरणशक्ति, बुद्धि, ज्ञान इत्यादि! ज्ञान के सम्बंधित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेता हें वह प्रज्ञावान कहलाता हें! जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित ज्ञान के साथ-साथ भीतर एक चेतनापुंज जाग्रत रहता हें.


 4. दूरश्रवण सिद्धि :-👇


 इसका तात्पर्य यह हैं की भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता.


 5. जलगमन सिद्धि:-👇


 यह सिद्धि निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं, इस सिद्धि को प्राप्त योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता हैं मानों धरती पर गमन कर रहा हो.


 6. वायुगमन  सिद्धि :-👇


इसका तात्पर्य हैं अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल जा सकता हैं.


 7. अदृश्यकरण सिद्धि:-👇


 अपने स्थूलशरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर अपने आप को अदृश्य कर देना! जिससे स्वयं की इच्छा बिना दूसरा उसे देख ही नहीं पाता हैं.


 8. विषोका सिद्धि :-👇


 इसका तात्पर्य हैं कि अनेक रूपों में अपने आपको परिवर्तित कर लेना! एक स्थान पर अलग रूप हैं, दूसरे स्थान पर अलग रूप हैं.


 9. देवक्रियानुदर्शन सिद्धि :-👇


 इस क्रिया का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता हैं! उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बनाकर उचित सहयोग लिया जा सकता हैं.


10. कायाकल्प सिद्धि:-👇


 कायाकल्प का तात्पर्य हैं शरीर परिवर्तन! समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती हैं, लेकिन कायाकल्प कला से युक्त व्यक्ति सदैव रोगमुक्त और यौवनवान ही बना रहता हैं.


11. सम्मोहन सिद्धि :-👇


 सम्मोहन का तात्पर्य हैं कि सभी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया! इस कला को पूर्ण व्यक्ति मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी, प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता हैं.


 12. गुरुत्व सिद्धि:-👇


 गुरुत्व का तात्पर्य हैं गरिमावान! जिस व्यक्ति में गरिमा होती हैं, ज्ञान का भंडार होता हैं, और देने की क्षमता होती हैं, उसे गुरु कहा जाता हैं! और भगवन कृष्ण को तो जगद्गुरु कहा गया हैं.


 13. पूर्ण पुरुषत्व सिद्धि:-👇


 इसका तात्पर्य हैं अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं बलवान होना! श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान था! जिस के कारन से उन्होंने ब्रजभूमि में राक्षसों का संहार किया! तदनंतर कंस का संहार करते हुए पुरे जीवन शत्रुओं का संहार कर आर्यभूमि में पुनः धर्म की स्थापना की.


 14. सर्वगुण संपन्न सिद्धि:-👇


  जितने भी संसार में उदात्त गुण होते हैं, सभी कुछ उस व्यक्ति में समाहित होते हैं, जैसे – दया, दृढ़ता, प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता, इत्यादि! इन्हीं गुणों के कारण वह सारे विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय मन जाता हैं, और इसी प्रकार यह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता हैं.


 15. इच्छा मृत्यु सिद्धि :-👇


 इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता हैं, काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता हैं.


16. अनुर्मि सिद्धि:-👇


 अनुर्मि का अर्थ हैं. जिस पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और भावना-दुर्भावना का कोई प्रभाव न हो.

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मंगलवार, 29 अक्टूबर 2024

दिवाली की संपूर्ण पूजा विधि मंत्र सहित, ऐसे करें दिवली पर लक्ष्मी पूजन

 दिवाली की संपूर्ण पूजा विधि मंत्र सहित, ऐसे करें दिवली पर लक्ष्मी पूजन


1:-दिवाली पूजन के लिए जरूरी सामग्री

कलावा, रोली, सिंदूर, एक नारियल, अक्षत, लाल वस्त्र , फूल, पांच सुपारी, लौंग, पान के पत्ते, घी, कलश, कलश हेतु आम का पल्लव, चौकी, समिधा, हवन कुण्ड, हवन सामग्री, कमल गट्टे, पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद, गंगाजल), फल, बताशे, मिठाईयां, पूजा में बैठने हेतु आसन, हल्दी, अगरबत्ती, कुमकुम, इत्र, दीपक, रूई, आरती की थाली। कुशा, रक्त चंदनद, श्रीखंड चंदन।


2:-दिवाली पूजा की इस तरह करें तैयारी

पूजन शुरू करने से पहले गणेश लक्ष्मी के विराजने के स्थान पर रंगोली बनाएं। जिस चौकी पर पूजन कर रहे हैं उसके चारों कोने पर एक-एक दीपक जलाएं। इसके बाद प्रतिमा स्थापित करने वाले स्थान पर कच्चे चावल रखें फिर गणेश और लक्ष्मी की प्रतिमा को विराजमान करें। इस दिन लक्ष्मी, गणेश के साथ कुबेर, सरस्वती एवं काली माता की पूजा का भी विधान है अगर इनकी मूर्ति हो तो उन्हें भी पूजन स्थल पर विराजमान करें। ऐसी मान्यता है कि भगवान विष्णु की पूजा के बिना देवी लक्ष्मी की पूजा अधूरी रहती है। इसलिए भगवान विष्ण के बायीं ओर रखकर देवी लक्ष्मी की पूजा करें।


3:-दीवाली पूजन विधि और मंत्र:

दिवाली पूजन आरंभ करें पवित्री मंत्र सेः “ऊं अपवित्र: पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपिवा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:॥” इन मंत्रों से अपने ऊपर तथा आसन और पूजन सामग्री पर 3-3 बार कुशा या पुष्पादि से छींटें लगाएं। आचमन करें – ऊं केशवाय नम: ऊं माधवाय नम:, ऊं नारायणाय नम:, फिर हाथ धोएं। इस मंत्र से आसन शुद्ध करें- ऊं पृथ्वी त्वयाधृता लोका देवि त्यवं विष्णुनाधृता। त्वं च धारयमां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥ अब चंदन लगाएं। अनामिका उंगली से श्रीखंड चंदन लगाते हुए मंत्र बोलें चन्दनस्य महत्पुण्यम् पवित्रं पापनाशनम्, आपदां हरते नित्यम् लक्ष्मी तिष्ठ सर्वदा।दीपावली पूजन के लिए 


4:-दीपावली पूजन के लिए संकल्प मंत्रः

बिना संकल्प के पूजन पूर्ण नहीं होता इसलिए संकल्प करें। पुष्प, फल, सुपारी, पान, चांदी का सिक्का, नारियल (पानी वाला), मिठाई, मेवा, आदि सभी सामग्री थोड़ी-थोड़ी मात्रा में लेकर संकल्प मंत्र बोलें- ऊं विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:, ऊं तत्सदद्य श्री पुराणपुरुषोत्तमस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय पराद्र्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे सप्तमे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बुद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मवर्तैकदेशे पुण्य (अपने नगर/गांव का नाम लें) क्षेत्रे बौद्धावतारे वीर विक्रमादित्यनृपते : 2070 तमेऽब्दे पिंगल नाम संवत्सरे दक्षिणायने हेमंत ऋतो महामंगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमे कार्तिक मासे कृष्ण पक्षे अमावस तिथौ रविवासरे हस्त नक्षत्रे आयुष्मान योगे चतुष्पद करणादिसत्सुशुभे योग (गोत्र का नाम लें) गोत्रोत्पन्नोऽहं अमुकनामा (अपना नाम लें) सकलपापक्षयपूर्वकं सर्वारिष्ट शांतिनिमित्तं सर्वमंगलकामनया– श्रुतिस्मृत्यो- क्तफलप्राप्तर्थं— निमित्त महागणपति नवग्रहप्रणव सहितं कुलदेवतानां पूजनसहितं स्थिर लक्ष्मी महालक्ष्मी देवी पूजन निमित्तं एतत्सर्वं शुभ-पूजोपचारविधि सम्पादयिष्ये।


5:-कलश की पूजा करेंः

कलश पर मौली बांधकर ऊपर आम का पल्लव रखें। कलश में सुपारी, दूर्वा, अक्षत, सिक्का रखें। नारियल पर वस्त्र लपेटकर कलश पर रखें। हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर वरुण देवता का कलश में आह्वान करें। ओ३म् त्तत्वायामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदाशास्ते यजमानो हविभि:। अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मान आयु: प्रमोषी:। (अस्मिन कलशे वरुणं सांग सपरिवारं सायुध सशक्तिकमावाहयामि, ओ३म्भूर्भुव: स्व:भो वरुण इहागच्छ इहतिष्ठ। स्थापयामि पूजयामि॥)


6:-दीपावली गणेश पूजा मंत्र विधिः

नियमानुसार सबसे पहले गणेश जी की पूजा करें। हाथ में फूल लेकर गणेश जी का ध्यान करें। मंत्र बोलें- गजाननम्भूतगणादिसेवितं कपित्थ जम्बू फलचारुभक्षणम्। उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्। आवाहन मंत्र- हाथ में अक्षत लेकर बोलें -ऊं गं गणपतये इहागच्छ इह तिष्ठ।। अक्षत पात्र में अक्षत छोड़ें।


7:-पद्य, आर्घ्य, स्नान, आचमन मंत्र – एतानि पाद्याद्याचमनीय-स्नानीयं, पुनराचमनीयम् ऊं गं गणपतये नम:। इस मंत्र से चंदन लगाएं: इदम् रक्त चंदनम् लेपनम् ऊं गं गणपतये नम:, इसके बाद- इदम् श्रीखंड चंदनम् बोलकर श्रीखंड चंदन लगाएं। अब सिन्दूर लगाएं “इदं सिन्दूराभरणं लेपनम् ऊं गं गणपतये नम:। दूर्वा और विल्बपत्र भी गणेश जी को चढ़ाएं। गणेश जी को लाल वस्त्र पहनाएं। इदं रक्त वस्त्रं ऊं गं गणपतये समर्पयामि। गणेश जी को प्रसाद चढ़ाएं: इदं नानाविधि नैवेद्यानि ऊं गं गणपतये समर्पयामि:। मिठाई अर्पित करने के लिए मंत्र: – इदं शर्करा घृत युक्त नैवेद्यं ऊं गं गणपतये समर्पयामि:। अब आचमन कराएं। इदं आचमनयं ऊं गं गणपतये नम:। इसके बाद पान सुपारी दें: इदं ताम्बूल पुगीफल समायुक्तं ऊं गं गणपतये समर्पयामि:। अब एक फूल लेकर गणपति पर चढ़ाएं और बोलें: एष: पुष्पान्जलि ऊं गं गणपतये नम:। कलश पूजन के बाद कुबेर और इंद्र सहित सभी देवी देवताओं की पूजा गणेश पूजन की तरह करें। बस गणेश जी के स्थान पर संबंधित देवी-देवताओं के नाम लें।


8:-दीपावली लक्ष्मी पूजन विधि मंत्र

सबसे पहले माता लक्ष्मी का ध्यान करेंः – ॐ या सा पद्मासनस्था, विपुल-कटि-तटी, पद्म-दलायताक्षी। गम्भीरावर्त-नाभिः, स्तन-भर-नमिता, शुभ्र-वस्त्रोत्तरीया।। लक्ष्मी दिव्यैर्गजेन्द्रैः। ज-खचितैः, स्नापिता हेम-कुम्भैः। नित्यं सा पद्म-हस्ता, मम वसतु गृहे, सर्व-मांगल्य-युक्ता।। अब हाथ में अक्षत लेकर बोलें “ॐ भूर्भुवः स्वः महालक्ष्मी, इहागच्छ इह तिष्ठ, एतानि पाद्याद्याचमनीय-स्नानीयं, पुनराचमनीयम्।” प्रतिष्ठा के बाद स्नान कराएं: ॐ मन्दाकिन्या समानीतैः, हेमाम्भोरुह-वासितैः स्नानं कुरुष्व देवेशि, सलिलं च सुगन्धिभिः।। ॐ लक्ष्म्यै नमः।। इदं रक्त चंदनम् लेपनम् से रक्त चंदन लगाएं। इदं सिन्दूराभरणं से सिन्दूर लगाएं। ‘ॐ मन्दार-पारिजाताद्यैः, अनेकैः कुसुमैः शुभैः। पूजयामि शिवे, भक्तया, कमलायै नमो नमः।। ॐ लक्ष्म्यै नमः, पुष्पाणि समर्पयामि।’इस मंत्र से पुष्प चढ़ाएं फिर माला पहनाएं। अब लक्ष्मी देवी को इदं रक्त वस्त्र समर्पयामि कहकर लाल वस्त्र पहनाएं।


9:-देवी लक्ष्मी की अंग पूजा मंत्र एवं विधि

बाएं हाथ में अक्षत लेकर दाएं हाथ से थोड़ा-थोड़ा अक्षत छोड़ते जाएं— ऊं चपलायै नम: पादौ पूजयामि ऊं चंचलायै नम: जानूं पूजयामि, ऊं कमलायै नम: कटि पूजयामि, ऊं कात्यायिन्यै नम: नाभि पूजयामि, ऊं जगन्मातरे नम: जठरं पूजयामि, ऊं विश्ववल्लभायै नम: वक्षस्थल पूजयामि, ऊं कमलवासिन्यै नम: भुजौ पूजयामि, ऊं कमल पत्राक्ष्य नम: नेत्रत्रयं पूजयामि, ऊं श्रियै नम: शिरं: पूजयामि। 


10:-अष्टसिद्धि पूजन मंत्र और विधि

अंग पूजन की भांति हाथ में अक्षत लेकर मंत्र बोलें। ऊं अणिम्ने नम:, ओं महिम्ने नम:, ऊं गरिम्णे नम:, ओं लघिम्ने नम:, ऊं प्राप्त्यै नम: ऊं प्राकाम्यै नम:, ऊं ईशितायै नम: ओं वशितायै नम:।


11:-अष्टलक्ष्मी पूजन मंत्र और विधि

अंग पूजन एवं अष्टसिद्धि पूजा की भांति हाथ में अक्षत लेकर मंत्रोच्चारण करें। ऊं आद्ये लक्ष्म्यै नम:, ओं विद्यालक्ष्म्यै नम:, ऊं सौभाग्य लक्ष्म्यै नम:, ओं अमृत लक्ष्म्यै नम:, ऊं लक्ष्म्यै नम:, ऊं सत्य लक्ष्म्यै नम:, ऊं भोगलक्ष्म्यै नम:, ऊं योग लक्ष्म्यै नम:


12:-प्रसाद अर्पित करने का मंत्र

” इदं नानाविधि नैवेद्यानि ऊं महालक्ष्मियै समर्पयामि” मंत्र से नैवैद्य अर्पित करें। मिठाई अर्पित करने के लिए मंत्र: “इदं शर्करा घृत समायुक्तं नैवेद्यं ऊं महालक्ष्मियै समर्पयामि” बालें। प्रसाद अर्पित करने के बाद आचमन कराएं। इदं आचमनयं ऊं महालक्ष्मियै नम:। इसके बाद पान सुपारी चढ़ाएं:- इदं ताम्बूल पुगीफल समायुक्तं ऊं महालक्ष्मियै समर्पयामि। अब एक फूल लेकर लक्ष्मी देवी पर चढ़ाएं और बोलें: एष: पुष्पान्जलि ऊं महालक्ष्मियै नम:।


लक्ष्मी देवी की पूजा के बाद भगवान विष्णु एवं शिव जी पूजा करने का विधान है। व्यापारी लोग गल्ले की पूजा करें। पूजन के बाद क्षमा प्रार्थना और आरती करें।


ॐ हर हर महादेव || जय श्री महाकाल || जय श्री राधे कृष्णा || ॐ नमः शिवाय || जय श्री राम || जय बजरंगबली || जय माता दी || 🙏🙏🌏💫🌈



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शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2024

श्री दुर्गा माँ के 108 नाम

 श्री दुर्गा माँ के 108 नाम (अर्थ सहित)

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ॐ अब्याज करुणा मूर्तये नमः 


1. सती- अग्नि में जल कर भी जीवित होने वाली

2. साध्वी- आशावादी

3. भवप्रीता- भगवान् शिव पर प्रीति रखने वाली

4. भवानी- ब्रह्मांड की निवास

5. भवमोचनी- संसार बंधनों से मुक्त करने वाली

6. आर्या- देवी

7. दुर्गा- अपराजेय

8. जया- विजयी

9. आद्य- शुरूआत की वास्तविकता

10. त्रिनेत्र- तीन आँखों वाली

11. शूलधारिणी- शूल धारण करने वाली

12. पिनाकधारिणी- शिव का त्रिशूल धारण करने वाली

13. चित्रा- सुरम्य, सुंदर

14. चण्डघण्टा- प्रचण्ड स्वर से घण्टा नाद करने वाली, घंटे की आवाज निकालने वाली

15. महातपा- भारी तपस्या करने वाली

16. मन - मनन- शक्ति

17. बुद्धि- सर्वज्ञाता

18. अहंकारा- अभिमान करने वाली

19. चित्तरूपा- वह जो सोच की अवस्था में है

20. चिता- मृत्युशय्या

21. चिति- चेतना

22. सर्वमन्त्रमयी- सभी मंत्रों का ज्ञान रखने वाली

23. सत्ता- सत्-स्वरूपा, जो सब से ऊपर है

24. सत्यानन्दस्वरूपिणी- अनन्त आनंद का रूप

25. अनन्ता- जिनके स्वरूप का कहीं अन्त नहीं

26. भाविनी- सबको उत्पन्न करने वाली, खूबसूरत औरत

27. भाव्या- भावना एवं ध्यान करने योग्य

28. भव्या- कल्याणरूपा, भव्यता के साथ

29. अभव्या - जिससे बढ़कर भव्य कुछ नहीं

30. सदागति- हमेशा गति में, मोक्ष दान

31. शाम्भवी- शिवप्रिया, शंभू की पत्नी

32. देवमाता- देवगण की माता

33. चिन्ता- चिन्ता

34. रत्नप्रिया- गहने से प्यार

35. सर्वविद्या- ज्ञान का निवास

36. दक्षकन्या- दक्ष की बेटी

37. दक्षयज्ञविनाशिनी- दक्ष के यज्ञ को रोकने वाली

38. अपर्णा- तपस्या के समय पत्ते को भी न खाने वाली

39. अनेकवर्णा- अनेक रंगों वाली

40. पाटला- लाल रंग वाली

41. पाटलावती- गुलाब के फूल या लाल परिधान या फूल धारण करने वाली

42. पट्टाम्बरपरीधाना- रेशमी वस्त्र पहनने वाली

43. कलामंजीरारंजिनी- पायल को धारण करके प्रसन्न रहने वाली

44. अमेय- जिसकी कोई सीमा नहीं

45. विक्रमा- असीम पराक्रमी

46. क्रूरा- दैत्यों के प्रति कठोर

47. सुन्दरी- सुंदर रूप वाली

48. सुरसुन्दरी- अत्यंत सुंदर

49. वनदुर्गा- जंगलों की देवी

50. मातंगी- मतंगा की देवी

51. मातंगमुनिपूजिता- बाबा मतंगा द्वारा पूजनीय

52. ब्राह्मी- भगवान ब्रह्मा की शक्ति

53. माहेश्वरी- प्रभु शिव की शक्ति

54. इंद्री- इन्द्र की शक्ति

55. कौमारी- किशोरी

56. वैष्णवी- अजेय

57. चामुण्डा- चंड और मुंड का नाश करने वाली

58. वाराही- वराह पर सवार होने वाली

59. लक्ष्मी- सौभाग्य की देवी

60. पुरुषाकृति- वह जो पुरुष धारण कर ले

61. विमिलौत्त्कार्शिनी- आनन्द प्रदान करने वाली

62. ज्ञाना- ज्ञान से भरी हुई

63. क्रिया- हर कार्य में होने वाली

64. नित्या- अनन्त

65. बुद्धिदा- ज्ञान देने वाली

66. बहुला- विभिन्न रूपों वाली

67. बहुलप्रेमा- सर्व प्रिय

68. सर्ववाहनवाहना- सभी वाहन पर विराजमान होने वाली

69. निशुम्भशुम्भहननी- शुम्भ, निशुम्भ का वध करने वाली

70. महिषासुरमर्दिनि- महिषासुर का वध करने वाली

71. मधुकैटभहंत्री- मधु व कैटभ का नाश करने वाली

72. चण्डमुण्ड विनाशिनि- चंड और मुंड का नाश करने वाली

73. सर्वासुरविनाशा- सभी राक्षसों का नाश करने वाली

74. सर्वदानवघातिनी- संहार के लिए शक्ति रखने वाली

75. सर्वशास्त्रमयी- सभी सिद्धांतों में निपुण

76. सत्या- सच्चाई

77. सर्वास्त्रधारिणी- सभी हथियारों धारण करने वाली

78. अनेकशस्त्रहस्ता- हाथों में कई हथियार धारण करने वाली

79. अनेकास्त्रधारिणी- अनेक हथियारों को धारण करने वाली

80. कुमारी- सुंदर किशोरी

81. एककन्या- कन्या

82. कैशोरी- जवान लड़की

83. युवती- नारी

84. यति- तपस्वी

85. अप्रौढा- जो कभी पुराना ना हो

86. प्रौढा- जो पुराना है

87. वृद्धमाता- शिथिल

88. बलप्रदा- शक्ति देने वाली

89. महोदरी- ब्रह्मांड को संभालने वाली

90. मुक्तकेशी- खुले बाल वाली

91. घोररूपा- एक भयंकर दृष्टिकोण वाली

92. महाबला- अपार शक्ति वाली

93. अग्निज्वाला- मार्मिक आग की तरह

94. रौद्रमुखी- विध्वंसक रुद्र की तरह भयंकर चेहरा

95. कालरात्रि- काले रंग वाली

96. तपस्विनी- तपस्या में लगे हुए

97. नारायणी- भगवान नारायण की विनाशकारी रूप

98. भद्रकाली- काली का भयंकर रूप

99. विष्णुमाया- भगवान विष्णु का जादू

100. जलोदरी- ब्रह्मांड में निवास करने वाली

101. शिवदूती- भगवान शिव की राजदूत

102. करली - हिंसक

103. अनन्ता- विनाश रहित

104. परमेश्वरी- प्रथम देवी

105. कात्यायनी- ऋषि कात्यायन द्वारा पूजनीय

106. सावित्री- सूर्य की बेटी

107. प्रत्यक्षा- वास्तविक

108. ब्रह्मवादिनी- वर्तमान में हर जगह वास करने वाली।


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मंगलवार, 1 अक्टूबर 2024

बुजर्ग हम से वैज्ञानिक रूप से बहुत आगे थे

 हमारे बुजर्ग हम से वैज्ञानिक रूप से बहुत आगे थे। थक हार कर वापिश उनकी ही राह पर वापिश आना पड़ रहा है।


1. मिट्टी के बर्तनों से स्टील और प्लास्टिक के बर्तनों तक और फिर कैंसर के खौफ से दोबारा मिट्टी के बर्तनों तक आ जाना।


2. अंगूठाछाप से दस्तखतों (Signatures) पर और फिर अंगूठाछाप (Thumb Scanning) पर आ जाना।


3. फटे हुए सादा कपड़ों से साफ सुथरे और प्रेस किए कपड़ों पर और फिर फैशन के नाम पर अपनी पैंटें फाड़ लेना।


4. सूती से टैरीलीन, टैरीकॉट और फिर वापस सूती पर आ जाना ।


5. जयादा मशक़्क़त वाली ज़िंदगी से घबरा कर पढ़ना लिखना और फिर IIM MBA करके आर्गेनिक खेती पर पसीने बहाना।


6.  क़ुदरती से प्रोसेसफ़ूड (Canned Food & packed juices) पर और फिर बीमारियों से बचने के लिए दोबारा क़ुदरती खानों पर आ जाना।


7. पुरानी और सादा चीज़ें इस्तेमाल ना करके ब्रांडेड (Branded) पर और फिर आखिरकार जी भर जाने पर पुरानी (Antiques) पर उतरना।


8. बच्चों को इंफेक्शन से डराकर मिट्टी में खेलने से रोकना और फिर घर में बंद करके फिसड्डी बनाना और होश आने पर दोबारा Immunity बढ़ाने के नाम पर मिट्टी से खिलाना....


9. गाँव, जंगल,   से डिस्को पब और चकाचौंध की और भागती हुई दुनियाँ की और से फिर मन की शाँति एवं स्वास्थ के लिये शहर से जँगल गाँव की ओर आना।


 इससे ये निष्कर्ष निकलता है कि टेक्नॉलॉजी ने  जो दिया उससे बेहतर तो प्रकृति ने पहले से दे रखा था।










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शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

ये 16 मंत्र है जो हर सनातनी को सीखना और बच्चों को सिखाना चाहिए

 ये 16 मंत्र है जो हर सनातनी को सीखना और बच्चों को सिखाना चाहिए` -


1. गायत्री मंत्र


ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम्

भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥


2. महादेव


ॐ त्रम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ,

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृ त्योर्मुक्षीय मामृतात् !!


3. श्री गणेश


वक्रतुंड महाकाय सूर्य कोटि समप्रभ

निर्विघ्नम कुरू मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा !!


4. श्री हरि विष्णु


मङ्गलम् भगवान विष्णुः मङ्गलम् गरुणध्वजः।

मङ्गलम् पुण्डरी काक्षः मङ्गलाय तनो हरिः॥


5. श्री ब्रह्मा जी


ॐ नमस्ते परमं ब्रह्मा नमस्ते परमात्ने ।

निर्गुणाय नमस्तुभ्यं सदुयाय नमो नम:।।


6. श्रीकृष्ण


वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्।

देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम।


7. श्रीराम


श्री रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे ।

रघुनाथाय नाथाय सीताया पतये नमः !


8. मां दुर्गा


ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी ।

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु‍ते।।


9. मां महालक्ष्मी


ॐ सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो धन धान्यः सुतान्वितः ।

मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयःॐ ।


10. मां सरस्वती


ॐ सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणि।

विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा ।।


11. मां महाकाली


ॐ क्रीं क्रीं क्रीं,

हलीं ह्रीं खं स्फोटय,

क्रीं क्रीं क्रीं फट !!


12. हनुमान जी


मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।

वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥


13. श्री शनिदेव


ॐ नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम ।

छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।।


14. श्री कार्तिकेय


ॐ शारवाना-भावाया नम: ज्ञानशक्तिधरा स्कंदा वल्लीईकल्याणा सुंदरा।

देवसेना मन: कांता कार्तिकेया नामोस्तुते।


15. काल भैरव जी


ॐ ह्रीं वां बटुकाये क्षौं क्षौं आपदुद्धाराणाये

कुरु कुरु बटुकाये ह्रीं बटुकाये स्वाहा।


16. भारत माता


नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे त्वया हिन्दुभूमे सुखद् वर्धितोऽहम्

महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे पतत्वेष काथो नमस्ते-नमस्ते।।




मंगलवार, 13 फ़रवरी 2024

सरस्वती को ही ज्ञान की देवी क्यों माना जाता है ?

 सरस्वती को ही ज्ञान की देवी क्यों माना जाता है ? 

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मां सरस्वती विद्या, संगीत और बुद्धि की देवी मानी गई हैं। देवीपुराण में सरस्वती को सावित्री, गावत्री, सती, लक्ष्मी और अंबिका नाम से संबोधित किया गया है। प्राचीन ग्रंथों में इन्हें वाग्देवी, वाणी, शारदा, भारती, वीणापाणि, विद्याधरी, सर्वमंगला आदि नामों से अलंकृत किया गया है। यह संपूर्ण संशयों का उच्छेद करने वाली तथा बोधस्वरूपिणी हैं। इनकी उपासना से सब प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती हैं। ये संगीतशास्त्र की भी अधिष्ठात्री देवी हैं। ताल, स्वर, लय, राग-रागिनी आदि का प्रादुर्भाव भी इन्हीं से हुआ है सात प्रकार के स्वरों द्वारा इनका स्मरण किया जाता है, इसलिए ये स्वरात्मिका कहलाती हैं। सप्तविध स्वरों का ज्ञान प्रदान करने के कारण ही इनका नाम सरस्वती है। वीणावादिनी सरस्वती संगीतमय आह्लादित जीवन जीने की प्रेरणावस्था है। वीणावादन शरीर यंत्र को एकदम स्थैर्य प्रदान करता है। इसमें शरीर का अंग-अंग परस्पर गुंथकर समाधि अवस्था को प्राप्त हो जाता है । साम-संगीत के सारे विधि-विधान एकमात्र वीणा में सन्निहित हैं। मार्कण्डेयपुराण में कहा गया है कि नागराज अश्वतारा और उसके भाई काम्बाल ने सरस्वती से संगीत की शिक्षा प्राप्त की थी। वाक् (वाणी) सत्त्वगुणी सरस्वती के रूप में प्रस्फुटित हुआ। सरस्वती के सभी अंग श्वेताभ हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि सरस्वती सत्त्वगुणी प्रतिभा स्वरूपा हैं। इसी गुण की उपलब्धि जीवन का अभीष्ट है। कमल गतिशीलता का प्रतीक है। यह निरपेक्ष जीवन जीने की प्रेरणा देता है। हाथ में पुस्तक सभी कुछ जान लेने, सभी कुछ समझ लेने की सीख देती है।


देवी भागवत के अनुसार, सरस्वती को ब्रह्मा, विष्णु, महेश द्वारा पूजा जाता है । जो सरस्वती की आराधना करता है, उसमें उनके वाहन हंस के नीर-क्षीर-विवेक गुण अपने आप ही आ जाते हैं। माघ माह में शुक्ल पक्ष की पंचमी को बसंत पंचमी पर्व मनाया जाता है, तब संपूर्ण विधि-विधान से मां सरस्वती का पूजन करने का विधान है। लेखक, कवि, संगीतकार सभी सरस्वती की प्रथम वंदना करते हैं। उनका विश्वास है कि इससे उनके भीतर रचना की ऊर्जा शक्ति उत्पन्न होती है। इसके अलावा मां सरस्वती देवी की पूजा से रोग, शोक, चिंताएं और मन का संचित विकार भी दूर होता है। इस प्रकार वीणाधारिणी, वीणावादिनी मां सरस्वती की पूजा-आराधना में मानव कल्याण का समग्र जीवनदर्शन निहित है। सतत् अध्ययन ही सरस्वती की सच्ची आराधना है। याज्ञवल्क्य वाणी स्तोत्र, वसिष्ठ स्तोत्र आदि में सरस्वती की पूजा उपासना का विस्तृत वर्णन है।


एक समय ब्रह्माजी ने सरस्वती से कहा- 'तुम किसी योग्य पुरुष के मुख में कवित्वशक्ति होकर निवास करो। उनकी आज्ञानुसार सरस्वती योग्य पात्र की तलाश में निकल पड़ी। पीड़ा से तड़प रहे एक पक्षी को देखकर जब महर्षि वाल्मीकि ने द्रवीभूत होकर यह श्लोक कहा


मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। 

यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥


वाल्मीकि की असाधारण योग्यता और प्रतिभा का परिचय पाकर सरस्वती ने उन्हीं के मुख में सर्वप्रथम प्रवेश किया। सरस्वती के कृपापात्र होकर महर्षि वाल्मीकि ही 'आदिकवि ' के नाम से संसार में विख्यात हुए।


रामायण के एक प्रसंग के अनुसार जब कुंभकर्ण की तपस्या से संतुष्ट होकर ब्रह्मा उसे वरदान देने पहुंचे, तो उन्होंने सोचा कि यह दुष्ट कुछ भी न करे, केवल बैठकर भोजन ही करे, तो यह संसार उजड जाएगा। अतः उन्होंने सरस्वती को बुलाया और कहा कि इसकी बुद्धि को भ्रमित कर दो। सरस्वती ने कुंभकर्ण की बुद्धि विकृत कर दी। परिणाम यह हुआ कि वह छह माह की नींद मांग बैठा। इस प्रकार कुंभकर्ण में सरस्वती का प्रवेश उसकी मृत्यु का कारण बना। मार्कण्डेयपुराण में एक कथा का उल्लेख मिलता है, जिसके अनुसार एक बार महर्षि जैमिनी विंध्य के

जंगलों से गुजर रहे थे वहां उन्होंने देखा कि कुछ पक्षी वेदपाठ कर रहे हैं। उनका उच्चारण शुद्ध और व्याकरण सम्मत था। शायद वे शापग्रस्त पक्षी थे, परंतु देवी सरस्वती की कृपा से वे वेदपाठ कर रहे थे...🚩🚩🚩🚩

गुरुवार, 25 जनवरी 2024

ପ୍ରଭୁ ଶ୍ରୀ ଜଗନ୍ନାଥ ମହାପ୍ରଭୁଙ୍କ ଛପନ ଭୋଗର ନାମ

*ପ୍ରଭୁ ଶ୍ରୀ ଜଗନ୍ନାଥ ମହାପ୍ରଭୁଙ୍କ ଛପନ ଭୋଗର ନାମ*


*❤️ଗୋପାଳ ବଲ୍ଲଭ-*


1. ନଦିଆପାତି 

2. ଗୁଆଲହୁଣି 

3. ଦହି ୧ଓଳି 

4. ବଲ୍ଲଭ 

5. ନଡ଼ିଆ କୋରା 

6. ଖୁଆମଣ୍ଡା 

7. କଦଳୀ 

8. ଗୁଦକେରା 


*❤️ ସକାଳ ଧୂପ*


9. ଆଦାପଚେଲି 

10. ମହାଦେଇ 

11. ତାଚି ଖେଚୁଡ଼ି 

12. ବଡ଼ି ପିଠା 

13. ନାଡ଼ି

14. କାକତୁଆ ଝିଲ୍ଲି 

15. ହଂଶକେଳି 

16. ଯେନାମଣି 

17. ମାଠପୁଳି 

18. ଏଣ୍ଡୁରୀ 

19. କଅଁଳ ପୁରି 

20. ଟାକୁଆ 

21. ଶାଗ 


*❤️ ମଧ୍ୟାହ୍ନ ଧୂପ*

 

22. ମାଠପୁଳି ବଡ଼ 

23. ଭାତ ପୁରି 

24. ଓରିଆ ଥାଳି 

25. ସୁଆରୀ 

26. ବଡା 

27. ମୁଗ ପାଇତି 

28. ମାରିଚି ମଣି 

29. ବଡ଼ି ଖିରିସା 

30. ବୁନ୍ଦିଆ

31. ସାତପତିଆ ପିଠା 

32. ଶାକରା 

33. ମାନ୍ଦୁଆ 

34. ପାଗ ଆରିସା 

35. ଖାଇରଚୂଳ 

36. କ୍ଷୀରି 

37. ତିପୁରି 

38. ବୁନ୍ଦି କ୍ଷୀରି 

39. ଛେନା ଖିରୀସା 

40. କାନିକା 


*❤️ ସନ୍ଧ୍ୟା ଧୂପ* 


41. ମାଠପୁଳି ପୁରୋଡ଼ାଶ 

42. ସୁଆର ପିଠା 

43. ଚକି ଅମାଲୁ 

44. କେଳି

45. ଖୁଦପିଠା 

46. ମଣ୍ଡା 

47. ଖୁରୁମା 

48. ବଡ଼ ସୁଆର ପିଠା 

49. ଥାଳି ଅର୍ନ୍ନ 


*❤️ବଡ ଶୃଙ୍ଗାର* 


50. ପାଞ୍ଚ ପଟିଆ ବିରି ପିଠା 

51. ଗଜା 

52. ମିଥାପଖାଳ 

53. ସୁଗନ୍ଧ ପଖାଳ 

54. ପରିଯାତକ

55. ଦହି ପଖାଳ 

56. ଚଡେଇ, ନଦା, ପରଖ ଘିଅ


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शनिवार, 20 जनवरी 2024

ପୌଷ ପୁତ୍ରଦା ଏକାଦଶୀ

 ⭕‼️⭕*ପୌଷ ପୁତ୍ରଦା ଏକାଦଶୀ *⭕‼️⭕

ॐ अब्याज करुणा मूर्तये नमः 

         ପ୍ରତିବର୍ଷ ପୌଷମାସ ଶୁକ୍ଳପକ୍ଷରେ ଯେଉଁ ଏକାଦଶୀ ପଡେ ତାହାକୁ ପୁତ୍ରଦା ଏକାଦଶୀ କୁହାଯାଏ । 


ପୁତ୍ରଦା ଏକାଦଶୀରେ ନାମମନ୍ତ୍ର ଜପ କରିବା ସହ ଶ୍ରୀହରିଙ୍କୁ ପୂଜାର୍ଚ୍ଚନା କରାଯାଇଥାଏ । ଏକାଦଶୀ ତିଥିରେ ଦୀପଦାନ ସହ ସମସ୍ତ ଫଳ ପୂଜାକରିବା ବିଧାନ ରହିଛି । ଭଗବାନଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣ ଧର୍ମରାଜ ଯୁଧିଷ୍ଠିରଙ୍କୁ ଏହି ବ୍ରତର ମହତ୍ତ୍ୱକୁ ବ୍ୟାଖ୍ୟା କରି କହିଥିଲେ .ଏହି ତିଥିର ଅଧିଦେବତା ହେଉଛନ୍ତି ଭଗବାନ ନାରାୟଣ । ଏହି ତିଥିରେ ସମସ୍ତ ପାପନାଶ ହୋଇଥାଏ I


               ପୂର୍ବକାଳରେ ଭଦ୍ରାବତୀପୁରୀ ରାଜା ସୁକେତୁମାନ୍ ଶାସନ କରୁଥିଲେ । ତାଙ୍କର କୌଣସି ସନ୍ତାନ ନଥିଲା ଏହି କାରଣରୁ ରାଜା ଓ ରାଣୀ ଚମ୍ପା ଚିନ୍ତାରେ ରହୁଥିଲେ । ଦିନେ ରାଜା ରାଜ ପରିବାରର କୌଣସି ସଦସ୍ୟଙ୍କୁ ନ ଜଣାଇ ବନ୍ୟ ଭ୍ରମଣ କରିବା ପାଇଁ ବାହାରିଲେ । ରାଜା ବନର ଶୋଭାକୁ ଦେଖୁ ଦେଖୁ ଦ୍ୱିପ୍ରହର ହୋଇଗଲା । ରାଜା ଭୋକ ଶୋଷରେ ଆଉଟୁ ପାଉଟୁ ହୋଇ ଖାଦ୍ୟ ସଂଗ୍ରହ ପାଇଁ ଖୋଜି ବୁଲିଲେ । ଶେଷରେ ଏକ ସରୋବର ଓ ସରୋବର ତଟରେ ଅନେକ ମୁନିଋଷିମାନଙ୍କର ଆଶ୍ରମ ସ୍ଥଳୀ ରହିଥିବାର ଦେଖିଲେ । ଏହା ରାଜାଙ୍କ ପାଇଁ ସୌଭାଗ୍ୟ ଥିଲା । ସେ ତତ୍‌କ୍ଷଣାତ ଘୋଡା ଉପରେ ବସି ସରୋବର ନିକଟରେ ପହଞ୍ଚି ସମସ୍ତ ମୁନିଋଷିମାନଙ୍କୁ ବନ୍ଦନା କରିବାକୁ ଲାଗିଲେ । ତାଙ୍କର ବନ୍ଦନାରେ ମୁନିଋଷିମାନେ ପ୍ରସନ୍ନ ହେଲେ । ରାଜା ମୁନିମାନଙ୍କୁ ଦେଖି ପଚାରିଲେ ଆପଣମାନେ କିଏ ? ଆପଣଙ୍କ ନାମ କ’ଣ ତଥା ଆପଣମାନେ ଏଠାରେ ଏକତ୍ର ହୋଇଛନ୍ତି କାହିଁକି ? ମୁନି କହିଲେ – ଆମେ ସମସ୍ତେ ବିଶ୍ୱେଦେବ । ସ୍ନାନ କରିବାକୁ ଆସିଛୁ । ମାଘମାସ ନିକଟରେ ଆସୁଛି । ଆଜିଠାରୁ ପାଞ୍ଚଦିନ ଧରି ମାଘ ସ୍ନାନ ଆରମ୍ଭ ହେବାକୁ ଯାଉଛି । ଆଜି ହିଁ ପୁତ୍ରଦା ଏକାଦଶୀ ଯିଏ ଏହି ବ୍ରତ ପାଳନ କରିବ ତା’ର ପୁତ୍ର ହେବ ।


    ରାଜା କହିଲେ ହେ ବିଶ୍ୱେଦେବଗଣ ଯଦି ଆପଣମାନେ ମୋ ଉପରେ ପ୍ରସନ୍ନ ଅଛନ୍ତି ତ ମୋତେ ପୁତ୍ର ଦିଅନ୍ତୁ । ମୁନି କହିଲେ ରାଜନ୍ ଏହି ବ୍ରତ ବହୁତ ବିଖ୍ୟାତ I ଆଜିଠାରୁ ଏହିବ୍ରତ ପାଳନ କରନ୍ତୁ । ମହାରାଜ ଭଗବାନ୍ କେଶବଙ୍କ ଆଶୀର୍ବାଦରୁ ଆପଣଙ୍କୁ ପୁତ୍ର ଅବଶ୍ୟ ପ୍ରାପ୍ତ ହେବ । ଏହି ପ୍ରକାର ମୁନିଙ୍କ କହିବାନୁଯାୟୀ ରାଜା ଏହି ବ୍ରତକୁ ପାଳନ କରିବା ସହ ପୁତ୍ରଦା ଏକାଦଶୀ ଅନୁଷ୍ଠିତ କଲେ I ଦ୍ୱାଦଶରେ ସେ ନିଜ ବ୍ରତକୁ ଉଦ୍ ଯାପିତ କରି ମୁନିଙ୍କ ଚରଣ ସ୍ପର୍ଶ କରି ଘରକୁ ଫେରିଲେ । ସେହିଦିନ ରାଣୀ ଗର୍ଭଧାରଣ କଲେ । ରାଜାଙ୍କର ଏକ ତେଜସ୍ୱୀ ପୁତ୍ର ହେଲା ଯାହା ସମସ୍ତ ଗୁଣର ଅଧିକାରୀ ହେବା ସହ ପ୍ରଜାମାନଙ୍କର ପାଳକ ମଧ୍ୟ ହୋଇପାରିଥିଲେ । ଏହି ଦୃଷ୍ଟିରୁ ପୁତ୍ରଦା ଏକାଦଶୀ ବ୍ରତ ସମସ୍ତ ଏକାଦଶୀଠାରୁ ଅଧିକ ମହତ୍ତ୍ୱପୂର୍ଣ୍ଣ । ଏହି ବ୍ରତ ରଖିବାଦ୍ୱାରା ପୁତ୍ର ପ୍ରାପ୍ତ ହୁଏ ବୋଲି ଅନେକଙ୍କ ବିଶ୍ୱାସ ।


ll ଏକାଦଶୀ ମାହାତ୍ମ୍ୟ ll :- 


            ଯୁଧିଷ୍ଠିର କହିଲେ – ହେ କୃଷ୍ଣ ! ପୌଷ ମାସର ଶୁକ୍ଳପକ୍ଷ ଏକାଦଶୀର ନାମ କ'ଣ , ବିଧି ମଧ୍ୟ କ’ଣ , କେଉଁ ଦେବତା ଏ ଦିନରେ ପୂଜିତ ହୁଅନ୍ତି ଏବଂ ଆପଣ କାହା ପ୍ରତି ସନ୍ତୁଷ୍ଟ ହୋଇ ଉକ୍ତ ବ୍ରତ ଫଳ ପ୍ରଦାନ କରିଥଲେ , କୃପାପୂର୍ବକ ବିସ୍ତାରିତ ଭାବରେ ଆମ ନିକଟରେ ବର୍ଣ୍ଣନା କରନ୍ତୁ ।


       ଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣ କହିଲେ – ହେ ମହାରାଜ ! ଏହି ଏକାଦଶୀ ପୁତ୍ରଦା ନାମରେ ପ୍ରସିଦ୍ଧ । ପୂର୍ବ ଏକାଦଶୀର ବିଧି ଅନୁସାରେ ଏହା ପାଳନୀୟ । ଏହା ସର୍ବପାପବିନାଶିନୀ । କାମଦା ଓ ସିଦ୍ଧିଦାତା ନାରାୟଣ ଏହାର ଅଧିଷ୍ଠାତୃ ଦେବତା । ସଚରାଚର ତ୍ରିଲୋକ ମଧ୍ୟରେ ଏହା ସମ ବ୍ରତ ନାହିଁ । ବ୍ରତକାରୀକୁ ନାରାୟଣ ବିଦ୍ବାନ୍ ଓ ଯଶସ୍ବୀ କରିଥାନ୍ତି । ଭଦ୍ରାବତୀ ପୁରରେ ପୁରାକାଳରେ ସୁକେତୁମାନ ନାମକ ଏକ ଅପୁତ୍ରିକ ( ନିଃସନ୍ତାନ ) ରାଜା ଥିଲେ । ତାଙ୍କର ରାଣୀଙ୍କ ନାମ ଥିଲା ଚମ୍ପକା । ରାଜଦମ୍ପତି ଉଭୟେ ବେଶ୍ ସୁଖରେ କାଳ ଅତିବାହିତ କରୁଥିଲେ । ବଂଶରକ୍ଷାହେତୁ ବହୁଦିନ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ଧର୍ମକ୍ରିୟାଦି ଅନୁଷ୍ଠାନ କରି ମଧ୍ୟ ଯେତେବେଳେ ବିଫଳ ମନୋରଥ ହେଲେ , ସେତେବେଳେ ରାଜା ଅବା କ’ଣ କରିବେ ? କେଉଁଆଡ଼କୁ ଯିବେ ? ଏହି ଚିନ୍ତାରେ କାତର ହୋଇପଡ଼ିଲେ । ରାଜାଙ୍କର ପୂର୍ବପୁରୁଷଗଣ ତତ୍ କର୍ତ୍ତୃକ ପ୍ରଦତ୍ତ କରୋଷ୍ଣଜଳ ଅତି ଦୁଃଖର ସହିତ ଗ୍ରହଣ କଲେ । କାରଣ ସେମାନେ ଚିନ୍ତା କରୁଥିଲେ , ଏହାଙ୍କର ମୃତ୍ୟୁ ପରେ ଜଳପିଣ୍ଡ ପାଇବାର ଆଶା ନାହିଁ । ମିତ୍ର ଅମାତ୍ୟବର୍ଗାଦି ହସ୍ତୀ , ଅଶ୍ନ ,ପଦାତିକ ପ୍ରଭୃତି ଐଶ୍ଚର୍ଯ୍ୟ ସକଳ ଥିଲେ ମଧ୍ୟ ପୁତ୍ରହୀନ ରାଜାଙ୍କ ମନରେ ସୁଖ ନଥିଲା । ସେ ଭାବୁଥାନ୍ତି , ଅପୁତ୍ରିକର ଜନ୍ମ ବୃଥା ଓ ଗୃହଶୂନ୍ୟ । ପିତୃ , ଦେବ , ମନୁଷ୍ୟ ଲୋକଙ୍କ ନିକଟରେ ଯେଉଁ ଋଣତ୍ରୟ ଶାସ୍ତ୍ରରେ ଉଲ୍ଲେଖ ଅଛି , ତାହା ପୁତ୍ର ବ୍ୟତୀତ ପରିଶୋଧ ହୋଇପାରେ ନାହିଁ । ସେଥିପାଇଁ ମନୁଷ୍ୟ ମାତ୍ରେ ହିଁ ପୁତ୍ରୋତ୍ପାଦନରେ ସଚେଷ୍ଟ । ପୁତ୍ରବାନ୍ ଲୋକ ( ବ୍ୟକ୍ତିର ) ଏ ଜଗତରେ ଯଶ ଲାଭ ଏବଂ ଉତ୍ତମ ଗତି ପ୍ରାପ୍ତ ହୁଏ ଏବଂ ସେମାନଙ୍କର ଗୃହରେ ଆୟୁଷ , ଆରୋଗ୍ୟ , ସମ୍ପତ୍ତି ପ୍ରଭୃତି ବିଦ୍ୟମାନ ଥାଏ । 


         ଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣ ଯୁଧୁଷ୍ଠିର ମହାରାଜାଙ୍କୁ କହିଲେ – ହେ ରାଜା ! ଆମର ଏହା ନିଶ୍ଚିତ ଧାରଣା ଯେ , ପୁଣ୍ୟକର୍ମା ମନୁଷ୍ୟର ଗୃହରେ ହି ପୁତ୍ର ଜନ୍ମେ , ପୁଣ୍ୟ ବ୍ୟତୀତ ସୁପୁତ୍ର ଓ ସମ୍ପତ୍ତି ହୁଏ ନାହିଁ । ରାଜା ନାନା ଦୁଶ୍ଚିନ୍ତାଗ୍ରସ୍ତ ହୋଇ ଆତ୍ମହତ୍ୟା କରିବେ ବୋଲି ସ୍ଥିର କଲେ । କିନ୍ତୁ ପରେ ମନରେ ବିଚାର କରି ଭାବିଲେ , “ ଆତ୍ମହତ୍ୟା ମହାପାପ , ଏହାଦ୍ବାରା ଦେହ ପତିତ ହେବ ପଛେ , କିନ୍ତୁ ମୋର ପୁତ୍ରହୀନତା ତ ଦୂରୀଭୂତ ହେବନାହିଁ । ଏହାପରେ ଦିନେ ଅଶ୍ବାରୋହଣରେ ରାଜା ନିବିଡ଼ ବନ ମଧ୍ୟକୁ ଗମନ କଲେ । ମୃଗ - ପକ୍ଷୀ ଆଦି ବାସ କରୁଥିବା ଗଭୀର ବନମଧ୍ୟରେ ପ୍ରାକୃତିକ ଶୋଭା ଦର୍ଶନ କରିବାକୁ ଲାଗିଲେ । କେଉଁଠାରେ ତ ବର , ଅଶ୍ୱତ୍ଥ  , ବେଲ , ତାଳ , ତମାଳ ପ୍ରଭୃତି ବୃକ୍ଷରାଜି ; କେଉଁଠାରେ ହସ୍ତିନୀସମୂହ ବେଷ୍ଟିତ ହସ୍ତୀଯୁଥ ଦର୍ଶନ କରି ରାଜା ସ୍ୱୟ ହସ୍ତୀଗଣଙ୍କ କଥା ଚିନ୍ତା କରିବାକୁ ଲାଗିଲେ । ଏହିପରିଭାବରେ ବନ ଭ୍ରମଣ କରି କରି ମଧ୍ୟାହ୍ନ ସମୟ ଉପସ୍ଥିତ ହେଲା । ସେତେବେଳେ ସେ କ୍ଷୁଧାତୃଷାରେ ଅତିଶୟ କାତର ହେଲେ । ଇତସ୍ତତଃ ଚତୁର୍ଦ୍ଦିଗରେ ଜଳାଦିର ସନ୍ଧାନ କରି ମଧ୍ୟ ଯେତେବେଳେ କିଛି ମିଳିଲା ନାହିଁ , ସେତେବେଳେ ଚିନ୍ତା କରୁଥିଲେ - ‘ ମୁଁ ଏପରି କିଛି ଦୁଷ୍କର୍ମ କରିଅଛି , ଯାହା ଫଳରେ ଏପ୍ରକାର କଷ୍ଟ ପାଉଛି । ମୁଁ ପୂଜା , ଯଜ୍ଞାଦିଦ୍ୱାରା ଦେବଗଣ ଓ ବ୍ରାହ୍ମଣଗଣଙ୍କୁ ସନ୍ତୁଷ୍ଟ କରିଅଛି ଏବଂ ପ୍ରଜାଗଣଙ୍କୁ ପୁତ୍ରବତ୍ ପାଳନ କରିଆସିଛି । " ଏପରି ଅବସ୍ଥାରେ କ’ଣ ପାଇଁ ଏହି ନିଦାରୁଣ ଦୁଃଖ ଭୋଗ କରୁଛି ? ଏହିପରି ଚିନ୍ତାଗ୍ରସ୍ତ ହୋଇ ଆଉ କିଛିଦୂର ଅଗ୍ରସର ହୋଇ ରାଜା ନିଜର ପୁଣ୍ୟ ପ୍ରଭାବରେ କାରଣ୍ଡବ ( ହଂସବିଶେଷ ) ; ଚକ୍ରବାକ ( ପ୍ରସିଦ୍ଧ - ପକ୍ଷୀ ) ରାଜହଂସ ଓ ମଗର , ବହୁବିଧ ମତ୍ସ୍ୟାଦି ପରିପୂର୍ଣ୍ଣ ଗୋଟିଏ ଅତି ଉତ୍ତମ ସରୋବର ଏବଂ ତାହାର ନିକଟରେ ମୁନିଗଣଙ୍କର ବହୁତ ଆଶ୍ରମ ଦର୍ଶନ କଲେ । ଏହାପରେ ରାଜା ଅଶ୍ରୁ ଅବତରଣ ପୂର୍ବକ ସରୋବର ତୀରରେ ବେଦପାଠରତ ମୁନି ବୃନ୍ଦଙ୍କର ଚରଣରେ ଦଣ୍ଡବତ ପ୍ରଣାମ ଅର୍ପଣ କଲେ । କୃତାଞ୍ଜଳିପୁଟରେ ପୁନଃ ପୁନଃ ଦଣ୍ଡବନ୍ମତ ରାଜାଙ୍କୁ ମୁନିଗଣ ଜିଜ୍ଞାସା କଲେ । “ ହେ ମହାରାଜ ! ଆମ୍ଭେମାନେ ଆପଣଙ୍କ ପ୍ରତି ପ୍ରସନ୍ନ ହୋଇଅଛୁ । ଆପଣଙ୍କର ପ୍ରାର୍ଥନା କ’ଣ କୁହନ୍ତୁ ? ” ରାଜା କହିଲେ , ଆପଣମାନେ କିଏ ଏବଂ କେଉଁଥିପାଇଁ ଏଠାରେ ସମବେତ ହୋଇଛନ୍ତି , ତାହା ବିସ୍ତାରିତ ଭାବରେ କୃପାପୂର୍ବକ ବର୍ଣ୍ଣନା କରନ୍ତୁ । ମୁନିଗଣ କହିଲେ – ହେ ମହାରାଜ ! ଆମ୍ଭେମାନେ ବିଶ୍ଵଦେବ ନାମକ ପ୍ରସିଦ୍ଧ ସ୍ନାନାର୍ଥ ଏହି ସରୋବରକୁ ଆଗମନ କରିଅଛୁ । ଆଜିଠାରୁ ପାଞ୍ଚଦିନ ପରେ ମାଘ ମାସ ଆରମ୍ଭ ହେବ । ଆଜି ପୁତ୍ରଦା ନାମକ ଏକାଦଶୀ ତିଥି।


    ମନୁଷ୍ୟଗଣଙ୍କୁ ପୁତ୍ରଦାନ କରେ ବୋଲି ଏହାର ନାମ ପୁତ୍ରଦା । ଏହା ଶୁଣି ରାଜା କହିଲେ , “ ହେ ମୁନିବୃନ୍ଦ ! ମୁଁ ଅପୁତ୍ରିକ , ପୁତ୍ରକାମନାରେ ଅଧୀର ହୋଇପଡ଼ିଛି । ଏହି ମୁହୁର୍ତ୍ତରେ ଆପଣମାନଙ୍କର ଦର୍ଶନରେ ମୋ ହୃଦୟରେ ଆଶା ସଞ୍ଚାର ହେଉଅଛି । ଏ ଦୁର୍ଭାଗ୍ୟ ପୁତ୍ରହୀନ ପ୍ରତି କୃପାପରବଶ ଗୋଟିଏ ପୁତ୍ର ପ୍ରଦାନ କରନ୍ତୁ । ମୁନିଗଣ କହିଲେ , – “ ହେ ମହାରାଜ ! ଆଜିହିଁ ସେହି ପୁତ୍ରଦା ଏକାଦଶୀ ତିଥି । ସୁତରାଂ ଏହିକ୍ଷଣି ଆପଣ ଏହି ବ୍ରତ ପାଳନ କରନ୍ତୁ । ତାହାପରେ ଆମ୍ଭମାନଙ୍କର ଅଭିଷେକ ଓ ଶ୍ରୀକେଶବଙ୍କର ଅନୁଗ୍ରହରୁ ଆପଣଙ୍କର ପୁତ୍ର ଲାଭ ହେବ । " ଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣ କହିଲେ – “ ଯୁଧିଷ୍ଠିର ! ମୁନିଗଣଙ୍କର ଏକଥା ଶ୍ରବଣ କରି ଯଥା ବିଧାନରେ କେବଳ ଫଳ , ମୂଳାଦି ଗ୍ରହଣରେ ସେହି ବ୍ରତ ଉଦ୍‌ଯାପନକଲେ ଏବଂ ଦ୍ଵାଦଶୀ ଦିନ ଶସ୍ୟାଦିଦ୍ୱାରା ପାରଣ ପୂର୍ବକ ମୁନିବୃନ୍ଦଙ୍କୁ ପ୍ରଣାମ କରି ଗୃହକୁ ପ୍ରତ୍ୟାବର୍ତ୍ତନ କଲେ । କିଛି ଦିନ ମଧ୍ୟରେ ରାଣୀ ଗର୍ଭଧାରଣ କଲେ । ପୁଣ୍ୟକର୍ମା ରାଜାଙ୍କର ଯଥା ସମୟରେ ଗୋଟିଏ ତେଜସ୍ବୀ ପୁତ୍ରଲାଭ ହେଲା । ହେ ମହାରାଜ ! ଏହି ବ୍ରତ ସମସ୍ତେ ପାଳନ କରିବା କର୍ତ୍ତବ୍ୟ । ଲୋକହିତ କାମନାରେ ତୁମ ନିକଟରେ ଏହା ବର୍ଣ୍ଣନା କଲି । ଏକାଗ୍ରଚିତ୍ତରେ ଯେଉଁମାନେ ଏହି ପୁତ୍ରଦା ଏକାଦଶୀବ୍ରତ ପାଳନ କରିବେ , ସେମାନେ ‘ ପୁତ୍ ’ ନାମକ ନର୍କରୁ ତ୍ରାଣ ଲାଭ କରି ମୃତ୍ୟୁ ପରେ ସ୍ବର୍ଗଗାମୀ ହେବେ । ଏହି ବ୍ରତକଥା ପଠନ ଓ ଶ୍ରବଣରେ ଅଗ୍ନି ଷ୍ଟାମ ଯଜ୍ଞର ଫଳ ବ୍ୟକ୍ତି ପ୍ରାପ୍ତ ହୋଇଥାଏ ।


#ଭଗବତକଥା 🙏🚩


एक खतरनाक साजिश की सच्चाई

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